लाल और नीली कटोरी

“कन्हैया जैसे नेता धूमकेतु की तरह होते हैं, जो कुछ समय तक आकाश में अपनी चमक बिखेर कर लुप्त हो जाते हैं। इसलिए लाल और नीले के मिलन के सपने देखना छोड़ कर उसे अपनी पढ़ाई और राजनीतिक भविष्य की चिंता करनी चाहिए।”

इन दिनों दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (ज.ने.वि.) काफी चर्चा में है। गत नौ फरवरी को वहां छात्रों तथा कुछ बाहरी लोगों ने पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत तेरे टुकड़े होंगे: इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह तथा भारत की बरबादी तक जंग चलेगी.. जैसे देशद्रोही नारे लगाए। वे अफजल गुरु, मकबूल बट तथा याकूब मेनन जैसे देशद्रोही आतंकियों की याद में यह कार्यक्रम कर रहे थे। उस समय छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया भी वहीं था। उसने नारे लगाए या नहीं, इस पर दोमत हैं; पर इतना तो सच है कि उसने इन्हें रोका नहीं। अतः देशद्रोह के आरोप में उसे जेल जाना पड़ा।

इस पर वामपंथियों ने हंगामा मचा दिया। देश से ही नहीं, तो विदेश से भी उसके समर्थन में अर्जी-फर्जी लोगों के बयान आने लगे। मीडिया में जमे वाममार्गियों ने इस विषय को देशव्यापी बना दिया। सारे देश ने दूरदर्शन पर वे देशद्रोही नारे लगते हुए सुने और देखे। फिर भी मोदी विरोध में अंधे नेता उसका समर्थन करने पहुंच गए। सबसे अधिक शर्मनाक तो राहुल बाबा का वहां पहुंचना था। वे प्रायः कहते हैं कि मेरे परिवार ने देश के लिए बहुत बलिदान किए हैं; पर फिलहाल उन्हें बंगाल का चुनाव दिखाई दे रहा है, जहां कांग्रेस अपने अस्तित्व से जूझ रही है। वामपंथियों से समझौता कर राहुल जहां कुछ सीटें पाना चाहते हैं वहां ममता बनर्जी से पुराना हिसाब भी चुकाना चाहते हैं। इसलिए वे देशद्रोहियों का समर्थन करने चले गए।

वामपंथियों ने कन्हैया को छुड़ाने का खूब प्रयास किया; पर न्यायालय ने 20 दिन बाद उसे छह महीने के लिए सशर्त जमानत दी। इस दौरान उसके आचरण पर नजर रखी जाएगी तथा उसे जांच हेतु थाने में आना होगा। इसका परिणाम यह हुआ कि ज.ने.वि. में हुए स्वागत जुलूस में तिरंगे झंडे को प्रमुखता से फहराया गया। कन्हैया ने अपने भाषण में भारत के संविधान में आस्था व्यक्त की तथा अपना आदर्श अफजल गुरु की बजाय हैदराबाद वि.वि. के छात्र रोहित वेमुला को बताया, जिसने पिछले दिनों आत्महत्या की थी।

मीडिया में आजकल चैनल हावी हैं, जो विज्ञापन की खाद से चलते हैं। बाजार और विज्ञापन की दुनिया सदा नए की ओर भागती है। इसी मीडिया ने मोदी और केजरीवाल को हीरो बनाया था। बहुत दिनों से उन्हें कुछ नया नहीं मिल रहा था। कन्हैया ने यह कमी पूरी कर दी। द्वापर में कान्हा का जन्म कारागार में हुआ था। मीडिया ने तिहाड़ में हुए इस कलियुगी कन्हैया के नेतावतार को लपक लिया। अतः जेल से आकर ज.ने.वि. में हुआ उसका भाषण कई चैनलों ने दिखाया। इससे कन्हैया हीरो बन गया। वामपंथी उस चेहरे को अब बंगाल चुनाव में भुनाना चाहते हैं।

इस भाषण में कन्हैया ने कहा कि जेल के बरतनों में उसे लाल और नीले रंग की दो कटोरियां भी मिली थीं। उसने लाल को वामपंथ तथा नीले को आंबेडकरवाद का प्रतीक कहा। इस प्रकार उसने बताने का प्रयास किया कि ये दोनों शक्तियां मिल कर मोदी और संघ को उखाड़ सकती हैं। वस्तुतः उसकी सोच नई नहीं है। जिन लोगों की सोच तोड़ने और उखाड़ने तक ही सीमित है, वह उन्हीं का अनुयायी है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे इस देशद्रोही चिंतन में से ही उपजे हैं; पर क्या यह विचार कभी सच हो सकेगा? कम से कम आज तो ऐसा नहीं लगता।

भारत में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में हुई। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया। 1962 में चीन के राष्ट्राध्यक्ष माओ को अपना अध्यक्ष तथा चीनी सेनाओं को ‘मुक्ति सेना’ कहा। अतः वामपंथ जड़ पकड़ने से पहले ही सूखने लगा। किसी समय देश के कई राज्यों से कम्यूनिस्ट विधायक और सांसद जीतते थे; पर आज वे एक-दो कोनों में ही शेष बचे हैं। अब वहां से भी उनके पैर उखड़ रहे हैं। मजबूरी में बंगाल में भी वे कांग्रेस को साथ ले रहे हैं, जहां 35 साल तक उनका राज्य रहा है।

भारत में कितने लाल खेमे हैं, यह उनका बड़े से बड़ा नेता भी नहीं बता सकता। छह हजार छात्रों वाले ज.ने.वि. में ही नक्सली, अति नक्सली, माओ, लेनिन और स्टालिनवादी जैसे कई गुट हैं। किसी को रूस से प्राणवायु मिलती है, तो किसी को चीन से। मा.क.पा, भा.क.पा. और फारवर्ड ब्लॉक जैसे कुछ गुट चुनावी राजनीति करते हैं और बाकी मारकाट। आज जब इनके अस्तित्व पर ही संकट है, तब भी ये एक नहीं हो सकते, तो ये किसी नीले या पीले गुट से कैसे मिलेंगे, इसका उत्तर शायद कन्हैया के पास ही होगा।

लालपंथियों के सिकुड़ने का एक रोचक उदाहरण पिछले दिनों पढ़ा। एक अध्यापक ने लालपंथी से पूछा कि यदि किसी प्रश्न पत्र में सौ प्रश्न हों और तुम 85 को छोड़ कर केवल 15 के ही उत्तर दो, तो तुम्हें कितने नंबर मिलेंगे? उसने कहा कि यदि सब उत्तर ठीक हों, तो 15 मिलेंगे। अध्यापक ने कहा कि भारत की जनसंख्या में 85 प्रतिशत हिन्दू हैं। तुम दिन-रात उन्हें गाली देते हो। शेष 15 प्रतिशत के आधार पर देश में राज करने की बात सोचना मूर्खता नहीं तो और क्या है?

शायद लालपंथियों की समझ में ये बात अब आ रही है। बंगाल में दुर्गा पूजा महोत्सव में उनके सब नेता जाते हैं; पर पार्टी इनसे अलग रहती है। केरल के ओणम महोत्सव में भी ऐसा ही होता है; पर अब वे पार्टी स्तर पर इनमें सहभागिता करने लगे हैं।
कन्हैया ने नीली कटोरी के माध्यम से आंबेडकरवादियों को अपने साथ आने को कहा है; पर वह भूल गया कि इन दोनों में मूलभूत अंतर है। वामपंथ एक विचार है, जो सबके लिए खुला है, जबकि आंबेडकरवाद मुख्यतः कुछ निर्धन जातियों पर आधारित है। लालपंथियों के खुदा विदेश में हैं, जबकि आंबेडकरवादी सौ प्रतिशत भारतीय हैं। कुछ बातों में उनके धार्मिक और सामाजिक नेताओं से मतभेद हैं। शासन व्यवस्था से भी कुछ नाराजगी है; पर उनकी निष्ठा केवल और केवल भारत के प्रति है।
लालपंथी हिंसक हैं, जबकि आंबेडकरवादी अहिंसक। लालपंथी धर्म को अफीम मानते हैं, जबकि आंबेडकरवादी पूर्ण धार्मिक हैं। उनकी हर बस्ती में श्रीराम, श्रीकृष्ण, मां दुर्गा, शिव और हनुमान जी के साथ महर्षि वाल्मीकि, संत कबीर, संत रविदास आदि महामानवों की मूर्तियों वाले मंदिर मिलते हैं। वे उग्र हो सकते हैं, पर उग्रवादी नहीं। वे जेहादी तो कभी नहीं हो सकते। क्योंकि उन पर सर्वाधिक अत्याचार मुस्लिम काल में ही हुआ है। उन्हें घृणित कर्म के लिए मुस्लिम शासकों ने ही मजबूर किया है; पर वामपंथी खुशी से जेहादियों की गोद में बैठ रहे हैं। ज.ने.वि. कांड इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। अर्थात लालपंथी और आंबेडकरवादी दो विपरीत धु्रव हैं। डॉ. आंबेडकर ने वामपंथियों के बारे में जो कहा है, वह सर्वज्ञात है। नमूने के लिए एक कथन का उल्लेख ही पर्याप्त है, “मैं कम्यूनिस्टों से मिल जाऊंगा, ऐसा कुछ लोग बोलते हैं। इसकी जरा भी संभावना नहीं है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करने वाले कम्यूनिस्टों का मैं कट्टर दुश्मन हू्ं।” (दलित सम्मेलन, मैसूर, 1937)

आंबेडकरवाद को राजनीतिक दृष्टि से देखें। कभी सारे आंबेडकरवादी ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ में थे। इसका काम मुख्यतः महाराष्ट्र तक सीमित था; पर आज उसके कई टुकड़े हो चुके हैं। सभी गुट कांग्रेस या भा.ज.पा. के साथ मिलकर सत्ता भोगने की जुगत में लगे रहते हैं। डॉ. आंबेडकर के बाद दलित वर्ग को राजनीतिक शक्ति बनाने का सफल प्रयास श्री कांशीराम ने किया; पर दिल्ली पर राज करने का सपना उनके सामने ही टूट गया। उन्होंने उ.प्र. में मायावती को मुख्यमंत्री बनाया; पर उसने कांशीराम द्वारा विभिन्न राज्यों में तैयार किए गए नेताओं को अपने सामने झुकने को मजबूर किया। अतः सब नेता इधर-उधर हो गए। आज मायावती के साथ धनबल है और उसे लपकने को आतुर चाटुकारों की टोली।

अर्थात डॉ. आंबेडकर हों या कांशीराम, उनके समर्थक किसी ठोस सिद्धांत, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में बिखरते चले गए। आज दलित समाज के सर्वाधिक विधायक और सांसद भा.ज.पा. के टिकट पर जीतते हैं। क्योंकि जहां राजनीतिक रूप से भा.ज.पा. लगातार सशक्त हुई है, वहां उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम भी इन वर्गों में बढ़ रहा है। संघ वाले जाति का ढोल नहीं पीटते; पर संघ की नगर और तहसील से लेकर केंद्रीय टोली तक में स्वाभाविक रूप से हर जाति और वर्ग के कार्यकर्ता होते हैं।

संघ विचार के सभी संगठन अपने स्तर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों में सेवा के काम कर रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस, स.पा, ब.स.पा. जैसे राजनीतिक दल या वामपंथी कबीले इनके प्रति सहानुभूति का ढोंग ही करते हैं। राजनेता मानते हैं कि इस वर्ग का कल्याण सत्ता द्वारा ही हो सकता है; पर संघ की सोच है कि इसके लिए पूरे समाज को आगे आना होगा।

आपातकाल में मेरठ जेल में हमारे साथ कई नक्सली भी थे। एक दिन उन्होंने दीवार पर अंग्रेजी में लिखा-Extreme hatred is the basis of our work. (अत्यधिक घृणा हमारे काम का आधार है।) संघ वालों ने उसके नीचे लिख दिया – शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है। इन पंक्तियों में ही वामपंथियों के सिकुड़ने और संघ के आगे बढ़ने का रहस्य छिपा है।
ऐसे में कन्हैया वामपंथ और आंबेडकरवादियों के किस कबीले और गुट के मिलने की बात कर रहा है? कन्हैया जैसे नेता धूमकेतु की तरह होते हैं, जो कुछ समय तक आकाश में अपनी चमक बिखेर कर लुप्त हो जाते हैं। इसलिए लाल और नीले के मिलन के सपने देखना छोड़ कर उसे अपनी पढ़ाई और राजनीतिक भविष्य की चिंता करनी चाहिए।
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