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विस्थापन का भीषण संकट

विस्थापन का भीषण संकट

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर २०१५, सामाजिक
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पिछले कुछ महीनों से कुछ विशेष प्रकार की खबरें हमारा ध्यान आकर्षित कर रहीं हैं। ऑस्ट्रिया में एक ट्रक में दम घुटने के कारण सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। हमारे मन में यह प्रश्न जरूर उठेगा कि एक ट्रक में सैकड़ों लोग कैसे हो सकते हैं। परंतु वास्तविकता यही है। शरणार्थियों को अवैध रूप से एक नाव से दूसरी नाव में सवार करते समय हुई भगदड में लगभग ९०० ट्यूनीशियाई और बांग्लादेशी लोगों की जान चली गई। इस तरह की कई खबरें लगातार हमें प्राप्त हो रही हैं और विशेष बात यह है कि इस प्रकार से हो रही दुर्घटनाओं में मृत्यु के आंकडों में लगातार वृद्धि हो रही है। शरणार्थी के रूप में नाव से यात्रा करने वाले सीरियाई नागरिक का पूरा परिवार नाव की दुर्घटना में काल के गाल में समा गया। उनमें से उनके दो वर्ष के बेटे आयलन का शव समुद्र किनारे पर प्राप्त हुआ। इस शव का छायाचित्र जल्द ही सारी दुनिया में वायरल हो गया। इस घटना के कारण पूरी दुनिया में एक प्रकार की बेचैनी छा गई है। इसके बाद विस्थापितों की समस्या पर सारी दुनिया में आक्रोश और जागृति भी आई है।

विस्थापित, शरणार्थी, माइग्रेशन इत्यादि के संदर्भ में प्रकाशित खबरों को पढ़ने के बाद डिस्कवरी चैनल पर प्रसारित होने वाले एक कार्यक्रम की याद आती है। कार्यक्रम का नाम है ‘द ग्रेट माइग्रेशन।’ कार्यक्रम की शुरुआत में ही ‘हे! लुक देयर’ की ध्वनि सुनाई देती है और टीवी पर धूल का बवंडर दिखाई देता है। ऐसा लगता है मानो लाखों की संख्या में सैनिक चढ़ाई कर रहे हों। सारा आसमान धूल के कारण काला दिखने लगता है। धीरे-धीरे धूल छंटती है और सामने जो दृश्य दिखाई देता है उसका शब्दों में वर्णन करना बहुत कठिन होता है। हजारों की संख्या में विल्डबिस्ट और झेब्रे ग्रुमटी नदी में उतरते दिखाई देते हैं। एक ओर वे स्वत: को नदी के जोरदार प्रवाह से बचाने का प्रयास करते हैं तो दूसरी ओर नदी के मगरमच्छों से बचने का भी प्रयास करते हैं। इस संघर्ष यात्रा में सैकडों प्राणी अपनी जान गंवा देते हैं। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि विस्थापन, शरणार्थी या माइग्रेशन अत्यंत जानलेवा होता है फिर चाहे वह इंसानों के संदर्भ में हो या जानवरों के संदर्भ में। पिछले कुछ महीनों में घटी इंसानों के विस्थापन की घटनाएं प्राणियों से कुछ अलग नहीं थीं।

फिलहाल यूरोप एक भयानक समस्या से जूझ रहा है। अफ्रीका, अरब और पश्चिम एशिया के अस्थिर वातावरण के कारण लाखों लोग समृद्ध यूरोपीय देशों में स्थलांतर कर रहे हैं। इन देशों के गृहयुद्ध, तानाशाही, गरीबी, बेरजिगारी और अन्य समस्याओं के कारण वे अपने जन्मस्थान से पलायन करने के लिए मजबूर हैं। बेहतर जीवन की एक आशा पर वे अपनी जान जोखिम में डालकर समुद्री या भूमार्ग से यूरोप में पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। इन प्रयत्नों में ही अनेक लोगों ने अपने प्राण गंवाए हैं। इन समस्याग्रस्तों के समूह ने यूरोपीय देशों को चिंता में डाल दिया है। अधिकतर यूरोपीय देश यह तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि इस समस्या से कैसे निबटा जाए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की रिपोर्ट के अनुसार, सारी दुनिया में अलग-अलग स्थानों पर निर्मित युद्धजन्य परिस्थिति और संघर्ष के कारण विस्थापित हुए लोगों की संख्या ५ करोड़ से भी अधिक है। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें आधे से अधिक संख्या बालकों की है। २०१३ के अंत में विस्थापित लोगों की संख्या ६ करोड़ बढ़ गई है। यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद की सब से बड़ी संख्या है। अपना देश छोड़ कर विस्थापित होने के कई कारण हैं जैसे अकाल, खाने-पीने और रोजगार की सुविधा न मिलना, विकास की परियोजनाएं न होना इत्यादि। विस्थापन का सब से मुख्य कारण है उन देशों में आंतरिक अशांति, जिसके निराकरण की आशा दूर तक दिखाई नहीं देती। अभी अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया के सीरिया और इराक, अफ्रीका के केन्या, नाइजीरिया, सूडान, सोमालिया और अन्य छोटे-छोटे देश तथा यूरोप के यूक्रेन तथा लैटिन अमेरिका के भी कुछ देश इसी स्थिति में मार्गक्रमण कर रहे हैं। कुछ साल पहले तक इन देशों में आंतरिक और परस्पर संघर्ष मिटाने की व्यवस्था थी, परंतु अब वह व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। छोटे-छोटे संघर्ष देखते-देखते बड़ी लड़ाइयों का स्वरूप ले रहे हैं। किसी एक बिंदु पर आकर समस्या समाप्त होने की बजाय लगातार भयानक स्वरूप धारण कर रही है। इसका सबसे बड़ा आघात सामान्य नागरिकों पर हो रहा है।

अगस्त माह में सीरिया के गृहयुद्ध को ४ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। बसर अल असद के जुल्मी शासन से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से प्रारंभ हुआ यह गृहयुद्ध अपने लक्ष्य से भटक गया और वैश्विक आतंकवाद का केन्द्र बन गया। इसने अरब राष्ट्रों सहित एशिया में भी नए सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक संकट निर्माण कर दिए हैं। सीरिया में मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन और आंतिरिक असुरक्षितता के कारण कई लोग देश से पलायन कर रहे हैं। २०११ में शुरू हुए सीरिया के गृह युद्ध के कारण सीरिया की एक तिहाई जनता ने वहां से पलायन किया है, लगभग एक लाख लोग पलायन करते समय मौत के मुंह में चले गए हैं, प्रति दिन लगभग सात से आठ हजार लोग अपने घर से पलायन करने को विवश हैं।

आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी समस्या कोई है तो वह है स्थलांतर की और उनसे निर्माण होने वाली समस्याओं की। मानव का सम्पूर्ण इतिहास ही स्थलांतर पर आधारित है। पृथ्वी पर मानव के जन्म लेने के काल से अब तक यह जारी है। आज कोई यह नहीं जानता कि पहला मानव कहां जन्मा और और उसके वंशज कहां हैं। स्थलांतर अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कारणों से हुआ है। कभी-कभी इंसानों का एक बड़ा समूह अन्न और पानी के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में स्थलांतर करता है, कभी रोजगार की तलाश में स्थलांतर किया जाता है, तो कभी-कभी आतंकवादी कार्रवाइयों के कारण लोग किसी दूसरे देश में स्थलांतर करते हैं। आदर्श समाज व्यवस्था में ऐसा कहा जाता है कि जिस इंसान का जन्म जहां हुआ है उसे वहीं सबकुछ प्राप्त हो। उसकी मृत्यु भी उसी मिट्टी में हो। यह भले ही आदर्श स्थिति हो परंतु मानव स्वयं को कभी भी एक ही स्थान पर बांधे नहीं रख सकता। स्थलांतर की प्रक्रिया में एक बात हमारे ध्यान में आती है कि स्थलांतर हमेशा गरीब और समस्याग्रस्त क्षेत्र से विकास के अवसर वाले क्षेत्र की ओर होता है। बिहार और उत्तर प्रदेश से होने वाले स्थलांतरों का सब से बड़ा कारण पेट की भूख मिटाना और अपने काम का उचित मूल्य प्राप्त करना होता है। विस्थापन का कारण कई बार राजनीतिक भी होता है। १४ अगस्त, १९४७ की उस कहर ढाने वाली अर्धरात्रि को सिंध प्रांत के हिंदुओं की जन्मभूमि ‘सिंध’ को उनसे काट कर, छीन कर पाकिस्तान के सुपुर्द कर दिया। सिंधियों को अपनी मिट्टी, अपनी धरती, अपनी जड़ से उखाड़ दिया गया। विभाजन का इससे बड़ा अभिशाप और कौनसा हो सकता है कि बंगालियों को कम से कम आधा बंगाल प्राप्त हुआ, पंजाबियों को आधा पंजाब; किंतु सिंध के हिंदुओं की झोली मे ‘मातृभूमि से निष्कासन’ का उपहार डाला गया। परिणाम स्वरूप सिंध के हिंदू सोना उगाने वाले हरेभरे खेत-खलियान, पुरखों की

उत्कट धरोहर, महान मोहन-जो-दड़ो की गौरवमयी पुण्यभूमि त्याग कर भारत के दूर-दराज प्रांत, नगरों व कस्बों में बिखर गए। अपनी मातृभूमि त्याग कर सिंध के हिंदुओं को भारत की आजादी की कीमत चुकानी पड़ी। यह कटु सत्य है। सिंध प्रांत भारत का एक महत्वपूर्ण और गौरवमय अंग था। एक सियासी बंटवारे से सिंध के हिंदुओं के समुदाय, भाषा, साहित्य और संस्कृति का भी विभाजन हो गया। जो सिंध के हिंदू सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान में) में रहे, उनके पास भूमि तो रही किन्तु उसका अधिकार नहींे रहा। सिंध के जो हिंदू भारत में बस गए उन्हें अधिकार तो मिला किन्तुे भूमि नहीं मिली। भारत का विभाजन विश्व के इतिहास की प्रमुख घटना हो या न हो; पर सिंधी समाज के जीवन में घटित एक अत्यंत अहम और दर्दनाक घटना है। सिंधियों को ‘शरणार्थी’ शब्द पर घोर अपमान महसूस होता है। वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति, अपने ही देश में शरणार्थी कैसे हो सकता है? १९४७ का विभाजन भारत के लिए आजादी हो सकती है; लेकिन सिंध के हिंदुओें को मिला है विभाजित भारत और इसके साथ उनका सब कुछ पाकिस्तान में छूट गया है। भारत के विभाजन के समय हुआ दर्दनाक विस्थापन या कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का विस्थापन इसका उदाहरण है। तत्कालीन केंद्र व राज्य सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण १९ जनवरी १९९० को कश्मीरी हिंदुओं को अपने ही घर से बेदखल होना पड़ा। कश्मीर के हिंदुओं की सभ्यता व संस्कृति लगभग ५ हजार वर्ष पुरानी है। १९८९ से ही पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों व अलगाववादियों ने कश्मीरी हिंदुओं को आतंकित करने के प्रयास जारी रखे। हिंदुओं पर अत्याचार हो रहे थे और सामान्य कश्मीरी मुसलमान यह पलायन शांतिपूर्वक देख रहा था। जब प्रशासन नामक कोई चीज ही नहीं बची थी, मुसलमान बनो, कश्मीर घाटी छोडो या मरो! यही विकल्प बचे थे, ऐसी स्थिति में हिंदू क्या करते? अंत में अपनी बहू-बेटियों की इज्जत बचाने और अपने वंश को बचाने के लिए हिंदुओं ने वहां से पलायन किया। इस घटना को २४ साल हो चुके हैं, फिर भी आज तक वे अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में जीवन बिता रहे हैं।

चीन के अन्याय और अत्याचार के कारण दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी। सन १९५१ से वे अपने लाखों अनुयायियों के साथ धर्मशाला क्षेत्र में रहते हैं। इन सभी के हिस्से में विस्थापित, लाचार और अनिश्चितता का जीवन आया है। स्वतंत्रता खोकर आज लगभग छ: दशक हो चुके हैं परंतु आज नहीं तो कल तिब्बत मुक्त होगा और स्वतंत्रता का सूरज उगेगा इस आशा पर तिब्बती लोग जी रहे हैं।

स्थलांरित लोग अपने गांव, अपने घर, अपने परिवार से दूर रहते हैं। उन स्थलांतरित व्यक्तियों या समाज पर इस स्थलांतर का बहुत बड़ा परिणाम होता है। यह परिणाम मानसिक भी होता है और सांस्कृतिक भी। स्थलांतर के कारण यह समाज केवल अपनी भाषा, परिवार से ही अलग नहीं होता बल्कि एक नए समाज में सहभागी होते समय उसे अत्यधिक दुख झेलने पड़ते हैं। दूसरी ओर स्थानीय लोगों के मनों में इन विस्थापितों के प्रति अत्यधिक आक्रोश होता है। इन भावनाओं से उत्पन्न संघर्ष दुनिया में विभिन्न स्वरूप में सामने आता है। फिर वह आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमले हों या मुंबई, नगालैंड में उत्तर भारतीयों के साथ हुई मारपीट हो।

यह सत्य है कि विश्व में विस्थापन के कारण अनेक समस्याओं का जन्म हुआ है परंतु विस्थापन के कारण ही समाज बहुरंगी तथा विविधतापूर्ण होता है। इसका बेहतरीन उदाहरण है दुनिया का सबसे विकसित देश अमेरिका। अमेरिका केवल विस्थापन के कारण ही अस्तित्व में आया है। यूरोप की जुल्मी राजसत्ता और धर्मसत्ता से डर कर भागे हुए लोगों ने अमेरिका के मूल निवासियों के विरोध में संघर्ष किया, उन्हें नष्ट किया और नया अमेरिका बसाया। अमेरिका को सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए इन विस्थापितों द्वारा की गई मेहनत और कष्ट उत्तरदायी हैं। आज भी वहां के राष्ट्रप्रमुख मानते हैं कि अगर दुनिया में अमेरिका को पहले क्रमांक पर रखना है तो अमेरिका की नीतियों में विस्थापितों के संदर्भ में स्पष्ट भूमिका रखनी होगी। वे कहते हैं ‘हमें उस दिन से डरना चाहिए जब अमेरिका में विस्थापितों की समस्या ही नहीं होगी, क्योंकि इसका अर्थ यह होगा कि कोई अमेरिका में आना नहीं चाहता।’

आज दुनिया के सभी विकसित देशों के लिए यह आवश्यक है कि विस्थापन के संदर्भ में एक ठोस नीति बनाई जाए। उनमें राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक दुष्चक्र का शिकार हुए लोगों को शरण देने का मुद्दा समाविष्ट होना चाहिए। अनेक कारणों से होने वाला स्थलांतर संकट ही है। इसने सभ्यता और विकास के तमाम दावों की पोल खोल दी है। हम कहते हैं कि दुनिया आधुनिकता और विकास की दिशा में आगे बढ़ रही है। परंतु इस मार्ग में ही ऐसे कुछ संकट निर्माण हुए हैं जिसके कारण समाज के एक बड़े वर्ग का जीवन ही उजड़ गया है। हम कौन हैं, किसके हैं, कहां के हैं और कहां आकर जी रहे हैं? ये प्रश्न विस्थापितों के लिए आध्यात्मिक नहीं होते। वे उन्हें प्रति दिन सताने वाले प्रश्न होते हैं। अगर दुनिया में आतंकवाद, आर्थिक असमानता, समृद्धि और दरिद्रता, सुख और दुख का असमान विभाजन रहा तो विस्थापन का प्रवाह निरंतर चलता रहेग

अमोल पेडणेकर

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