अपनी मंजिल खुद होती है, अपना पड़ाव खुद पार करना होता है और अपनी स्पेस खुद निर्माण करनी होती है। महिलाओं के लिए चालीसी के बाद के जादुई सफ़र का यही मूलमंत्र है!
जीवन यात्रा में बचपन से लेकर बुढ़ापे तक अनेक महत्वपूर्ण पड़ाव आते हैं। यौवनावस्था और वृद्धावस्था के बीच ‘चालीसी’ नाम का एक ऐसा अद्भुत पड़ाव आता है जो महिलाओं के जीवन में भारी उथल-पुथल मचाता है।
चिकित्सा जगत का कहना है कि चालीस-पचास की उम्र के दौरान या उससे कुछ समय बाद महिलाओं का मासिक धर्म बंद हो जाता है, अस्थिघनता कम हो जाती है, कुछ संज्ञात्मक क्षमताएं खो जाती हैं, प्रजनन क्षमता नहीं रहती, मांस पेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, बाल झड़ने लगते हैं, सफेद हो जाते हैं, आवाज में खराश पैदा हो जाती है, एस्ट्रोजन हार्मोन कम हो जाता है, वजन बढ़ता है और दुनिया भर का हार्मोनल असंतुलन और उससे संलग्न खतरे निर्माण होते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है, कि लोगबाग अक्सर यह भूल जाते हैं कि इस भारी उथल-पुथल के दौरान महिलाएं कौनसी मानसिक अवस्थाओं से गुजरती हैं। उसकी मानसिक अवस्था कैसी रहती है। इन महिलाओं को इशारा करने वाले नए क्षितिजों की ओर उनका ध्यान भी नहीं जाता, उसे मिलने वाली नई स्वतंत्रता की धुन पर थिरकते उसके कदमों के साथ खिलने वाले मयूरपंखी पंखों को देखना भूल जाते हैं। एक कीटक, फिर कोषस्थ कीटक और उसमें से बाहर निकलने वाली उड़ती फुदकती तितली का जादुई सफ़र देखना हम भूल जाते हैं।
अब उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं सताती कि लोग क्या कहते हैं, क्योंकि वह अपने आप को सुंदर दिखाई देने लगती है। अब कुछ कहने से वह नहीं झिझकती, अपने पसंद की चीजें पहनने से वह नहीं कतराती। क्योंकि चालीसी का पड़ाव उसे स्वतंत्रता देता है।
उसके बच्चे बड़े हो चुके होते हैं, अब न उनके डायपर्स बदलने का झंझट होता है, न आए दिन उनके स्कूल की सभाओं में जाने की उसे आवश्यकता होती है, ऑफिस के कामकाज के साथ खाने के डिब्बे बनाने की कसरत उसे परेशान नहीं करती, बच्चों के फूटे घुटने, बहती नाक और पति का ऑफिस रूटीन और फ्लाइट्स की आवाजाही उसे हैरान नहीं करती।
अब उसे थोड़ी बहुत चिंता होती है उसके बच्चों के मित्रों और सहेलियों की, देर रात तक उनका बाहर रहने और लड़कियों के प्रति बढ़ते आकर्षण की। लेकिन मन ही मन वह जानती है कि बच्चों पर इस तरह पैनी नजर रखे या न रखे फिर भी जो होना है वह होकर रहेगा।
अपनी सहेलियों के साथ घूमने-फिरने के लिए वह अब आजाद होती है। पति का किसी पार्टी में जाना उसे इतना परेशान नहीं करता जितना यदि वह किसी के साथ कहीं चला जाए तो करेगा। वह यह भी अच्छी तरह से जानती है कि उसे खो देने का डर जितना अब पति के मन में होता है उतना ही कुछ हद तक उसके मन में भी होता है, इसलिए मामला बराबरी का हो जाता है।
जीवन में वह एक काफी लंबा सफ़र तय कर चुकी होती है, अपने कार्यक्षेत्र में अपना एक स्थान, एक पहचान बना चुकी होती है जहां उसमें जबरदस्त आत्मविश्वास होता है और जहां वह अपनी योग्यता को पूरी तरह से पहचानने लगती है। वरिष्ठों, अभिभावकों, सास-ससुर की छत्रछाया से अब वह बाहर आ चुकी होती है, बल्कि स्वयं उनका स्थान लेने की कगार तक पहुंचने लगती है।
अकेले घूमना, नई बातें- नए कौशल आत्मसात करना, पैसों और समय की मर्यादा के कारण जिन बातों से वह वंचित रह गई थी उन्हें वह अब कर सकती है, अपने बालों/कपड़ों के साथ वह नए-नए प्रयोग कर सकती है केवल इसलिए कि वह कर सकती है!
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या महिलाएं सच में ऐसा करती हैं? जीवन के मध्य में इस नई स्वतंत्रता को अनुभव करने के लिए क्या वे सच में तैयार होती हैं? या वे इसी बात को लेकर दुखी हैं कि अब उनकी उमर होती जा रही है और उनमें अब वह पहले सा आकर्षण नहीं रहा। क्या उन्हें विश्वास है कि वे दुनिया को आज भी आकर्षक दिखाई देंगी या वह स्वयं ही अपना मूल्य कम कर देती हैं?
अर्थात बहुत कुछ निर्भर करता है कि महिला किस सांस्कृतिक परिवेश में पली बढ़ी है, कौन से सांस्कृतिक नियमों को मानती है, वह कौन से मूल्यों को मानने वाले परिवार से आती है और कौन से परिवार में ब्याही जाती है, क्योंकि यदि वह परिवार नारीत्व की तुलना में केवल मातृत्व और पत्नीधर्म को निभाने वाला हो तो समझो वह तो बरबाद हो गई!
दरअसल यही वह पड़ाव है जहां हर नारी को अपनी आत्मप्रतिष्ठा और आत्मसन्मान का परीक्षण करना चाहिए, जीवन में अपनी भूमिका को परखना चाहिए, ऐसे लक्ष्यों को पाने का प्रयत्न करना चाहिए जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। यही वह समय है जब वह अपनी सारी सकुचाहट का त्याग कर, आत्मसन्मान अर्जित करें। वह जो कुछ करना चाहती है उसे करने के लिए निश्चय ही योग्य है। अत: अब तक उसने जो भी त्याग, समझौते, नि:स्वार्थ निर्णय लिए होंगे उनके प्रति मन में अभिमान रखे, न कि उन खो दिए अवसरों पर निरंतर खेद व्यक्त करें।
अपने मायके और ससुराल वालों के लिए, पति और बच्चों के लिए उसने जिस प्रकार अब तक समय दिया उसी प्रकार कुछ समय स्वयं को देना भी उसे सीखना चाहिए। अपने जीवन में जिस प्रकार उसने अतिथियों, कर्तव्यों, पति और बच्चों के मित्रों, रिश्तेदारों, उनकी पसंद, नापसंद का ख्याल रखा, उनकी इच्छाओं और उनकी वस्तुओं आदि को पर्याप्त स्थान दिया, उसी प्रकार उसे स्वयं के लिए भी स्थान देना सीखना चाहिए। वैसे तो हर महिला को केवल अपनी पसंद-नापसंद, मर्जियों और अपने सपनों के लिए कुछ समय और स्थान देना आवश्यक है।
अंग्रेजी लेखिका वर्जिनिया वूल्फ का लेख ‘ ीेेा ेष ेपश’ी ेुप’ इन दिनों काफी लोकप्रिय है। उसमें उन्होंने पुरुषों के प्रभुत्व वाले लेखन क्षेत्र में महिला लेखिकाओं को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्र स्थान देने की मांग की थी। हमारी अपनी कवयित्री अमृता प्रीतम ने भी ‘चौथा कमरा’ हर महिला के लिए आवश्यक है इस बात का आग्रह किया था।
यहां सबसे आवश्यक बात यह है कि महिलाएं पहले यह सीखें कि वास्तव में उन्हें अपनी निजी स्पेस की आवश्यकता है और उसकी मांग उन्हें करनी चाहिए। निजी स्पेस का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि महिलाएं अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों से मुकर जाएंगी या उन्हें दुर्लक्षित करेंगी। साथ ही निजी स्पेस का यह अर्थ भी नहीं कि महिलाएं अकेली पड़ जाएंगी। बल्कि वे स्वयं इस बात का निर्णय निश्चित ही ले सकती हैं कि कौन अपनी स्पेस का हक़दार हो सकता है और कौन नहीं। इन सारी बातों का तात्पर्य इतना ही होगा कि उसने सही मायने में जो उसका है उसे पाने के लिए बस हिम्मत जुटा ली है!
अपनी मंजिल खुद होती है, अपना पड़ाव खुद पार करना होता है और अपनी स्पेस खुद निर्माण करनी होती है। महिलाओं के लिए चालीसी के बाद के जादुई सफ़र का यही मूलमंत्र है!
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