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सेवा में चिरस्थायी कल्याण का भाव आवश्यक

सेवा में चिरस्थायी कल्याण का भाव आवश्यक

by अमोल पेडणेकर
in मई २०१६, सामाजिक
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“हिंदू परंपराओं में सेवा को अत्यंत महत्व प्राप्त है। हमारे चिंतन में सेवा को ईश्वर से साक्षात जुड़ने का माध्यम माना गया है। हमारी आध्यात्मिक-धार्मिक परंपराओं और संत-महंतों की शिक्षा ने हमें इसी चिंतन की सीख दी है। वर्तमान में समाज बदल रहा है और फलस्वरूप समाज एवं व्यक्ति के जीवन से जुड़ी समस्याएं भी बदल रही हैं। उन्हें समझ कर हमें अपने सेवा कार्यों का दायरा बढ़ाना होगा। इसलिए सेवाकार्य को पाप-पुण्य के सीमित दायरे से बाहर निकालना और ‘समर्थ भारत निर्माण’ में उसे परावर्तित करने की सोच विकसित करना आवश्यक है।”

महाभारत में यक्ष और युधिष्ठिर में जो प्रश्नोत्तररूपी संवाद हुआ उसे ‘यक्षप्रश्न’ कहा जाता है। यक्ष ने युनिष्ठिर से संसार, स्वार्थ और परमार्थ के सभी पहलुओं को स्पर्श करने वाले अनेक उलझनभरे प्रश्न पूछे हैं। यक्ष ने युनिष्ठिर से पूछा, “दया च परा प्रोक्ता?” अर्थात, किस प्रकार की दया श्रेष्ठ है? उत्तर है, ‘दया सर्वसुखैषित्वम्’। याने, सब को सुख प्राप्त हो ऐसी दया करना ही श्रेष्ठ है।

हिंदू धर्म में सुख की कल्पना खुद तक या अपने परिवार तक सीमित नहीं होती। सभी जीवों को सुख देना, उनके कल्याण की इच्छा रखना- यह उदात्त भावना उसमें निहीत होती है।

“सर्वेऽत्र सुखिनःसन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्चन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात्॥”

विश्वकल्याण की यही प्रार्थना हिंदू आध्यात्मिक तत्वज्ञान से भारतीयों के दिलों में अंकित हुई है। अतः भारतीय मानस यथाशक्ति ‘सेवा’ को तत्पर रहता है। इससे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व सुख, स्वास्थ्य, संतोष की भावना महसूस होती है।
संत-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन सभी ने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की है। उनके कार्यों से हमें इस बात की सीख मिलती है। समाज में जहां अभाव है, वहां अभावग्रस्तों की सेवा करना, उनके जीवन में सुख एवं विकास लाना, यह एक छोटा सा प्रयत्न है। भारतीय विचारदर्शन में सेवाकार्य को बहुत महत्व है। जब तक हम सिर्फ दूसरे की भलाई की भावना से किसी की सहायता करते हैं तब तक वह परोपकारी कार्य है, परंतु जैसे ही हम ईश्वर का कार्य समझ कर सहायता करते हैं, तब वह ‘सेवा’ बन जाता है। मानव सेवा ही पुण्य का काम है। यह हिंदू धर्म की मुख्य शिक्षा है। ‘सेवा’ का प्रतिशब्द है – सुख। इसीलिए संत कबीर कहते हैं-“राजसत्ता मिलने में भी वह सुख नहीं है जो गोविंद की सेवा में है।” सेवा मानव को संतत्व की तरफ ले जाती है। इससे मानव का समस्त प्राणीमात्र पर विश्वास प्रशस्त होता है। इसलिए, सेवा दूसरे की न होकर अपनी ही होती है।

श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन का एक प्रसंग है। एक बार उनके शिष्य गरीबों को सहायता करने, उन पर दया करने को लेकर आपस में चर्चा कर रहे थे। भगवान रामकृष्ण परमहंस वहां मौजूद थे। उन्होंने कहा, “गरीबों पर दया करने वाले, उन्हें सहायता देने वाले तुम कौन होते हो? ये गरीब तो ‘नारायण’ के ही मूर्तिमंत स्वरूप हैं। हमें उनकी सिर्फ सेवा करनी है। हिंदू धर्म में अभावग्रस्त व्यक्तियों की सेवा का वर्णन ‘ईश्वर का स्वरुप मान कर, प्रत्यक्ष ‘नारायण’ की सेवा’ के रूप में किया गया है।
लोग धर्म के नाम पर कई प्रकार के कर्मकांडों और संस्कारों का पालन करते हैं, सेवा कार्यों का आयोजन करते हैं। परंतु वास्तव में यह नहीं सोचते कि ‘सेवा धर्म’ क्या है? ‘सेवा’ इस शब्द को ज्यादातर लोगों ने पापपुण्य से जोड़ रखा है। पापमोक्ष होने के लिए अन्नदान, पानी पिलाना जैसे कार्य किए जाते हैं। सामाजिक जागरूकता का प्रदर्शन करने की फैशन सी हो गई है। इसी कारण सेवा, कार्य न होकर ‘प्रोजेक्ट’ में परिवर्तित हो रहे हैं। अन्न वितरण से लेकर शिक्षा प्रदान करने तक सब कुछ अब ‘प्रोजेक्ट’ बनते जा रहे हैं।

समाज में सेवा किस प्रकार से करनी है? सेवा के अनंत प्रकार हैं। भूखे को अन्न देना, अज्ञानी को ज्ञान देना, बीमार को दवा देना, सहायता करना आदि कई प्रकार से सेवा की जा सकती है। मतलब समाज में, व्यक्ति में जो अभाव है, उस अभाव की पूर्तता करना यही सही ‘सेवा’ है। आज अपने समाज में मुख्य अभाव कौन से हैं? अज्ञान, दरिद्रता, अस्पृश्यता आदि विविध अभाव अपने समाज में हैं। इन सभी अभावों को दूर करने के सद्हेतु से अनेक व्यक्ति, संस्थाएं प्रयास कर रहे हैं। इन सभी सेवाकार्यों से जुड़े महानुभावों के संदर्भ में हमारे मन में सद्भावना है। परंतु प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, आज समाज को जिस प्रकार के सेवाकार्यों की नितांत आवश्यकता है, क्या वह इन सेवाकार्यों से साध्य हो रही है? क्या इन सेवाकार्यों से हमारे समाज का चिरस्थायी कल्याण हो रहा है?

आज समाज में विविध संस्थाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। उस शिक्षा से डॉक्टर, वकील, शिक्षक, इंजीनियर तो निर्माण होते हैं, लेकिन उनमें अंतरदृष्टि नहीं होती। पाठशाला के कारखानों से जो प्रॉडक्ट निर्माण हो रहे हैं, उनमें राष्ट्रभाव, समाजभाव की कमी महसूस हो रही है। अपने विकसित देश में हर कोई शिक्षित है; पर उसमें मनुष्यत्व रूपांतरित नहीं हुआ है। आज की शिक्षा लोगों को शांति, मौन और आनंद नहीं दे रही है। हमारी शिक्षा में कुछ कमी है, इसमें कुछ चुक रहा है। केवल भविष्य में व्यक्तिगत बढोत्तरी का अपेक्षित भाव दिखाने वाले विषय आज की शिक्षा में पढ़ाए जाते हैं, जो शिक्षार्थियों की अंतरात्मा को छूते ही नहीं हैं। ‘शिक्षा’ शब्द का वास्तविक अर्थ है- बाहर निकलना। लेकिन हमारी तथाकथित सारी शिक्षा हमारे शिक्षार्थियों के भीतर कुछ ठूंसती है। बाहर का उधार ज्ञान बच्चों में ठूंस दिया जाता है। शिक्षा में भौतिकी, इतिहास, गणित जैसे विषय पढ़ाए जाते हैं। जो भौतिक जगत में सही है, पर मनुष्य के अंतर्जगत में पर्याप्त नहीं है। आज शिक्षा के पास एक पंख है, वह है भौतिक। दूसरा ‘अंतर्ज्ञान’ का पंख गायब है। आज की शिक्षा प्रणाली में ‘ध्यान’ का कोई विषय नहीं है और ध्यान के बिना मनुष्य का ज्ञान अधूरा रहता है। यह हमारी आज की अनेक पीड़ाओं का मूल कारण है।

शिक्षार्थियों को पहले भीतर की शिक्षा की आवश्यकता है। उसके बाद बाहर की शिक्षा की जरूरत है। स्वयं को जानना जरूरी है। जो स्वयं को जानता है वह कभी अपनी बाह्य शिक्षा का दुरुपयोग नहीं करता। यदि आप स्वयं को नहीं जानते तो आप बाहरी शिक्षा का उपयोग सत्ता पाने में, शोषण करने में, गरीबी निर्माण करने में करेंगे।

आज सेवा के माध्यम से जो चिकित्सा सेवा हो रही है, वह चिकित्सा सहायता अच्छी बात है, पर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पा रही है। हम रोगों के परिणामों को हटाने के ऊपरी प्रयास कर रहे हैं। व्यसनाधीनता, मानसिक तनाव, बढ़ती जनसंख्या जैसे अनेक विषय हैं, जिन पर ध्यान देना आवश्यक है। स्वास्थ्य से जुड़ी अनेक पीड़ाओं का मूल कारण यहां भी है।
मनुष्य को यह समझने की जरूरत है कि, हमारी सारी समस्याएं हमारी बनाई हुई हैं। जब तक हम उनसे छुटकारा नहीं पाते तब तक सतही बातों की ‘सेवा’ से जादा कुछ हासिल नहीं होगा। हम अनेक सालों से सेवा कार्य विविध क्षेत्र में कर रहे हैं। अन्नदान कर रहे हैं, शिक्षादान कर रहे हैं, चिकित्सा सेवा दे रहे हैं। लेकिन फिर भी गरीबी बढ़ती जा रही है, आंतरिक अज्ञान बढ़ रहा है, मानसिक रूग्ण बढ़ रहे हैं, व्यसनाधीनता बढ़ रही है। अब यह समझ लेने का समय है कि, हम कुछ मौलिक गलती कर रहे हैं। दान का मतलब सिर्फ किसी को पैसे या वस्तु देना नहीं है, इसके पीछे मुख्य भाव यह है कि समाज में जो कमजोर या अभावग्रस्त वर्ग है, वह धीरे-धीरे मुख्य धारा में शामिल हो सके। दान का तात्पर्य किसी को सिर्फ रोटी देना नहीं, बल्कि उसे रोटी कमाने लायक बना देना है और इस कार्य में ज्ञानदान, विद्यादान तथा रूग्णसेवा जैसे सेवाकार्य भी आते हैं। जिनसे समाज के अभावग्रस्त वर्ग की बेहतरी के लिए ऐसा कुछ करें, जो चिरस्थायी स्वरूप में परिणाम दे सके। एक पुरानी चीनी कहावत है कि, इन्सान को मछली देकर आप उसे एक दिन का भोजन देते हैं, लेकिन अगर उसे मछली पकड़ना सिखा दें तो आप उसे जीवन भर के लिए भोजन दे सकते हैं।

आजकल सहायता के अतिरेक को ही ‘सेवा’ समझा जाने लगा है। अपने अभावग्रस्त समाजबंधुओं को परावलंबी बनाने के कार्य को ही भूलवश हम सेवा समझने लगे हैं। आज जो सेवाकार्य हो रहा है उनसे समाज स्वावलंबी बने, आत्मसम्मान और आत्मविश्वास संपादन कर सके इस प्रकार के प्रयास होने आवश्यक हैं। गीता में भगवंत कहते हैं-

उध्दरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव हयात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मेनः॥
(अपना उध्दार हमें की करना है, अपना मन ही हमारा मित्र अथवा शत्रु है।)

हमारे समाज का उध्दार हमें ही करना है। स्वालंबन की भावना उसमें निर्माण करनी है। यही नहीं तो, समाज के अंतिम स्तर में कार्य करके वहां के अभावग्रस्तों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जागृत हो ऐसे संस्कार उनमें करने का प्रयास हमारे सेवाकार्य में आवश्यक है। केवल सेवा करनी है इतनी मर्यादित कल्पना रखने के कारण आज अपनी सेवा भावना पाप-पुण्य की सीमा से आगे बढ़ी नहीं है। हमारी सेवा भावना इससे भी चार कदम आगे जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रभक्त होना चाहिए ऐसा भाव रख कर सेवा कार्य की रचना हो सकती है। समाज के अभावग्रस्त वर्ग की शक्ति का पुनर्निर्माण का कार्य हम कर सकते हैं। अपने महान देश की गौरवशाली परंपरा का भाव उनमें निर्माण करना और उनको राष्ट्रकार्य को सिध्द करने का कार्य भी हम कर सकते हैं। जो कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतन से देशभर में हो रहा है वह इसी प्रकार का है। वनवासी क्षेत्र के लोगों में, पूर्वोत्तर में व्यक्तिगत जीवन के विकास के साथ साथ समाजभाव, राष्ट्रभाव निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है।

सेवा संस्कारों से निरंतर चलने वाले स्थायी कार्य किस प्रकार निर्माण हो सकते हैं इसका उदाहरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है।

भारत-चीन युध्द काल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने जो प्रत्यक्ष धैर्य और साहसपूर्ण कार्य किया था, उससे अचंबित होकर सैन्य अधिकारियों ने पू.श्री.गुरुजी को पुछा था कि, “आप स्वयंसेवकों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं?” तब गुरुजी ने उत्तर दिया था, “कब्बडी”।

गुजरात में बांध टूटने के कारण चारों ओर पानी भर गया था। इस जलप्रलय में सड़े मानवी शवों को निकालने जैसे हर तरह के आवश्यक सेवाकार्य स्वयंसेवकों ने किए थे। तब स्वयंसेवकों की वाहवाही करते हुए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबुभाई पटेल ने सरसंघचालक पू.बालासाहब देवरस जी को वैसाही प्रश्न पूछा था, “आप स्वयंसेवकों को कौन सा प्रशिक्षण देते हैं?” पू. बालासाहब ने उत्तर दिया था, “प्रेतों को उठाने का प्रशिक्षण हम स्वयंसेवकों को नहीं देते हैं। सभी समाज अपना है, यह भावना उनके मन में बुनियादी तौर पर कायम हो ऐसे संस्कार संघ के विविध कार्यक्रमों से हम स्वयंसेवकों पर करते हैं। इसी कारण हिमालय से कन्याकुमारी तक फैले समाज के प्रत्येक व्यक्ति के संदर्भ में भातृभाव स्वयंसेवकों के मन में होता है। इसी कारण स्वयंसेवकों के सेवाकार्यों में बंधुत्वभाव महसूस होता है।

परमेश्वर ने मानव जाति को एक विशेष गुण मुहैया किया है और वह है प्रत्येक मनुष्य के हृदय में संवेदनशीलता का वास होता है। दूसरों के दुःखों में सहभागी होना, उसे कम करने का प्रयास करना यह मानव जाति की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति को हम पाप-पुण्य से जोड़ कर देखते हैे। इस कारण वह दिव्य सेवा भाव सिकुड़ कर रह गया है। समाज में आज जो प्रश्न है उन प्रश्नों के मूल तक पहुंचना है तो सेवाभाव को विस्तार से देखना अत्यंत जरूरी है। यह वर्तमान की आवश्यकता है। आज जो समाज में कमी के लक्षण दिखाई दे रहे हैं उसकी पूर्ति के लिए सेवाकार्य पंछी की तरह मुक्त होकर विहार करने वाला होना चाहिए। अपने पंखों को खोले और उड़े; ताकि समाज के अभावग्रस्तों में आने वाले भविष्य में चिरस्थायी कल्याण दिखाई दें।

अमोल पेडणेकर

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