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महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण

महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण

by श्रुति पाण्डेय
in मार्च २०१६, सामाजिक
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सब से बड़ी बात यह है कि महिलाएं अपनी लड़कियों को शिक्षित कर, उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान कर अपनी सहायता खुद ही कर सकती हैं, ताकि वे विकास की प्रक्रिया में सक्रिय एवं स्वस्थ भागीदार बन सके। महिलाओं को अपनी मानसिकता भी बदलनी चाहिए और राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों में अपने को पुरुषों की बराबरी का सक्षम भागीदार मानना चाहिए।

देश की आधी आबादी महिलाओं की है, और इसलिए देश की प्रगति और विकास की बातें तब तक निरर्थक हैं, जब तक महिलाओं को समान आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार नहीं दिए जाते। देश में ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें दिखाई देगा कि महिलाओं को हर क्षेत्र में रोका जाता है, उनका उत्पीड़न किया जाता है और उन्हें हाशिये पर ढकेला जाता है।
महिलाओं को आर्थिक दृष्टि से रोके जाने के कारण सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से वे पिछड़ गईं, क्योंकि जो कमाता है उसे ही श्रेष्ठ माना जाता है। ऐतिहासिक घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि जो आर्थिक स्रोतों का स्वामी होता है, वही समाज में समानता की ताकत रखता है।

अतः महिलाओं को यदि वर्ग और लिंग-भेद से बाहर निकालना है तो आर्थिक स्वतंत्रता ही उनकी उन्नति का अत्यंत महत्वपूर्ण घटक होगा। महिलाएं यदि चाहती हैं कि विभिन्न मसलों पर, विशेष रूप से महिलाओं से सम्बंधित विषयों पर, उनकी बात सुनी जाए और उन्हें सम्मान प्राप्त हो तो सर्वप्रथम उन्हें आर्थिक दृष्टि से मजबूत होना होगा, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता।

विश्व बैंक की 2011 की विकास रिपोर्ट से दिखाई देता है कि महिलाएं हर क्षेत्र से पुरुषों से कम कमाने की अपेक्षा रखती हैं। इसके अनेक कारण हैं। पुरुषों के मुकाबले महिलाएं बिना कमाऊ पारिवारिक मजदूर के रूप में या अनौपचारिक क्षेत्र में अधिक काम करती हैं। किसानी करने वाली महिलाएं, पुरुष किसानों के मुकाबले छोटे खेतों और कम लाभप्रद फसलों के उत्पादन से जुड़ी होती हैं। इसी तरह महिला उद्यमी कम लाभप्रद छोटे उद्यमों में लगी होती हैं। महिला अधिकारों एवं सुनवाई के मामले में लगभग सभी देशों में कदम उठाए गए हैं। विश्व के लगभग सभी देशों ने महिलाओं के प्रति हर तरह के भेदभावों को दूर करने के अंतरराष्ट्रीय समझौते को स्वीकार किया है। फिर भी, कई देशों में महिलाओं को (विशेष रूप से गरीब तबके की महिलाएं) पारिवारिक निर्णयों एवं आर्थिक स्रोतों के मामले में पुरुषों के मुकाबले कम तवज्जो दी जाती है। चाहे गरीब देश हो या अमीर, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं ही होती हैं। और लगभग सभी देशों में, चाहे गरीब हो या अमीर देश, औपचारिक राजनीति में, विशेष रूप से राजनीति के उच्च स्तरों पर गिनी-चुनी महिलाएं ही होती हैं।

ऐसे कुछ क्षेत्र हैं जहां निम्न आय वाली महिलाएं अपनी बुद्धि और समय का सदुपयोग कर सकती हैं। यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि महिलाओं की कमाई को अक्सर वैकल्पिक कमाई माना जाता है और कहा जाता है कि उन्हें घर के कामकाज और बच्चों की परवरिश पर ही अधिक ध्यान देना चाहिए। अतः महिलाओं की गतिविधियां घर या आसपास से ही चलाने वाली होनी चाहिए। इस तरह महिलाएं मसाला पावडर के निर्माण एवं बिक्री, पापड़, अचार, चटनी, मसालों का उत्पादन, मालाएं या झाडू निर्माण आदि प्रक्रियात्मक उद्यमों में ही काम कर सकती हैं। चटाई बनाने, कशीदाकारी, सिलाई-बुनाई, केले के रेशों की वस्तुएं बनाने, खिलौने एवं कृत्रिम आभूषणों के निर्माण में भी महिलाएं अच्छा रोजगार पा सकती हैं।

नई कल्पनाओं, मूल्यों के आधार पर एवं सामाजिक सहयोग से महिलाएं आय का स्वतंत्र जरिया पाती हैं तो उनका अपने अधिकारों के प्रति आत्मविश्वास एवं आग्रह अधिक बढ़ेगा। भौतिक साधनों पर नियंत्रण के कारण परिवार के सदस्यों के बीच उनकी सम्मान एवं प्रतिष्ठा अधिक बढ़ेगी और इससे उनकी राय को भी अधिक महत्व मिलेगा।

परिवार की आय पर- चाहे वह महिलाओं की अपनी कमाई हो या किसी योजना के अंतर्गत उसे प्राप्त धन हो, उसका अधिक नियंत्रण हो तो खर्च इस तरह होगा कि बच्चों को ही अधिक लाभ होगा और देश का अधिक विकास होगा। ब्राजील, चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका एवं ब्रिटेन के अनुभवों से स्पष्ट होता है कि जब परिवार की आय पर महिलाओं का अधिक नियंत्रण होता है- चाहे वह उनकी अपनी आय हो या अन्य किसी स्रोतों से उसे प्राप्त धन हो- भोजन और शिक्षा पर अधिक खर्च होता है और उससे बच्चे ही लाभान्वित होते हैं (विश्व बैंक रिपोर्ट, 2011)। उदाहरण के लिए, यदि पुरुषों की तरह ही महिला किसानों को भी भूमि और उर्वरकों जैसे उत्पादन स्रोत उपलब्ध कराए जाएं तो विकासशील देशों में कृषि उपज 2.5 से 4 प्रतिशत तक बढ़ सकती है (एफएओ, 2011)।

डीटीबी (डायरेक्ट बेनीफिट ऑफ ट्रांसफर स्कीम अर्थात सहायता का सीधा हस्तांतरण) योजना महिला सशक्तिकरण का एक साधन बन सकती है। इस योजना के तहत गैस कनेक्शन परिवार की मुख्य महिला के नाम देकर उससे मिलने वाली सब्सिडी सीधे उसके बैंक खाते में जमा की जा सकती है। प्रधान मंत्री जनधन योजना वित्तीय सर्वसमावेशी वित्तीय व्यवस्था का अच्छा उदाहरण हो सकता है। इस योजना के अंतर्गत शून्य शेष पर राष्ट्रीयकृत या कुछ चुनिंदा निजी बैंकों में खाता खोला जा सकता है।

भारत में वित्तीय योजनाओं एवं सेवाओं की उपलब्धता के लिए केंद्र सरकार की पहल के बावजूद, अध्ययनों में यह देखा गया है कि वित्तीय मामलों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को नजरअंदाज ही किया जाता है। वैश्विक वित्तीय समन्वित सूचकांक (ग्लोबल फिंडेक्स 1) से पता चलता है कि भारत में 26% वयस्क महिलाओं के ही औपचारिक वित्तीय संस्थानों में खाते हैं; जबकि 44% वयस्क पुरुष ऐसे खाते रखते हैं (विश्व बैंक 2014)। भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि वाणिज्य बैंकों में महिलाओं द्वारा जमा की गई रकम, सकल जमा रकम की तुलना में केवल 5% है (आरबीआई 2013)।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि वित्तीय सर्वसमावेशी योजनाएं आम जनता (महिलाओं समेत) के लिए बनाई गई हैं। अधिकतर योजनाएं महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, परिवार में उनकी बातों को तवज्जो, और उनकी आवाजाही पर प्रतिबंधों का विस्तृत अध्ययन किए बिना ही बनाई गई हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण महिलाएं खेती में सक्रियता से जुड़ी हैं, लेकिन फिर भी कइयों को कृषि ॠण प्राप्त करने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ॠण मंजूर होने के लिए भौतिक सम्पत्ति (अतिरिक्त जमानत के लिए) का स्वामित्व होना जरूरी होता है। पारम्पारिक रूप से, महिलाओं के पास भूमि या अन्य सम्पत्तियों का स्वामित्व नहीं होता और फलस्वरूप ॠण समेत कृषि सेवाओं को प्राप्त करने में दिक्कत होती है; क्योकि इसके लिए जमीन का स्वामित्व होना जरूरी होता है।

सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बैंकों ने महिलाओं के लिए विशेष रूप से वित्तीय योजनाएं बनाई हैं। उदाहरण के लिए, स्वयं सहायता समूह (सेल्फ हेल्प ग्रुप- एसएचजी) से ॠण एवं माइक्रोफाइनेंस संस्थानों (एमएफआई) से माइक्रो ॠण प्राप्त करने के लिए महिला सदस्यों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है। लेकिन छोटे ॠणों की एक सीमा है और अधिसंख्य मामलों में देखा गया है कि उसका उपयोग उत्पादन कार्यों में करने के बजाय घरेलू खर्च के लिए किया गया है।

कई राज्य सरकारों ने सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों में कार्यरत महिलाओं को प्राप्त होने वाले वेतन को जमा करने के लिए बचत खाता खोलना अनिवार्य किया है। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) में कहा गया है कि कम से कम एक तिहाई महिलाएं लाभग्राही होनी चाहिए और उन्हें किया जाने वाला भुगतान इलेक्ट्रानिक प्रणाली से उनके बैंक खाते में किया जाए। इसके अलावा, सरकार ने एसजीएच (बचत समूह) को बचत जमा करने की अनुमति दी है, जिसके तहत महिलाएं अपना समूह बनाकर नियमित तौर पर बचत कर सकती हैं। इन सारे प्रयासों के बावजूद भारत में संस्थागत बचत बहुत कम है। सरकार ने कई बीमा एवं पेंशन योजनाएं जारी की हैं जैसे कि आम आदमी बीमा योजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना, एवं विधवा पेंशन योजना। फिर भी, परिवार का मुखिया या परिवार का कमाऊ व्यक्ति ही इन अधिकांश सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में शामिल है। उल्लेखनीय यह कि अल्प-आय वाले परिवार के सब से बड़े व्यक्ति को ही परिवार का मुखिया या निर्णायक माना गया है, चाहे वह कमाने वाला मुख्य स्रोत हो या नहीं। परिणामस्वरूप, महिलाएं इस सरकारी बीमा एवं पेंशन योजनाओं से दूर ही रह गई हैं।

समाज में महिलाओं के कल्याण एवं उनकी स्थिति में सुधार के मार्ग
* महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल
* उत्पादक स्रोतों का समान स्वामित्व
* आर्थिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्रों में बढ़ती भागीदारी
* अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूकता
* जीवन स्तर में सुधार
* आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास को कायम करना
———-

अतः महिलाओं के बारे में नीतियां बनाते समय सरकार को आम तौर पर निम्न बातों पर गौर करना चाहिए। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की तरह महिला बैंकों की स्थापना की जाए ताकि महिलाओं, विशेष रूप से गरीब अशिक्षित एवं सीमांत महिलाओं को सर्वसमावेशी वित्तीय सुविधा प्राप्त हो सके। कई अध्ययनों से पता चला है कि पुरुष कर्मचारियों के साथ काम करते समय महिलाओं को दिक्कतें आती हैं और वे हतोत्साहित होती हैं। इस तरह की मानसिक अड़चनों को दूर करने के लिए वित्तीय संस्थान महिला कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि कर सकते हैं और महिला ग्राहकों से कारोबार करने के लिए विशेष महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जा सकती है। यही नहीं, वित्तीय सेवा देने वालों को अपनी योजनाएं बनाते समय महिलाओं की वित्तीय निर्णायक के रूप में भूमिका को महत्व देना चाहिए। एक प्रमुख मीडिया संस्था ने हाल के एक सर्वेक्षण में पाया कि 91% महिलाएं मानती हैं कि विज्ञापनदाता उन्हें समझते ही नहीं हैं, क्योंकि वित्तीय उत्पादों के प्रचार में महिलाओं को पुरुषों के बाद अक्सर दूसरे स्थान पर रखा जाता है और आर्थिक मामलों में पुरुषों को ही अग्रक्रम दिया जाता है। महिलाओं के लिए व्यक्तिगत एवं उनके व्यवयाय की जरूरतों तथा व्यवसाय में पुनर्निवेश के लिए उपयोगी वित्तीय उत्पादों के चयन के लिए वित्तीय मार्गदर्शन उपलब्ध होना आवश्यक है। पैतृक सम्पत्ति और पति की सम्पत्ति में समान हिस्सा पाने के लिए अपने अधिकारों के उपयोग में महिलाओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पैतृक सम्पत्ति में अपने हिस्से को भौतिक रूप से दिखाने की एक सीमा होती है, फिर भी महिला उद्यमियों को औपचारिक ॠण पाने के लिए भौतिक सम्पत्ति का सबूत देना होता है। इस मामले में पुरुष उद्यमी के मुकाबले महिला उद्यमी मुश्किल में पड़ जाती है। अतः अपने ग्राहक को जानिए (केवाईसी) दिशानिर्देशों के तहत, विशेष रूप से महिलाओं के लिए राहत दी जानी चाहिए, जिससे अधिक महिलाओं को ॠण प्राप्त करने में सुविधा हो सकती है।

सब से बड़ी बात यह है कि महिलाएं अपनी लड़कियों को शिक्षित कर, उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान कर अपनी सहायता खुद ही कर सकती हैं, ताकि वे विकास की प्रक्रिया में सक्रिय एवं स्वस्थ भागीदार बन सके। महिलाओं को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए और राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों में अपने को पुरुषों की बराबरी का सक्षम भागीदार मानना चाहिए।

महिलाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार के कुछ मार्ग
* महिलाओं की वित्तीय जरूरतें पूरी करने के लिए रियायती ब्याज दरों पर ॠण मुहैया कराने के लिए महिला बैंक की स्थापना
* छोटी बचत को बढ़ावा, जनधन योजना इसका एक अच्छा उदाहरण है
* महिलाओं को मुक्त समय उपलब्ध कराना- ताकि वे घर के बाहर काम कर सके- उदाहरण के लिए रियायती शिशु देखभाल केंद्र
* महिलाओं को अधिक ॠण मुहैया कराने की व्प्यवस्था
* उत्पादक स्रोतों को उपलब्ध करना, विशेष रूप से जमीन- जो संयुक्त नामों पर हो।
* वित्तीय मामलों में प्रसार माध्यमों के जरिए महिलाओं सकारात्मक छवि निर्माण करना
——-

श्रुति पाण्डेय

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