इस्राइल व फिलिस्तीनियों में तनावपूर्ण शांति

फिलस्तीन पर भारत की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। जहां हम फिलिस्तीनी मुद्दे को पूरा समर्थन देते हैं, वहीं इस्राइल के साथ भी अच्छे संबंध बरकरार रखे हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारों के साथ देवेगौड़ा और गुजराल सरकार के कार्यकाल में भी ऐसी ही नीति रही।

लगभग सात सप्ताह तक चली खूनी जंग के बाद मिस्र की मध्यस्थता से फिलिस्तीनियों और इस्राइल के बीच समझौता हो गया। इस संघर्ष में 2,137 फिलिस्तीनी मारे गए और सात हजार से ज्यादा घायल हो गए। मृत इस्राइलियों की संख्या 68 रही।

इस्राइल और फिलिस्तीन का टकराव एक छोटे विराम के बाद बार-बार शुरू हो जाता है। दोनों लड़ते हैं, अमन की बात करते हैं, फिर लड़ते हैं। मामला इस कदर उलझ गया है कि फिलहाल स्थायी समाधान मुश्किल दिखता है।

इस्राइल के मुताबिक ताजा संघर्ष का कारण 12 जून को वेस्ट बैंक में तीन यहूदी किशोरों का अपहरण कर उनकी जघन्य हत्या कर दिया जाना था। इस्राइल ने इस हत्या के लिए फिलिस्तीनियों के उग्रवादी संगठन ‘हमास’ को जिम्मेदार ठहराया। इस्राइली सेना ने दंडात्मक कार्रवाई के बतौर ‘ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज’ की शुरुआत की। इस संघर्ष के दौरान इस्राइली सेना हमेशा यह तर्क देती रही कि उसका निशाना आंतकी ठिकाने ही होते हैं। पर ‘हमास’ सहित अरब दुनिया के तमाम देश इसे गाजा के निर्दोष लोगों के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई करार देते रहे। हमले इस्राइल और ‘हमास’ दोनों तरफ से होते रहे, लेकिन अंतर यह था कि इस्राइल के पास रक्षात्मक शक्ति और सुरक्षा प्रौद्योगिकी ‘हमास’ से कई गुना अधिक है इसलिए वह अपने नागरिकों और संस्थानों की रक्षा करने में सफल होता रहा। उदाहरण के तौर पर इस्राइल के पास ‘इरोन डोम मिसाइल डिफेंस’ सिस्टम होने के कारण हमास की तरफ से इस्राइल की ओर दागे जाने वाले रॉकेटों को वह बीच में ही नष्ट कर देता था। ‘हमास’ के पास ऐसी कोई क्षमता नहीं थी इसलिए उसे कई गुना ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा।

दरअसल फिलिस्तीन की समस्या काफी पुरानी है। इतिहास गवाह है कि हिटलर ने यहूदियों को सख्त यातनाएं दीं। उसने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। परेशान यहूदियों को एक ऐसी जगह की तलाश थी, जो धार्मिक- ऐतिहासिक रूप से उनकी पहचान बन सके और यरूशलम उनको सबसे उपयुक्त स्थान नजर आया। हालांकि यरुशलम यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों तीनों के लिए धार्मिक-ऐतिहासिक तौर पर महत्वपूर्ण है। मगर उस समय वहां अरबी मुसलमानों की आबादी ही ज्यादा थी। बहरहाल यहूदियों ने इसके आसपास की जमीनें खरीदकर वहां बसना शुरू कर दिया। जब यहां उनकी अच्छी-खासी आबादी बस गई तो 1948 में उन्होंने अपनी खुदमुख्तार ‘हुकूमत’ की घोषणा कर दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रयास के बाद फिलिस्तीन का बंटवारा करके इस्राइल की स्थापना की गई, मगर अरब देशों ने इस्राइल के अस्तित्व को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। फिलिस्तीनियों की ओर से इस्राइल का विरोध होने पर गृह युद्ध छिड़ गया। इस्राइल और फिलिस्तीनियों के बीच दशकों से चली आ रही लड़ाई में अब तक 10 लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं तथा 20 लाख से अधिक फिलिस्तीनी दूसरे मुल्कों में पनाह लेने के लिए मजबूर हुए।

दरअसल फिलिस्तीन की समस्या की जड़ें हजारों साल पुरानी हैं, जो यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म की उत्पति से जुड़ी हैं। 19वीं शताब्दी के अंत में यह समस्या और प्रखर हो गई, जब अरब राष्ट्रवाद के मुकाबले यहूदी राष्ट्रवाद खड़ा किया गया। यह समस्या, अरब और पश्चिमी जगत के सामरिक हितों के कारण जटिल होती चली गई। संयुक्त राष्ट्र संघ में जब फिलिस्तीन के बंटवारे का प्रस्ताव पारित हुआ तो तमाम अरब देशों ने उसका विरोध किया। मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और इराक ने तो बाकायदा इस्राइल पर हमला बोल दिया। इसके बाद तो युद्धों, आतंकी हमलों, संधियों, कूटनीतियों का जो सिलसिला शुरु हुआ वह आज तक जारी है। यह विवाद अरबों, यहूदियों, यूरोप और संयुक्त राष्ट्र के बीच एक पेचीदा मुद्दा बना हुआ है।

फिलीस्तीन को इस्राइल से आजाद कराने के लिए पैलेस्टाइन लिबरेशन आर्गनाइजेशन (पीएलओ) की स्थापना 1964 में यासर अराफात ने की थी। 1974 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन को स्थायी प्रेक्षक का दर्जा दिया। 1976 में फिलिस्तीन अरब लीग का नियमित सदस्य बना। भारत सहित दुनिया के 80 देशों ने उसे मान्यता दे रखी है। फिलिस्तीनियों की मांग है कि वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में उनका होमलैंड बने तथा यरूशलम उसकी राजधानी हो।

1967 के अरब-इस्राइल युद्ध में वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर इस्राइल ने कब्जा कर लिया था। 1993 में पीएलओ और इस्राइल के बीच ओस्लो में संपन्न समझौते के मुताबिक वेस्ट बैंक और गाजा के फिलिस्तीनी इलाकों के प्रशासन के लिए पैलिस्टिनियन नेशल अथॉरिटी’ (पीएनए) का गठन किया गया। सन् 2005 में इस्राइल ने गाजा से अपनी सेना तथा यहूदी बस्तियों को हटा लिया। फिलिस्तीनियों की पहली सरकार निर्वाचित हुई। अल फतह को वेस्ट बैंक में तथा हमास को गाजा पट्टी में जीत हासिल हुई। हमास एक कट्टरपंथी फिलिस्तीनी संगठन है। अरबी में हमास का अर्थ होता है ‘प्रतिरोध आंदोलन’। इसकी स्थापना 1987 में हुई थी। खालेद मेशाल ‘हमास’ के सर्वोच्च नेता हैं। वे कतर में निर्वासित हैं। हमास के पास लगभग 20 हजार लड़ाके हैं। यह संगठन दुनिया के नक्शे से इस्राइल को मिटा देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता घोषित करता है। इस्राइल, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, कनाडा, जापान आदि देश हमास को आतंकवादी संगठन मानते हैं।

गाजा पट्टी में चुनावी जीत के बाद ‘हमास’ अल फतह को गाजा से खदेड़ने में सफल रहा। इस तरह हमास गाजा का सत्तारूढ़ दल बन गया। पर इस्राइल हमास को गाजा के सत्तारूढ़ दल के तौर पर स्वीकारने को कतई तैयार नहीं था। 2007 में इस्राइल ने गाजा पट्टी के पूरे इलाके के जल, थल और वायु सीमा की नाकेबंदी कर दी। यूरोपीयन यूनियन और अमेरिका ने भी गाजा पर कई प्रतिबंध लगा दिए। गाजा पट्टी का कुल क्षेत्रफल 140 वर्ग मील है तथा कुल आबादी लगभग 20 लाख है। इसमें 15 लाख फिलस्तीनी शरणार्थियों की आबादी है। इस्राइली सेना अब तक गाजा पट्टी पर 2009, 2012 और 2014 में तीन बड़ी सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम दे चुकी है। दो फिलिस्तीनी गुटों अल फतह और हमास के बीच आपसी संघर्ष से फिलिस्तीनी आंदोलन कमजोर पड़ रहा था। इस वर्ष अप्रैल में सऊदी अरब और कतर के सतत प्रयासों से अल-फतह और ‘हमास’ में समझौता हो गया। दोनों संगठनों ने मिलकर यूनिटी सरकार गठित की। इस्राइल इस यूनिटी सरकार का धुर विरोधी है। पैलेस्टाइन अथॉरिटी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी दबावों को दरकिनार करते हुए यूनिटी सरकार कायम रखा है। फिलिस्तीनियों की इस एकता से इस्राइल और पश्चिमी देशों में नाराजगी और गुस्सा बढ़ गया है। इसी बीच तीन यहूदी किशोरों के अपहरण और उनकी हत्या की घटना हो गई। इसका अंजाम इस्राइल और हमास में खूनी जंग के रुप मे सामने आया।

भारत ने पारंपरिक तौर से सदैव फिलिस्तीनियों की आजादी का समर्थन किया है। 1938 में महात्मा गांधी ने लिखा था- ‘जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है, उसी तरह फिलिस्तीन अरबों का है।’ भारत अपनी इस नीति पर आज भी दृढ़ता से कायम है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में अपने बयान में स्पष्ट किया- ‘फिलस्तीन पर भारत की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। जहां हम फिलिस्तीनी मुद्दे को पूरा समर्थन देते हैं, वहीं इस्राइल के साथ भी अच्छे संबंध बरकरार रखे हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारों के साथ देवेगौड़ा और गुजराल सरकार के कार्यकाल में भी ऐसी ही नीति रही।’

इस्राइली सैन्य कार्रवाइयों के कारण फिलिस्तीनियों का जीवन शरणार्थियों की स्थिति से ज्यादा बेहतर नहीं है और न ही वे अपने आपको सुरक्षित महसूस कर पा रहे हैं। दूसरी तरफ फिलिस्तीनियों की छापामार गतिविधियों के कारण सीमावर्ती इलाकों में इस्राइली भी खुद को असुरक्षित पाते हैं। इस्राइल को इस बात का अहसास होना चाहिए कि दीर्घ अवधि में सैन्य कार्रवाई उसके नागरिकों के हित में नहीं होगी। इससे हमास जैसी कट्टरपंथी ताकतों को ही मजबूती मिलेगी। 1967 की सरहदों पर आधारित ‘टू स्टेट सोल्यूशन’ का सिद्धांत अरबों और इस्राइलियों दोनों को मानना चाहिए। यह सिद्धांत इस्राइल के वैधानिक वजूद को मान्यता देने के साथ-साथ फिलिस्तीनियों की अस्मिता को भी संरक्षित करता है।
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