भारत के बाहर का संघानुभव


…मोदीजी की प्रतिमा बहुत ऊंची है। इस सत्य को सामने रखते समय एक और सत्य सामने लाना आवश्यक हो जाता है कि इन सभी के पीछे संघ की, विचारों की, विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करनेवाले संगठनों की, जनसंघ के रूप में राजनीतिक दल की और पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की यात्रा की ताकत है।

20 सितंबर से 20 अक्टूबर की अवधि में लगभग एक महीना मैं विदेश यात्रा पर था। पंद्रह दिन अमेरिका और पंद्रह दिन कनाडा यह योजना थी।

विदेशों में रहनेवाले भारतीय अपनी मातृभूमि के प्रति सचेत रहते हैं। अपने देश में क्या-क्या हो रहा है, इस पर नजर रखते हैं। साथ ही विभिन्न प्रकार का योगदान भी देते हैं। संघ माध्यम से बारम्बार इसकी अनुभूति मिलती है।

वर्तमान परिस्थिति में भारत में जो परिवर्तन हुआ है, उस परिवर्तन को लेकर सभी के ही मन में विलक्षण आत्मीयता थी। विदेशों में हुई बैठकों में कई बार वैयक्तिक स्तर पर प्रश्नोत्तर हुए। भाजपा का राज आया, मोदी जी की विजय हुई। केवल देश में ही नहीं, बाहर विदेशों में भी उनकी बड़ी भव्य प्रतिमा निर्माण हुई। सभी के लिए यह बड़े आनंद का, गर्व का विषय था। जिनसे भी मुलाकातें हुईं, उनमें से कोई भी भारतीय ऐसा नहीं था, कि जिसने इससे भिन्न कुछ भावनाएं व्यक्त की हों।

स्वाभाविक ही इन सारी बातों का उल्लेख करते समय यह ध्यान में आता है कि मोदीजी की प्रतिमा बहुत ऊंची है। वह प्रत्यक्ष रूप से भी है और उतना ही उसका प्रचार भी किया गया था। इस सत्य को सामने रखते समय एक और सत्य सामने लाना आवश्यक हो जाता है कि इन सभी के पीछे संघ की, विचारों की, विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करनेवाले संगठनों की, जनसंघ के रूप में राजनीतिक दल की और पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की यात्रा की ताकत है। मैं विदेशों इस बात का उल्लेख जरूर करता था कि मोदीजी ने लोकसभा में अपने पहले ही भाषण में जो कुछ कहा, उसमें केवल अलंकारिकता नहीं थी। पांच पीढ़ियों ने इस हेतु बहुत सारे कष्ट उठाए हैं, तब जाकर संघ कार्य के विभिन्न रूप इसके पूरक बने। यह सब सुनने के लिए सभी उत्सुक थे। इतना ही नहीं, आनंदित भी दिखाई देते थे। सबकुछ सुनने पर लोगों ने केवल आश्चर्य ही प्रकट नहीं किया, बल्कि बड़े गर्व से अपनी धारणा व्यक्त की, कि संघ ने इन सभी विषयों में निश्चित रूप में उचित मार्गदर्शन किया।

जिस अवधि में नरेंद्रभाई का अमेरिका में प्रवास होनेवाला था, सौभाग्य से उसी अवधि में, उस क्षेत्र में मैं भी था। एक सप्ताह पहले बोस्टन के नजदीक की एक संघशाखा के अधिकारी और कार्यकर्ताओं के साथ एक बैठक हुई। उस बैठक में मॅडिसन स्क्वेअर में होनेवाली सभा के बारे में उन्होंने मुझे जानकारी दी।

सिर्फ गुजरात में ही नहीं वरन अलग-अलग प्रांतों में, विदेश के स्थायी निवासियों ने चाहे एन.आर.आय. हों या कोई और उन्होंने पंद्रह दिन या पूरा महीना छुट्टी लेकर अपनी-अपनी जगह भारतीय जनता पार्टी का काम किया। धन देना, बाहर से समर्थ देना सामान्य है परंतु उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था सही समय पर खुद सहयोग करना, जो कि वहां दिखाई दिया। मॅडिसन स्क्वेअर के समारोह की योजना काफी सराहनीय तथा व्यापक थी।

मॅडिसन स्क्वेअर के कार्यक्रम के लिए पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) करना आवश्यक था। अमेरिका में किसी भी बड़े मैदान पर कितनी भी बड़ी संख्या में एकत्रित होना वहां की व्यवस्था में शामिल नहीं होता। मॅडिसन स्क्वेअर की आसन क्षमता अठारह हजार की है। उससे ज्यादा संख्या में सभा में लोगों के आने को अनुमति नहीं थी। नियत आसनों के अलावा लोगों के खड़े रहने-बैठने आदि की भी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी। फिर भी अतिरिक्त आसनों को जोड़कर बीस हजार की संख्या के लिए वहां पंजीकरण हुआ था। उसके लिए शुल्क लिया गया था और कार्यक्रम के लगभग 10-15 दिन पूर्व ही यह पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) बंद हुआ था। दो गुना, तीन गुना, दस गुना शुल्क देने पर भी अतिरिक्त पंजीकरण नहीं किए गए॥

मोदीजी के इस कार्यक्रम को सफल बनाने में स्वाभाविक रूप से संघ तथा संघ संबंधित संस्थाओं से काफी सहायता मिली। वहां संघ कार्यकर्ताओं को पहचानना आसान नहीं है। वहां जो लोग संघ का काम करते हैं, वे ही दूसरी संस्थाओं के लिए भी काम करते हैं। साथ ही उनके स्वयं के व्यवसाय भी होते हैं।

कनाडा में ‘सेवा कनाडा इंटरनेशनल’ नामक संस्था एक खास विषय को लेकर काम करती है, लेकिन संघ के वहां के सभी पदाधिकारी इस संस्था के लिए काम करते हैं। वहां मूलत: ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नहीं है। वह ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’ है। प्रार्थना कुछ भिन्न है, रचना भी कुछ अलग है। फिर भी बड़ी ही सहजता से वे सभी उसमें जुट गए थे, इसमें कोई संदेह नहीं।

यह विषय बड़ा ही संतोषदायी है कि नरेन्द्रभाई ने अमेरिका जैसे सर्वशक्तिमान देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया है। मेरे मतानुसार इसके बीज काफी पहले बोए गए थे। कनाडा में टोरांटो के निवास के दौरान जगदीशजी शास्त्री नामक 94 वर्ष के ज्येष्ठ स्वयंसेवक के साथ मेरी दो बार मुलाकात हुई। संघ के विदेश विभाग का बीज बोनेवाले कार्यकर्ताओं में से वे एक हैं। भारत की सीमाओं के बाहर जगदीशजी शास्त्री के प्रयासों से ही पहली बार संघ की प्रार्थना कही गई। सन 1945-46 में वे कारोबार करने अफ्रीका के लिए रवाना हुए और अब कनाडा के स्थायी निवासी बन गए हैं। आज 94 वर्ष की आयु में भी उनका उत्साह देखने लायक है।

सन 2004-05 में संपन्न हुए विश्व संघ शिविर के शिविराधिकारी का उत्तरदायित्व मैंने निभाया था, अत: इन सभी स्वयंसेवकों से मेरा परिचय पुराना था। विश्व संघ शिविर का वातावरण कैसा होता है, यह मैंने उस वक्त अनुभव किया था। अत: जगदीशजी शास्त्री की भावनाओं को मैं भलीभांति समझ सका। इस ढंग से काम करनेवाले कई स्वयंसेवक वहां हैं। टोरांटो महानगर में 6 शाखाएं नियमित रूप से चलती हैं। परिस्थिति के अनुरूप ये शाखाएं शनिवार-रविवार के दिन लगती हैं और उनका रूप ‘परिवार शाखा’ का होता है।

संयोगवश मेरी उपस्थिति में ही वहां का विजयादशमी उत्सव संपन्न हुआ। वहां के गणवेश में बड़े ही अच्छे ढंग से लगभग 400 स्वयंसेवक उपस्थित थे। आश्चर्यजनक बात यह कि इस उत्सव में अपनी तारुण्यावस्था में जो स्वयंसेवक बने थे ऐसे 70-80 वर्ष के स्वयंसेवक भी थे। साथ ही साथ बीस पचीस वर्ष वे स्वयंसेवक भी थे जो उसी देश में जन्मे परंतु जिन्होंने संघ स्वयंसेवक के रूप में संस्कार ग्रहण किए। इन युवकों की संख्या लगभग डेढ सौ से दो सौ के आसपास थी।

वहां ऐसे कई छोटे-बड़े समूह निर्माण हुए जो स्वप्रेरणा से कार्य करते हैं। टोरंटो में मेरा ‘सेवा कनाडा इंटरनेशनल’ के साथ परिचय हुआ। वहां के निवासी कुछ स्वयंसेवकों ने इस संस्था की स्थापना की है। जैसा कि आरंभ में मैंने कहा कि इन सभी लोगों के मन भारत के साथ जुड़े हुए होते हैं। अपने-अपने प्रांतों में तो वे काम करते ही हैं, लेकिन जहां किसी तरह के कोई संबंध न हो, वहां की आवश्यकता देखकर, वहां के काम का बड़ा दायित्व भी ये लोग उठाते हैं। सुरेंदरजी सेवा इंटरनेशनल के प्रमुख हैं। उनके साथ मैंने एक दिन बिताया। वे पूर्वांचल के लिए बड़े पैमाने पर धन एकत्र करते हैं। वैसे तो पूर्वांचल से उनका कुछ संबंध नहीं है, परंतु उन्होंने उसके बारे में कुछ सुना, और एक बार प्रवास के दौरान स्वयं कुछ देखा तो तय किया कि ‘सेवा कनाडा इंटरनेशनल’ के माध्यम से बड़े पैमाने पर निधि एकत्र कर पूर्वांचल के प्रदेशों में छात्रावास खोलें, वहां हो रहे धर्मान्तरण को रोकें, उसी के साथ शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु विभिन्न उपक्रम करें। मेरे वहां के निवास के आखिरी दिन एक मेरेथॉन वहां आयोजित की गयी थी। इस मेरेथॉन के दरमियान वे निधि एकत्र करते हैं। अभी तक लगभग सत्तर लाख रुपये उन्होंने पूर्वाचल के विभिन्न कामों के लिए भेजे थे।

इस प्रकार लगभग एक महीने के कार्यक्रमों में जो कुछ भी संपर्क हो सका, उसके माध्यम से दोनों पक्षों को लाभ हुआ होगा, ऐसा मुझे लगता है। भारत की वर्तमान परिस्थिति, इन सभी विषयों की पार्श्वभूमि, संघ की इस संबंध में धारणा, आगे चलकर आनेवाली चुनौतियां, आदि सब कुछ एक आरंभ ही है, इसका यहां के लोगों को अहसास कराना और साथ ही वहां के बहुत से लोगों को कामों के लिए प्रवृत्त करना भी निश्चित रूप से संभव हो पाया।

अमेरिका ने नरेंद्र मोदीजी को वीजा देने से इनकार किया था लेकिन उन्हीं नरेंद्र मोदीजी के प्रधान मंत्री बनने पर बराक ओबामा उनका स्वागत करने के लिए उत्सुक हो गए। अमेरिकी सरकार का मजबूरी में ऐसा कुछ करना बिल्कुल संभव नहीं है। वे लोग व्यापारी हैं। अपने लिए जो भी लाभदायी होता है वे करते हैं। तभी तो इस विषय को लेकर वहां कहीं बहस होती ही नहीं, कि नरेन्द्र मोदी को वीजा देने से कभी इनकार किया गया था। भारतीय लोगों के मन में भी इसे लेकर किसी प्रकार का न्यूनगंड होने की संभावना नहीं है।
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