शूरवीरों एवं साहित्यकारों की कर्मस्थली बैसवारा

 उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र की बैसवारा रियासत उन्नाव, रायबरेली एवं फतेहपुर के एक बड़े भूभाग पर फैली हुई है। बैसवारा रियासत का डौडिया खेडा किला गत वर्ष सोने की खुदाई को लेकर चर्चित रहा। पेशवाओं के वंशजों ने भी यहां लड़ाइयां लड़ीं। यह शूरवीरों और प्रसिद्ध कवियों तथा साहित्यकारों की कर्मस्थली रही है।

किसी क्षेत्र विशेष का महत्व उसकी भौगोलिक स्थिति सांस्कृतिक विरासत सामाजिक एवं ऐतिहासिक स्थिति की वजह से और भी अधिक बढ़ जाता है। इन्हीं विशेषताओं से समृद्ध उत्तर प्रदेश के अंतर्गत अवध क्षेत्र में अधिकतर अवधी भाषा बोली जाती है। यहां की बैसवारा रियासत उन्नाव, रायबरेली एवं फतेहपुर के एक बड़े भूभाग पर फैली हुई है। बैसवारा रियासत का डौडिया खेडा किला गत वर्ष सोने की खुदाई को लेकर चर्चित रहा। रियासत उन्नाव गजेटियर 1923-पृष्ठ 154 में बक्सर का उल्लेख करते हुए लिखा है- गंगा उत्तरायणी बह कर यहां शिव को अर्घ्य प्रदान करती है, जिससे यह बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यहां पर चिरजीवी दाल्भ मुनि के सुपुत्र बक ॠषि का आश्रम था, उसके पास स्थापित बकेश्वर महादेव मंदिर आज भी मौजूद है। बक्सर का वैदिक कालीन नाम बकाश्रम था।

महाभारत के युद्ध के समय बलरामजी बक्सर के बकाश्रम में ॠषि से आशीर्वाद लेने आया करते थे। यही वह तपस्थली है जहां मेघातिथि ॠषि ने चंडिका देवी की गहन पूजा अर्चना करके राजा सुरथ एवं समधि वैश्य को तप विधि का ज्ञान कराया था। दुर्गा सप्तशती के अध्याय 13, श्लोक 13-15 में इसी कथा का वर्णन है। देवी मां ने इसी स्थान पर चंड-मुंड एवं शुंभ-निशुंभ आदि राक्षसों का वध किया था। दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का ही एक अंश है। मार्कण्डेय ॠषि मृकण्ड मुनि के पुत्र भृगुवंशी ब्राह्मण थे। यहीं वे स्थल हैं जहां राजा सुरथ एवं समधि वैश्य ने तप करके चंडिका देवी को प्रसन्न किया था। समधि वैश्य ने मोक्ष की कामना की किंतु राजा सुरथ ने खोया हुआ राजपाट मांगते हुए अगले जन्म में प्रतापी राजा होने का वरदान प्राप्त किया। उन्हें राज्य वापस मिल गया और वे अगले जन्म में सावर्णिक मनु के रूप में पैदा होकर विश्वव्यापी सम्राट बने। उन्होंने विधि-विधान के लिए मनु स्मृति लिख कर राज्य का सूत्र संचालन किया। बक्सर गंगा तट पर मेघातिथि मुनि, राजा सुरथ तथा समधि वैश्य के टीले आज भी स्थित एवं प्रसिद्ध हैं।

उन्नाव गजेटियर 1923 – पृष्ठ – 154 पर बक्सर का विस्तृत उल्लेख करके महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए लिखा गया है कि बैसवारे के बक्सर-उन्नाव में चंडिका देवी का बहुत विशाल मंदिर है। जहां हर वर्ष नवरात्रि और हिंदू त्योहारों में एक विशाल मेला लगता है। रायबरेली गजेटियर 1893 में लिखा है कि यह वही स्थान है जिसमें सन 1857 में अंग्रेजी विद्रोह के समय राजा रावराम बक्स ने लगभग एक दर्जन अंग्रेजों को शिव मंदिर में सेना से जलवा कर मार दिया था।

बक्सर का विवरण बाल्मिकि रामायण में भी मिलता है। यह महर्षि विश्वामित्र की तपस्थली थी। वे कान्यकुब्ज प्रदेश के राजा गाधि के पुत्र तथा प्रसिद्ध गायत्री मंत्र के रचयिता थे। पिता के निधन के बाद वे राजा बने। गुरु वशिष्ठ जी से संघर्ष के बाद विश्वामित्र का मन पूजा-पाठ में नहीं लगा। वे यहीं बक्सर में आकर गंगा के किनारे तपस्या करने लगे। उन्होंने कई प्रकार की वनस्पतियों की सृष्टि की थी। यहीं पर वे राक्षसों के हवन-पूजन के विघ्न दूर करने के लिए अयोध्या से राम-लक्ष्मण को लेकर आए थे, जिन्होंने राक्षसों का वध करके ॠषि-मुनियों के विघ्नों को दूर किया था। वाल्मीकि रामायण ( ram currency )में इस प्रदेश को कारूप्रद प्रदेश बताया गया है जो अयोध्या से पश्चिम-दक्षिण के कोने पर स्थित है। तत्कालीन दाण्यक-उपनिषद में अश्वशिर विद्या का यहीं बड़ा केंद्र था। महाराजा हाग्रीव की राजधानी भी यहीं थी। गर्ग ॠषि ने यहीं आकर गंगा तट पर गेगासों नगर (गर्गस्त्रोत धाम) बसाया जो आज भी लालगंज-बैसवारा-फतेहपुर रोड पर गंगा के किनारे स्थित है।

इतिहासकारों के अनुसार कानपुर (ब्रह्मावर्त-बिठूर) में पेशवा के रिश्तेदार अभय सिंह और निर्भय सिंह ने बक्सर के गंगा मेले में गंगा स्नान करने आई अर्गल नरेश की राजकुमारी रत्ना एवं राजमाता को अवध नवाब के सेनापति से युद्ध करके बचाया था। वह जबरदस्ती अपहरण करके रत्ना को नवाब के हरम की शोभा बनाना चाहता था। उनकी वीरता से प्रसन्न होकर राजा ने अपनी पुत्री रत्ना का विवाह अभय सिंह के साथ कर दिया था और दहेज में बैसवारे का किला दे दिया। उन दिनों किले में हर जाति के लोगों का कब्जा था। वे राजा को लगान भी नहीं देते थे। होली की रात दोनों भाइयों ने सेना लेकर किले पर हमला कर दिया। उस भीषण युद्ध में उनकी विजय तो हुई किंतु युद्ध में निर्भय सिंह शहीद हो गए। अभय सिंह किले में रह कर राज्य संचालन करने लगे।

उन दिनो कन्नौज के राजा जयचंद का राज्य डलमऊ तक फैला हुआ था। इसलिए यहां के ब्राह्मणों को कनवजिया बाह्मण भी कहा जाता है। डलमऊ में गंगा तट पर आल्हा-ऊदल की बैठक तथा राजा जयचंद के किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। गंगा के किनारे इसी किले के पास स्थित अवधूत आश्रम में बैठ कर महाकवि निरालाजी पत्नी मनोहरा के वियोग में आंसू बहाकर कविताएं लिखा करते थे। राजा जयचंद के पतन के बाद तेरहवीं शताब्दी में राजा डलदेव डलमऊ रियासत के राजा बने जो जौनपुर के शासक मुहम्मद तुगलक के सेनापति शाह सर्की द्वारा युद्ध करते हुए शहीद हो गए थे। उसके बाद डलदेव के पुत्र चंदा-बंदा ने बाल्यावस्था में ही शर्की से युद्ध करके उसे मार डाला, उसकी कब्र आज भी डलमऊ में गंगा पुल के किनारे देखी जा सकती है।

गौतम बुद्ध के काल में इस क्षेत्र को हामुख या अयोमुख कहा जाता था। यहीं द्रोणिक्षेत्र नगर का द्रौणिमुख बंदरगाह था, जो गंगाजी के जलमार्ग से नाव द्वारा व्यापारिक सुविधा के लिए बनवाया गया था। द्रौणि का अर्थ (तट) किनारा होता है। यही गांव आज डौडिया खेडा के नाम से जाना जाता है। सन 2013 में सोने के लिए पुरातत्व विभाग द्वारा इसी बैसवारा रियासत के (डौडिया खेडा) किले की आंशिक खुदाई की गई थी जो बाद में राजनीति का शिकार होकर बंद कर दी गई।

एलेक्जेंडर-कनिंघम् और चीनी यात्री हेनसांग तथा कुछ अन्य देशी-विदेशी विद्वानों ने ‘अयोमुख’ नगर को ही डौडिया खेडा बताया है। हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने कादंबरी और हर्षचरित्र में चंडिका देवी के मंदिर का उल्लेख किया है जो डौडिया खेडा रियासत के किले से एक मील की दूरी पर स्थित है।

चौदहवीं शताब्दी में बैसवारे के राजा जाजन देव के पिता श्री घाटम देव थे, जिन्होंने कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील को बसाया। बाद में वह बड़ा नगर बन गया। तुगलकी बादशाहों के आक्रमण से राज्य की स्थिति बहुत बिगड़ गई थी। राजा घाटमदेवजी माता चण्डिका देवी की शरण में गए। चंडिका मां के तत्कालीन पुजारी ने मंदिर के जीर्णोद्धार की सलाह दी। देवी मंदिर का जीर्णोद्धार होते ही उनका खजाना कई गुना बढ़ गया तथा वे महान शासकों में प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने अपनी पुत्री की शादी रीवां भद्र नरेश के साथ की थी।

पंद्रहवीं शताब्दी में राजा त्रिलोकचंद्र सिंह का जन्म होते ही उनके पिता सातनदेव की अचानक मृत्यु हो गई तथा उनकी बाल्यावस्था बड़े संकट-विपन्नता में बीती। उनके गुरु लक्ष्मणदेव ने कुलदेवी चंण्डिका का हवन-पूजन करवाया। देवी मां के वरदान से त्रिलोकचंद्र सिंह ने थोड़ी सी सेना से ही समस्त खोया हुआ राज्य फिर से जीत लिया तथा बैसवारा क्षेत्र का निर्माण तथा बहुत प्रसार किया। लोगों का कहना है कि उनके समान शूरवीर तथा प्रतापी राजा बैसवारे में कोई दूसरा नहीं पैदा हुआ। वे युद्ध में कभी नहीं हारे।

मां चंण्डिका देवी के परम भक्त कविवर्य आचार्य सुखदेवजी मिश्र थे। वे पहले असोथर के राजा भगवंतराय खीची के यहां रहते थे, वे वहां से डौडिया खेडा (बैसवारा) चले आए। उन्होंने 1679 में पुस्तक रसार्णव, वृत्ति विचार पिंगल एवं मर्दन विरुदावली लिखी थी। उन दिनों बैसवारे में राजा मर्दन सिंह का राज्य था। उन्होंने सुखदेव मिश्र को चंडिका देवी के पूजन हेतु एक आश्रम की जगह दे रखी थी। एक दिन मिश्रजी अमेठी गए थे, उसी समय मौरावां के विख्यात कवि निशाकर बक्सर (डोडिया खेडा) आए। राजा ने सुखदेव जी का निवास उन्हें रहने के लिए दे दिया। पं. सुखदेव मिश्र लौट कर आए तो अपने निवास पर दूसरे को ठहरा हुआ देख कर बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने गुस्से में राजा को श्राप दे दिया कि ‘अब बैसवारा में हम नहीं सिर्फ निशाचर ही निवास करेंगे।’ उनके जाने के दो वर्ष बाद राज्य में भीषण समस्याएं आने लगीं।

वे गुस्से में बक्सर छोड़ कर मुरारमऊ चले गए। तत्कालीन राजा अमर सिंह ने सुखदेवजी की मर्जी से गंगा के किनारे एक बड़ा भूखंड दान स्वरूप दे दिया। सुखदेव मिश्र ने उसी जगह ग्राम दौलतपुर बसाया, जहां हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म हुआ। जिन्होंने अंग्रेजी शासन काल में हिंदी भाषा-साहित्य का परिष्करण करके हिंदी भाषा-साहित्य का युग प्रवर्तन किया। बैसवारे के अंतिम राजा रावराम बक्स एवं राणा बेनीमाधव सिंह थे, जिन्होंने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया पर परास्त हो गए।

अंग्रेजों ने शंकरपुर एवं डौडिया खेडा बैसवारा रियासत के दोनों किले ध्वस्त कर दिए। अपने कुछ गद्दार सैनिकों के कारण 1857 के भीषण संग्राम में राणा बेनी माधव तथा बैसवारे के राजा रावराम बक्स दोनों ही बुरी तरह परास्त हुए। राणा जी नेपाल की ओर चले गए जिनका आज तक पता नहीं चला, किंतु रावराम बक्स को अंग्रेजों ने अंग्रेजी शासन से गद्दारी करने का अभियोग लगाकर पुराने बक्सर के बरगद के पेड़ में खुले आम फांसी की सजा दी। आजादी के बाद वह उसी स्थान पर रावराम का स्मारक बनाया गया है।

बैसवारे के कवि-साहित्यकारों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, डॉ. रामविलास शर्मा, मलिक मुहम्मद जायसी, भगवती चरण वर्मा, डॉ. जगदंबा प्रसाद दीक्षित, पं. प्रतापनारायण मिश्र, डॉ. राममनोहर त्रिपाठी, रमेशचंद्र, काका बैसवारी एवं डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी आदि ने हिंदी को गौरवांकित किया।

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