सरलता व स्नेहासिक्त मधुरता के प्रतीकः स्व.बल्लुजी

बल्लुजी आदर्श स्वयंसेवक के गुणों से सम्पन्न थे। जीवन भर एक अविचल, अविरल साधना करने वाला भारत-माता का साधक और महानायक हम सभी के नेत्रों में अश्रुओं का महासागर छोड़ विदा हो गया। उनका वाक्य आज भी कानों में गूंज रहा है- न हारा हूं, और न हारूंगा। और, ऐसे संन्यस्त लोग हारते भी कहां हैं!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुजरात प्रांत के व पश्चात् अखिल भारतीय स्तर पर सभी स्वयंसेवकों से परिचित स्व. लक्ष्मणराव ईनामदार (मा. वकील साहब) कहा करते थे कि, शब्दों में शक्ति होती है। किंतु कृति में जो प्रचंड सामर्थ्य होता है, उसके सामने शब्दों की शक्ति कुछ भी नहीं है। अपने निष्कलंक, निर्मल और निस्वार्थ कृति के आधार पर ही उन्होंने संघकार्य खड़ा है। इन्ही शब्दों के मूर्तस्वरूप, हम सभी कार्यकर्ताओं के सहज मित्र और आत्मीयता के सिंधु बल्लुजी 21 जुलाई 2015 को हम सब को छोड़ कर अनंत यात्रा पर चले गए। दुर्दम्य रोग से प्रतिकार करते हुए उनका पार्थिव शरीर अंतिम दिनों में स्वास्थ्य की ओर संकेत दे रहा था कि अचानक असह्य वेदना देने वाला समाचार हमारे विभाग कार्यवाह श्री विलास भागवतजी की ओर से मिला-बल्लुजी नहीं रहे। मन स्तब्ध हो गया; क्योंकि उसके पूर्व मेरे अन्य परम मित्र श्री प्रमोद पेठकर जी ने बताया था कि बल्लुजी का स्वास्थ्य शनैः शनैः ठीक हो रहा है और अचानक ही यह समाचार मिला।

जीवन क्षणभंगुर है यह सनातन सत्य है। एक न एक दिन हम सभी को यह संसार छोड़ कर जाना है यह ज्ञात होते हुए भी कुछ व्यक्तित्वों के बारे में यह सत्य स्वीकार करने के लिए मन तैयार नहीं होता। बल्लुजी ऐसे ही विशिष्ट व्यक्तियों में से थे। मेरे स्मरण में है, 1991 की प्रचारक बैठक समाप्त कर उस समय के हमारे विभाग प्रचारक श्री हरीशभाई रावल ने वडोदरा में हम सब कार्यकर्ताओं को सूचित किया कि मुंबई से श्री बलवंत सिंह जी नामक प्रचारक महानगर के लिए आनेवाले हैं। मैं उस समय वडोदरा के संघकार्य में था और संघ में महानगर स्तर की रचना अस्तित्व में थी जो कालांतर में कालबाह्य हो गई। मेरे ऊपर एक भाग का दायित्व था इस कारण अनेक बार बल्लुजी का घर आना होता था। मोबाइल तो छोडिए, उस समय लैंडलाइन दूरध्वनि भी बहुत कम लोगों के पास था। इसलिए छोटी-मोटी सूचनाओं के लिए भी कार्यकर्ताओं को बस, साइकिल, रिक्षा, चल कर या स्कूटर पर प्रवास करना पड़ता था। बल्लुजी इन सारे साधनों का उपयोग करते थे। पहले दिन से स्कूटर उपलब्ध होने के बावजूद बल्लुजी के साथ अधिकतर चल कर ही प्रवास किया हुआ याद है।

बल्लुजी पहली बार घर पर आए तब का प्रसंग है। प्रचारक के प्रति अत्यंत आदर भाव होने के कारण मैंने उनका परिचय घर के सभी से करवाते समय उनका नाम श्री बलवंत सिंह बताया। बल्लुजी ने उनकी निर्मल हास्यधारा में सभी से कहा, मैं आप सभी का बल्लु, केवल बल्लु कहिए। और बस उस दिन से वे हम सब कार्यकर्ताओं के, घर के सदस्यों के बल्लुजी हो गए।

संघ के प्रचारक आधुनिक काल के ॠषि ही हैं। परिव्राजक की तरह जीवन यापन करना और मात्र राष्ट्र व समाज के बारे में चिंतन करना यही उनकी तपस्या का सार है। दूर-सुदूर कहीं गिरि-कंदराओं में, समाज से अलिप्त रहकर आत्मिक उन्नति व मोक्ष के लिए तपश्चर्या करने वाले संन्यासियों के प्रति सम्मान तो होता है किंतु उच्च विद्याभूषित होकर, सभी सांसारिक सुखों के उपभोग की संभावना होते हुए संन्यस्त भाव से देश व समाज के लिए अपने जीवन को भारत माता के चरणों में समर्पित करने का निर्णय व निर्धार करनेवाले बल्लुजी जैसे अनेक प्रचारक तपस्वियों के जीवन को जब निकटता से देखने का अवसर मिलता है तो जीवन की धन्यता की अनुभूति होती है। ऐसी अनुभूति बल्लुजी के सान्निध्य में होती थी। हमारे एक अधिकारी ने कहा था, प्रचारक से पिता का संरक्षण, मां की ममता, बहन का स्नेह, भाई का सहयोग और मित्र का अपनापन मिलता है। बल्लुजी में इन सारे गुणों का समुच्चय था। कभी भी भारी, प्रेरक और साहित्यिक शब्दों का उपयोग न करते हुए भी उपरोक्त वर्णित विशेषताओं का व्यावहारिक रूप में दर्शन करना हो तो बल्लुजी की ओर देखते थे। जिस निस्पृहृ भाव से किसी विषय में प्रवेश कर और सहजता से बाहर निकलना कोई उनसे ही सीखे। बैठक में या बैठक के बाद की अनौपचारिक बातचीत में कभी कभी कार्यकर्ताओं में चर्चा उग्र स्वरूप धारण करती थी। बल्लुजी सारी चर्चा स्थितप्रज्ञ के भाव से सुनते थे। चर्चा के अंत में सब स्वाभाविक रूप से बल्लुजी के बोलने की बारी आती थी तो मानो सभी समस्याओं का समाधान निकल आता था। बल्लुजी कहते थे, विचार करते समय हमेशा संघ/संगठन को केन्द्र में रखना चाहिए। यह विचार उन्होंने केवल कहा ऐसा नहीं है, आजीवन उसमें श्रध्दा रखकर कार्य भी किया। वे स्वयंसेवकों से जो कहते थे उसका भाव यही हुआ करता था कि आचरण का प्रारंभ अपने आप से करना चाहिए-पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिंते नरन घनेरे।

वडोदरा के अनेक बाल, तरुण स्वयंसेवकों की स्मृति में वे सदैव बने रहेंगे क्योंकि बालकों के लिए विविधतापूर्ण कार्यक्रम लेना, उस संवेदनशील आयु में उनके हृदय में ध्येयवाद को अमिट रूप से अंकित करना, इन्हीं विषयों पर बल्लुजी ने अपना ध्यान केंद्रित किया था। एक अरुण बाल स्वयंसेवक की दसवीं की परीक्षा थी। घर के सभी उसे समझा कर थक गए कि सुबह जल्दी उठना चाहिए और पढाई करनी चाहिए। बल्लुजी को जब पता चला तो वे उसे मिलने गए और पूछा, क्या समस्या है? उस बाल स्वयंसेवक ने कहा, सुबह उठा नहीं जाता, अलार्म बजने पर भी, बल्लुजी ने पूछा, यदि मैं उठाने आऊं तो उठोगे, स्वयंसेवक ने हामी भर दी। फिर क्या थ, लगातार एक महीने तक बल्लुजी उस अरुण बाल को उठाने सुबह चार बजे लगभग 7-8 कि.मी. का प्रवास कर पहुंचते थे। वह संघमय परिवार ही था किंतु बल्लुजी के इस समर्पक, अथक प्रयास के कारण भावविभोर हो गया। आज वह अरुण बाल बडा होकर अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत हैं। बात दिखने में छोटी लगती है किंतु दूरगामी परिणाम का सर्जन करने में बहुत सहायक होती है।

रात को देरी से सोने के पश्चात् भी बल्लुजी प्रातः 5 बजे उठ ही जाते थे। एक बार मैंने उन्हें भगवत्गीता का एक श्लोक सुनाया-

या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जाग्रति संयमी,
यस्या जाग्रति भूतानी, सा निशा पश्यतो मुनैः।

(जब सम्पूर्ण जग सो जाता है तो संयमी जागता है और जब सारा जग जागता है तो संयमी (मुनि) उसे रात समझकरी सो जाता है)। मेरी इस बात की दिशा वे समझ गए और फिर उनकी मौलिक मुस्कुराहट के साथ बोले, मैं समझ गया। अर्थ जान लेने के बाद पुनः एक बार जोर से हंसे और कहने लगे, ये सब बड़ी-बड़ी बातें मुझे नहीं समझ आतीं। ठीक ही तो कहा था उन्होंने – बड़ी बातें कहने में नहीं वे कृति को ही बड़ा बना देते थे। उनकी बातचीत भी निहायत सामान्य भाषा में होती थी। कहीं पर शब्दों का आडंबर नहीं, कृत्रिमता नहीं, औपचारिकता नहीं, यदि कुछ था तो केवल सरल, निर्मल, निश्चल, निष्कलंक और अकृत्रिम स्नेहासिक्त बोल। कवि शिरोमणि रहिमदासजी की पंक्तियां स्मरण हा आती थीं-

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय,
औरन को शितल करें, आप हुं शीतल होय।

स्वयंसेवकों के घर पर उनका नित्य रूप से जाना होता था इसलिए अपने विशुध्द चारित्र्य से घर के सभी के मन में अपना स्थान बना लेते थे। स्वयंसेवक की मां, बहन, भाभी इ. को यदि किसी प्रकार की शिकायत करनी होती तो वे बल्लुजी को कहती थीं। वडोदरा के अनेक कार्यकर्ताओं के घर के वे मानो सदस्य हो गए थे जिनमें श्री वसंत मेटकर जी, श्री दत्ता सालुंखे जी, श्री भार्गव भट्टजी, श्री विलास शेंडे जी, श्री शरद भोसेकर जी इ. ऐसे अनेक परिवार थे। उनके कर्णावती (अहमदाबाद) के वास्तव्य के दौरान ग्यारह वर्षों में उन्होंने मानो एक पीढ़ी का निर्माण कर दिया था। अत्यंत गरीब परिवारों से आनेवाले, सेवावस्ती में रहने वाले स्वयंसेवकों के प्रति बल्लुजी बहुत अधिक सावधानी से व्यवहार करते थे। अपने किसी भी व्यवहार से उनके मन को ठेंस न पहुंचे इसका वे बारीकी से ध्यान रखते थे। वे सभी कार्यकर्ताओं को कहते थे-संघ का कार्य स्वयंप्रेरणा से करना चाहिए। आत्मानुशासन उसका प्राण है। सुविधा-सहूलियतों से यह काम नहीं किया जाता, स्वयं को घिस कर, संघकार्य करना होता है। कितने भी कष्ट हो, तब भी उसे करना चाहिए। बल्लुजी ने अहर्निश ऐसे आदर्शों के साथ स्वयं का जीवन जिया और ऐसा ध्येयवाद स्वयंसेवकों के मन पर संस्कार के रूप में आरोपित हों ऐसा निरंतर प्रयास भी किया। संघकार्य संपूर्ण निष्ठा से करते करते वे स्वयं ही मानो संघ हो गए थे। इसलिए कभी-कभी मजाक में कहते थे कि यदि कोई रोग भी मुझे हो तो ऐसा हो कि तुरंत ठीक हो जाए ताकि पुनःश्च संघकार्य करने लगूं। विडम्बना देखिए कि वही बल्लुजी कर्करोग जैसे दुर्धर व दुःसह्य रोग से ग्रसित हुए। हे नियंता! ये तुने क्या किया? बल्लुजी के निर्माण किए संबंधों का बंधन ऐसा था कि सेवावस्ती की झुग्गी-झाोपड़ी में रहने वाले एक सर्वसामान्य अकिंचन परिवार से लेकर संघ के प.पू.सरसंघचालक जी तक, सभी को वे अपने प्रतीत होते थे। प.पू.बालासाहब देवरसजी, प.पू.सुदर्शनजी, प.पू.रज्जुभैया जी व वर्तमान प.पू.सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत आदि व्यक्तिगत रूप से उनका ध्यान रखते थे व रखते आए।

बल्लुजी के कर्णावती वास्तव्य के दौरान जो आज देश के वर्तमान प्रधान मंत्री हैं वे मा. श्री नरेन्द्रभाई मोदी जी के साथ भी उनके अत्यंत आत्मीय संबंध थे। बल्लुजी की इस लाइलाज बीमारी के बाद सभी चिंतित, व्यथित व पीड़ित थे। ऐसी पीड़ादायक अवस्था में भी बल्ल्ाुजी गुजरात प्रांत के ऐतिहासिक प्रांतिक शिविर में कड़कड़ाती ठंड में उपस्थित रहे। सभी से अत्यंत आत्मीयता से मिल रहे थे मानो महायात्रा की ओर प्रस्थान करने वाला पथिक विदा ले रहा हो। मुझ से कहे उनके वे शब्द आज भी कानों में गूंज रहे हें कि, न हिंमत हारा हूं ना हारूंगा। क्या प्रेरक वाक्य था!! जीवन संजीवनी स्वरुप! किंतु काल का निर्णय हो चुका था। परिस्थिति/शारीरिक अवस्था कभी तो आशा का दीप जला जाती तो कभी निराशा के घने अंधकार में ला खड़ा करती थी। ऐसी हिलोरे लेती उनकी जीवन नौका 21 जुलाई को निष्ठुर काल रूपी सागर में अन्ततोगत्वा समा गई। आदर्श स्वयंसेवक के गुणों की संपदा प्राप्त यह महानायक हम सभी के नेत्रों में अश्रुओं का महासागर छोड़ गया। जीवन भर एक अविचल, अविरल साधना करने वाला भारत-माता का साधक कालचक्र का भक्ष्य बन गया। मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूं मातृभू, तुझको अभी कुछ और भी दूं, पंक्तियां शत-प्रतिशत जिसके जीवन को परिभाषित करती हैं ऐसा कर्मयोध्दा चला गया। जब तक वह था, सभी के हृदय पर राज करने वाला राजश्री था। सामान्यतः जिसे छोटा ही समझा सकते हैं ऐसे जीवन काल में बल्लुजी ने जिन ऊंचाइयों को स्पर्श किया था वह काल के कपाल पर अपनी अमिट छाप अवश्य छोड़ गया है। उनके समर्पित जीवन की स्मृतियों के पाथेय को लेकर सभी स्वयंसेवक अपनी संपूर्ण शक्ति से मातृभूमि की सेवा में अपने आप को झोंक देंगे ऐसा आशावाद व्यक्त करते हुए अपनी श्रध्दांजलि अर्पित करता हूँ। इति शम।

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