उत्तराखंड में जल्दबाजी और नासमझी

महाभारत में दुष्ट कौरवों के साथ युधिष्ठिर और पांडव द्युत खेलने बैठते हैं, परंतु उस खेल के पीछे की राजनीति न समझने के कारण सबकुछ हार कर द्रौपदी के वस्त्रहरण तक बात पहुंचती है। अब तक उत्तराखंड में कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपा की दिखाई दे रही है। लेकिन इस स्थिति को कालांतर में पांडवों ने उलट दिया और कौरवों पर विजय पा ली, यह भी सत्य है।

उत्तराखंड में पिछले डेढ़ महीने से राजनैतिक रणोत्कट चल रहा था। इस संग्राम की शुरुआत जहां से हुई, वहीं वह फिर आ पहुंचा है। उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि सारे देश में इसकी गर्मागर्म चर्चा है। उत्तराखंड में कांग्रेस के 9 विधायकों ने मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ बगावत का झंडा उठाया, जिससे कांग्रेस की राज्य सरकार अल्पमत में आ गई, और केंद्र को वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। इसे जब प्रतिपक्ष ने चुनौती दी तब राज्य के उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक करार दिया। मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसने भी उच्च न्यायालय का फैसला बरकरार रखा और सदन में बहुतमत साबित करने का कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को अवसर दे दिया। सदन में रावत सरकार ने बहुमत साबित कर दिया और सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपनी मुहर लगा दी। केंद्र सरकार के समक्ष अब राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा था। इस सारे घटनाक्रम में कांग्रेस जीती, ऐसा सतही तौर पर भले लगे, लेकिन गहराई में जाए तो ऐसी विजय बेमतलब की दिखाई देगी। कांग्रेस के हाथ बहुत नहीं लगा, परंतु भाजपा के हाथ भी कहां कुछ लगा है? भाजपा की रणनीति गलत रही, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा।

हां, कांग्रेस एवं उसके नेता-कार्यकर्ता कुछ प्रसन्न जरूर हैं। उत्तराखंड विधान सभा में नम्बरगेम की जीत ने उसके पस्त हौसलों को नए तेवर दे दिए। नैराश्य में डूबी कांग्रेस को ‘तिनके का सहारा’ जरूर मिल गया है। अगस्ता वेस्टलैण्ड भ्रष्टाचार में कांग्रेस की जो भद्द हुई है उसके बाद इस प्रकार के सहारे की कांग्रेसियों को आवश्यकता थी। यह सहारा झूठमूठ ही सही, परंतु जरूरी अवश्य था।

कांग्रेस के कुछ विधायक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत की कार्यपद्धति से असंतुष्ट थे। उसीको लेकर नौ विधायकों ने बगावत का झंडा लहराया। राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही हमेशा हावी होती है। जब ऐसी महत्वाकांक्षा में कोई रुकावट या बाधा आती है, तब राष्ट्रहित, प्रदेशहित या अस्मिता का लेबल लगा कर बगावत करने की कांगे्रसियों की पुरानी परंपरा रही है। मुख्यमंत्री हरीश रावत पर आक्षेप है कि वे किसी को विश्वास में लेकर काम नहीं करते। कुल 70 विधायक वहां हैं, लेकिन 100 से ज्यादा सलाहकार मुख्यमंत्री को घेरे रहते थे। मुख्यमंत्री के कान में जो गुनगुनाते रहते थे, उनके निश्चित ही अपने-अपने स्वार्थ होंगे। इसका राज्य के कामकाज पर जो असर होना था, वह तो हो ही गया। जिन विधायकों ने बगावत की गुर्राहट की, उन्हें मुख्यमंत्री हरीश रावत रत्तीभर भी भाव नहीं देते थे। और, राजनीति में जब भाव नहीं मिलता है तब दांव लगाना पड़ता है। ऐसी पछाड़ मारने वालों के अर्थात कांग्रेस के घर में क्लेश निर्माण करने वाले विधायकों को उत्तराखंड भाजपा ने अपने नजदीक लिया। यह तो कांग्रेसियों के घर का क्लेश भाजपा द्वारा अपने घर में खिंचना हुआ! मुख्यमंत्री रावत की सरकार तो सत्ता का दुरुपयोग कर उत्तराखंड का पूर्णत: दमन और शोषण कर ही रही थी। जनता में इस कारण नाराजगी का माहौल था। हरीश रावत विरोधी विधायक कांग्रेस पार्टी से बाहर हो गए। इस कारण हरीश रावत को राहत मिली है। राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचें तो इससे रावत को खुला मैदान ही मिल गया है। रास्ते के रोड़े हट गए, रावत को और क्या चाहिए? उत्तराखंड राज्य के विधान सभा चुनाव अगले 7-8 महीनों में होने हैं। ऐसे समय में भाजपा से एक परिपक्व एवं सोचीसमझी राजनीति की अपेक्षा थी, जिसका दुर्भाग्य से केंद्र और उत्तराखंड प्रदेश भाजपा में अभाव रहा।

उत्तराखंड के भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में यह भावना आना स्वाभाविक है कि हमने अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है। साथ में जनता भी अचम्भे में है कि यह क्या हुआ? जो सरकार गिरने ही वाली थी, उसे तो जीवन बख्श दिया गया। राज्य में कांगे्रस की सरकार गिराने के लिए दलबदल का जो सहारा लिया गया उससे भी जनता में नाराजी है। आगामी चुनाव में स्वाभाविक रूप से गिरने वाली कांगे्रस सरकार को खिंचतान कर गिराने का भाजपा का प्रयास जनता को पसंद नहीं आया है। जनता के मन में हरीश रावत सरकार के खिलाफ दो महीने पहले जो आक्रोश था, वह अब भाजपा के प्रति गुस्से में बदलता दिखाई दे रहा है। भाजपा का स्थानीय नेतृत्व कह रहा है कि, ‘हमारा कोई नुकसान नहीं हुआ। हम कल भी अल्पमत में थे, आज भी अल्पमत में है।’ बड़ा अजीब वक्तव्य है। क्या इस बयान से भाजपा परोक्ष रूप से कांगे्रस का पक्ष ही तो नहीं बयान कर रही है? स्थानीय नेतृत्व की इस तरह की बयानबाजी से भाजपा के प्रति जनता में संभ्रम निर्माण हो रहा है। राज्य में जब राजनैतिक गुत्थी निर्माण हुई थी तब राजनैतिक समझदारी का कार्य दिखाई देना अत्यंत आवश्यक था, जिसका भाजपा के खेमे में अभाव दिखाई दिया।

उत्तराखंड में सरकार पर आरोप लगते ही पूरी कांग्रेस एकजुट हुई। यह कोई नई बात नहीं है, भ्रष्टाचार में लिप्त कांग्रेसियों की यह परंपरा रही है। यह परंपरा दिल्ली के संसद भवन में भी दिखाई दे रही थी। अगस्ता घोटाले के आरोप लगने बाद भी कांग्रेसियों ने एकजुट होकर भाजपा सरकार पर पलटवार करने का दुस्साहस दिखाया है। यह कांग्रेसियों की रणनीति है; क्योंकि भ्रष्टाचार कांग्रेस की जीवनरेखा है। अगर इस जीवनरेखा पर कोई प्रहार करने का प्रयास करता है तो कांग्रेस में बौखलाहट होनी ही है। वह बौखलाहट जिस प्रकार उत्तराखंड में महसूस हुई, उसी प्रकार दिल्ली के संसद भवन में भी। कांग्रेसियों की विशेषता है, भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद कांग्रेसी बिखरते नहीं, संगठित होते हैं। लेकिन उत्तराखंड में विधायकों की बगावत के बाद कांगे्रस का बहुमत सिद्ध न होने के कारण भाजपा को मुख्यमंत्री पद के लिए नेतृत्व प्रस्तुत करना था। लेकिन इस घटना के बाद उत्तराखंड राज्य के भाजपा में जो गुटबाजी दिखाई दी वह तो हैरान करने वाली बात थी। एक-दूसरे के खिलाफ खिंचातानी से भरा राजनैतिक माहौल उत्तराखंड राज्य के भाजपा नेताओं में दिखाई दिया। भाजपा के शीर्ष नेताओं में कांग्रेस के खिलाफ जो जोश आरंभ में था, वह बाद में कमजोर पड़ता दिखाई दिया।

उत्तराखंड सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त थी। जनता में आक्रोश था, भाजपा को संयम से काम लेना था। वह संयम ही भाजपा में दिखाई नहीं दिया। परस्पर संवाद के संदर्भ में देखें तो और बुरी तरह के हालात वहां महसूस हो रहे थे। यहां तक कि स्थानीय भाजपा नेतृत्व ने घोषणा कर दी कि वे जिला पंचायत के चुनाव में “बहुजन समाज पार्टी को सहयोग देंगे।” उस पर बहुजन समाज पार्टी के सांसद सतीश मिश्रा का बयान आया कि ‘हमें भाजपा के सहयोग की जरूरत नहीं है।’ ये बड़ी असमंजस और जल्दबाजी दर्शाने वाली बातें हैं, जो उत्तराखंड भाजपा में हुईं। जिस बात की किसी ने अपेक्षा नहीं की, उस बात को हम स्वयं घोषित करते हैं। इस प्रकार की अनेकों जल्दबाजियों के कारण बार-बार चपत खाने का दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उत्तराखंड भाजपा पर आया है। भविष्य में इन बातों में सुधार होता है तो भाजपा अच्छे कार्य की ओर कदम बढ़ा सकती है।

उत्तराखंड की सरकार भ्रष्टाचार में पूरी तरह से लिप्त थी। खदान भ्रष्टाचार, शराब भ्रष्टाचार, शिक्षा क्षेत्र का भ्रष्टाचार, तबादलों एवं नियुक्तियों में भ्रष्टाचार इस प्रकार के अनेक भ्रष्टाचारों में मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार लिप्त थी। जनता उस भ्रष्टाचार से परेशान थी। कांग्रेस के पूर्व वहां भाजपा सरकार थी। उस समय वहां लोकपाल की व्यवस्था की गई थी। साथ में राज्य सरकार का कार्यभार चलाने के लिए पारदर्शक योजना भी बनाई गई थी। उत्तराखंड राज्य कांग्रेस ने सत्ता पर आते ही पहले इन सभी बातों को ध्वस्त कर दिया । केवल और केवल लूटपाट का राज्य बना दिया, जिससे उत्तराखंड की जनता के मन में अत्यांतिक आक्रोश था। भाजपा की जल्दबाजी के कारण वह आक्र्रोश की भावना अब परिवर्तित हो गई है। आने वाले विधान सभा चुनाव में कांगे्रस की मौत जनता के हाथों होनी ही थी, परंतु भाजपा ने अपनी नासमझ जल्दबाजी या गलत राजनीति से दम तोड़ती कांगे्रस को संजीवनी देने का काम किया है। यह बात सही है कि भ्रष्टाचार की आड़ में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपना कद बहुत बड़ा कर लिया था। उस कद को ध्वस्त करना आवश्यक था। हरीश रावत के कद को कम करने के और कई राजनैतिक रास्ते हो सकते थे। आज जल्दबाजी में कांग्रेसियों का कद कुछ और हुआ है और भाजपा का कद कुछ और। सत्ता पाने की अति महत्वाकांक्षा को छोड़ कर भाजपा जनता में जाकर जनता को जागृत करने का कार्य करती तो आने वाले चुनाव में उसका जोरदार परिणाम जरूर नजर आता। हां, यह बात सही है कि राजनीति में कोई बात स्थायी नहीं होती। निरंतर परिवर्तन राजनीति का मूल स्वभाव है। आने वाले महीनों में कुछ ऐसे भी मोड़ आ सकते हैं, जो परिवर्तन लाएंगे। उस मोड़ को समझ कर भविष्य में भाजपा नेतृत्व परस्पर संवाद के साथ जनता में जागरण करें यह अत्यंत आवश्यक है।

हरीश रावत पुन: सत्ता में आए हैं। सत्ता तक पहुंचने में उन्हें बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन की आवश्यकता पड़ी है। बहुजन समाज पार्टी के कारण रुठी हुई सत्ता सुंदरी हरीश रावत को फिर मिली है। बहुजन समाज पार्टी को भी सत्ता की लालसा है। बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के विधायकों में अब मंत्री पद पाने की होड़ लगेगी। आने वाले कुछ महीनों में चुनाव का शंखनाद होगा। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार के आरोपों से लेकर मंत्री पद की अपेक्षाओं को रखने वाले विधायकों की इच्छाओं को संभालना है। यहां पर रावत सरकार की कसौटी लगने वाली है। साथ में सरकार अल्पमत में आने का अंदेशा आते ही विधायक खरीदी के प्रयासों का आरोप रावत पर लगा है। उसकी स्टिंग फिल्म उपलब्ध हुई है। इस मामले में जल्द ही हरीश रावत को सीबीआई के सम्मुख प्रस्तुत होना है। उन आरोपों की सही बात जनता के सामने आने वाली है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए कांगे्रस के सामने भी राजनैतिक पेंच कायम है। इस स्थिति में भाजपा को फिर कोई गलती दोहरानी नहीं है। डेढ़ महीने की राजनैतिक उथलपुथल में समन्वय और समझदारी दोनों का अभाव दिखाई दिया। महाभारत में दुष्ट कौरवों के साथ युधिष्ठिर और पांडव द्युत खेलने बैठते हैं, परंतु उस खेल के पीछे की राजनीति न समझने के कारण सबकुछ हार कर द्रौपदी के वस्त्रहरण तक बात पहुंचती है। अब तक उत्तराखंड में कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपा की दिखाई दे रही है। लेकिन इस स्थिति को कालांतर में पांडवों ने उलट दिया और कौरवों पर विजय पा ली, यह भी सत्य है।
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