हमारा देश किसी समय ‘सुजलाम्, सुफलाम्’ था, विश्व के अर्थतंत्र का सिरमौर था, क्योंकि हमारा जल व्यवस्थापन अत्यंत ऊँचे दर्जे का था। इसकी विकसित तकनीक हमें अवगत थी। इसकी विस्मृति का हमें आज खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
इस समय देश के अनेक राज्यों में सूखा पड़ा है। नदियां सूख गई हैं। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है। अनेक राज्यों की सिंचाई योजनाएं, बांध और नहरों का नेटवर्क सब फेल हो रहे है। जल स्तर जमीन से बहुत नीचे जा चुका है।
यह सब देखकर लगता है कि क्या हमारा देश पहले कभी वास्तव में ‘सुजलाम्, सुफलाम्’ था? और ऐसे अनेक अकाल झेलने के बाद भी यदि यह देश ‘सुजलाम्, सुफलाम्’ था, तो अब क्या हो गया है इस देश को?
हजारों वर्षों तक हमारा यह देश वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर बना रहा। हमने अनेक अकाल झेले। लेकिन हमारा जल प्रबंधन इतना सटीक एवं दुरुस्त था कि हम पर अकाल का ज्यादा प्रतिकूल असर नहीं पड़ पाया।
हममें से कितने लोग जानते हैं कि दुनिया का सबसे पुराना, और आज भी उपयोग में लाया जाने वाला बांध भारत में है? ईसा बाद दूसरी शताब्दी में चोल राजा करिकलन के द्वारा बनाया हुआ ‘अनईकट्टू बांध’ पिछले अठारह सौ साल से उपयोग में है। आज कल के बनाए हुए बांधों में जहां तीस/ पैंतीस वर्षों में ही दरारें पड़ने लगती हैं, या सिल्ट जमा हो जाता है, वहां अठारह सौ वर्ष किसी बांध का काम करते रहना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
कावेरी नदी के मुख्य पात्र में बनाया हुआ यह बांध 329 मीटर लंबा और 20 मीटर चौड़ा है। अंग्रेजों ने इसे ‘ग्रैंड अनिकट’ नाम दिया। स्थानीय भाषा में इसे ‘कलानाई बांध’ भी कहा जाता है। तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली से मात्र 15 किलोमीटर दूर बना यह बांध हमारे प्राचीन जल व्यवस्थापन की अद्भुत मिसाल है। अनुभवी वास्तुविदों द्वारा निर्मित यह बांध देखकर ऐसा लगता है कि उस समय हमारा जल नियोजन/व्यवस्थापन अत्यंत उच्च स्तरीय तथा परिपक्व था।
इसका अर्थ स्पष्ट है। हमारे देश में जल व्यवस्थापन की तकनीक अत्यंत विकसित थी। इस कलानाई बांध के बाद बनाए गए अनेक बांध आज भी उपयोग में हैं। सन 500 से 1300 के बीच, दक्षिण के पल्लव राजाओं के बनाए अनेक मिट्टी के बांध वहां की सिंचाई परियोजनाओं के आधार स्तंभ हैं। सन 1011 से 1037 के बीच बना तमिलनाडु का ‘वीरनाम बांध’ इसका उदाहरण है।
और केवल बांध ही क्यों, पानी को रोकने की अनेक तकनीकें प्राचीन काल से हमें अवगत है। ‘पाटन’ पहले गुजरात की राजधानी हुआ करती थी। इस पाटन में, जमीन के अन्दर, सात मंजिला कुआं बनाया गया है। सन 1022 से 1063 के बीच बना यह कुआं (जिसे हम ‘बावड़ी’ कहते हैं), ‘रानी का वाव’ कहलाता है। सोलंकी राजवंश की महारानी उदयमती ने अपने पति भीमदेव की याद में यह बावड़ी बनवाई थी। आज यह बावड़ी, यूनेस्को द्वारा संरक्षित स्मारक है।
जल व्यवस्थापन हमारा प्राचीन शास्त्र रहा है। अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ इस विषय पर लिखे गए हैं। वेदों में भी पानी के व्यवस्थापन संबंधी अनेक ऋचाएं हैं। ऋग्वेद में पानी को संग्रहित करने के विधि संबंधी उल्लेख है। अथर्ववेद में भी इस संबंध में अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। ‘स्थापत्यवेद’ यह अथर्ववेद का ही उपवेद समझा जाता है। दुर्भाग्य से इसकी एक भी प्रति भारत में उपलब्ध नहीं है। यूरोप के ग्रंथालयों में इसकी हस्तलिखित प्रतियां हैं। इसमें ‘तडाग विधि’ (अर्थात जलाशय निर्मिति) के बारे में विस्तार से लिखा है। नारद शिल्पशास्त्र और भृगु शिल्पशास्त्र में पानी का वितरण तथा संग्रहण करने सम्बंधी सूचनाएं हैं।
जल व्यवस्थापन के बारे में, हमारे अति प्राचीन ज्ञान को समेटता एक सिध्द ग्रंथ लिखा ‘वराहमिहिर’ ने। आज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्व लिखा गया यह ग्रंथ, जल व्यवस्थापन के क्षेत्र में आज भी महत्वपूर्ण संदर्भ माना जाता है।
वराहमिहिर का मुख्य कार्य है, ‘बृहत्संहिता’ नामक ज्ञानकोश। सन 550 से 580 के बीच लिखे गए इस ज्ञानकोश में जानकारियों का अद्भुत भण्डार है। स्वतः वराहमिहिर ने इसके लिए कठिन परिश्रम किए थे।
इस ‘बृहत्संहिता’ में ‘उदकार्गल’ (पानी का संग्रहण) शीर्षक का 54 वें क्रमांक का अध्याय है। इस 125 श्लोकों के अध्याय में वराहमिहिर ने जल नियोजन के जो सूत्र बताए हैं, वह महत्वपूर्ण तो हैं ही, आज भी प्रासंगिक हैं।
इन श्लोकों में जमीन के अंदर छिपे हुए जलस्रोतों का पता कैसे लगाया जाता है इसका विस्तृत विवरण है। वराहमिहिर ने, उनके किए गए अध्ययन के अनुसार, पेड़, पौधे, पेड़ की शाखाएं, पेड़ के पास की मिट्टी, उस मिट्टी की गंध, रंग और स्वाद आदि सब के आधार पर पानी के जमीन में छिपे स्रोतों का पता लगाने की विधि दी है। मजेदार बात यह, कि इस विधि के अनुसार पानी मिलने की संभावना कितनी है, यह जानने के लिए, आंध्र प्रदेश के तिरुपति स्थित ‘श्री व्यंकटेश विश्वविद्यालय’ (एस.वी.यूनिवर्सिटी) ने लगभग 14-15 वर्ष पहले वराहमिहिर के बताए हुए संकेतों के आधार पर जमीन ढूंढी और वहां पर 300 बोअरवेल की खुदाई की। आश्चर्य इस बात का था, की लगभग 95% फीसदी बोअरवेल में पानी निकला!
अर्थात भूगर्भ स्रोतों से पानी खोजने की हमारी प्राचीन विधि कारगर थी। लेकिन यह प्रयोग सरकारी लालफीताशाही में दबकर रह गया!
पूर्वी मध्यप्रदेश (जिसे महाकौशल कहा जाता है), और महाराष्ट्र के विदर्भ में बड़ी संख्या में गोंड राजाओं ने अनेकों वर्ष राज किया। सर्वसामान्य रूप से माना जाता है कि गोंड अर्थात वनवासी समुदाय, तकनीकी में, राज्यतंत्र में पिछड़ा रहा होगा। किन्तु वास्तविक परिस्थिति इसके ठीक विपरीत है। महाराष्ट्र के चंद्रपुर से लेकर मध्यप्रदेश के गढ़ा-मंडला (जबलपुर संभाग) तक, गोंड शासित प्रदेश में जल व्यवस्थापन अत्यंत उच्च श्रेणी का था। एक बहुत अच्छी पुस्तक है, ’गोंड कालीन जल व्यवस्थापन’। इसमें आज से 500 -700 वर्ष पहले, गोंड राजाओं के समय किस प्रकार से पानी के संग्रहण की एवं वितरण की व्यवस्था थी, यह देखकर आश्चर्य होता है।
यह कह सकते हैं, कि हमारा देश किसी समय ‘सुजलाम्, सुफलाम्’ था, विश्व के अर्थतंत्र का सिरमौर था, क्योंकि हमारा जल व्यवस्थापन अत्यंत ऊँचे दर्जे का था। इसकी विकसित तकनीक हमें अवगत थी।
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