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हिन्दू धार्मिक संस्थानों की ओर से बोलने का काम हम कर रहे हैं – एस. गुरुमूर्ति

हिन्दू धार्मिक संस्थानों की ओर से बोलने का काम हम कर रहे हैं – एस. गुरुमूर्ति

by हिंदी विवेक
in मई २०१६, साक्षात्कार
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हिन्दू धार्मिक संस्थान अपने बारे में कुछ बोलते नहीं हैं। इसलिए उनकी ओर से बोलने का काम सेवा मेले ने अपने हाथ में लिया है। यह पूरे देश में होना चाहिए। जयपुर में पिछले वर्ष अक्टूबर में हुआ ‘हिन्दू अध्यात्म एवं सेवा मेला’ पूरे देश में इसके विस्तार की पहल है।
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श्री एस. गुरुमूर्ति की गणना देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों में होती है। तमिलनाडु के निवासी श्री गुरुमूर्ति ने सी.ए. करने के बाद अर्थशास्त्र का गहन अध्ययन किया। भारतीय संस्कृति और पश्चिम के दर्शन को भी उन्होंने बारीकी से समझा। इन विषयों पर उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। लगभग तीन दर्शक पूर्व हुए बोफोर्स घोटाले को उजागर करने में उनकी प्रमुख भूमिका थी। बाद में वे ‘स्वदेशी जागरण मंच’ से जुड़े और इसके सह-संयोजक बने। भारतीय आर्थिक चिंतन और जीवन-पद्धति पर उनकी अच्छी पकड़ है। पश्चिमी जीवन-शैली के दुष्परिणामों से बचने के लिए वर्ष 2008 में उन्होंने ‘ग्लोबल फाउण्डेशन फार सिविलाइजेशन हॉरमनी’ की स्थापना की। इस मंच के मंथन से नवनीत के रूप में में ‘हिन्दू स्पिरिचुअल एण्ड सर्विस फेयर’ निकला। वर्ष 2009 में पहला आयोजन चैन्नई में हुआ। पहला प्रयोग ही अत्यंत सफल रहा।
उनके अत्यंत व्यस्त कार्यक्रमों के बीच उन्होंने हिंदी विववेक से खास बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के मुख्य अंश-

हिन्दू सेवा मेला आयोजित करने का विचार कैसे आया? इसकी पृष्ठभूमि क्या है?

मैं गत 25-30 वर्षों से भारतीय और पश्चिमी चिंतन और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूं। इसी बीच ‘स्वदेशी जागरण मंच’ में काम करने का अवसर मिला। इसमें काम करते हुए भारतीय समाज का अध्ययन करने, इसको समझने का संयोग बन गया। समझ में आया कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति दर्शन-शास्त्र, जीवन-पद्धति, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान और राजनीति का संयुक्त स्वरूप है। सभी कुछ इसमें है और कुछ भी छूटा नहीं है। और यह पुस्तकों में खोजने की जरूरत नहीं है। जन-सामान्य को हमारे सामाजिक तानेबाने का अध्ययन करने से यह पता चलता है। जो कुछ मैंने देखा और समझा उससे भारतीय समाज के बारे में मेरी धारणा बिल्कुल बदल गई।

हमारे समाज-जीवन का आधार आपसी सम्बंध हैं; जबकि पश्चिम में सब कुछ ठेके पर चलता है। पारिवारिक सम्बंध वहां हैं ही नहीं। जो कुछ है वह ठेका है, कांट्रेक्ट है। गत दो सौ सालों में पश्चिम ने जबर्दस्त भौतिक प्रगति की है, इसलिए पूरी दुनिया पर पश्चिमी विचारों का प्रभाव हो गया। पश्चिमी जीवन शैली ने विश्व में और विशेषकर भारत में अपना दबदबा बना लिया। इसका एक परिणाम यह हुआ कि भारत के सम्बंध में कुछ भ्रामक धारणाओं ने जन्म ले लिया।

एक भ्रामक धारणा यह बनी कि हिन्दू अध्यात्म में सामाजिक सरोकार बिल्कुल नहीं है। हिन्दू समाज में दयाभाव और पिछड़े वर्ग के प्रति सहानुभूति कतई नहीं है। इसलिए दस वर्ष पूर्व मैं जब अमेरिका गया और वहां के मित्रों से विचार-मंथन किया, तो निष्कर्ष निकला कि हिन्दू-बौद्ध परम्परा (संस्कृति) का अर्थात एशियाई संस्कृति का प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इससे विकृत मान्यताएं व धारणाएं ठीक होंगी। इसके लिए 22 जनवरी 2008 को ‘ग्लोबल फाउण्डेशन फार सिविलाइजेशनल हॉरमनी’ की स्थापना की गई। इसमें भारत की सभी चिंतन परम्पराओं का प्रतिनिधित्व हुआ। मुंबई के आर्कबिशप, रब्बी एजेकिल (यहूदी सम्प्रदाय), जत्थेदार जोगिन्दर सिंह, मौलाना मदनी, मुनि सुमेरमल जी, दलाई लामा और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के अतिरिक्त श्री श्री रविशंकर जी महाराज, स्वामी दयानंद सरस्वती, बाबा रामदेव तथा स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि भी इसमें सम्मिलित हुए। उसमें सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि दुनिया में सुख-शांति के लिए एशिया का प्रभाव बढ़ाना होगा। इसके लिए भारतीय संस्कृति के सम्बंध में जो भ्रामक धारणाएं उत्पन्न कर दी गईं उन्हें ठीक करना जरूरी समझा गया।

यह मिथ्या धारणा, कि हिन्दू अध्यात्म समाज के लिए कुछ नहीं करता, दूर करने के लिए हिन्दू स्पिरिचुअल एण्ड सर्विस फेयर की शुरुआत की गई।

पहला हिन्दू अध्यात्म एवं सेवा मेला (एच.एस.एस.एफ) सर्वप्रथम कब और कहां आयोजित किया गया?

सबसे पहले वर्ष 2009 में चैन्नई में यह मेला लगाया गया। कई धार्मिंक आध्यात्मिक संस्थानों से बात हुई और तीस मठ, मंदिर और संस्थान इस प्रथम आयोजन में सम्मिलित हुए। हिन्दू समाज का स्वभाव आत्म-प्रशंसा का नहीं है। इसलिए हम किसी की सेवा करते हैं तो उसकी चर्चा नहीं करते। हमारे आध्यात्मिक संस्थान भी अपने सेवा-कार्यों का बखान नहीं चाहते। अत: प्रारंभ में कोई तैयार ही नहीं हो रहा था। कुछ ऐसे थे जिन्हें ‘हिन्दू’ पर आपत्ति थी। हमने कहा- हिन्दू पूरे ब्रह्माण्ड का विचार करता है, अत्यंत व्यापक विचार है। ‘हिन्दू’ शब्द को हम नहीं छोड़ेंगे।

तमिनलाडु में हिंदू, हिन्दी का काफी विरोध है, इसको देखते हुए चैन्नई के लोगों ने इसमें कितनी रुचि दिखाई?

पहले दिन कम लोग आए। समाचार पत्रों में जब मेले के बारे में जानकारी छपी तो दूसरे दिन पचास हजार लोग आए, तीसरे दिन एक लाख लोगों ने मेला देखा। लोगों को जानकारी ही नहीं थी कि हिन्दू मठ-मंदिर भी समाज के कमजोर वर्ग की सेवा करते हैं। उदाहरण के लिए रामकृष्ण मिशन हर साल 84 लाख लोगों को चिकित्सा-सेवा प्रदान करता है। यह संख्या भारत की आबादी का सात फीसदी है। सत्य साई फाउण्डेशन ने आंध्र प्रदेश के सात सौ सूखाग्रस्त गांवों में पीने का पानी पहुंचाया। इसके लिए ढाई हजार कि.मी. लम्बी पाइप लाइन जमीन में बिछाई गई, दो सौ से अधिक पानी की टंकियां बनाई गईं। योजना-आयोग ने अपनी रपट में लिखा कि कोई सरकार ऐसा उत्कृष्ट काम नहीं कर सकती। कुछ वर्षों पहले सुनामी की आपदा आई थी। माता अमृता अमृतानंदमयी आनंदमयी मठ ने सुनामी में बेघरबार हुए लोगों को 25 हजार मकान बना कर दिए। कोई इस बारे में नहीं जानता और इसलिए हमने जब मेले में ये जानकारियां दीं तो लोग आश्चर्यचकित हो गए।

अन्य संस्थानों पर भी इसका प्रभाव हुआ। सन् 2010 में 98 धार्मिक संस्थान इस मेले से जुड़े, आगामी वर्ष 120 जुड़े, फिर 200, इसके बाद 240 आध्यात्मिक संस्थान और गत वर्ष 300 संस्थान और संगठन इस आयोजन से जुड़ गए।
मीडिया का इस मेले के प्रति क्या दृष्टिकोण रहा?

मीडिया को भी जानकारी नहीं थी कि हिन्दू संस्थान इतना बड़ा और व्यापक सेवा-कार्य कर रहे हैं। उनके लिए भी यह नया अनुभव था, एक नई स्टोरी थी, इसलिए संवाद-माध्यमों में एच.एस.एस. एफ. का खूब प्रचार हुआ और अब तो कई मीडिया घराने इस मेले के सह- आयोजक हो गए हैं। ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’, तमिल का सबसे बड़ा दैनिक ‘दिनमणि’ तथा ‘दिनथंति’ इससे जुड़ गए हैं। सबसे बड़ी साप्ताहिक पत्रिका ‘कुमुद’ (तमिल) अब मेले की सह-आयोजक है। जी टीवी (तमिल) तथा थन्ति टीवी भी इसके आयोजन में सहायक हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि राज्य सरकारें इस मेले की पेट्रन (संरक्षक) बन गई हैं। केरल, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस सरकारें थीं। दोनों राज्यों की सरकारें मेले की संरक्षक हैं। तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक और कर्नाटक की सरकारें भी इस आयोजन का खर्च उठाती हैं।

दो-तीन दिनों के मेले में आप दिखाते क्या हैं? किन बातों को प्रदर्शित किया जाता है?

इसमें भाग लेने वाले सभी धार्मिक -आध्यात्मिक संस्थान अर्थात मठ, मंदिर व अन्य संगठन अपने सेवा-कार्यों का पूरा विवरण प्रस्तुत करते हैं। सेवा-कार्यों के प्रभावी फोटो, क्षेत्र के लोगों की राय और सेवा-प्रकल्प के परिणामों को भी प्रदर्शित किया जाता है। इसी के साथ भविष्य की योजनाओं की जानकारी भी ये संस्थान देते हैं। हमारी संस्कृति में सेवा व संस्कार के जो उदाहरण, उपदेश, प्रसंग आदि हैं, उनको भी प्रस्तुत किया जाता है। हमारी परम्परा में पर्यावरण, वन्य जीव संरक्षण, नारी-सम्मान, माता-पिता-गुरू के सम्मान के लिए जो प्रतिरूप (सिम्बल) हैं उनको भी समझाया जाता है। मेले में सेमिनार, संगोष्ठी, रंगमंचीय कार्यक्रम आदि भी आयोजित किए जाते हैं। हिन्दू अध्यात्म एवं सेवा मेले का एक उद्देश्य यह भी है कि अधिक से अधिक संस्थान सेवाकार्यों से जुड़ें।

आपने पर्यावरण, वन्य जीवों के संरक्षण आदि की बात कही। इससे ध्यान में आया कि आप हिन्दू, सेवा मेले के पूर्व छात्रों की प्रतियोगिताएं आदि भी कराते हैं। इसका क्या उद्देश्य है?

वर्ष 2010 में जो मेला लगा था उसे देखने वालों में बहुत बड़ी संख्या छात्र-छात्राओं की भी थी। उनसे बातचीत करने पर ध्यान में आया कि भारतीय संस्कृति एवं अध्यात्म के बारे में उनका ज्ञान लगभग शून्य है। मेले के बाद जब कार्यकर्ता-गण उसकी समीक्षा के लिए बैठे तो इस विषय पर भी विचार किया गया। काफी विचार के बाद निष्कर्ष निकला कि आधुनिक जीवन-पद्धति के प्रभाव में पूरा छात्र समुदाय है और उसे हमारे नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से परिचय कराना आवश्यक है। सेवा मेले से जुड़े कार्यकर्ताओं ने विचार किया और तय किया कि किशोरों और नौजवानों को सामयिक मुद्दों पर भारतीय चिंतन का ज्ञान कराया जाए। गहरे सोच-विचार के बाद छह विषय निश्चित किए गए। जिनके सम्बंध में भारतीय दृष्टिकोण को छात्र-समुदाय को समझाना आवश्यक समझा गया। ये थे-

(1) वनों तथा वन्य जीवों का संरक्षण (2) इकोलोजी (पारिस्थितिकी या वातावरण) का संरक्षण (3) पर्यावरण की रक्षा (4) पारिवारिक तथा मानवता की भावना उत्पन्न करना (5) नारी-सम्मान का भाव उत्पन्न करना तथा (6) देशभक्ति के संस्कार उत्पन्न करना।

इसमें से वर्ष 2011 में आई एमसीटी का जन्म हुआ। यह है नैतिक तथा सांस्कृतिक शिक्षा अभियान, जो मेले से पूर्व चैन्नई के स्कूलों के छात्र-छात्राओं की विभिन्न खेल एवं अन्य प्रतियोगिताएं आयोजित करता है। खेल प्रतियोगिताएं विशुद्ध रूप से भारतीय खेलों जैसे सतोलिया, गिल्ली डंडा आदि की होती है। अंतिम चरण में पहुंचने वाली टीमों के मुकाबले मेले के समय होते हैं। इन खेल व रंगमंचीय प्रतियोगिताओं के बीच छह विषयों से सम्बंधित भारतीय परम्पराओं से भी छात्रों का सम्बंध जोड़ा जाता है।

वनों की रक्षा के संस्कार के लिए वृक्ष वन्दनम् (वृक्षों की पूजा), वन्य जीवों की रक्षा के लिए नाग वन्दनम् (सर्प की पूजा), इकोलोजी को बचाने के लिए गो, गज तथा तुलसी वन्दनम् (गाय, हाथी व तुलसी की पूजा), पर्यावरण की रक्षा के लिए भूमि व गंगा वन्दनम् (पृथ्वी माता और गंगा माता की पूजा), पारिवारिक व मानवीय मूल्यों के लिए मातृ-पितृ-गुरु वन्दनम् (माता, पिता व गुरु की पूजा), नारी सम्मान का भाव जगाने के लिए कन्या व सुवासिनी पूजन (कन्या तथा सधवा माता का पूजन) तथा देशभक्ति के संस्कारों के लिए भारत माता तथा परमवीर वन्दनम् (भारत माता तथा परमवीर चक्र विजेताओं का पूजन) प्रारम्भ किया गया।

प्रतिरूपों का यह पूजन अत्यंत सफल रहा। मेले में इसे अपार जन-समर्थन मिला। इसके अतिरिक्त चैन्नई के अनेक विद्यालयों में ये कार्यक्रम नियमित रूप से होने लगे हैं।

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