खाड़ी देशों में नौकरियों का संकट

खाड़ी देशों में तेल के दामों में बेहद मंदी के कारण नौकरियों पर संकट आ गया है। कई लोगों को नौकरी से अचानक हटा दिया गया है, क्षण में वे बेरोजगार हो गए हैं और उन्हें भारत लौटना पड़ रहा है। यह अब चुनिंदा मामलों में हो रहा है और इसकी मीडिया में केवल यदा-कदा ही चर्चा हो रही है। खाड़ी में खूब पैसा कमाकर भारत में अपने को संवारने के सपने देखने वाले कर्मचारियों को सतर्क होने की जरूरत है।

‘खाड़ी देशों में लोग रात-दिन चींटियों जैसे काम करते हैं और मौका आने पर चींटियों की तरह ही मसल दिए जाते हैं’ यह वाक्य कभी पढ़ा था। लेखक का नाम तो अभी विस्मरण हो गया, लेकिन इस तथ्य का अनुभव खाड़ी में काम कर रहे लोगों को प्रत्यक्ष आ रहा है। सन 2014 के अंत से खनिज तेल के मूल्यों में बेतहाशा गिरावट, सीरिया और यमन में चल रहे युद्ध, मध्यपूर्व ही नहीं निकटवर्ती अफ्रीका और यूरोपीय महाद्वीप में चल रही आतंकवादी गतिविधियों ने उद्योग एवं व्यापार को कहीं का नहीं छोड़ा और फलस्वरूप रोजगार की हालत खस्ता हो रही है। खाड़ी देशों में रोजगार के लिए जाने वाले लोगों में भारतीय लोगों की संख्या बहुत अधिक है और इस आर्थिक संकट की मार उन पर ही ज्यादा पड़ रही है। खास कर केरल की अर्थव्यवस्था इन अनिवासी भारतीयों से भेजी जाने वाली रकम पर निर्भर है। अनुमान है कि केरल के बजट की एक तिहाई राशि खाड़ी देशों से भेजे जाने पर धन पर निर्भर करती है। इससे खाड़ी में रोजगार के अवसर कम होने का भारत पर कितना असर पड़ता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

दो वर्ष पूर्व तेल की कीमतें 114 डॉलर प्रति बैरल थीं, जो आज 30 डॉलर के नीचे तक पहुंच गई हैं। बताया जाता है कि तेल उत्पादन की लागत प्रति बैरल 45-50 डॉलर के करीब पड़ती है। जिस वस्तु के उत्पादन में 45-50 डॉलर खर्च हो वह 30 डॉलर के नीचे बेचना पड़े तो तेल उद्योग तो संकट में पड़ेगा ही, उसका असर वित्तीय क्षेत्र समेत सभी उद्योगों पर पड़ेगा ही। तेल में मंदी के कारण बैंकिग क्षेत्र से हजारों डॉलर की राशि निकाली जा रही है। इसका असर यह हुआ कि यूएई में स्थित कई विदेशी बैंकों ने अपने खर्चे कम करने शुरू कर दिए। कई ने तो अपनी शाखाएं घटा दीं, नतीजतन वहां काम करने वाले लोगों को या तो ले-ऑफ दिया गया या नौकरी से हटा दिया गया।

खाड़ी देशों में दूसरे देशों से आने वाले श्रमिकों के रोजगार सुरक्षा के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। श्रमिक और मालिक के बीच समझौता ही आधार माना जाता है। भारत में जिस तरह स्थायी या अस्थायी नौकरी होती है, उसी तरह वहां दीर्घावधि व अल्पावधि समझौता होता है। विदेशियों के लिए स्थायी नौकरी नहीं होती। आपका समझौता खत्म होने पर आपको लौटना पड़ता है। आपको काम से हटाने को लेकर भी कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। मालिक या आपके बीच हुए समझौते में नौकरी से हटाने के लिए जितनी अवधि की सूचना देना तय हो, उस अवधि की नोटिस या वेतन देने पर आपको हटा दिया जाता है। एक बार आपको नौकरी से हटा दिया गया कि आपका मालिक आपका वीजा रद्द कर देता है और वीजा रद्द होने की तिथि से एक माह के भीतर आपको अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर लौटना होता है। इससे कई कर्मचारी अचानक सड़क पर आ जाते हैं। इससे जो मानसिक यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। कुल मिलाकर ‘हायर एण्ड फायर’ की नीति वहां चलती है। जब जरूरत हो तब चाहे जिस दाम पर कर्मचारी को रख लेना और जरूरत खत्म होने पर तुरंत निकाल देना, यह खाड़ी देशों की रीत है। इससे वहां काम करने वालों पर हमेशा सिर पर तलवार बनी रहती है। कब सपने ढह जाए इसका कोई अंदाजा नहीं होता।

खाड़ी देशों में रोजगार मुहैया कराने वाली कम्पनियों का कहना है कि तेल में भीषण मंदी के कारण वहां रोजगार कम हो रहे हैं। सब से ज्यादा असर तेल व गैस से जुड़े उद्योगों पर हो रहा है। वहां रोजगार में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आई है। नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है और आर्थिक संकट के कारण वर्तमान रोजगार कम किए जा रहे हैं। यूएई की टेक्नीक नामक एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने तो कोई साढ़े चार सौ लोगों को एक झटके में निकाल दिया। आस्ट्रेलियाई कम्पनी वर्ली पार्सन ने अपना आधा स्टाफ कम कर दिया है। जो स्टाफ बचा है, उनका वेतन भी 20 फीसदी घटा दिया है। यहां तक कि बर्कले, स्टैनचार्ट, एचएसबीसी एवं मार्गन स्टेनली ने भारी मात्रा में अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती की घोषणा की है। यूएई की नेशनल बैंक ऑफ आरएके ने 250 अनिवासी लोगों को नौकरी से हटा दिया। यूएई की किसी कम्पनी ने हाल में पहली बार इस तरह की कर्मचारी कटौती की है।

माँस्टर डॉट कॉम नामक सेवा नियोजन करने वाली एक कम्पनी है। यह कम्पनी भारत, मध्यपूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया एवं हांगकांग में रोजगार के अवसर मुहैया कराती है। इसके प्रबंध निदेशक संजय मोदी का कहना है कि “हम दक्षिण पूर्व एशिया एवं खाड़ी देशों में रोजगार के अवसरों में मंदी को देख रहे हैं। वर्ष 2015 के एक वर्ष में ही नौकरियों की मात्रा में आधी कमी आ गई।” यही नहीं, तेल में मंदी का असर पूरे विश्व में अनुभव किया जा रहा है। तेल जब उछल रहा था तब तेल उत्पादक देश मजे कर रहे थे और गरीब तथा विकासशील देश संकट में पड़ गए थे। आज स्थिति विपरीत हो गई है। तेल उत्पादक देश संकट का सामना कर रहे हैं। तेल में जब तेजी थी तब तेल उत्पादक देशों के पास रिजर्व के रूप में भारी धन जमा हो गया था, जो आज तेजी से घट रहा है। तेल मंदी से कितने लोगों को रोजगार खोना पड़ा, इसका कोई अधिकृत आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन अनुमान लगाया गया है कि विश्व भर में कोई 2,50,000 लोगों का साल भर में ही रोजगार चला गया। यह अकेले केवल तेल उद्योग की बात है। अन्य उद्योगों पर भी इसका तेजी से असर पड़ा है और उनका लेखा-जोखा करें तो यह संख्या बहुत बड़ी होगी। तेल एवं गैस के अलावा शिक्षा, रसायन, प्लास्टिक, रबर, पेंट, उर्वरक, कीटनाशक उद्योग बहुत प्रभावित हो रहे हैं। इसके अलावा उत्पादक कारखाने, आटोमोबील एवं सहायक उद्योगों के उत्पादन पर असर पड़ रहा है। इससे कर्मचारियों की संख्या में कमी आना स्वाभाविक है। कर्मचारियों में कमी करना चूंकि आसान है, इसलिए एक झटके में लोग सड़क पर आ जाते हैं।

मीडिया में छपी खबरों के अनुसार खाड़ी सहयोग देशों की जीडीपी में लगातार गिरावट आ रही है। इस संगठन को गल्फ को-ऑपरेशन कौंसिल कहा जाता है। इस संगठन में सऊदी अरब के साथ बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर एवं यूएई ये 6 देश हैं। इन देशों में नई परियोजनाएं नहीं आ रही हैं। इसलिए नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है। पुरानी परियोजनाओं को भी कई कम्पनियों ने बीच में ही रोक दिया है और खर्च कम करने के लिए कर्मचारियों को हटा दिया है। रोजगार में कटौती के कारण मध्यपूर्व के देशों में सकल घरेलू उत्पाद या कहें कि विकास दर लगातार गिर रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में सऊदी अरब के चालू और वित्तीय खाते में कोई 15 फीसदी की कमी आई। यही हालत रही तो तेल में तेजी के दौरान जो भारी धन जमा हुआ था, वह अगले कुछ वर्षों में चुक जाएगा। सऊदी अरब के कारण उसके अन्य अरब सहयोगी देश भी यमन युद्ध में उतर गए हैं। तेल में मंदी और यमन युद्ध के कारण सऊबी अरब को सब से ज्यादा नुकसान होगा और स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो अगले पांच-छह साल में उसकी हालत पतली हो जाएगी।

एक और उल्लेखनीय मुद्दा यह है कि मध्य पूर्व में वर्चस्व की लड़ाई के कारण अमेरिका और रूस सीरिया युद्ध में उतर गए हैं। रूस को रोकने के लिए अमेरिका अपने अरब मित्र देशों का इस्तेमाल कर रहा है। ईरान पर राष्ट्रसंघ के आर्थिक प्रतिबंध हाल में हट गए हैं। सीरिया युद्ध के कारण शरणार्थियों की बिकट समस्या यूरोप के समक्ष उपस्थित हुई है। लाखों लोग यूरोप की ओर पलायन कर रहे हैं। यूनान (ग्रीक), इटली की अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही संकट से गुजर रही हैं। जर्मनी ने भारी संख्या में शरणार्थियों को पनाह दी है। यूरोप के अन्य देशों में भी शरणार्थियों का लगातार आना जारी है। अतः यह यूरोप के लिए भी संकट की घड़ी है। वहां भी रोजगार के अवसर खत्म हो रहे हैं और वर्तमान में जो रोजगार चल रहे हैं वे भी संकट में आ सकते हैं। यूरोप में भी ‘हायर एण्ड फायर’ की नीति चलती है। पहले इसका लाभ कर्मचारियों को मिलता था। ज्यादा वेतन की नौकरी मिलते ही कर्मचारी पिछली नौकरी में नोटिस अवधि की तनख्वाह अदा कर दूसरी नौकरी पकड़ लेता था। लेकिन अब स्थिति विपरीत है। ज्यादा वेतन की तो क्या, समान या कम वेतन की भी नौकरियां संकट में दिखाई देती हैं। कर्मचारियों को इसके प्रति सावधान हो जाना चाहिए।

कुल मिलाकर खाड़ी में अगले कुछ वर्षों तक आकर्षक नौकरियों का भविष्य घटता जा रहा है। खूब पैसा कमाकर भारत में अपने को संवारने के सपने देखने वाले कर्मचारियों को सतर्क होने की जरूरत है। वहां की बनिस्बत भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति अब मजबूत है। इसलिए सलाह यही दी जा सकती है कि सोने की अंधड़ की चकाचौंध में फंसने की अपेक्षा भारत में ही यथार्थ के साथ रोजगार करें। इससे भारतीय श्रमिकों के कौशल व प्रतिभा का देश को लाभ मिलेगा। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि हम विश्व के अन्य देशों में जाकर चुनौतियों का समाना न करें। व्यवसाय का नियम है कि जितना अधिक जोखिम होगा, उतना अधिक लाभ होता है। लेकिन यथार्थ को समझ कर कदम उठाए जाने चाहिए। जो जोखिम उठाने की स्थिति में हैं, वे अवश्य जोखिम लें; लेकिन महज लालच में जाकर संकट को आमंत्रित न करें।

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