हिंदी भाषा का उपयोग-कुछ निजी अनुभव

हिंदी को काम में लाने के लिए जज्बा चाहिए, अपनत्व चाहिए। देश में विभिन्न सरकारी कार्यालयों में तैनात हिंदी अधिकारियों से इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं है। वे महज खानापूरी के लिए जाने जाते हैं।

प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर कुछ औपचारिकताओं का निर्वहन किया जाता है। साहित्यिक संस्थाओं, कॉलेजों, कंपनियोें, सरकारी कार्यालयों में भाषणबाजी होती है। वही घिसी-पिटी बातें दुहराई जाती हैं, तसवीरें खींची जाती हैं, और दूसरे ही दिन से फिर ‘वही रफ्तार बेढंगी जो पहले थी, सो अब भी है’ कहावत चरितार्थ होने लगती है।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सभी अहिंदी भाषी राष्ट्र नेताओं ने हिंदी को प्रोत्साहित किया जैसे गांधी, सुभाष यहां तक कि राजाजी ने भी। पर आजादी के मिलते ही कुछ लोगों को हिंदी खटकने लगी। मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने शासकीय कार्यो में हिंदी को स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनका आदेश था कि सभी दस्तावेजों की भाषा हिंदी या मराठी हो-और तो और उन्होने हिंदी में हस्ताक्षर करना सचिवों, अधिकारियों के लिए अनिवार्य कर दिया था। पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ने भी यही किया। तब श्री भगवतीचरण वर्मा, नागपुर में पं. मिश्र से इसी सिलसिले में मिले। मिश्र जी ने उनसे कहा कि, केंद्र शासन से कोई सहायता मिलने से रही। शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद से कोई आशा नहीं है। आप उत्तर प्रदेश, बिहार आदि के नेताओं से मिल कर चर्चा करें और मुझे बताएं, तो मैं देखता हूं कि क्या किया जा सकता है। ‘वर्मा जी लखनऊ गए तो किसी राजनेता ने उनके प्रस्ताव या योजना में रुचि नहीं ली। खिन्न होकर वे पुन: श्री मिश्र से मिले तो मिश्र जी ने कहा, ‘भगवती बाबू, आप सौभाग्यशाली हैं, कि राजनीति में नहीं हैं। हम तो मध्यप्रदेश में जो कुछ संभव है कर ही रहे हैं।’
अब अपने कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों की चर्चा करता हूं। 1959-62 के दौरान मैं सेंट्रल इंडिया फ्लोर मिल्स, भोपाल में सेल्स विभाग में था। गेहूं उत्पादों के अधिकांश व्यापारी हिंदी में पत्र लिखते थे, जिनके उत्तर अंग्रेजी में दिए जाते थे। मैंने कंपनी के मालिक श्री नरेंद्र विट्ठलदास से कहा कि आप हिंदी का टाइपराइटर खरीद लीजिए, तो हिंदी में आने वाले पत्रों का उत्तर हम हिंदी में देंगे। व्यापारियों को अच्छा लगेगा।’ नरेंद्र भाई ने पूछा, ‘हिंदी में टाइप कौन करेगा?’ मैंने कहा, ‘यह आप मुझ पर छोड़ दीजिये। मैं स्टाफ में से एकाध को तैयार कर लूंगा।’ दूसरे ही दिन हिंदी मशीन खरीद ली गई। एक सप्ताह के अंदर दो लोगों ने हिंदी टंकन सीख लिया- स्वयं मैंने भी। सभी व्यापारी प्रसन्न हो गए।
1977 से 1994 तक मैं गजरा गियर्स, देवास में पहले परचेज़ और बाद में प्रशासन विभाग में रहा। एक बार यूनाइटेड इंडिया इंशुरेंस कं. लि., मंडल क्र. 2 के मंडल प्रबंधक श्री कृष्णकुमार ने मुझे हिंदी दिवस पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। मैंने अपने संबोधन में कहा कि ‘यदि मेरी कंपनी आपसे हिंदी में पत्र व्यवहार करे, तो क्या आपको स्वीकार्य होगा?’ तमिल भाषी श्री कृष्ण कुमार सहर्ष तैयार हो गए, तो मैंने छोटे-मोटे पत्रों में हिंदी का प्रयोग करना शुरू कर दिया। मेरी कंपनी के प्रबंधन ने भी कोई आपत्ति नहीं की। गजरा गियर्स में ही मुख्य कार्यवाह श्री गांधी और एम. डी. श्री रमेश गजरा ने कंपनी की मासिक पत्रिका ‘गजरा समाचार’ का प्रकाशन प्रारंभ किया, और मुझे उसका संपादक नियुक्त किया। पत्रिका बहुत लोकप्रिय हुई, किंतु मेरे सेवानिवृत्त होने के बाद बंद हो गई, क्योंकि स्टाफ में कोई ऐसा नहीं था, जो अपने कार्यों के साथ-साथ पत्रिका के साथ भी न्याय कर पाता।

इंदौर के लुब्रिकेंट व्यवसायी श्री अजय खनूजा ने आटोमोबाइल्स पर एक मासिक पत्रिका ‘यांत्रिक वर्ल्ड’ निकाली। किसी ने उन्हें मेरा नाम सुझाया, तो वे मुझे तलाशते हुए आए और पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी। बहुत ही रोचक, आकर्षक, उपयोगी सामग्री से भरपूर पत्रिका मे पहले अंक का विमोचन 1 जनवरी 2000 को हुआ। किंतु 6 महीनों में ही श्री खनूजा का साहस जवाब दे गया, क्योंकि न तो विज्ञापन मिल रहे थे, और न ग्राहक संख्या बढ़ रही थी, अत: 30-40,000 रु. प्रति माह का घाटा हो रहा था। यद्यपि मैं केवल संपादक था, फिर भी मैंने विज्ञापनों हेतु प्रयत्न किया। राष्ट्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली के अभियंता श्री शर्मा ने मुझे आश्वस्त किया कि वे चंद महीनों के अंदर विज्ञापन और सामग्री देंगे, क्योंकि शासकीय उपक्रमों में हिंदी के प्रचार, प्रसार हेतु पृथक से बजट होता है जो प्राय: लैप्स हो जाता है। मेरा मुंबई जाना हुआ, जहां मैं इंडियन आइल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम तथा साधारण जीवन बीमा निगम के मुख्यालयों में उनके हिंदी अधिकारियों से मिला, उन्हें पत्रिका के कुछ अंक दिए और निवेदन किया कि वे विज्ञापन देकर पत्रिका की सहायता करें। अधिकारी बगलें झांकने लगे। मैंने पाया कि ये हिंदी अधिकारी अपने से वरिष्ठ महाप्रबंधकों आदि की चाटुकारिता करते, वर्ष में एक दिन केवल आत्म प्रचार के लिए हिंदी दिवस मनाने का ढोंग करते हैं, और कुछ नहीं। ऐसे में राशि लैप्स नहीं होगी तो और क्या होगा! इंदौर के एकं अरबपति कार डीलर से भी मैं मिला। उनके चेहरे पर भी हवाइयां उड़ने लगीं। मैंने कहा मैं आपसे कोई सहायता मांगने नहीं आया हूं। पत्रिका के 2-3 अंक छोड़ कर जाता हूं, अच्छे लगे तो विज्ञापन दीजियेगा, या सदस्य बन जाइयेगा। कोई जबर्जस्ती नहीं है। मेरे ऐसा कहने पर उनकी जान में जान आई।

अंत में मैं पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का उल्लेख करुंगा। वे तमिल भाषी हैं और अंग्रेजी का उन्हें ज्ञान है। परंतु वे राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले प्रशस्तिपत्रों, सम्मानों में हिंदी में हस्ताक्षर करते थे। अपने इंदौर का ही एक लड़का अमय लांभाते, नौसेना में कैप्टन था, अब वह महिंद्रा एण्ड महिंद्रा, के ट्रैक्टर डिविजन में जनरल मैनेजर है। उसे नौसेना में रहते विशिष्ट सेवा मैडल मिला था। मुंबई में मैंने अमय के घर पर उस प्रमाणपत्र को

केवल पैसों से किसी की सहायता करना ही दान नहीं है। किसी दुखिया के आंसू पोंछ देना, किसी को सांत्वना के दो शब्द बोल देना, किसी की पीठ थपथपा देना, भी दान के ही रूप हैं।

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