आकाश से ऊंचा आदमी

“मेरा विवाह निश्चित हो गया, यह मालूम होते ही उन्होंने (श्री सुरेश जी हावरे) कहा कि विवाह करते समय पंचशील का पालन करना, तथागत द्वारा कह गए मंत्र जीवन की सभी समस्याओं पर मार्ग दिखाएंगे। …संघ कार्य में अपना जीवन लगा देने वाले सभी मामलों में ऊंचा स्थान रखने वाले व्यक्ति ने मुझे पंचशील का सम्मान दिखाया, मेरे श्रद्धाकेद्र का सम्मान किया।”

स्थान-तुर्भे स्टोर, झोपड़पट्टी का खुला मैदान, वर्ष था 1989। समय था रात्रि के 11 बजे से 11.20 तक का। किराए पर लाए गए वीडियों पर मिथुन चक्रवर्ती का सिनेमा देखने का कार्यक्रम।

सिनेमा देखने में पूरी झोपड़पट्टी एकाग्रचित्त थी। ऐसी बस्तियों में उपयोग में आने वाली तालियां, सीटीबाजी विशेष रूप से चालू थी। झोपड़पट्टी में चलने वाला हल्लागुल्ला हो रहा था। कुल मिलाकर ऐसा वातावरण था। मैं भी सिनेमा देखने में मशगूल था। इस बीच यिर पे पीठ पर हाथ रखा। मैं सिनेमा देखने में इतना एकाग्र था कि मुड़कर भी देखा भी नहीं कि कौन हैं। वह व्यक्ति मेरी बगल में धूलभरी जमीन पर ही बैठ गया। कौन बैठा है यह जानने के लिए पलट कर देखा तो, मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मै शर्म से और भय से अधमरा सा हो गया। क्या करूं? कहां छिप जाऊं? समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि नवी मुंबई शहर के रा.स्व संघ के कार्यवाह सुरेश जी हावरे थे। मेरे तो मानो प्राण निकल गए।

उसका कारण यह था कि उसी दिन सुरेश जी ने अति महत्वपूर्ण बैठक बुलाई थी। उस समय मैं तुर्भे का नगर कार्यवाह था। मैं भी उस बैठक में अपेक्षित था। उस बस्ती का प्रभाव कह सकता हूं, पर सच यह है कि मुझे बैठक में जाना रुचिकर नहीं लगता था। उस समय मुझे सिनेमा देखना ज्यादा अच्छा लगता था। बस्ती के घर से 2-2 रुपये चंदा जमा करना, किराए का वीडियो लाना तथा रात में तीन-तीन पिच्चर देखना, यह बस्ती का कार्यक्रम हुआ करता था। उसी परम्परा का पालन करते हुए मैं बैठक में न जाकर सिनेमा देखता रहा। परंतु सुरेश जी चिंता के कारण मुझ से मिलने आए थे कि मैं बैठक में क्यों नहीं आ सका और अब उन्होंने अपनी आंखों से देख लिया कि मैं बैठक में क्यों नहीं जा सका।

सुरेश जी भी मेेरे साथ सिनेमा देखने लगे। पर सिनेमा देखते समय लोगों के द्वारा कसी जाने वाली फब्तियों तथा सीटीबाजी के कारण मैं सुरेश जी के सामने असहज महसूस कर रहा था। मैंने सुरेश जी से कहा- चलिए, मैं आपको छोड़ आता हूं। मैं सुरेश जी के साथ बस्ती के बाहर आ गया। अब मैं प्रकाश में उनके चहरे के भावों को देखने लगा। अब सुरेश जी मुझ पर चिल्लाएंगे , बोलेंगे इस फालतू काम के कारण तुमने बैठक छोड़ दी, अब से वे मेरा खयाल नहीं रखेंगे। मैं यह सोच कर घबराए हुए, अपराध बोध के साथ उनकी ओर देखने लगा कि अब वे क्या कहते हैं। परंतु यह क्या? उनका चेहरा तो हमेशा की तरह शांत एवं प्रसन्न था। बड़ी स्वाभाविकता के साथ उन्होंने कहा- सिनेमा अच्छा है, तुम देखो- कल मिलेंगे। बैठक में क्या हुआ यह तुम्हें कल बताऊंगा। और उन्होंने सच में दूसरे दिन बैठक की आदि से अंत तक की पूरी जानकारी दी। मुझे बाद में मालूम हुआ कि सुरेश जी उस रात को क्यों आए थे? उस समय नामांतरण का मुद्दा जोरों पर था। दलित और गैरदलितों के बीच का संघर्ष अपने चरम पर था। इस पृष्ठभूमि के कारण उन्हें चिंतित कर दिया था मेरी अनुपस्थिति ने। इसलिए बैठक समाप्त होते ही वे मेरे फुटपाथ के घर पर आए थे।

उसके बाद ही मेरा सही मायने में मत परिवर्तन हुआ। वैसे मैं अकेला बैठक में नहीं गया तो क्या फर्क पड़ने वाला था? मेरी अनुपस्थिति की चिंता करते हुए मेरे गुणदोषों को अपनेपन के साथ सहेजते हुए सुरेश जी स्वंय मेरे यहां आए। उनके उस दिन मेरे घर आने मात्र से मैं पूरी तरह संघ कार्य के लिए समर्पित हो गया।

मेरा सुेशजी के साथ परिचय हुआ वह 1986 में। दसवीं की परीक्षा दी थी मैंने । अभी संघ की शाखा में जाने लगा था। उस समय न्यू बाम्बे हायस्कूल में संघ शिक्षा वर्ग होने वाला था। छुट्टियां थीं ही, इसीलिए कैसा होता है यह वर्ग इसे देखने की उत्सुकता के साथ मैं अपने मित्र के साथ वर्ग में गया था। संघ से मेरा अभी-अभी परिचय होने के कारण मेरे लिए यह सब नया-नया ही था। हम तो यूं ही वर्ग में चले गए थे। वर्ग की सारी जिम्मेदारी सुरेश जी पर थी। उस समय सुरेश जी कौन हैं? नगर कार्यवाह या शहर कार्यवाह क्या होता है? इसे समझने की गंभीरता मुझ में नहीं थी। संघ कार्य की पहचान न होने के कारण मेरे लिए तो वर्ग की समाप्ति के साथ सब कुछ समाप्त हो गया था। अब उस वर्ग में आने वाले स्वंयसेवकों से मुलाकात अगले वर्ष ही होगी, वह भी यदि मैं वहां गया तो…!

पर वैसा हुआ नहीं एक दिन तुर्भे स्टोर झोपड़पट्टी के फुटपाथ पर बारदाने से ढंकी मेरी झोपड़ी के सामने स्कूटर आकर रुकी। उस काल में हमारी बस्ती में स्कूटर का आना भी कुतूहल का विषय होता था। उससे अधिक कुतूहल स्कूटर पर साफ-सुथरे सफेद कपड़े पहने व्यक्ति को देखने का था। कौन होगा भाई यह व्यक्ति? देखता हूं कि वह तो मेरे बारे में ही पूछताछ कर रहा था। मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था; क्योंकि आज तक इतना बड़ा कोई व्यक्ति मेरी पूछताछ करने कभी नहीं आया। उन्हें बैठने के लिए कहें तो कहां? जमीन धूल से पटी थी। चटाई थी, तो वह भी फटी पर मैली। क्या किया जाए, यह सोचने के पहले ही वे धूलभरी जमीन पर पालथी मार कर बैठ गए। और बड़ी आत्मीयता के साथ मेरी पूछताछ करने लगे। मैं वर्ग में गया, वहां मेरे नेतृत्व गुणों का विकास हुआ ऐसा कहकर उन्होंने मेरी सराहना की। और भी इधर-उधर की बातें करने के बाद उन्होंने कहा कि तुम शाखा के मुख्य शिक्षक का काम करो। पहली ही मुलाकात में मुझ पर विश्वास कर मुझे मुख्य शिक्षक के योग्य समझने वाले व्यक्ति पर मुझे आश्चर्य हो रहा था। मूलत: वह समय दलित पैंथर के आंदोलन का काल था। इसलिए मुझे चार लड़को को साथ लेकर नेतागिरी करने की आदत थी। पर शरीर की ऊर्जा को, मन की जिद को कोई अनुशासन नहीं था। तुम अच्छा कर रहे हो, तुम अच्छा कर सकते हो यह कह कर मुझे कुछ अच्छा करने की प्रेरणा देने वाला कोई नहीं था। स्कूटर पर आने वाले उस व्यक्ति ने मेरे आत्मविश्वास को नई दिशा दी। यह सही था कि मैं बहुत गरीब था, परंतु उसके बावजूद बस्ती के लिए कुछ करने की सुखद भावना मेरे अंदर अंकित हो चुकी थी।

आगे दो वर्षों में मुझ पर शाखा कार्यवाह, नगर सह कार्यवाह तथा नगर कार्यवाह की जिम्मेदारी आई। 1988 से 89 तक का वर्ष डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी का वर्ष था। सुरेश जी ने सुचित किया विट्ठल अपनी बस्ती में सभा करना है। मेरी बस्ती पूरी बौद्ध समाज की बस्ती थी। वहां आज तक केवल दलित पैंथर था। रिपब्लिकन वालों की ही सभाएं होती आईं। सुरेश जी ने हमारी हिम्मत बढ़ाई, हमने भी पूरी तैयारी की। जो खाली जगह थी वहां दलित पैंथर का बोर्ड लगा था। वह बोर्ड भी टूटा फूटा था। उस बोर्ड के खम्भे से किसी की भैस बंधी हुई थी। मैदान में गोबर फैला हुआ था। अब बस्ती में सभा की व्यवस्था करना है तो मैंने बस्ती के स्वयंसेवकों को साथ लिया। स्वयंसेवकों ने खम्भे से बंधी भैस को बांधने की अलग व्यवस्था की। भैस के मालिक से कह कर वहां भैस बांध दी। मैदान में पड़े गोबर तथा धूल को साफ किया। मैदान अब साफ हो गया था। वह टूटा हुआ बोर्ड अच्छा नहीं दिखाई दे रहा है, इसीलिए हमने आपस में पैसा इकट्ठा कर नया बोर्ड पेंट करवाया। उसमें वही नाम लिखा गया, जो पूर्व में लिखा हुआ था। हम सभा के लिए तैयारी में जुट गए। वह समय नामांतरण के लिए चल रहे आंदोलन का था। पैंथर की बहुत शक्ति थी। कुछ देर बाद पैंथर के कार्यकर्ता हल्लागुल्ला करते वहां पहुंचे। तुम लोगों की बोर्ड बदलने की हिम्मत कैसे हुई? यह सभा कैसे होती है, देख लेंगे इस प्रकार की उत्तेजित भाषा में बात करने लगे। मैं उन्हें समझाने में लगा रहा। पर वातावरण गरमाते जा रहा था। उस समय मोबाइल नहीं था, पर किसी ने लैंडलाइन पर सुरेश जी को सूचना दे दी। और सुरेश जी क्षण में ही अपनी स्कूटर से पहुंच गए। चिल्लम्पो करने वाले पैंथर वालों से वे संवाद बनाने लगे। तुम्हारी बस्ती का, तुम्हारा ही यह कार्यक्रम है यह समझाते रहे। इधर सभा का समय होता जा रहा था। परंतु सुरेश जी की संवाद कला का परिणाम था कि पैंथर वाले मान गए तथा सभा स्थल को छोड़ कर चले गए। सब लोग अपने घरों से बैठने के लिए छोटी-छोटी दरियां भी ले आए। पूरे समय उन लोगों ने सभा को सुना। आगे भी कभी बस्ती में फिर कोई विवाद या संघर्ष नहीं हुआ, इसका श्रेय सुरेश जी को जाता है।

मैंने अब तक सुरेशजी का शांत स्वभाव ही देखा था। परंतु एक दिन मैंने उनका रौद्र रूप भी देखा। गुरु पूर्णिमा का उत्सव था। नगर कार्यवाह के नाते में नवी मुंबई के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर गया। मुझे दरवाजे पर देखते ही उस व्यक्ति ने अपना हाथ अड़ा कर कहा- भिखारी जैसे पैसे मांगते हो? कैसा उत्सव है? मैं क्यों दूं? चलो हटो। आगे भी वह अनापशनाप बोलते रहा। मेरे दिल को गहरी ठेस लगी। किसके पास जाकर मन को हल्का किया जाए? सोचते-सोचते आंखें भर आईं। सुरेश जी को जानकारी तो देना ही है। जानकारी देने के लिए वैसी ही रोनी सूरत लेकर मैं सुरेशजी के पास पहुंचा। वे अभी-अभी भोजन के लिए बैठे थे। मेरे चेहरे को देख कर वे समझ गए कि कोई अनहोनी हो गई है। उनके बहुत कहने के बाद मैंने न चाहते हुए भी पूरी घटना बता दी। उस समय मैं 18-19 वर्ष का रहा हूंगा। मुझ में भी उतनी समझ नहीं थी। मेरी बात को शांति के साथ सुनने के बाद उन्होंने अपनी भोजन थाली बगल में रखते हुए मुझ से कहा- चलो- एक काम है। मुझे अपनी स्कूटर पर बैठाया। देखता हूं तो थोड़ी देर में हम उसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर पर पहुंच गए। सामने स्वयं सुरेश जी को देख कर वह व्यक्ति खुल कर मुस्कुराते हुए बोला- आइए, अंदर आइए, मैंने समर्पण की राशि तैयार रखी है। इस पर तमतमाये सुरेश जी ने कहा- मुझे तुम्हारे घर में क्या, दरवाजे पर भी खड़े होने की इच्छा नहीं है। आपने इस लड़के का अपमान किया हैं। ये लड़का कौन है? स्वयंसेवक है, यहां का नगर कार्यवाह है। क्या वह आपके पास भीख मांगने आया था? अभी तक कितना समर्पण किया है उसका हिसाब दों, वह पूरी राशि मैं आपको वापस करता हूं। भविष्य में किसी भी स्वंयसेवक से बात करते समय सोच समझ कर बोलना।

स्वयंसेवक का अपमान मेरा अपमान है, संघ का अपमान है, याद रखो मैं संघ का अपमान भी सहन नहीं कर सकता। सुरेश जी गुस्से में बोलते जा रहे थे। उनका गुस्सा मैं पहली बार देख रहा था। सामने का व्यक्ति कुछ लज्जावश तो कुछ भयवश थरथर कांपने लगा। उसे उसी हालत में छोड़ कर सुरेश जी मुझे साथ लेकर पुन: अपने घर आए। मेरे अपमानित मन को कैसा महसूस हो रहा था- क्या कहूं? एक पिता जैसे लड़का या भाई समझ कर मुझ पर स्नेह करने वाले, मेरी चिंता करने वाले, सुख-दुख में सहभागी होने वाले मेरे साथ कोई है, इस बात से मुझे उस समय कितना सम्बल मिला होगा! वह सम्बल आज भी मेरे साथ है।
कुछ समय बाद बस्ती में सेवा कार्य के लिए सुरेश जी ने योजना बनाई। बस्ती में क्रांतिवीर लहुजी साळवे के नाम से कोचिंग क्लास, पुस्तकालय तथा वाचनालय शुरू करने की बात सुरेश जी ने सामने रखी। इसकी व्यवस्था भी हो गई। उस समय मैंने सुरेश जी से सवाल किया कि लहूजी उत्साद के नाम से ही क्यों हम यह काम शुरू कर रहे हैं? हमारी बस्ती में तो एक दो घर ही मातंग समाज के हैं। इस मासूम प्रश्न के उत्तर में सुरेश जी ने बताया- लहुजी साळवे क्रांतिकारी थे। देश के लिए तथा समाज के लिए उन्होंने कितना काम किया। इसके लिए उनके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। महापुरुष जाति के नहीं होते, पूरे समाज के होते हैंं। जैसे बाबासाहेब तथा फुले सबके हैं, वैसे ही लहुजी हम सबके हैं…मैं अवाक् रह गया। यह सर्वसमावेशक मंत्र मेरे मन में हमेशा के लिए स्थान बना गया। हमारी बस्ती मे क्रांतिवीर लहुजी साळवे के नाम से कोचिंग क्लास, वाचनालय आदि नियमित रूप से चलने लगे। आगे चलकर मैंने डी. एड. पास पास किया। सुरेश जी ने समझाया कि अब अपनी रोजी-रोटी की चिंता करो। एक दिन घर में बुलाया, मुझे लगा बैठक होगी, परंतु घर जाने पर देखा कि सुरेश जी समाचार पत्र लेकर बैठे हैं। मुझे समाचार पत्र देते हुए कहने लगे, इस समाचार पत्र में नौकरी के लिए विज्ञापन आते हैं, इसे नियमित रूप से पढ़ते रहना। आगे उन्होंने पूछा नौकरी के लिए अर्जी बनाना आता है? मैं क्या उत्तर देता? आज तक कभी अर्जी लिखी ही नहीं थी। अर्जी भरने से लेकर उसके साथ नत्थी किए जाने वाले रेकॉर्ड की जानकारी के साथ साक्षात्कार की तैयारी तक की सारी बातें सुरेश जी ने बताई। उन्होंने मुझ से आवश्यक तैयारी करवा ली। मैंने कई स्थानों पर अर्जियां भेजीं। मेरे रिश्तेदार तथा मित्र कहने लगे- अरे तू तो संघ में किसी पद पर है न, फिर वे तुम्हें किसी नौकरी पर क्यों नहीं लगवा देते? उनकी भी शिक्षा की संस्थाएं हैं। यें बातें बिना विचार किए सुरेश जी को मैंने कह दीं। इस पर उन्होंने कहा- विट्ठल, ऐसा है कि खुद की ताकत के भरोसे, स्वंय के द्वारा किए गए प्रयासों से बड़ा बनना चाहिए। किसी के उपकार से आदमी सिर ऊंचा करके जी नहीं सकता। तुम्हारे द्वारा प्राप्त कोई भी बात तुम्हें प्रेरणा देती रहेगी, स्वाभिमान उत्पन्न होगा। किसी से मांग के कुछ प्राप्त किया तो उसमें काहे का स्वाभिमान? तुम्हारे अंदर कुछ विशेषताएं हैं, तुम कोशिश करो, निश्चित ही सफलता प्राप्त करोगे। मैंने मेहनत की, प्रयास किए और सफलता प्राप्त की। किसी की सहायता लिए बिना मुंबई जैसे शहर में अच्छी नौकरी पाने में सफल रहा। पीढ़ियों से अशिक्षित रहे परिवार का एक लड़का शिक्षक बन गया। सुरेश जी ने मेरे मन में स्वाभिमान के महत्व की एक तस्वीर निर्माण कर दी।
मेरे व्यक्तिगत जीवन पर भी उनका बड़ा प्रभाव था। मेरा विवाह निश्चित हो गया, यह मालूम होते ही उन्होंने कहा कि विवाह करते समय पंचशील का पालन करना, तथागत द्वारा कह गए मंत्र जीवन की सभी समस्याओं पर मार्ग दिखाएंगे। विवाह में बेकार का दिखावा कर खर्च मत बढ़ाना। संघ कार्य में अपना जीवन लगा देने वाले सभी मामलों में ऊंचा स्थान रखने वाले व्यक्ति ने मुझे पंचशील का सम्मान दिखाया, मेरे श्रद्धाकेद्र का सम्मान किया। उन्होंने कभी भी किसी भी बात को मुझ पर थोपने की कोशिश नहीं की। छोटा भाई या पुत्र मान कर मुझे हमेशा सम्मान के साथ जीने का मार्ग दिखाया।

सुरेश जी ने विधान सभा का चुनाव लड़ा। बहुत कम अंतर से सफलता दूर रह गई। हम सब इस चिंता में थे, दुख से भरे हुए थे कि सुरेेश जी इस हार से कैसा महसूस कर रहे होंगे? आज तक सुरेश जी ने हम सबको समय-समय पर सहारा दिया। अब हमें उनसे मिलने के लिए जाना चाहिए। पर मिल कर हम उन्हें क्या कहेंगे? इन विचारों के साथ उनसे मिलने गण्। पहुंचे, तो देखते हैं कि सुरेश जी बड़ी शांति के साथ बैठे हैं। हारजीत पर एक शब्द भी उन्होंने नहीं कहा। हमने बात निकाली तो उन्होंने इतना ही कहा- जो हो गया, सो हो गया, केवल जीतने के लिए ही तो काम नहीं करते न? क्या अभी तक किया गए काम को बंद करना है? समाज कार्य एवं संघ कार्य तो अपना प्राण है। और विषय बदलते हुए बोले- भाई अपना शाहिर विट्ठल उपम का देहावसान हो गया, कितना बड़ा आदमी था,

उन्होंने शाहिरी को जीवंत रखा। अपने बहुजन समाज के वे मानबिन्दु हैं। चलो फिर अपने काम में लग जाए। वाशी की शोक सभा तथा श्रद्धांजलि कार्यक्रम की तैयारी में लग गए। मेरे भाग्य को सराहूं या मेरा कोई पुण्य था कि ऐसे पितातुल्य व्यक्ति का स्नेह मुझे प्राप्त हुआ। और जीवन भर प्राप्त होता रहेगा। 1986 में जिस सुरेश जी से मेरी मुलाकात हुई थी वे आज भी वैसे ही हैं, सच में पितातुल्य!

दलित होकर मुझे क्या प्राप्त हुआ इसके बजाय एक मनुष्य के नाते मुझे प्राप्त करने की क्षमता बढ़ानी चाहिए इस बात की ओर सुरेश जी ने ध्यान दिया। मैं गरीब हूं या बौद्ध हूंं यह सोच कर उन्होंने कभी भी दया भाव नहीं दिखाया, तो एक मनुष्य के नाते मुझ में विद्यमान सभी गुणों का विकास हो उस पर उनका ध्यान रहा।

 

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