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राष्ट्रीय कार्य को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने वाला ग्रंथ- गीता रहस्य

राष्ट्रीय कार्य को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने वाला ग्रंथ- गीता रहस्य

by विद्याधर ताठे
in जुलाई-२०१६, सामाजिक
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लोकमान्य तिलक मानते थे कि भारतीयों की अकर्मण्यता ही उनकी अवनति का कारण बनी। उस अकर्मण्यता को केवल पुरुषार्थी कर्मयोग ही दूर कर सकता है। ज्ञानी पुरुषों को विरक्त होकर कर्म संन्यासी होने के बजाय ज्ञानयुक्त पुरुषार्थमय जीवन जीना चाहिए। लोकमान्य ने ‘गीता रहस्य’ में यही सीख दी, जो अंग्रेजी दासता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए बहुत आवश्यक भी था।

लोकमान्य तिलक की अलौकिक प्रतिभा का आविष्कार यानी गीता रहस्य। ‘लोकमान्य तिलक की इस कृति ने राष्ट्र कार्य को आध्यात्मिक अधिष्ठान प्रदान किया’ इन शब्दों में द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरूजी ने इस कृति के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। भारतीय विचार के निवृत्ति मार्ग से उत्पन्न अकर्मण्यता भारत की अवनति एवं पराधीनता का कारण है, इसीलिए पुरुषार्थ उत्पन्न करने वाला कर्मयोग ही इसका उत्तर है। भगवद् गीता ज्ञान और भक्ति से युक्त कर्मयोग का परिपक्व दर्शन है। यह केवल कर्म संन्यास का निवृत्ति मार्ग ही नहीं होकर पुरुषार्थपरक कर्मयोग का संदेश है।

प्रस्तावना

लोकमान्य तिलक ने ‘गीता रहस्य’ के प्रारंभ में श्रीमद् भगवद् गीता का ‘यह हमारे धर्मंग्रंथों में से एक तेजस्वी और निर्मल हीरा’ कह कर उल्लेख किया है। श्री अरविंद घोष ने भी ‘भारतीय अध्यात्म विद्या का परिपक्व और मधुर फल’ कह कर गीता के प्रति अपने गौरव उद्गार व्यक्त किए। विनोबा और गांधी ने गीता को मां का स्थान दिया है। देश विदेश के सम्माननीय विद्वानों के द्वारा गीता के प्रति जो गौरवपूर्ण भाव व्यक्त किए गए हैं, यह विषय इतना व्यापक है कि उसके लिए अलग से एक लेख लिखना पड़ेगा। स्वामी विवेकानंद से लेकर आज के बाबा रामदेव तक अनेक महापुरुषों के कार्य का अधिष्ठान गीता का दर्शन ही रहा है, पिछले पांच हजार वर्षों से यह ग्रंथ जिन मनीषियों तथा चिंतकों के लिए प्रेरणा बना हुआ है, लोकमान्य तिलक उनमें से एक हैं। ब्रह्मदेश, जो आज का म्यांमार है, के मंडाले के कारागृह में अंग्रेजों के राजद्रोह के आरोप में बंदी रहते हुए लोकमान्य ने गीता पर अपने भाष्य ‘गीता रहस्य’ की रचना की।

1872 में जब तिलक की आयु सोलह वर्षों की थी, उनके पिताजी गंभीर रूप से बीमार हो गए, उस समय का उल्लेख करते हुए वे अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं, ‘अंतिम बीमारी के समय मृत्यु शैया पर पड़े पिताजी को गीता पढ़ कर सुनाने की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। इसी बहाने गीता के साथ मेरी निकटता बढ़ी, और गीता में मुझे दिलचस्पी पैदा हुई, जो संस्कृत की पढ़ाई के साथ बढती गई।’

भगवद् गीता पर लिखे अनेक ग्रंथों का तिलक ने अध्ययन किया। अंग्रेजी, मराठी और हिंदी में गीता पर लिखे गए भाष्यों के अध्ययन के साथ-साथ वे आपनी ओर से गीता पर मौलिक रूप से विचार भी करते रहते। अपने ही लोगों के साथ युद्ध का अवसर पैदा होने पर विभ्रमित अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मज्ञान और भक्ति से मोक्ष कैसे प्राप्त होगा केवल इतना ही कैसे बताया होगा? और ऐसे उपदेश से अर्जुन किस प्रकार युद्ध के लिए तैयार हुआ होगा? ऐसे अनेक प्रश्न तिलक के मस्तिष्क में घूम रहे थे। बहुत से आचार्यों तथा भाष्यकारों की गीता पर टीका पढ़ने के बाद भी उन्हें उनके प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। अंततः उन्होंने गीता को बार- बार पढ़ा, और विचार किया कि मूल गीता में भगवान का उपदेश यह केवल कर्म संन्यास तथा भक्ति का ही नहीं है, तो वह अर्जुन को युद्ध के लिए सन्नद्ध होने के लिए कहा गया प्रवृत्तिपरक उपदेश है। तिलक को यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि गीता का योग यह शुद्ध कर्मयोग है। इसके बाद तिलक ने वेदांत सूत्र, उपनिषद, महाभारत आदि ग्रंथों का इस दृष्टि से पुनः अध्ययन किया और इस ठोस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गीता यह निवृत्तिपरक न होकर प्रवृत्तिपरक है। यही नहीं, वे मानते थे कि गीता केवल ‘कर्मयोग शास्त्र’ ही है। अपने इस विचार की पुष्टि करने तथा प्रसार करने के उद्देश्य से लोगों के तथा चिंतकों के सामने अपने विचारों को चार-पांच स्थानों पर सार्वजनिक सभाओं में रखा। उनका पहला व्याख्यान नागपुर में हुआ। करवीर पिठेश्वर शंकराचार्य के आग्रह पर 1904 में उनके व्याख्यान करवीर पीठ और संकेश्वर पीठ में हुए। उस पर चर्चा और वादविवाद भी हुए।

इस विषय पर ग्रंथ लिख कर प्रकाशित करना तय हो गया, परंतु इसके लिए केवल तिलक के विचारों को प्रस्तुत करना ही लोगों को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त नही था। उसके लिए गीता पर पूर्व में लिखे गए भाष्य का खंडन-मंडन कर प्रतिवाद कर, उसे बिन्दुवार लिखने की आवश्यकता थी। इसी प्रकार गीता के दर्शन के साथ दूसरे धर्मों के विचारों की तुलना कर ‘गीता यानी कर्मयोग’ यह विचार क्यों ठीक है यह भी लोगों को स्वीकार करवाना था। परंतु कांग्रेस के काम, केसरी, मराठा समाचार पत्र के कामों से समय निकाल कर गीता रहस्य लिखना संभव नहीं था। यद्यपि सिंहगढ़ पर एकांत स्थान पर उनका एक बंगला था, जहां रह कर वे चिंतन-मनन किया करते थे। परंतु राजनितिक गतिविधियों के कारण उन्हें ‘गीता रहस्य’ लिखने का समय नहीं मिला, और समय आगे बढ़ता गया।

‘गीता रहस्य’ की जन्म गाथा

1908 में ‘केसरी’ में प्रकाशित लेख पर अंग्रेज सरकार ने तिलक पर राजद्रोह का मामला दायर किया और कारावास की सजा दी। अंग्रेज सरकार ने उन्हें देश की जेल में न रखते हुए ब्रह्मादेश की मंडाले जेल में भेज दिया। अब सब को महसूस हो रहा था कि ‘गीता रहस्य’ को लिखने का काम और लंबा खींचेगा। परंतु तिलक के राजनैतिक कैदी होने का विचार करते हुए ब्रिटिश न्यायालय ने उन्हें जेल में पुणे से संदर्भ ग्रंथ लाकर मंडाले जेल में उपलब्ध करा दिए। लो. तिलक द्वारा मांगे गए ग्रंथों की संख्या लगभग 500 थी। उनमें से 350 के लगभग ग्रंथ ही उपलब्ध हो पाए। प्रारंभ में एक बार में केवल चार ग्रंथ ही जेल में उपलब्ध कराए जाते। जिनकी सरकार द्वारा बड़े ध्यान से जांच पड़ताल होती। बाद में धीरे-धीरे सारे बंधन ढीले होते गए और सभी 350 ग्रंथ एक साथ कोठरी में रखने की अनुमति दे दी गई। लगभग वर्ष, डेढ़ वर्ष तक तिलक ने सभी ग्रंथों का गहराई से अध्ययन कर संदर्भ जमा किए। और 2 नवंबर 1910 को ‘गीता रहस्य’ की रचना प्रारंभ कर दी। ग्रंथ लिखने के लिए कारावास के अधिकारी उन्हें खुले कागज नहीं देते, तो वे बाइन्ड किए कागज़ क्रम संख्या लिख कर देते। वैसे ही लिखने के लिए स्याही और पेन न देकर पेन्सिल नोंक करके दी जाती। तिलक को देश के लिए अंग्रेजों का कारावास भुगतना कोई नया नहीं था। इसके पहले अंग्रेजों की अवकृपा से दो बार तिलक को कारावास में रहना पड़ा। उन दोनों कारावास के काल में भी तिलक ने दो अनुसंधानात्मक पुस्तकों की रचना की। ओरायन, और आर्यों का निवास स्थान इन दोनों पुस्तकों की देश-विदेश के विद्वानों ने प्रशंसा की तथा दुनिया को तिलक की विलक्षण प्रतिभा का ज्ञान इन किताबों ने कराया। तिलक के ज्ञान तथा विद्वत्ता से सभी अचम्भित थे। और मंडाले की जेल में तिलक के तीसरे ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ अर्थात कर्मयोग शास्त्र का जन्म हुआ।
दि. 8 जून 1914 को मंडाले के जेल से तिलक को छोड़ दिया गया, और तिलक पुणे आकर पूर्ववत अपने काम में लग गए। कई महीने बीत जाने के बाद भी अंग्रेज सरकार तिलक के द्वारा लिखे ‘गीता रहस्य’ की मूल प्रति उनको वापस नहीं कर रही थी। इसके लिए सरकार से बार-बार निवेदन करने के बाद भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। तिलक ने अपने स्वभाव के अनुसार सरकार को अंतिम चेतावनी का इशारा देते हुए कहा, ‘यदि अब भी सरकार हस्तलिखित सामग्री वापस नहीं कर देती है तो मैं पुनः ‘गीता रहस्य’ लिखूंगा, यद्यपि लिखित सामग्री सरकार के पास है, परंतु पूरा ग्रंथ मेरे दिमाग में है’। आखिर सरकार ने हस्तलिखित सामग्री वापस कर दी।

सन 1915 के जून माह में ‘गीता रहस्य’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। एक सप्ताह में इसकी छः हजार प्रतियां प्रतियां बिक गईं। पहला संस्करण तीन महीने में पूरा बिक गया। और सितम्बर 1915 में दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। मूल रचना मराठी में होने के कारण मराठी भाषी विद्वानों के बीच इस ग्रंथ पर चलने वाली चर्चाओं तथा वादविवादों के कारण दूसरे भाषा-भाषियों के बीच भी इस ग्रंथ की मांग बढ़ने लगी। सन 1917 में हिंदी और गुजराती के संस्करण प्रकाशित हुए, उसके बाद 1919 में तेलगु और कन्नड़ संस्करण प्रकाशित हुए, इस बीच 1918 में मराठी का तीसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ। अंगेजी, बंगाली और तमिल संस्करण अपने जीते जी देखना उनके भाग्य में नहीं था। 1 अगस्त 1920 में लो.तिलक का निधन हुआ और 1924 में बंगाली और तमिल संस्करण छपा, बाद में 1936 में अंग्रेजी अनुवाद छपा।

‘गीता रहस्य’ की अन्तर्निहित विशेषता

‘गीता रहस्य’ के पूर्व भी देश में भगवद् गीता पर अनेक भाष्य व टीकाएं लिखी गई हैं। श्रीमद् आदि शंकराचार्य के गीता भाष्य को इनमें सब से प्रमुख स्थान प्राप्त है। परंतु इन सब टीकाओं उन संप्रदायों की विचारधारा के अनुसार लिखा गया। इन सभी टीका ग्रंथों को सामान्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है। 1. ज्ञानमार्गी मोक्षपरक तथा 2. भक्तिपरक। इन दोनों प्रकार के ग्रंथों में कर्म की उपेक्षा हुई या कर्म को गौण स्थान दिया गया। इस बात को ध्यान में रखकर लो. तिलक को कर्म को महत्व देने वाली टीका की आवश्यकता महसूस हुई, क्योंकि राष्ट्र कार्य और समाज कार्य के लिए पुरुषार्थ प्रधान विचार की आवश्यकता थी। यही नहीं तो लो. तिलक ने पुरुषार्थ का अधिष्ठान ही गीता का मूल तत्त्व है, यह प्रतिपादित किया। श्रीमद् शंकराचार्य के द्वारा लिखे भाष्य में प्रतिपादित कर्म संन्यास युक्त ज्ञानपरक मोक्षमार्ग के पहले भी गीता का अर्थ कर्मप्रधान ही था, हालांकि वे प्राचीन ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं हैं, पर लो. तिलक बताते हैं कि उसका उल्लेख आचार्यों के भाष्य में मिलता है।

‘गीता रहस्य’ लगभग 800 पृष्ठों का ग्रंथ है, जो तीन भागों में विभाजित है। पहले भाग में लो. तिलक ने गीता किस प्रकार कर्मयोग शास्त्र है, इसे प्रतिपादित किया है। दूसरे भाग में गीता का स्थूल विवेचन है, इस संदर्भ में विविध प्रश्नों पर विमर्ष भी किया गया है। तीसरे भाग में गीता के 700 श्लोकों का अर्थ विस्तारपूर्वक टिप्पणियों सहित दिया गया है। तिलक गीता को हिंदू जीवन, धर्म और नैतिक विचारों का दर्शन मानते हैं। इसीलिए ‘गीता रहस्य’ के पहले पृष्ठ पर ही लो. तिलक ने रोमन लिपि में ॥॥॥।

‘गीता रहस्य’ के पहले भाग में लो. तिलक ने गीता के लिए पहले से चली आ रही निवृत्तिपरक टीका का एक वकील की तरह प्रतिवाद कर अपने ‘गीताः कर्मयोग’ शास्त्र सिद्धांत को प्रस्तुत किया। उनके इस लेखन में तिलक के अंदर के पारंगत वकील तथा बिना लागलपेट के अपनी बात रखने वाले पत्रकार को अनुभूत किया जा सकता है। दूसरे भाग में लो. तिलक ने गीता के, रचना के काल, महाभारत के साथ सम्बंध, उपनिषद के साथ सम्बंध, उसी प्रकार ईसाई और बौद्ध मत के साथ गीता के सिद्धांतों की समानता तथा भेद पर चर्चा की। अरस्तु, सुकरात, मिल्ल, स्पेंसर, कान्ट जैसे विदेशी विचारकों के दर्शन पर विमर्श करते हुए, इनसे गीता के दर्शन के बुनियादी अंतर को, तथा गीता के विचारों के श्रेष्ठत्व को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।

लो. तिलक स्पष्ट कहते हैं कि हमारा कोई सम्प्रदाय नहीं है, इसीलिए ‘गीता रहस्य’ की रचना किसी सम्प्रदाय के लिए नहीं की गई। वे आगे कहते हैं कि अपने स्वजनों के साथ कैसे लड़ना, इस भ्रम में पड़ा अर्जुन गीता का उपदेश सुन कर युद्ध के लिए तैयार होता है और विजयी भी होता है। अर्जुन का युद्ध के लिए तैयार होना और भगवान को ‘करिष्ये वचनं तव’ कहना यही भगवद् गीता के उद्देश्य का प्रत्यक्ष दर्शन है। गीता सुन कर अर्जुन न तो कर्म संन्यासी बना, न ही निवृतिमार्गी हुआ, वरन् वह क्षत्रीय स्वभाव के अनुसार युद्ध के लिए तैयार हुआ, और अपने पुरुषार्थ का नाद करते हुए विजयी भी हुआ। गीता के इस सत्य स्वरूप को आम भक्तों के बीच प्रचार करने के लिए हमने यह ‘गीता रहस्य’ रुपी ज्ञान यज्ञ रचा है। लो. तिलक ने अंत में यह अपेक्षा व्यक्त की कि इस ज्ञान यज्ञ के निमित्त हमारे राष्ट्र बंधु तथा धर्म बंधु हमारे द्वारा मांगी गई ज्ञान की भिक्षा हमें देंगे।

संक्षेप में कहें तो भारतीयों की अकर्मण्यता ही उनकी अवनति का कारण बनी। उस अकर्मण्यता को केवल पुरुषार्थी कर्मयोग ही दूर कर सकता है। ज्ञानी पुरुषों को विरक्त होकर कर्म संन्यासी होने के बजाय ज्ञानयुक्त पुरुषार्थमय जीवन जीना चाहिए। ज्ञानी लोगों के मन में बसी कर्मबंधन के भय की बेड़ी को लो.तिलक ने ‘गीता रहस्य’ के द्वारा तोड़ दिया, और अंग्रेजी दासता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए यह बहुत आवश्यक भी था। ‘गीता रहस्य’ ने इसी कार्य को किया। पिछले वर्ष, 2015 में ‘गीता रहस्य’ के प्रकाशन को एक शताब्दी पूरी हुई, लो. तिलक के 159वीं जयंती के अवसर पर उस प्रज्ञा सूर्य को विनम्र अभिवादन।
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विद्याधर ताठे

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