सबके चहेते नेता पी.ए.संगमा

लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष एवं पूर्वोत्तर के नेता पी.ए.संगमा अब नहीं रहे, लेकिन मेघालय और गारो वनवासी समाज को उन्होंने जो विरासत दी वह हमेशा याद रखी जाएगी। उनका स्वभाव बेहद मिलनसार था और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मुहर लगाने के कारण सारा देश उन्हें एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्वीकार करता था।

बांग्लादेश की सीमा से लगभग 2 किमी दूर चापाहाटी गांव में देश की स्वाधीनता के 16 दिन के बाद एक बालक का जन्म हुआ। उसका अत्यंत सामान्य परिवार था जो खेती से अपनी आजीविका चलाता था। उस बालक का नाम था पुर्णो आगितोग संगमा। जन्म तारीख थी 1 सितम्बर 1947। विभाजन का कालखंड होने के कारण अलग प्रकार का वातावरण था। माता पिता ने ईसाई धर्म का स्वीकार किया जिसके कारण घर में फादर का आना जाना था। गांव में शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। यह देखकर फादर ने इस बालक को अपने विद्यालय में लाकर पढ़ाया। संगमा ने 10वीं तक की पढ़ाई डालु में की और शिलांग के एंथोनी कॉलेज से बी.ए. की पढ़ाई करने बाद कुछ समय डालु के हाईस्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे। सन 1973 में वे राजनीति में आए। 1977 में प्रथम बार चुनाव जीता। केन्द्र में अलग-अलग मंत्रालयों जैसे कोयला, मानव संसाधन, उद्योग, प्रसारण, श्रम का मंत्री पद संभाला। वे मेघालय के मुख्यमंत्री भी रहे। राज्य में विपक्ष की भूमिका भी निभाई। जब 1977 में कांग्रेस का पतन हुआ था तब वे सांसद के रूप में चुन कर आए। वे इंदिरा गांधी के काफी करीबी माने जाते थे।

पी.ए.संगमा की विशेषता तब सामने आई जब वे लोकसभा के अध्यक्ष बने। वे थे तो जनजाति क्षेत्र से मगर सभी के साथ दोस्ती का व्यवहार रहता था। सारे देश ने उनका लोकसभा संचालन देखा कि कितनी शांति से उन्होंने सब को संभाला। उन्होंने लोकसभा में जिस तरह सभी को संभाला वैसे ही सामान्य से सामान्य व्यक्ति की भी वे चिंता करते थे। कोई भी गारो व्यक्ति दिल्ली जाता था तो वे उसकी जाति, धर्म, भाषा नहीं देखते थे, वे सब की मदद करते थे।

जब वे केंद्रीय श्रम मंत्री थे तब विदेश में अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के अधिवेशन में गए। वे कांग्रेस सरकार के प्रतिनिधि के रूप मेंगए थे तथा मुकुंदराव गोरे भारतीय मजदूर संघ की ओर से गए थे। मुकुंदराव गोरे ने भी कहा कि संगमा जी का स्वभाव बड़ा दोस्ताना है। मुझे आज भी याद है, जब मैं मेघालय में आया तो 1997 में ‘भारत मेरा घर’ की एक टीम लेकर नागपुर गया था। पू. रज्जू भैयाजी ने मुझे पूछा कि क्या तुम पुर्णो संगमा जी से मिले? क्या मित्रता में उन्होंने कभी स्वयं को संकुचित रखा? मैंने जवाब दिया- नहीं! सोनिया गांधी के विदेशी मुद्दे पर वे अडिग रहे। वे तत्व के पक्के थे। देखा जाए तो सोनिया गांधी भी तो कैथोलिक थीं व संगमा जी भी कैथोलिक थे। मगर विषय था देश का प्रधान मंत्री विदेशी नहीं होना चाहिए। इसके कारण उन्हें केद्रीय मंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ा। मगर इसकी उन्होंने चिंता नहीं की।

उनका प्रयत्न पूर्वोत्तर को नेतृत्व देने का था इसलिए वे राष्ट्रपति पद के निर्वाचन में भी खड़े हुए। शरद पवार जी ने उनका साथ नहीं दिया तो बाकी सभी को लेकर चुनाव लड़ा। यह उनकी हार का पहला व अंतिम अवसर रहा। संगमा जी, जिनके कारण पूर्वोत्तर की देश में पहचान बनी थी, आज हमारे बीच में नहीं रहे। गारो समाज को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक लेकर जाने में महत्वपूर्ण भूमिका उनकी थी।

उनके पश्चात पत्नी, दो पुत्रियां, दो पुत्र आदि परिवार के सदस्य हैं। गारो समाज संगमा जी को गारो पहाड़ का राजा कहते थे और आज सही में गारो समाज का राष्ट्रीय नेता नहीं रहा। यह सत्य है, वास्तव भी है और इसको कोई नकार नहीं सकता कि जिसने एक सामान्य घर में और सामान्य गांव जन्म लिया और असामान्य काम किया। धन्य हैं उनके माता पिता और संगमा जी स्वयं भी।
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