भारत की वीरांगनाएं-

 भारत की विरांगनाओं को भी समय-समय पर अपनी प्रजारूपी संतानों की रक्षा हेतु हमने चण्डिका रूप धारण करते देखा है। किसी ने अपनी कायर पुरुष संतानों को वाक्बाणों से प्रताड़ित कर युध्द के लिए प्रेरित किया तो किसी ने सीधे खड्ग धारण कर युध्दभूमि पर अपना रणकौशल दिखा कर अमृतमय मृत्यु का वरण किया है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

सप्तशती की ये ॠचा प्रत्येक मानवी मन के अंदर अद्भुत शक्ति का संचार करती हैं। मूल रूप से शक्ति यह शब्द ही स्त्री वाचक है। अपनी संतान के प्रति कोमल, वात्सल्यमय हृदय रखने वाली माता संतान के वास्तविक कल्याण हेतु वज्रादऽपी कठोरानी हो कर खड्गधारिणी हो स्वयं योद्धा बन जाती है।

पौराणिक ग्रंथ सप्तशती के पाठ में हमनें पढ़ा है कि जब महिषासुर, शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज, चण्डमुण्ड जैसे राक्षस उन्मत्त हो देवों पर अत्याचार करने लगे तब देवों ने शक्ति की आराधना की और पार्वती ने दुर्गा, काली, चण्डिका इत्यादि नव दुर्गा का स्वरूप धारण कर राक्षसों का निर्दलन कर त्रिभुवन को भयमुक्त किया था।

अपनी संतान की रक्षा हेतु मातृ हृदय में छिपी आक्रामक वृत्ति हमें मानवों में ही नहीं पशु-पक्षियों में भी दिखाई देती है। मादा कुत्ता, बिल्ली, बंदर जैसे जानवर भी उनकी संतानों को छेड़ने पर आक्रामक हो घायल कर देती हैं।

भारत की विरांगनाओं को भी समय-समय पर अपनी प्रजारूपी संतानों की रक्षा हेतु हमने चण्डिका रूप धारण करते देखा है। किसी ने अपनी कायर पुरुष संतानों को वाक्बाणों से प्रताड़ित कर युध्द के लिए प्रेरित किया तो किसी ने सीधे खड्ग धारण कर युध्दभूमि पर अपना रणकौशल दिखा कर अमृतमय मृत्यु का वरण किया है।

कथा है, शातकर्णी की माता विदुला की। विदुला ने युध्द भूमि से कायरता पूर्वक लौट आए अपने पुत्रों की कठोर भर्त्सना की। उनकी पत्नियां पराजय पर्व मनाने (व्यंग्य-उपहास से उत्तेजित कर पुनः युध्द के लिए प्रेरित करने) सास की अनुमति से हलुवा बनाने लगीं। कढ़ाई में जब करछुल की आवाज होने लगी तो, विदुला ने अपनी बहु से कहा, “अरे तुम यह क्या अनर्थ कर रही हो? अभी-अभी तो मेरा बेटा युध्दभूमि की लौह तलवारों की आवाज सुन कर भय से भाग कर घर आया है। तुम घर में भी इस प्रकार लोहे की आवाज करोगी तो बेचारा अब भाग कर कहां जाएगा?” शातकर्णी के वज्र से भी कठोर आघात करने वाले इन मर्मस्पर्शी वचनों को सुन कर बहुत लज्जित हुआ और उसने युध्दक्षेत्र में लौटकर घमासान युध्द कर विजय प्राप्त की और अपने नाम के आगे माता का नाम जोड़ शातकर्णी कहलवाने में गौरव अनुभव किया। यह है मातृशक्ति के अद्भुत वाक्बाण का प्रभाव जो शत्रुपक्ष के लिए भारी पड़ा।

ऐसी ही कथा राजपुताने की है जिसने अपने प्राणों की परवाह न कर पति को युध्द के लिए प्रेरित किया। वह कथा है हाडारानी की। विवाह के समय हाडारानी ने वीरवरण की शर्त रखी थी। दिखने में अति सुंदर वीर राजपुतानी की आभा उसके चेहरे पर छलकती थी। नवविवाहिता पत्नी के मोह में पड़ कर राजकुंवर सामने आए युध्द को टाल रहे थे। तब हाडारानी रानी ने विवाह की शर्त सुनाई और कहा कि मैंने उसी राजपुत्र का हाथ मांगा था जो अपनी प्रजा की रक्षा प्राणों की बाजी लगा कर करे। हाडारानी ने उसे तिलक कर युध्द भूमि में भेजा, परंतु पत्नी के विरह ने उसे युध्दभूमि से कायरतापूर्ण वापस महल में लौटने हेतु बाध्य किया।

हाडारानी को राजकुंवर के वापस आने की वार्ता मिली। वापस आने का कारण वह स्वयं है, यह जानकर उसे बहुत दुःख हुआ। राजकुंवर के यह कहने पर कि युध्दभूमि में तुम्हारा चेहरा ही बार-बार आखों के सामने आ रहा था, रानी ने निश्चय किया कि राज्य की रक्षा हेतु वह अपना चेहरा ही बलिदान करेगी। अतः अपना सिर काट कर थाली में रख कर संदेश भिजवाया कि जिस चेहरे के कारण आप युध्दभूमि से लौटकर आए हैं वह चेहरा एक हाथ में रखें और दूसरे हाथ में खड्ग लेकर युध्दभूमि में जाकर वीरता पूर्वक लड़ कर अपने राज्य की रक्षा करें।

चार सौ वर्ष पूर्व मां जिजाऊ भी पन्हालगढ़ में बंदी बने शिवाजी की मुक्ति के लिए हाथ में खड्ग ले युध्द के लिए निकल पड़ी थीं। प्रत्यक्ष युध्द न करते हुए भी, अपने पुत्र के जीवन की परवाह न करते हुए शिवाजी के पीछे हरेक युध्द में उनकी प्रेरणा शक्ति बन कर खड़ी रही। जिजाऊ की इस संकल्प शक्ति और आशीर्वाद के कारण ही शिवाजी हिंदवी स्वराज्य का स्वप्न पूर्ण कर सके।

प्रत्यक्ष रणभूमि पर युध्द करने वाली विरांगनाओं का स्वर्णाक्षरों से लिखा इतिहास आज भी हमें प्रेरणा देता आ रहा है।
रामायण काल में राजा दशरथ के साथ रणभूमि में जाने वाली कैकयी। दशरथ राजा के घायल होने पर कुशल सारथ्य कर रणभूमि से सुरक्षित बाहर निकालने वाली कैकयी हम सबकी परिचित ही है।

रणरागिणी झांसी की रानी की संग्राम गाथा कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ खूब चर्चित है, परंतु उसकी प्रतिरूप, साहसी, निर्भय होकर मृत्यु पर भी मात करने वाली झलकारी बहुत कम लोगों को ज्ञात है। झलकारी का साहस एवं अपनी रानी एवं राज्य के लिए समर्पण भाव अद्वितीय एवं अवर्णनीय ही है। झलकारी का स्वरूप रानी के समान ही था। अंग्रेजों ने जब किले को घेर लिया था, किले का बारुदखाना अंग्रेज उडा चुके थे, सारा किला ध्वस्त हो चुका था, तब अंग्रेजों से संधि के अलावा कोई उपाय नहीं था। तब झलकारी ने ही रानी को किले के बाहर सुरक्षित निकलने की सलाह दी। स्वयं रानी बन संधि ध्वज ले सामने से निकल पड़ी। रानी बन अंग्रेजों की छावनी में जाना अर्थात साक्षात मृत्यु का वरण करना था। झलकारी धीरे-धीरे गढ़ उतर रही थी और उधर रानी दामोदर को पीठ पर बांध कर किले के पीछे की ओर से छलांग लगा कर भाग निकली।

साक्षात रानी को सामने देख अंग्रेज भयचकित थे। किन्तु अपने ही एक देशद्रोही ने उसके झलकारी होने का भेद खोल दिया। भेद खुलते ही एक क्षण का भी विलम्ब न करते हुए झलकारी ने उस देशद्रोही पर कटार से वार कर उसे यमसदन पहुंचा दिया और स्वयं भी सीने में कटार घोंप कर अपनी इहलीला समाप्त कर दी। अंग्रेज उसका यह साहसी कृत्य देखते ही रह गए। वह अमर हो गई। यह अमरत्व घर-घर तक पहुंचे, अतः- “युगों युगों तक अमर रहेगा, झलकारी बलिदान” ऐसा कुछ करें।
ऐसी ही एक रणरागिणी शनी अवन्तीबाई – ग्राम मनकेडी, जिला सिवनी, मध्यप्रदेश के देवहारगढ़ में रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य की धर्मपत्नी थी। राजा विक्रमादित्य को विक्षिप्त तथा बेटे शेरसिंह को नाबालिक करार देकर अंग्रेजों ने राज्य हड़पने की कोशिश की और कोर्ट ऑफ वार्ड की नियुक्ति की।

1857 की क्रांति में रानी ने राजकाज सम्भाला और क्रांति की आग में कूद पड़ी। अंग्रेजों ने रामगढ़ पर आक्रमण किया, रानी ने जबरदस्त प्रतिकार किया परंतु उन्हें रामगढ़ छोड़ना पड़ा। रानी देवारगढ़ पहुंची, अंग्रेजों ने यह किला भी घेर लिया। क्रांतिकारियों एवं अंग्रेजों के बीच निर्णायक युध्द हुआ और कई दिनों तक यह युध्द चला। इस युध्द में रानी घायल हो चुकी थी। सैनिकों की संख्या कम हो रही थी। आगे युध्द करना एवं स्वयं को सुरक्षित रखना कठिन हो गया। 20 मार्च 1858 को रानी ने आत्मसम्मान हेतु अपने सहयोगी गिरधर जाई की कट्यार छीन कर धुनसी नाले के निकट अपने वक्ष में भोक स्वयं को इस मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया। इस दिव्य आहुति की ज्वाला आज भी हमें प्रेरणा दे रही है।

ऐसी एक नहीं अनेक रणरागिनियों ने इस राष्ट्र की रक्षा हेतु अपनी आहुतियां दी हैं। फिर वह गढ़मंडला की दुर्गावती हो या कित्तुर की चैन्नमां हो या कुतुबुद्दीन ऐबक को क्षत विक्षत कर युध्द भूमि से भागने के लिए विवश करने वाली कर्मावती हो या बाई दाहर हो जिसने मुहम्मद बिन कासिम से मुकाबला किया। किस्तवाड पर आक्रमण करने वाले मिर्जा हैदर को परास्त करने वाली वीर कोकी देवी को कौन नहीं जानता। नगालैण्ड की रानी गाईदिल्न्यु ने अंग्रेजों से मुकाबला किया और अनेक यातनाएं सहीं। वीणा, प्रीति, कल्पना जैसी क्रांतिकारी महिलाओं ने जिस साहस और निर्भयता का परिचय दिया वह हम सभी जानते हैं। इनके शोणित से शोणवर्ण यह धरा की माटी हम सबके मस्तक का चंदन बने यही अपेक्षा।

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