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मजदूर का संकल्प

मजदूर का संकल्प

by डॉ.मनोज चतुर्वेदी
in जून २०१६, सामाजिक
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वर्तमान सरकार ने श्रमिकों के हित के संदर्भ में ‘श्रमेव जयते’ का उद्घोष किया है। ‘श्रमेव जयते’ से निश्चित ही संगठित क्षेत्रों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को भी लाभ मिलेगा जिससे ‘श्रम शक्ति’ का उत्तम संगठन एवं प्रयोग होगा और ’श्रम शक्ति’ सम्पन्न भारत ‘सशक्त एवं विकसित देश’ बनकर उभरेगा।

समाज की द़ृष्टि से उत्पत्ति के साधनों में श्रम का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि या पूंजी का उचित प्रयोग नहीं होता है, तो केवल इन साधनों के मालिकों को थोड़ी आय की हानि होगी। परन्तु यदि श्रम का उचित प्रयोग नहीं होता है, तो पुरुषों व स्त्रियों में हीनता एवं निर्धनता फैलती है तथा सामाजिक जीवन के स्वरूप में गिरावट आती है।

श्रम ही सृष्टि का मूल है। प्रत्येक देश के आर्थिक विकास में श्रम की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्राकृतिक सम्पत्ति की प्रचुरता से सम्पन्न देश भी पर्याप्त एवं कुशल श्रम के अभाव में मनोवांछित प्रगति नहीं कर सकता। कार्ल मार्क्स ने श्रम को सर्वाधिक महत्व दिया है एवं एकमात्र पूंजी को मानवीय शोषण के लिए जिम्मेदार ठहराया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार भी श्रम की शक्ति ही श्रमिकों में आत्म-सम्मान एवं आत्म-गौरव की भावना भरती है। वास्तव में अथक श्रम के माध्यम से ही प्रजातांत्रिक समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

समाज के उस वर्ग को, जो शारीरिक श्रम को विशाल यंत्रों के साथ प्रयोग करके उत्पादन करता है, एक औद्योगिक उत्पादक वर्ग यानि श्रमिक कहते हैं। ये वर्ग शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक शक्ति का प्रयोग करके पूरे समाज को उपभोग की सामग्री प्रस्तुत करता है। श्रमिक अपनी युवावस्था की आहुति देते हैं। अतः मानवीय कर्तव्य है कि समाज उसकी पूर्ण रक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य, पूर्ण मानवीय उन्नति का उत्तरदायित्व उठाएं। श्रमिकों के शारीरिक, मानसिक, भौतिक, नैतिक, सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने वाली क्रियाएं, श्रम कल्याण कार्य के अंतर्गत आती हैं।

सामान्यत: बोलचाल की भाषा में श्रम का अभिप्राय प्राय: उस चेष्टा या परिश्रम से होता है, जो कि किसी कार्य को करने हेतु किया जाता है। ये चेष्टा मनुष्य करे या पशु सदैव ‘श्रम’ कहलाती है। वस्तुत: श्रम मनुष्य का वह शारीरिक व मानसिक प्रयत्न है, जो प्रतिफल की आशा से किया जाता है। श्रम ही समस्त सम्पत्ति का स्रोत है और प्रकृति के बाद यही उत्पादन के लिए सामग्री प्रदान करता है, तथा उसे सम्पत्ति में बदलता है। किसी देश की आर्थिक समृद्धि वहां के निवासियों के अथक श्रम में निहित होती है। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था चाहे कृषि प्रधान हो या उद्योग प्रधान हो, श्रम के महत्व को कोई भी अस्वीकर नहीं कर सकता।

श्रम उत्पत्ति का अत्याज्य साधन होता है। उत्पत्ति के सरल तथा विषम स्वरूप में भी कुछ न कुछ श्रम अवश्य प्रयुक्त होता है। श्रम करने वाले श्रमिकों के प्रति उनके मालिकों का व्यवहार कैसा हो? इस पर भारतीय वाङ्मय में चर्चा मिलती है।

प्राचीन भारत में सामाजिक सुरक्षाा एवं श्रम कल्याण व्यवस्था देने वाले विधि-विधायकों में आचार्य कौटिल्य, आचार्य मनु तथा शुक्राचार्य का नाम आता है। श्रमिक के रोगग्रस्त या दुर्घटनाग्रस्त होने पर अथवा काम करने में अक्षम हो जाने पर उनकी रक्षा हेतु उनकी अनुपस्थिति काल का वेतन दिया जाए। शुक्रनीति में भी श्रमिकों के कल्याण की बात की गई है।

मध्यकाल में श्रमिकों की दशा में कुछ गिरावट हुई। 18वीं शती के उत्तरार्ध एवं 19वीं शती के पूर्वार्ध में ब्रिटेन में मशीनीकरण के साथ-साथ औद्योगिक क्रांति का प्रारम्भ हुआ। पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव ने श्रम पर सत्ता कायम कर ली।

यहीं से अमानवीय स्थितियों में श्रमिक का शोषण होना प्रारम्भ हो गया। पूंजीपति श्रमिकों से 18 से 20 घण्टे तक काम लेते थे। इस शोषण के खिलाफ 19वीं शती के पहले दशक में पहली बार फिलाडेल्फिया के चर्मकारों ने संगठित होकर आवाज उठाई। श्रमिकों पर मालिकों द्वारा मुकदमा दर्ज कराया गया। लेकिन उसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान श्रमिकों के शोषण की बात प्रकाश में आई। फिलाडेल्फिया के इस आंदोलन से मजदूरों को संगठित एवं एकजुट होने की प्रेरणा मिली।

श्रमिकों के हित के लिए आठ घंटे काम की मांग पर सितम्बर सन् 1866 में ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ’ की जिनेवा में कान्फ्रेंस हुई। सन् 1868 में अमेरिकी संसद ने भी इसी विषय में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया। सन् 1873 में वैश्विक आर्थिक मंदी के समय गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी आदि समस्याएं जनमानस को उद्वेलित कर रही थीं। इस समय तमाम अन्य समस्याओं के साथ ‘आठ घण्टे का कार्य दिवस’ राष्ट्रीय आंदोलन बन गया। सन् 1877 से 1884 तक क्रमश: शिकागो, पीटर्सबर्ग, सिन्सिनारी, सेंट लुईस, वाशिंगटन और न्यूयार्क में मजूदरों की व्यापक हड़ताल हुई। सन 1885-1886 में करीब 35 लाख मजदूरों ने पूरे उत्साह के साथ अपनी मांग को पूरा करने हेतु व्यापक स्तर पर हड़ताल एवं प्रदर्शन किए।

पेरिस में 14 जुलाई सन्, 1889 को अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैैठक में सन् 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति के शताब्दी समारोह की याद में एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में विश्वभर के 80 देशों में ‘मई दिवस’ को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया।

‘मई दिवस’ या ‘श्रमिक दिवस’ का मूल उद्देश्य श्रमिकों को मुख्य धारा में लाना एवं उनको अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना है।

भारतीय अर्थव्यवस्था प्रारंभ से ही कृषि एवं छोटे पैमाने पर चलने वाले कुटीर उद्योगों पर आधारित थी। उसमें आगे चल कर ब्रिटिश शासन तथा औद्योगिकी क्रांति के कारण नवीन मोड़ आया। उद्योगपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण होने से उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप श्रमिकों के कल्याण की धारणा का उद्भव हुआ। उस समय भारत में भी श्रमिक प्रति दिन 14-16 घण्टे काम करते थे। कार्यस्थल का परिवेश अत्यंत भयावह होता था, श्रमिकों की सुरक्षा का कोई प्रावधान न था। अपर्याप्त मजदूरी के कारण मजदूर परिवारों की स्त्रियों, बच्चे, बूढ़े सभी काम करते थे। महिलाओं और बच्चों को उनके पूरे काम के बदले आधी मजदूरी ही मिलती थी। चूंकि श्रमिकों की आपूर्ति आवश्यकता से अधिक थी। इसलिए उद्योगपतियों को आसनी से मजदूर मिल जाते थे। श्रमिकाेंं की सुख-सुविधा, उनकी सुरक्षा, उनके शोषण से किसी को कोई मतलब न था।

ऐसी स्थिति में कुछ विचारकों ने मजदूरों की जीवनगत कठिन परिस्थितियों को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयास किया। स्वतंत्रतापूर्व महात्मा गांधी ने भी मजदूरों के हितरक्षा हेतु अनेक आंदोलन किए, उपवास रखे तथा अनशन भी किया। उन्होंने सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में भारत से मजूदरी करने गए मजदूरों के लिए जारी गिरमिट प्रथा बंद कराई। भारत में आने पर खेड़ा के मजदूरों को अपने कल्याण के लिए हड़ताल करने का सुझाव महात्मा गांधी ने दिया। इक्कीस दिनों तक यह हड़ताल चली। इस हड़ताल का भारत के अन्य भागों पर भी काफी असर हुआ। इस हड़ताल का सफल परिणाम भी रहा।

गांधी जी का मानना था कि- मनुष्य चाहे जिस प्रकार का श्रम करें, यदि वह उसे दिए गए साधनों और तालीम का समुचित उपयोग ईमानदारी से दिन के पूरे समय करता है, तो उसे इस श्रम के बदले इतनी मजदूरी मिलनी चाहिए जिससे उसका और उसके आश्रितों का गुजारा संतोषजनक रीति से हो जाए।

गांधी जी ने न केवल श्रमिकों के ही हित की बात नहीं की अपितु उन्होंने उद्योगपतियों के भी हित की बात समान रूप से कही है। वे कहते थे- यदि मालिक मजदूरों का व्यवस्थापक बन कर उनसे उनके शक्ति भर ही काम लें और पूरी मजदूरी तथा सुख-सुविधा का प्रबंध कर दें और मजदूर मालिक के काम को अपना समझ कर उसमें मन लगाकर मेहनत करें, तो इसमें दोनों का हित सधेगा।

हालांकि इसके विपरीत कुछ विचारकों ने यह भी विचार प्रस्तुत किया कि- ‘मजदूरों को अपने कल्याण की सुविधाओं के लिए एवं बेहतर सेवा स्थितियों के लिए उद्योगों के मालिकों की सद्भावना पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उन्हें अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जागरूक होकर संघर्ष करना होगा। कार्ल मार्क्स ने इसलिए नारा दिया- ”दुनिया के मजदूरों एक हो। तुम्हारे पास खोने के लिए हाथ की बेडिया ही हैं।”

सन् 1914 के प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही भारत में श्रमिकों के कल्याण हेतु कार्य आरम्भ हो गए। इस युद्ध के बाद से अनवरत आर्थिक मंदी के बावजूद बिना किसी विधि-विहित दबाव के, स्वयंसेवी आधार पर ही श्रम कल्याण कार्य समान रूप से बढ़ाया गया। भारत में सन् 1923 में मजदूर नेता माननीय, चेट्टियार के सुझाव पर कि- विश्वभर के मजदूर ‘मई दिवस’ मनाते हैं अत: भारत में ही इसे मान्यता मिलनी चाहिए, भारत में सन् 1923 को मद्रास में ‘मई दिवस’ मनाया गया। इस अवसर पर कई जुलूस निकाले गए, सभाएं आयोजित कर मजदूर हितों की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया गया।

वैश्विक स्तर की तरह ही भारतीय श्रमिकों की भी शोचनीय दशा रही है। श्रमिकों की दशा की जांच के बाद ‘रायल कमीशन’ ने श्रमिकों के लिए अधिक स्वच्छता, अच्छी सफेदी, फर्श की सफाई व अच्छे शौचालयों की संस्तुति की थी। ‘बिहार लेबर इन्क्वायरी कमेटी’ ने श्रमिकों के लिए अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं को देखते हुए बीमार महिला एवं पुरुष श्रमिकों की देखभाल एवं उनके बीच डॉक्टरों की नियुक्ति की जोरदार संस्तुति की। यद्यपि परिचारिकाओं, दंत चिकित्सकों, डॉक्टरों, सहायक मिडवाइफों, स्वास्थ्य निरीक्षकों एवं सहायक परिचारिकाओं की कमी के कारण ही द्वितीय पंचवर्षीय योजना में शामिल श्रमिक हित कार्यक्रम असफल रहा।

श्रमिकों के भोजनावकाश के लिए फैक्ट्ररीज एक्ट-1948 में सेक्शन 33(1) के तहत प्रावधान किए गए कि 150 से अधिक श्रमिकाेंं वाले कारखानों में शेड का निर्माण कराया जाय ताकि वहां बैठ कर वे कुछ देर भोजन व विश्राम कर सकें। हालांकि प्राय: श्रमिक दिन की तपती धूप में रेलवे बैगनों की छाया में या कम छायावाले पेड़ों के नीचे खाना खाते रहे हैंं।

श्रमिकों की उत्साह-हीनता, आर्थिक मजबूरी, दुर्घटनाओं को रोकने के लिए प्रशिक्षण की कमी, जानकारी का अभाव आदि के कारण उनमें दुर्घटनाओं की दर बढ़ गई थी।

श्रमिकों में पुरुषों के साथ ही महिलाएं भी काम करती रही हैं। लेकिन कामगार महिलाओं, विशेषकर जो महिलाएं अपने साथ शिशुओं को भी काम पर लेकर जाती रही हैं, की स्थिति बहुत ही खराब रही है।

वे अपने बच्चों को जहां-तहां बोरों पर, बॉबीन बक्सों में या अनुपयुक्त स्थानों पर खतरे की दशाओं में, शोरगुल के भीतर, धूलधूसरित मशीनों के पास रख देती थीं, जिससे शिशु मृत्यु दर बढ़ जाती है। इस समस्या के निदान हेतु शिशुगृहों से सम्बंधित प्रावधान धारा 33(2) अस्तित्व में आया।

श्रमिकों के उचित आवास एवं मनोरंजन हेतु भी रायल कमीशन ने संस्तुति किया था। श्रमिकों के आवास पूरी तरह अंधेरे, नम, वायुसंचरणहीन, गन्दे, शौचादि सुविधाहीन, पत्तों से बने तथा घनी आबादीयुक्त होते थे। ऐसी बुरी आवासीय अवस्था निश्चय ही स्वास्थ्य और कार्यदक्षता पर बुरा असर डालेगी।

भारतीय उद्योगों में कामगार श्रमिकों के लिए श्रम कल्याण कार्यक्रम का उत्तरदायित्व, भारत में प्रांतीय स्वायत्तता की प्राप्ति के साथ ही सरकार द्वारा ग्रहण कर लिया गया था। अप्रैल, 1930 में श्रमिकों के लिए श्रमकल्याण विभाग बना। ’रायल कमीशन ऑन लेबर’ 1931 में बहुत ही मौलिक सुविधाएं प्रदान करने की संस्तुति की।

स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् श्रमिक समाज के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों का प्रावधान हुआ। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के एक तिहाई मजदूर भारत के हैं। यह एक सकारात्मक बात है। सकारात्मक इस अर्थ में कि, भारत के पास इतना विशाल, बेजोड़ और दक्ष श्रम है, जिसका प्रयोग करके वह प्रगति की सीढ़ियां चढ़ सकता है।

हालांकि इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि भारत के 92 प्रतिशत श्रमिक असंगठित क्षेत्र के हैंं, जिनका न कोई अपना संगठन है और न ही निश्चित वेतन और सुविधाएं। श्रमिकों का इतिहास निरंतर संघर्षों और आंदोलनों का इतिहास रहा है। औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप भारत में उद्योगों की स्थापना के बाद से श्रमिक धीरे-धीरे अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक हुए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1948 में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अन्तर्गत श्रमिकों की मजदूरी निर्धारण, संशोधन एवं समीक्षा की व्यवस्था से सम्बंधित बना। सन् 1991 में न्यूनतम मजदूरी 35 रूपये थी। सन् 2004 में इसे 66 रूपये किया गया। वर्तमान समय में यह 300 रू0 लगभग कर दिया गया है। ठेका मजदूरी के भुगतान एवं कुछ अन्य सुविधाओं के लिए शासन ने ठेका मजदूर (नियमन तथा उन्मूलन) अधिनियम-1970 लागू किया।

भारतीय संविधान में वर्णित राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धांतों की नीति एवं अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की संस्तुति संख्या-102 में श्रम कल्याण के क्षेत्र की चर्चा है। राज्य नीति निर्देशक सिद्धांत के अनुच्छेद 39 में स्पष्ट निर्देश है कि- ’पुरुष एवं महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो।’ पुरुष एवं महिला श्रमिकों का स्वास्थ्य, उनकी शक्ति तथा कम उम्र के बालकों का दुरूपयोग न हो। राज्य अपनी आर्थिक क्षमता एवं विकास की सीमाओं के अधीन, कार्य करने के अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी, अक्षमता तथा अन्य मामलाेंं में काम करने का अधिकार के लिए प्रभावशाली प्रावधान बना सकता है।

श्रमिकों के कल्याणार्थ श्रम संगठनों का ध्यान सन् 1950 में आकृष्ट हुआ। एशियाई संघ का सम्मेलन श्रीलंका के नुआरेलिया नगर में हुआ। इसमें श्रमिकों की चिरकाल से उपेक्षित दशा को सुधारने की अपील की गई। इस बात पर बल दिया गया कि, उन्हें काम की तलाश में अपने मूल स्थान को छोड़ कर जाना न पड़े। गांव से शहर की ओर का पलायन रूके। इस सम्मेलन में मजदूरों के समुचित आवास, भोजन, स्वास्थ्य, रक्षा एवं मनोरंजन की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही गई।

भारत में आजादी से पूर्व वायसराय की मंत्री परिषद में डॉ. भीमराव आंबेडकर सन् 1942-1946 में श्रम मंत्री थे। उन्होंने पराधीन भारत में ही मजदूरों के हित में 25 श्रम कानूनों को लागू कराया। साथ ही न्यूनतम वेतन की अवधारणा को स्वीकार कर देशभर के मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन निर्धारित करवाया। उन्होंने कारखाना जांच अधिकारी का प्रावधान किया ताकि नियोजक मजदूर एवं कारखाना का शोषण न कर सके।

स्वतंत्रता बाद दिसम्बर, सन् 1959 में श्रमिकों के कल्याण कार्य के महत्वपूर्ण पक्षों पर विचार-विमर्श के लिए एक-एक अध्ययन दल की नियुक्ति की गई थी। श्रम कल्याण का तात्पर्य श्रमिक के सुख, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए उपलब्ध की जाने वाली दशाओं से है। इसके अंतर्गत वे समस्त क्रियाकलाप समाहित होते हैं, जो सम्पूर्ण मजदूर या कर्मचारी वर्ग की समुन्नति एवं बेहतरी के लिए निर्दिष्ट होते हैं। इसमें अंत:कार्यस्थलीय एवं बाह्य कार्यस्थलीय कार्यक्रम होते हैं। फैक्ट्री की चहारदीवारी के भीतर मजदूरों की सुरक्षा, एवं स्वास्थ्य रक्षा हेतु चलाये जाने वाले कार्यक्रम अंत:कार्यस्थलीय तथा फैक्ट्री के बाहर चलाए जाने वाले श्रम कल्याण के कार्यक्रम बाह्य कार्यस्थलीय के अंतर्गत आते हैं।

सन् 1947 में भारतीय श्रम संगठन (एस.ई.ई.) का जो अधिवेशन हुआ था, उसमें श्रमिक कल्याण का अर्थ ऐसी ही सेवाएं एवं सुविधाएं समझा गया था, जो सम्बद्ध उद्योग के परिसर में या उसके आस-पास इस उद्देश्य से चलाई जाए कि इस उद्योग में लगे मजदूर अपना कार्य स्वस्थ्य एवं अनुकूल वातावरण में प्रारम्भ कर सकें और उन्हें ऐसी सुख-सुविधाएं दी जा सकें, कि उनका स्वास्थ्य और मनोबल ऊंचा बना रहे।

श्रमिकों के हित के अंतर्गत वे समस्त कार्य आते हैं, जिन्हें किसी उद्योग में प्रायोजक फैक्ट्री ऐक्ट-1948 द्वारा निर्धारित न्यूनतम कार्यकारी परिस्थितियों के लिए आवश्यक कल्याण कार्यों के अतिरिक्त अपने श्रमिकों या कर्मचारियों के लाभ के लिए करते हैं। श्रम कल्याण से तात्पर्य कानून, औद्योगिक कानून, औद्योगिक प्रथा, बाजार की दशाओं के अतिरिक्त मालिकों द्वारा प्रवर्तक औद्योगिक व्यवस्था के अन्तर्गत श्रमिकों के काम करने, जीवन निर्वाह एवं सांस्कृतिक दशाओं को उपलब्ध करने के ऐच्छिक प्रयत्नों से हैं। सर्वप्रथम कारखाना अधिनियम केवल बालकों की सुरक्षा हेतु बना। बाद में इसमें श्रमिकों के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं कल्याण के लिए वैधानिक व्यवस्थाएं उपलब्ध कराने की बात की गई। प्रथम विश्व युद्ध के बाद तीन दशकों में श्रमिक कल्याण हेतु आवास सुविधा, स्वास्थ्य रक्षा, स्वास्थ्य बीमा, भविष्य निधि, गे्रच्युटी, पेंशन आदि के लिए भी प्रावधान किए गए।

वर्तमान समय में श्रमिकों के कल्यार्ण कार्य करने की परिस्थितियां, सुरक्षा, कार्य करने के घंटे, औद्योगिक स्वास्थ्य बीमा, श्रमिक क्षतिपूर्ति, भविष्य निधि, ग्रेच्युटी, पेंशन, ॠणग्रस्तता की रोकथाम, औद्योगिक आवास योजना, आदि के साथ ही जलपानगृह, शिशु सदन, धुलाई की जगह, स्नानगृह, प्रसाधन सुविधाएं, मध्याह्न भोजन सेवा, सेवाशर्तों का औद्योगिक कानून के क्षेत्र से परे मिलने वाली नगद सामानों की सुविधाएं, चलचित्र, थियेटर, संगीत, वाचनालय, अवकाशगृह, श्रमिक शिक्षा, सहकारी भंडार, मनोरंजन, यात्रा, क्रीड़ा स्थल, श्रमिकों के बच्चों की शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियां एवं अन्य सहायता आदि विविध श्रम कल्याण कार्य में सम्मिलित हैं।

श्रमिकों के सवार्ंगीण विकास एवं समुचित दक्षता प्राप्त करने की दिशा में प्रभावशाली फल प्राप्त करने हेतु, आंतरिक श्रम कल्याण कार्यों तथा बाह्य श्रम कल्याण कार्यों दोनों को सम्यक रूप से सम्बद्ध करके संचालित करना जरूरी है। समुचित एवं निरंतर उत्पादन के लिए श्रमिकों का स्वास्थ्य बनाए रखना आवश्यक है। उनकी शक्ति, उत्साह, काम पर उनकी उपस्थिति, सहनशीलता, रोेग अवरोधक क्षमता, आदि उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर निर्भर है। और स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति को किस प्रकार का काम करना है। उसका आहार, आदतें, उसके रहने के स्थान की स्वच्छता, सफाई आदि कैसी है? यह स्पष्ट है कि कार्यस्थल साफ-स्वच्छ, धूल-धुआं रहित, उच्च ताप से सुरक्षित होने चाहिए अन्यथा केवल कार्य और उत्पादन की ही हानि नहीं होगी बल्कि परिवार एवं समाज में श्रमिक का जीवन बुरी तरह प्रभावित होगा। क्योंकि एक श्रमिक जिन दशाओं में कार्य करता है वे दशाएं उसके स्वास्थ्य, कार्यक्षमताओं, मानसिकता के साथ ही कार्य की गुणात्कता को भी प्रभावित करती हैं। पर्यावरण एक मनुष्य को उत्पन्न करता है, अत: जैसे ही व्यक्ति का पर्यावरण सुधारा जाता है, व्यक्ति में भी सुधार परिलक्षित होता है। श्रमिक अपने दायित्व को पूर्ण क्षमता से निर्वाह करें इसके लिए श्रमिक के कार्य की दशाओं को सुधारना होता है।

कार्य की दशाओं के अंतर्गत भर्ती की विधि, सेवा, शर्तें, कार्य के घंटे, कार्य के घण्टे के मध्य आराम, मजदूरी, कार्यक्षेत्र का वातावरण, पेयजल, शौचालय, स्वच्छता, आदि की उपलब्धता सम्मिलित है। यदि एक श्रमिक को ये सुविधाएं पूर्ण रूप से उपलब्ध कराई जाती हैं, तो वह कठिन से कठिन कार्य को पूरी दक्षता से कर सकता है। इस प्रकार कार्य में दक्षता एवं पूर्ण लगन उत्पन्न करने के लिए स्वस्थ्य कार्य की दशाओं का होना अति आवश्यक है। कार्यदशाएं केवल श्रमिकों को ही नहीं वरन् मजदूरी, श्रमिकों की गतिशीलता, औद्योगिक सम्बंध को भी प्रभावित करती हैं। श्रमिक की कार्यक्षमता उसके स्वास्थ्य एवं कार्य करने की इच्छा पर निर्भर करती है। वांछित कार्य की दशाओं के अभाव में श्रमिक बेचैनी अनुभव करता है। विपरीत कार्यस्थल की दशाओं में सरल कार्य भी कठिन प्रतीत होता है। अपर्याप्त, अस्वास्थ्यकर कार्यशालाएं श्रमिकों के दुर्बल स्वास्थ्य एवं निम्न उत्पादकता के लिए उत्तरदायी है।

श्रम कल्याण औद्योगिक सम्बंधों के निर्धारण का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। यह संतुष्ट, सद़ृढ़ एवं सुदक्ष श्रमिक शक्ति, औद्योगिक शांति एवं उत्पादकता के लिए परम आवश्यक है। श्रम कल्याण के क्षेत्र में औद्योगिक श्रमिक की कुंठा की भावना का निराकरण करने, उसे व्यक्तिगत एवं पारिवारिक चिंताओं से मुक्त कराने, उसके स्वास्थ्य को सुधारने, उसे जीवन के वृहत्तर उद्देश्य की ओर प्रेरित करने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रमिक वर्ग की दशा सुधारने का काम अत्यावश्यक है। ताकि वे संतुष्ट रहे और उत्पादन बढ़ने में अपना पूर्ण योगदान दे सकें।

भारतीय अर्थव्यवस्था तीन महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं (परिवर्तनों) प्रथम – आर्थिक भूमण्डलीकरण, द्वितीय- व्यापार का उदारीकरण, तृतीय- औद्योगिक उपक्रमों के निजीकरण से प्रभावित हुई है। सभी तीन प्रक्रियाओं के साथ-साथ आशा एवं सेवाओं के अनपेक्षित आदान-प्रदान ने नियोजन बढ़ाने हेतु अपेक्षाएं उत्पन्न की हैं। परन्तु श्रम बाजार की वास्तविकता से यह मेल नहीं खाता है। श्रम बाजार में श्रमिकों के तथा श्रम संगठनों के भी समक्ष अनेक चुनौतियां हैं-

1. आज प्रति वर्ष 12 लाख से अधिक लोग श्रम बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। उन्हें उत्तम रोजगार प्रदान के सिद्धांत पर रोजगार उपलब्ध कराना सबसे अधिक महत्वपूर्ण चुनौती है।

2. कुशल कामगारों की मांग बढ़ रही है। मानव संसाधनों की कुशलता हेतु काफी अधिक संख्या में प्रशिक्षण केन्द्र खोलने की चुनौति सामने आएगी।

3. बेरोजगार श्रमिकों की आर्थिक लाभ पहुंचाना। साथ ही समुचित सुरक्षा प्रदान करना भी एक चुनौती है।

4. सरकार, नियोजकों, श्रम संगठनों एवं श्रमिकों के मध्य संवादहीनता भी महत्वपूर्ण चुनौती बनकर पिछले कुछ वर्षों में सामने आई है।

5. असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का संगठन आवश्यक है। उचित ढंग से संगठित श्रमिक राष्ट्र की शक्ति है। अत: असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का संगठन भी महत्वपूर्ण चुनौती है।

6. इन सबके साथ ही श्रमिकों के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, चारित्रिक, सांस्कृतिक स्वास्थ्य की सुरक्षा हेतु साधन सम्पन्न होना भी एक चुनौती है।

7. श्रमिकों के दीर्घकालिक सुरक्षित आर्थिक जीवन से जुड़ा मुद्दा स्थायी रोजगार भी है। वर्तमान समय में ठेकेदारी प्रथा के बढ़ते प्रभाव से नियमित ठेकेदार, श्रमिक एवं नियमित श्रमिक कम हो रहे हैं। अत: श्रमिकों के स्थायी रोजगार का मुद्दा भी एक चुनौती है।

8. व्यापक श्रमिक शिक्षा, अधिकारों के प्रति जागरूकता कार्यकुशलता बढ़ाने के साथ ही राष्ट्र निर्माण में श्रमिकों की भूमिका उनके बीच स्पष्ट करना भी एक चुनौती है। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा श्रमिकों के हित के लिए कई योजनाएं शुरू की गई हैं। अब उन्हें पेंशन से लेकर बेटियों की शादी, आवास एवं मृत्यु के बाद उनकी अंत्येष्टि के लिए भी सरकारी मदद मिल रही है।

निर्माण कार्य से जुड़े श्रमिक भवन एवं अन्य सन्निनिर्माण कर्मकार अधिनियम के तहत श्रम विभाग में पंजीकरण करा कर निम्न सुविधाओं का लाभ ले सकते हैं-

1. इनमें श्रमिकों के शिशुओं के पोषण से जुड़ी ’शिशु हितलाभ योजना’ है जिसमें श्रमिकों के नवजात शिशुओं को जन्म से दो वर्ष की आयु तक पौष्टिक आहार उपलब्ध कराया जाता है।

2. महिला श्रमिक एवं पुरुष श्रमिक की पत्नी को दो बच्चों तक आर्थिक लाभ ‘मातृत्व हितलाभ योजना’ के अंतर्गत मिलता है।

3. किसी दुर्घटना या बीमारी में 50 फीसदी अपंग हो जाने पर श्रमिक को एक हजार रूपये आजीवन मासिक पेंशन का प्रावधान है।

4. अपंगता के अलावा, कुष्ठ रोग, लकवा मार देने पर या कैंसर, तपेदिक या अन्य गंभीर बीमारी के कारण अक्षम हो चुके श्रमिकों को भी सरकारी आर्थिक मदद मिलती है।

5. ईंट भट्ठों पर काम करने वाले श्रमिक, वेल्डिंग का काम करने वाले श्रमिक, बढ़ई, कुंआ खोदने वाले, लुहार, प्लम्बर, राजमिस्त्री, रोलर चलाने वाले, छप्पर डालने वाले, पुताई, इलेक्ट्रिानिक वर्क, हथौड़ा चलाने वाले, सड़क निर्माण, सुरंग निर्माण, टाइल्स लगाने, चट्टान तोड़ने, मार्बल एवं स्टोन वर्क वाले, निर्माण स्थल के चौकीदार, मिट्टी, बालू व मोरंग का खनन करने वाले, सीमेंट, ईंट, कंक्रीट ढोने वाले, खिड़की, ग्रिल-दरवाजा लगाने वाले, बाढ़ प्रबंधन से जुड़े, बांध, पुल, भवन निर्माण व अग्निशमन प्रणाली की स्थापना या मरम्मत कार्य करने वाले श्रमिक अपना पंजीकरण कराकर तमाम सुविधाओं की जानकारी एवं लाभ उठा सकते हैं।

हालांकि यह भी सच है कि श्रमिकों की समस्याओं का हल सिर्फ कानून बना कर नहीं किया जा सकता। क्योंकि अशिक्षा, जनसंख्या में निरंतर वृद्धि एवं जानकारी के अभाव के कारण तमाम समस्याएं जस की तस वृहदाकार रूप में दिखाई पड़ती रहती हैं। अत: श्रमिकों की समस्याओं के स्थायी समाधान हेतु स्वास्थ्य परम्पराओं, सभ्य समाज की जीवन शैली, एवं उत्तम आर्थिक स्तर की आवश्यकता है।

आज भारत विश्व का ऐसा पहला राष्ट्र बन चुका है जिसने इतनी बड़ी जनसंख्या को न्यूनतम रोजगार की गारंटी दी है। यहां श्रमिक हित के लिए निरंतर जनचेतना का प्रचार-प्रसार हो रहा है। वर्तमान सरकार ने श्रमिकों के हित के संदर्भ में ‘श्रमेव जयते’ का उद्घोष किया है। ‘श्रमेव जयते’ का उद्देश्य असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को स्वास्थ्य एवं सुरक्षा देना है। इसके अन्तर्गत श्रमिकों के जीवन में सुविधाएं बढ़ाना, इन्सपेक्शन की नई टेक्नोलॉजी की व्यवस्था, कार्य संस्कृति में बदलाव, होनहार छात्रों की बेहतर अवसर देने पर जोर, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए कई योजनाओं का समावेशन आदि सम्मिलित है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘श्रमेव जयते’ से निश्चित ही संगठित क्षेत्रों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्रों के भी श्रमिकों को लाभ मिलेगा जिससे ‘श्रम शक्ति’ का उत्तम संगठन एवं प्रयोग होगा और ’श्रम शक्ति’ सम्पन्न भारत ‘सशक्त एवं विकसित देश’ बनकर उभरेगा।

डॉ.मनोज चतुर्वेदी

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