भारतीय नारी अर्द्धनारीश्वर की पूर्ण अवधारणा

हिन्दू परम्परा के परिवारों में सामान्यतः पितृसत्तात्मक समाज ही होते हैं, किंतु इसके साथ साथ सदा से यह स्थापना भी रही कि नारी प्रथम प्रणाम की अधिकारी है। इसके फलस्वरूप ही लिखा गया कि

पूजनीय आधारभूते मातृशक्ति
नमोस्तुते,नमोस्तुते,नमोस्तुते

पितृसत्तात्मक समाज का जो एक प्रमुख लक्षण माना जाता है, वह यह कि विवाह संस्था में स्त्री अपने माता-पिता का परिवार छोड़ कर अपने पति के घर जाती है एवं परिवार के मुखिया के रूप में पुरुष ही कानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक व पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करता है। किन्तु यदि हिन्दू परिवार या कुटुंब परम्परा के इस प्रमुख लक्षण के अंतर्तत्व का अध्ययन करें तो हम सहज ही पाएंगे कि भले ही परिवार का घोषित मुखिया पुरुष हो किंतु परिवार के चालन, परिचालन, पालन, पोषण, निर्णय में स्त्री ही प्रमुख भूमिका में रहती है। बिना महिला के प्रमुख सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक व धार्मिक प्रसंगों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। स्त्री इन प्रसंगों की अधिष्ठात्री होती है! भारतीय नारी शक्ति के संदर्भ में यह आधारभूत तथ्य है कि यहां विदेशियों की भांति नारी विषय को पृथक नहीं माना गया। भारत में नारी विमर्श, समाज के समग्र चिंतन का एक अविभाज्य भाग रहा है। हम ‘पिंडे पिंडे मतिर्भिन्ना’ के पश्चात भी नारी विषय में नतमस्तक भाव से एकरूप रहे हैं।

यद् गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
देवता:कोटिशो वत्स! न त्यजन्ति गृहं हितत्॥

जिस घर में संस्कारी, सद्गुणी नारी निवास करती व सम्मान पाती है उस घर में साक्षात् लक्ष्मी का निवास होता है व इस लक्ष्मी के कारण करोड़ों देवता उस घर में सतत निवास करते हैं।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रेतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तफलाः क्रिया।

इन जैसे मूल मंत्रों से फलीभूत व घनीभूत हमारी संस्कृति में नारी का स्मरण जगतजननी, शक्तिस्वरूपा, संस्कारधारिणी के रूप में किया जाता है। हमारा समाज अर्द्धनारीश्वर को मानने वाला समाज रहा है। हम मानते हैं कि चरम शक्ति के परम अधिष्ठान पर विराजे स्वयं शिव भी शक्ति बिना शव ही हैं। शिव का पूर्ण रूप यदि कहीं हैं तो वह अर्द्धनारीश्वर के रूप में ही मिलता है। अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा हिंदुत्व की वह अवधारणा है जो भारतीय परिवारों में एक ओर शक्ति बिना शिव के अर्द्ध होने की घोषणा करती है तो वहीं दूसरी ओर नारी अर्थात शक्ति के समावेशित हो जाने से ही एक विराट दर्शन, परम शक्ति व समुत्कर्षशाली समाज की उत्पत्ति होगी; यह संदेश देती है। अर्द्धांगिनी के बिना पुरुष का यज्ञ, तप, ध्यान, मंगल कार्य, पूजन-हवन सभी कुछ अधूरा व अपूर्ण माना जाता है। भारतीय संस्कृति के इस अनूठे रूप अर्द्धनारीश्वर को इन शब्दों में भी किया जा सकता है कि भारतीय परिवार विमर्श मूलतः पुरुष द्वारा स्वयं में शक्ति (नारी) व स्त्री द्वारा स्वयं में शिव की खोज की चिरंतन यात्रा ही है। स्त्री पुरुष में यदि पारस्परिक पूरकता के सिद्धांत की खोज हुई तो वह भारत ही है तथा यदि कहीं इस परस्पर पूरकता के सिद्धांत का कृति रूप दर्शन देखने मिलता है तो वह एकमेव भारत ही है!
गोस्वामी तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम के मुख से बाली को संदेश देते हुए चित्रण किया है-

अनुज बधू, भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई।
ताहि बधे कछु पाप न होई॥

हमारे धार्मिक ग्रंथों ने न केवल नारी को अधिष्ठात्री देवी माना अपितु समय-समय पर व स्थान-स्थान पर नारी का महिमामंडन सतत रूप में किया है। पिता, पुत्र व पति के रूप में पुरुष का प्रथम कर्तव्य बताया गया है कि वह नारी की रक्षा करे व उसके सम्मान में ही स्वयं के सम्मान का प्रतिरूप देखे। सती, सीता, द्रौपदी, कुंती, गांधारी सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया जैसी कितनी ही शक्तिशाली नारी चरित्रों की हम आराधना करते हैं तथा मैत्रेयी, जाबाला, गार्गी, सावित्री, शैव्या, पन्नाधाय, अपाला, लोपामुद्रा जैसी विदुषियों की जीवनियों, विचारों व कृतित्व से हमारा समाज सदैव प्रेरित होता रहा है।

ऐसा नहीं है कि नारी शक्ति हिन्दू समाज में कभी उपेक्षा भाव से नहीं देखी गई। प्रत्येक समाज की भांति हिन्दू समाज में भी कई अवसर, काल, प्रथाएं, रूढ़ियां ऐसी आई हैं जिनसे नारी शक्ति के प्रति अनादर प्रकट हुआ है किंतु ऐसे संक्रमण काल में भारतीय नारी द्वारा सरस्वती, लक्ष्मी व दुर्गा रूप का जागरण करके, इस संक्रमण को भी समाप्त करने का अपना जीवंत इतिहास रहा है। भारतीय समाज का नारी शक्ति के प्रति आराध्य भाव ही रहा है कि वह इस धरती पर पिछले वर्षों में अहिल्या बाई, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, चेन्नम्मा, जिजामाता, पद्मिनी, मीरा बाई जैसी देवियों के दिव्य कृतित्व का दर्शन करता रहा! इन सबके मध्य मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां भी समाज को दिशा देती रही कि –

अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी॥

कवि जयशंकर प्रसाद ने भी नारी शक्ति की आराधना में लिखा कि

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग, पग तल में।
पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

भारतीय साहित्य जगत हर युग व प्रत्येक काल में मातृशक्ति के प्रति पूज्य व प्रशंसा भाव से रचनाएं देता रहा है व समाज इस सबसे प्रेरणा लेता रहा है।

हिन्दू भारतीय समाज में अन्तर्निहित इन परम्पराओं, काव्यों, ग्रंथों, श्रुतियों, स्मृतियों, पुराणों व उपनिषदों में नारी शक्ति के प्रति प्रकट नारी सम्मान का ही परिणाम रहा कि भारतीय समाज पितृ सत्तात्मक होते हुए भी सदैव मातृसत्तात्मक समाज की भांति आगे बढ़ता रहा। हिन्दू परिवारों के इतिहास में प्रत्येक कालखंड में ऐसे सैकड़ों ज्वलंत उदाहरण हम पढ़ सकते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि भारतीय नारी न केवल अपने परिवार की धुरी रही है अपितु उसने शासन भी किया, शास्त्रोक्त आचरण भी किया, शस्त्र भी उठाए, राजदरबार में मंत्रणा की, नेतृत्व भी किया, धर्मसभाओं में शास्त्रार्थ भी किया, प्रमुख परामर्श संस्था के रूप में स्थापित भी हुई, संरक्षक रूप में भी रही, साहित्य सृजन में भूमिका निभाते रही!! मातृसत्ता की यह अन्तर्निहित धारा हिन्दू परिवारों में अदृश्य धारा की भांति बहती रही है व हमारे समाज इस भाव से ही संपुष्ट, संतृप्त व संतुष्ट भाव से ओतप्रोत होते रहे हैं। पाश्चात्य चिंता (चिंतन नहीं!) जनित प्रीनेपशियल एग्रीमेंट, न जाने कितने ही वीमेन फेमिनिज्म वेव्ज, नारीवादी आंदोलनों और न जाने कितने ही प्रगतिवादी शब्दों, सिद्धांतों से अलग हटकर आज जब हम अपने समाज में नारी विमर्श की स्थिति का सिंहावलोकन करते हैं तो हमें भारतीय नारी का एक अलग स्वरूप ही दिखाई देता है। भारतीय नारी परिवार पर निर्भर होती है किंतु वस्तुतः वह ही परिवार की धुरी होती है इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता।

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