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भारत की नारी, फूल और चिंगारी- मृदुला सिन्हा

भारत की नारी, फूल और चिंगारी- मृदुला सिन्हा

by अमोल पेडणेकर
in मार्च २०१६, साक्षात्कार
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गोवा की राज्यपाल मा. मृदुला सिन्हा साहित्यकार और राजनीतिक हस्ती हैं। उनकी जीवन यात्रा तथा भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति के सम्बंध में लिए गए साक्षात्कार के कुछ अंश-

कृपया अपने जीवन संघर्ष के बारे में बताएं।

मैं अगर अपने जीवन का आकलन करके कहूं तो मुझे संघर्ष नहीं करना पड़ा। संघर्ष का अर्थ है अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना और आगे बढ़ना। लेकिन मेरे मार्ग में कभी कोई बाधा नहीं आई। न व्यक्तिगत, न पारिवारिक, न सामाजिक औैर न ही राजनीतिक जीवन में। मुझे मेरे पिताजी ने आठ वर्ष की उम्र में आर्थिक परिस्थिति कमजोर होते हुए भी छात्रावास भेज दिया था। वहां मेरे व्यक्तित्व का विकास हुआ। स्नातक प्रथम वर्ष में मेरी शादी हो गई। विवाहोपरांत भी मेरे सास-ससुर या पति ने मुझसे कोई अपेक्षा नहीं रखी। सभी चाहते थे कि मैं आगे पढूं। मध्यमवर्गीय परिवार में यह बहुत कम देखने को मिलता है। अब मेरे बेटे भी यह अपेक्षा नहीं रखते कि मां खाना बनाएं। परंतु मैंने किचन में जाना नहीं छोड़ा। आज भी खाना बनाने के लिए लोग हैं फिर भी मैं किचन में जाकर कुछ काम करती ही हूं।

राजनीति में भी एक तरह से कहा जाए तो मुझे सीधे घर से बुलाकर राजमाता जी की सहसरसंयोजिका बना दिया गया। हालांकि मेरा काम लोगों ने पहले देखा था। जिस समय मेरी साथ की महिलाओं को रेल्वे में सेकेंड क्लास का टिकट भी मिलना मुश्किल होता था उस समय मुझे हवाई जहाज और सेकंड एसी का टिकट मिलने लगा था। इसलिए मैं कहती हूं कि मुझे संघर्ष नहीं करना पड़ा।

आपने अभी अपने जीवन में तीन पुरुषों का उल्लेख किया। इनसे आपको किस तरह के संस्कार प्राप्त हुए?

सर्वप्रथम मेरे पिताजी ने उस समय में 30 रुपये महीना एक लड़की पर खर्च करने का निश्चय किया। वे मुझे पढ़ाना चाहते थे। क्योंकि वे स्वयं मेरे गांव के पहले पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। आज हमारे प्रधान मंत्री ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना शुरू की है। मेरे हिसाब से मैं इस योजना का जीता-जागता उदाहरण हूं। मेरे भाई-बहन और मेरी उम्र में बहुत अंतर है। मेरी बहन की शादी हो जाने के बाद मेरा जनम हुआ। गर्भावस्था में मेरी मां इस बात से चिंतित थीं और लोकलाज के भय से उन्होंने गर्भपात करने वाली (आयुर्वेदिक) गोलियों का सेवन कर लिया था। मेरे पिता गांव के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने इस बात का पता चलते ही शहर ले जाकर अपनी पत्नी का उपचार कराया।

आपका साहित्यकार बनने का मार्गक्रमण कहां सेे शुरू हुआ?

मैं हॉस्टल में रहती थी। वहां कुछ पैरोडी बनाती थी, कविताएं लिखती थी। नियमित रूप से लिखना मैंने एम.ए. करने के बाद शुरू किया। मेरे ससुर जी का भी एक ही सपना था कि मेरी बहू को बड़ा अफसर बनाना है, साहित्यकार बनाना है। उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी। वे खुद भी कविताएं लिखते थे। वे जब लगभग मरणासन्न अवस्था में थे तो ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ नामक पत्रिका में मेरी कहानी प्रकाशित हुई थी। मेरी फोटो के साथ प्रकाशित हुई उस कहानी को जब मेरे देवर ने ससुर जी को दिखाया तो उन्होंने कहा यह तो ठीक है, उसे अभी बहुत ऊंचा जाना है। मैं भी वहीं खड़ी थी। मेरी आंख में आंसू आ गए और मैंने मन में सोचा अभी तो मैंने लिखना शुरू किया है और मुझे उनका आशीर्वाद भी मिल गया। राजनीति के लिए भी वे हमेशा अपने बेटे से कहते थे कि इन्हें चुनाव लड़वाइये। मेरे ससुर जी सामाजिक कार्यकर्ता थे। म. गांधी के साथ उन्होंने कई आंदोलनों में भाग लिया था। महिलाओं को समान अधिकार देना इत्यादि जैसी बातें वहीं से हमारे परिवार में आईं।

साहित्य और राजनीति दो अलग अलग छोर हैं। आपका प्रवास साहित्य से राजनीति की ओर कैसे हुआ?

मैं नहीं मानती कि ये दोनों अलग छोर हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से अभी तक कई ऐसे साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। साहित्य में यह कल्पना की जाती है, विचार किया जाता है कि कैसे उत्तमोत्तम लेख, कहानी, कविता लिखी जाए जिससे समाज में अच्छे परिवेश निर्माण हो सके। और, राजनीति में भी यही विचार करना होता है कि किस तरह सही परिवेश का निर्माण किया जा सकता है। साहित्य और राजनीति दोनों में ही सत्यं, शिवम, सुंदरम है। दोनों का विचार एक ही होता है, बस कार्यप्रणाली थोड़ी भिन्न है।

साहित्यकार मकड़े की तरह नहीं हो सकता जो अपने अंदर की लार से जाला बनाता है। उसे मधुमक्खी की तरह बनना होता है। समाज की विभिन्न क्यारियों में घूमना होता है। जब वह ऐसा करता है तब उसका साहित्य समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। ठीक इसी प्रकार सामाजिक काम करने वालों को भी समाज के हर हिस्से में जाना होता है। तभी उसका कार्य समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।

आज कई साहित्यकारों का मानना है कि अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है। इस संबंध में कुछ प्रदर्शन भी होते रहे हैं। आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगी?

मुझे तो कहीं भी नहीं लगता कि अभिव्यक्ति की आजादी बाधित है। मुझे तो लगता है आजादी कुछ ज्यादा हो गई है। कोई कुछ भी लिख रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग हो रहा है। जैसा कि मैंने कहा साहित्य को सत्यं, शिवम, सुंदरम होना चाहिए। उसमें सत्य हो, वह कल्याणकारी हो और सुंदर भी होना चाहिए। ऐसा साहित्य नियंत्रित और समाजोन्मुख होगा।

‘बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’ यह नारा देते हुए मोदी सरकार केंद्र में आई है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से आपको ऐसे कौन सेे परिवर्तन दिखाई देते हैं जिससे नारी के जीवन में बदलाव आ रहा है या आएगा?

परिस्थितियां तो बदली हैं। मैं यह नहीं कहूंगी कि पिछली सरकार ने कुछ नहीं किया। परंतु अब जो मोदी सरकार ने जनधन योजना, अटल बीमा योजना आदि बनाई हैं वे समाज के कमजोर वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई हैं। महिलाओं के लिए उन्होंने राखी पर उपहार की योजना बनाई। अपनी सांस्कृतिक धरोहर को जोड़ने वाली योजनाएं निश्चित ही लोगों को पसंद आएंगी। कुछ लोग हैं जो केवल विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं परंतु सामान्य नागरिकों के मन में मुख्यत: महिलाओं के मन में मोदी जी के प्रति विश्वास जगा है। अगर अच्छी योजनाएं आएंगी, लोगों की भागीदारी बढ़ेगी तो निश्चित रूप से ‘अबकी बार मोदी सरकार’ जैसे नारे फलीभूत होंगे।

आपने अभी तक ऐसे कौन से कार्य किए हैं जो महिलाओं के विकास में लाभदायक हों।

मैंने अपने साहित्य के माध्यम से महिलाओं में विश्वास जगाने का प्रयत्न किया। एक सामान्य सी घरेलू महिला भी कितनी सशक्त होती है यह सामने लाने का प्रयत्न किया। सन 1980 के आसपास एक नारा काफी गूंजा था- “हम भारती की नारी हैं, फूल नहीं चिंगारी हैं।” मैंने जब यह सुना तो मैंने सोचा कि भारतीय नारी की प्रतिमा ऐसी नहीं होनी चाहिए। मैं उसमें थोड़ा सा परिवर्तन किया और कहा- “हम भारत की नारी हैं, फूल और चिंगारी हैं।” सृष्टि ने नारी को विशेष रूप दिया है। किसी भी सभ्य महिला को, आदर्श महिला को देखकर लोगों को प्रसन्नता होती है। महिला सभी को वात्सल्य देती है, सभी का पालन पोषण करती है, सभी की सेवा करती है, सभी को आनंदित रखती है। यह उसका फूल की तरह ही स्वभाव है। यह मूल स्वभाव हमें नहीं छोड़ना है, परंतु यदि कोई इस फूल को कुचलने की कोशिश करता है, तो हम चिंगारी बन जाती हैं।

दूसरी बात मैंने कही कि पुरुष और महिला की बराबरी की बात नहीं की जानी चाहिए। लड़का लड़की एक समान होते हैं। बल्कि बेटियां विशेष होती हैं। उसे तो प्रकृति ने विशेष बनाया है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुष कुछ नहीं है। पुरुष तो उसका सबसे बड़ा सहयोगी है। उसी के कारण महिला के गुणों का प्रस्फुटन होता है। प्रकृति ने दोनों को एक ही समान बनाया है। महिला पुरुष का सम्मान है। हमारे समाज में महिलाओं को डोली में ले जाया जाता है। उसका सम्मान, रक्षण किया जाता है। 25 वर्ष पहले मेैं नारा दिया था- “बेटी का सम्मान करें हम, जनमे तो अभिमान करें हम।” इस तरह कभी नारों के द्वारा, कभी साहित्य के द्वारा, कभी प्रस्ताव पारित करके मैंने महिलाओं के लिए कार्य किया।

आपके स्वभाव में सकारात्मकता दिखाई देेती है। यह किन संस्कारों के कारण आपके स्वभाव में आई?

हमारे यहां की लोक संस्कृति मेरी नस-नस में समाई है। मुझे अगर किसी सामाजिक समस्या का हल नहीं मिलता तो मैं लोकगीत की पंक्तियां याद करती हूं जो महिलाएं गाती थीं, जिनसे उन्हें संस्कार मिले, जिनसे उनमें अधिकार एवं कर्तव्य की भावना जागती थी। मैंने भी बचपन से उन्हें सुना था। अब वे मुझे राह दिखाते हैं।
एक उदाहरण है एक महिला के साथ उसके जेठ ने छेड़खानी की। उस महिला ने अपने पति से शिकायत की कि आपके रहते वे मुझे छेड़ रहे हैं। उसका पति आंखबबूला हो गया।
जैं हों मैं हाजीपुरा
लैं हौं मैं संखा छूरा
छुरवा उठाई
भैया वध करवा
़अर्थात मैं अभी हाजीपुर जाकर छुरा ले आता हूं और भाई को मार देता हूं। औरत जब उसकी बात सुनती है तो वह उसे नीति सिखाती है और कहती है कि अगर स्त्री को मारोगे तो स्त्रीवध का पाप लगेगा और अगर भाई को मारोगे तो अकेले हो जाओगे। उसकी बात सुनकर पति रुक जाता है। महिला संतुलन साधने का प्रयत्न करती है। उसके लिए इतना ही काफी है कि पति ने समझ लिया कि उसका भाई गलत है। जरूरी नहीं कि उसकी हत्या ही की जाए।

महिलाओं को अक्सर लक्ष्मण रेखा में रहने की ताकीद दी जाती है। आपका इस सम्बंध में क्या विचार है?

मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में कहूं तो मेरे लिए कभी लक्ष्मण रेखा थी ही नहीं। मुझे हमेशा हर काम को करने के लिए प्रोत्साहित ही किया गया। मेरी आदत रही कि मैं अपने पति को स्वयं खाना परोसती थी। उस समय कुछ चर्चा भी हो जाती थी। मुझे जब पहली बार भाषण देने जाना था तो मेरी इस आदत को जानकर उन्होंने हमारे घर में काम करने वाले रसोइए से कहा कि आज तुम मुझे खाना परोस देना क्योंकि ‘उन्हें’ भाषण की तैयारी करनी है। बच्चों को सम्भालने की भी जिम्मेदारी वे लेने के लिए तैयार थे। मेरे साथ आगे रहने पीछे रहने की बात सोची ही नहीं गई। बस समाज को कुछ देना है। फिर वह चाहे राजनीतिक मंच से हो या साहित्यिक मंच से।

सामान्य रूप से भी अब महिलाएं लक्ष्मण रेखा लांघ रही हैं। उनके लिए अब जल, थल, नभ के रास्ते तो पुरुषों ने ही खोल दिए हैं।

महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का प्रवधान है। आरक्षण के कारण महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा या महिलाओं को स्वयं उसके लिए प्रयास करने होंगे?

मेरे हिसाब से दोनों साथ होना चाहिए। जब तक आरक्षण नहीं था तो सुधार की गति बहुत धीमी थी। राजनीति में या अन्य क्षेत्रों में उनका प्रतिशत और अधिक हो सकता था।

2001 में हमने महिला सशक्तिकरण पर्व मनाया था। उसके लिए एक पोस्टर बनाया जिसमेंएक लड़की आसमान की ओर देख रही है और नीचे पंक्तियां लिखी हैं ’आसमां छूने की है आस, गर मिल जाए थोड़ा सा विश्वास’। यह विश्वास अब मिल रहा है और महिलाएं भी आगे बढ़ रही हैं।

एक समर्थ महिला होने के नाते आप दिल्ली जैसी घटनाओं को किस नजरिए से देखती हैं?

मुझे लगता है लड़कों पर संस्कारों की कमी का यह परिणाम हैं। हमारी परम्परा में पहले जो ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती थी, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने की जो तालीम दी जाती थी आज वह कहीं दिखाई नहीं देती। स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता बढ़ने लगी है। मैं लड़कों को दोष नहीं दे रही हूं परंतु अपनी वासनाओं का दमन करने की, उनको नियंत्रित करने की शिक्षा लड़कों को मिलना बहुत आवश्यक है।

आजकल ‘लिव इन रिलेशनशिप’ को महिलाएं भी स्वीकार कर रही हैं। आपकी इस बारे में क्या राय है? आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी?

मुझे बहुत ही अप्राकृतिक लगता है। लोगों की शादी तथा आपसी सम्बंधों को समझने में 5-6 साल लग जाते हैं। और अब युवा बिना विवाह के 2-3 साल साथ रहते हैं फिर कह देते हैं कि अब नहीं रहना। यह गलत है। 2-3 साल साथ रहकर विवाह करें तो भी वह ठीक है परंतु कई बार तो लडकियां यह आरोप भी लगा देती हैं कि हमारे साथ बलात्कार हुआ।

मैं तो कहती हूं कि विवाह एक उत्तम सामाजिक व्यवस्था है। हम स्त्री पुरुष आकर्षण को खत्म नहीं कर सकते। वह तो प्राकृतिक है। इसलिए विवाह एक सामाजिक अनुमति है जिससे इस आकर्षण का दमन करने की आवश्यकता न पड़े। इसलिए आज अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि जो लोग ‘लिव इन रिलेशन’ में रहते हैं उनकी उम्र यदि शादी की है तो उनकी शादी कर दें। जिससे उसका प्रभाव कम उम्र के युवाओं पर नकारात्मक न हो।

आपका नजरिया हर बात में ‘सत्यं शिवं सुंदरम’ देखने का है। इसका क्या राज है?

जी, मुझे ये तीनों शब्द बहुत आकर्षित करते हैं। ये हमारे जीवन का आधार है। मनुष्य हमेशा सत्य की खोज करता है क्योंकि वह समय के साथ बदलता नहीं। उसकी खोज में सुकून मिलता है। दूसरी बात यह है कि अगर मनुष्य शिवम के लिए अर्थात दूसरे के कल्याण के लिए कोई कार्य करता है तो भी उसे सुखद अनुभूति मिलती है। और जब मनुष्य इस सत्य को दूसरे के कल्याण में लगा देता है तो उसे परमानंद की प्राप्ति होती है और तब उसका कार्य सुंदर हो जाता है।

गोवा की संस्कृति के विषय में आप क्या कहना चाहेंगी?

हम चावल पकाने से पहले उसको बीनते हैं। अगर बिना बीने चावल पक गए तो कभी-कभी कंकड मुंह में आ जाता है। उन कंकडों को छोड़ दिया जाए तो बाकी थाली तो चावल से भरी है।

यही गोवा की संस्कृति है। यहां कुछ एक-दो नकारात्मक बातों को छोड़ दिया जाए तो यहां की संस्कृति बहुत सुंदर हैं। यहां हर त्यौहार को बहुत उत्साह से मनाया जाता है। उसकी खबरें भी अखबारों आदि में आती हैं।

यहां के घरों में आज भी ग्रामीण संस्कृति है। मैंने उन लोगों से कहा कि वे अपने बड़े-बड़े घरों को सुसज्जित करें। बाहर से आने वाले पर्यटकों को अपने घर में ठहराएं। उन्हें अपने गांव का कल्चर दिखाएं। आर्गेनिक खेती से निर्मित भाोजन कराएं। फाइव स्टार होटल सभी जगह एक से होते हैं। परंतु जो संस्कृति वे पर्यटक इन घरों में देखेंगे वह बिलकुल अलग होगी।

गोवा की महिलाओं के बारे में क्या कहना चाहेंगी?

शिक्षा का स्तर अच्छा होने के कारण यहां की महिलाएं प्रबुद्ध हैं। परंतु कोंकणी संस्कृति में ये महिलाएं रची बसी हैं। उन्होंने अपनी जड़ें नहीं छोड़ी हैं।

क्या आपने गोवा की भाषा सीखने का प्रयास किया?

जी कोशिश कर रही हूं। लीपि देवनागरी होने के कारण अखबार इत्यादि पढ़ लेती हूं परंतु अभी पूरी तरह से समझ नहीं पाती।
गोवा की अर्थव्यवस्था पर्यटन और खनन पर निर्भर है। खनन के संदर्भ में आपका दृष्टिकोण क्या है?
जी, सही बात है। पर्यटन से होने वाली आय तो दिखाई देती ही है। खनन उद्योग थोड़ा मंद गति से चल रहा था क्योंकि यह उद्योग इस बात पर निर्भर करता है कि बाहर के देशों को इसकी कितनी जरूरत है। बीच में कुछ समय में इसकी मांग कम हो गई थी। परंतु अब फिर से यह गति पकड़ रहा है।

गोवा के राज्यपाल का पद स्वीकरने के बाद आपने राज्य के विकास के लिए क्या-क्या प्रयास किए हैं?

मैं स्वच्छता अभियान की एम्बेसडर हूं। उसके लिए मैंने स्लोगन लिखकर, कविताएं लिखकर, जनजागृति के कार्यक्रम चलाकर तथा अन्य विभिन्न माध्यमों से प्रयास किए हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे उद्योगपति, प्राध्यापक, समाज सेवक आदि लोगों को बुलाया तथा उनसे स्वच्छता अभियान के लिए क्या करना इस विषय पर चर्चा की। उनकी प्रतिक्रिओं से मझ में आता है कि मैं सही राह पर हूं। अन्य लोग भी मिलते हैं या विभिन्न कार्यक्रमों में मेरे भाषण सुनते हैं तो कहते हैं कि आपके विचारों से हम बहुत प्रभावित हुए हैं।

कई राज्यों में सरकार और राज्यपाल में मतभेद दिखाई देते हैं। गोवा की क्या स्थिति है?

यहां तो हमारे ही विचारधारा की सरकार है। मैंने उन्हें कुछ सुझाव दिए थे जो उन्होंने माने हैं। हालांकि यहां महिला असुरक्षा का स्तर बहुत निम्न है परंतु मैंने राज्य सरकार को सुझाव दिया कि ‘रक्षक’ नामक एक पुरस्कार दिया जाना चाहिए। अगर कोई पुरुष महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को देखकर उसे बचाने के लिए आगे आता है, अपनी जान पर खेलकर उसे बचाता है तो उसे रक्षक मानकर यह पुरस्कार दिया जाना चाहिए। अगर कोई महिला स्वयं अपना बचाव करती है और लड़ कर अपने को बचा लेती है तो उसे ‘विजयनी’ पुरस्कार दिया जाना चाहिए। परंतु कुछ दिन पहले एक मंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई। केबिनेट ने उसे मेरे पास भेजा कि इसकी क्षमा याचना मंजूर की जाए। मैंने बहुत विचार किया और निर्णय लिया कि क्षमा नहीं करना चाहिए। मेरे इस निर्णय का सकारात्मक असर भी हुआ है।

आपको अपनी किस साहित्यिक रचना से परमानंद की अनुभूति हुई?

यह कुछ इसी तरह है कि किसी मां से पूछा जाए आपको कौन सा बच्चा सबसे ज्यादा प्रिय है। खैर, मेरी एक कविता है ‘वह लड़की’ शीर्षक से, वह बहुत अच्छी लगती है। अभी मंदोदरी पर आधारित मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है ‘परित्यक्त लंकेश्वरी’। मंदोदरी पर आजतक किसी ने लिखा ही नहीं। मैंने सीता, सावित्री आदि के आत्मचरित्र लिखे। उसके लिए 20-25 किताबें पढ़ीं परंतु उन्हें फिर अपने आकलन से लिखा। मैं सोचती हूं यह अलग उपलब्धि है। अभी भी मुझे बहुत साहित्य सृजन करना है। अभी भी मैं संतुष्ट हूं परंतु सृजन की इच्छा मन में है।

आपकी जीवन यात्रा बहुत सकारात्मक रही है इस सोच के लिए अपना गुरु किसे मानती हैं?

मैंने हर किसी से सीखने की कोशिश की है। परंतु मैं गुरू अपने पति को ही मानती हूं। साहित्य भी उच्च कोटि का हो तथा राजनीति में भी स्वच्छ प्रतिमा के साथ कैसे काम किया जाए ये उन्होंने ही मुझे सिखाया है। वे स्वयं भी संतुष्ट व्यक्ति हैं। उनके जीवन से ही मैंने सीखा है।

आप महिलाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी?

मैं कहूंगी कि संघर्ष करना चाहिए, मेहनत करना चाहिए और धैर्य भी रखना चाहिए। भले ही पद न मिले पर समाज में पहचान जरूर मिलती है। कई बार आपके काम को देखकर अन्य लोगों को यह लगता है कि आपको वह पद मिलना चाहिए यह सच्ची उपलब्धि है।
———–

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