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अखिलेश यादव की बगावत के मायने

अखिलेश यादव की बगावत के मायने

by कृष्ण्मोहन झा
in अक्टूबर-२०१६, सामाजिक
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उत्तरप्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों के लिए भले ही चन्द महीने शेष रह गए हों परन्तु राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अन्दर इस समय जो यादवी संघर्ष की स्थिति दिखाई दे रही है उसे देखकर यह अनुमान तो कतई नहीं लगाया जा सकता कि पार्टी को अगले चुनावों में अपनी अच्छी विजय सुनिश्चित करने की कोई चिन्ता है। पार्टी संगठन और सरकार दोनों को शायद यह पूर्वाभास हो चुका है कि अगले चुनावों मे उसे जनता का वह भरोसा हासिल नहीं हो पाएगा जो 2012 के चुनावों में उसे सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने का जरिया बना था। आश्चर्य की बात यह है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अब अपने पिता और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के फैसलों को भी चुनौती देने के लिए कमर कस चुके ह््ैं। अखिलेश यादव भले ही यह कहे कि पार्टी और सरकार में उनके पिता और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह का निर्णय ही अंतिम है परन्तु उन्होंने खुद भी यह माना है कि कुछ फैसले उनके अपने भी रहे ह््ैं। दरअसल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का असली विरोध अपने चाचा शिवपाल यादव से है जो सत्ता में अभी तक सर्वाधिक ताकत अपने पास समेटे हुए थे। पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव द्वारा उनकी हर मामले में तरफदारी करने से अखिलेश यादव खुद को अपमानित महसूस कर रहे थे लेकिन एक सीमा तक सब कुछ सहन करने के बाद अखिलेश यादव को यह तय करना ही पड़ा कि वे आगामी विधानसभा चुनावों में कठोर प्रशासक और निष्कलंक मुख्यमंत्री की छवि के साथ ही मतदातााओं का सामना करेंगे जिससे कि चुनावों में पार्टी की पराजय भी सम्मानजनक हो। अखिलेश यादव इस हकीकत को भी बखूबी समझ चुके है कि सरकारी स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था की स्थिति में गिरावट के कारण उनकी सरकार द्वारा लागू की गई विकास योजनाओं की चमक फीकी पड़ चुकी है ओर ये दो कारक आगामी चुनावों में पार्टी के हाथ से बागडोर छिनने की वजह बन सकते हैं इसलिए अभी अभी लिए गए अपने कठोर फैसलों से मुख्यमंत्री साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखेंगे। गौरतलब है कि पिछले ढाई दशकों में उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल को लगातार दो बार सत्ता सुख नसीब नहीं हुआ है।

दरअसल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विगत कुछ दिनों मेंं जिस तरह के कठोर फैसले लिए है वैसे फैसले उन्हें उस समय लेना चाहिए था जबकि राज्य में यह जुमला आम हो चला था कि राज्य में पांच या साढ़े पांच मुख्यमंत्री है। अखिलेश यादव के हाथों भले ही मुख्यमंत्री पद की बागडोर थी परन्तु सरकार में शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव, आजम खान जैसे मंत्री उनसे अधिक ताकतवर प्रतीत होते थे और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने तो सभी को निर्देशित करने का अधिकार अपने पास ही हमेशा सुरक्षित रखा था। अखिलेश यादव ने उनसे आयु में बड़ेे और अपने पिता के करीबी रहे इन वरिष्ठ मंत्रियों की हैसियत को कभी चुनौती भी नहीं दी। वैसे इन वरिष्ठ मंत्रियों के कई बयानों और फैसलों के कारण मुख्यमंत्री को असहज स्थिति का सामना भी करना पड़ा परन्तु पिता के करीबी इन मंत्रियों के प्रति खुलकर असंतोष जाहिर करने से उन्होंने हमेशा परहेज किया। परन्तु इसका एक सबसे बड़ा नुकसान अखिलेश यादव को यह हुआ कि वे कठपुतली मुख्यमंत्री की छवि में कैद होते चले गए और वास्तविक सत्ता उनके हाथ से फिसलती चली गई्। गौरतलब है कि अखिलेश यादव की सरकार में कुछ मंत्री ऐसे भी थे जो कि मुलायम सिंह यादव की पसंद थे।

दरअसल अखिलेश यादव ने विवादित मंत्रियोंं के विरूद्ध कार्रवाई करने में इतनी देर कर दी है कि उनकी व्यक्तिगत छवि को हो चुके नुकसान की भरपाई अब शायद संभव नहीं है। जिस तरह के कठोर फैसले वे आज ले रहे हैं वैसे ही कठोर फैसले उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रारंभ से ही लिए होते तो उन्हें आज देश के सबसे बड़े राज्य के अब तक के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के रूप में जाना जाता और आज जो यादवी संघर्ष की स्थित ने पार्टी के अन्दर जन्म ले लिया है वह स्थिति बनने की नौबत भी नहीं आती। इसका फायदइा पार्टी को आगामी विधानसभा चुनावों में मिलता परन्तु अफसोस की बात यही है कि अखिलेश यादव को मतदाताओं के सामने अपनी सरकार की साफ सुथरी छवि पेश करने की चिंता तब हुई है जबकि चुनाव के लिए चन्द महीने ही शेष रह गए है। फिर भी अखिलेश यादव अगर अब सरकार की छवि सुधारने के प्रयासों में जुट गए हैं तो इसे देर आयद दुरूस्त आयद ही माना जा सकता है।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल यादव की उस योजना को पलीता लगाकर अपनी ताकत का अहसास कराया जिसके जरिए वे मुख्यतार अंसारी की कौमी एकता पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय कराने जा रहे थे। इस योजना को मुलायम सिंह यादव की सहमति से ही अमली जामा पहनाने की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं परन्तु ऐन वक्त पर अखिलेश यादव के सख्त विरोध के कारण यह योजना धरी की धरी रह गई्। मुलायम सिंह यादव ने मन मसोसकर अपने मुख्यमंत्री बेटे की राय को तरजीह दी। मुलायम सिंह यादव चाहते थे कि कौमी एकता पार्टी का सपा में विलय हो जाए ताकि पूर्वी उत्तरप्रदेश में कौमी एकता पार्टी के प्रभाव वाली 35-40 सीटें उसकी झोली में आने में आसानी हो परन्तु अखिलेश यादव को यह योजना इसलिए पसंद नहीं आई कयोंकि वे जनता को यह संदेश नहीं देना चाहते थे कि उनकी पार्टी चुनावी लाभ के लिए आपराधिक छवि वाले नेता की पार्टी से भी समझौता करने में गुरेज नहीं करती।

कौमी एकता पार्टी का सपा में विलय कराने की अपनी योजना को पलीता लगने से आहत शिवपाल यादव को दूसरा बड़ा झटका मुख्यमंत्री ने विगत दिनों तब दिया जब उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपी दो मंत्रियों को मंत्रिमण्डल से बर्खास्तगी की सिफारिश की और शिवपाल यादव के करीबी राज्य सरकार के मुख्य सचिव दीपक सिंघल को उनके पद से हटा दिया। इस फैसले से कुपित शिवपाल यादव ने पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से उनके मुख्यमंत्री बेटे की शिकयत की तो पार्टी सुप्रीमो ने अखिलेश यादव को प्रदेश सपा के अध्यक्ष पद से हटाकर उसकी बागडोर शिवपाल के हाथों में थमा दी। मुलायम सिंह यादव के इस फैसले से अखिलेश यादव ने खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि उन्होंने गुस्से में आकर शिवपाल यादव से आठ प्रमुख मंत्रालय छीनकर उन्हें सरकार में महत्वहीन मंत्री बना दिया। शिवपाल यादव अपना महत्व इस घटने से इस कदर आक्रोश में आ गए कि वे सरकार से हटने का मन बना चुके है।

अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव का वह फैसला भी रास नहीं आया है जिसके द्वारा पूर्व सपा नेता अमर सिंह को पार्टी में फिर से शामिल कर लिया है। अमरसिंह ने अखिलेश यादव के आज के फैसलों पर टिप्पणी करते हुए यह तंज कसा है कि अखिलेश अभी बच्चा है। उसको अब समझ आ रही है। निश्चित रूप से अखिलेश यादव को अमरसिंह की इस टिप्पणी ने इतना रूष्ट कर दिया होगा कि वे अगले कुछ महीनों में और भी कठोर फैसले लेने से परहेज न करे्ं। निश्चित रूप से अखिलेश यादव के ये फैसले जनता के बीच उनकी अच्छी छवि बनाने में सहायक हो सकते हैं परन्तु सवाल यह उठता है कि अखिलेश यादव ने अभी तक शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव व आजम खान जैसे मंत्रियों को इतना महत्वपूर्ण क्यों बनाए रखा कि राज्य में पांच या साढ़े पांच मुख्यमंत्री होने का जुमला आम हो गया। अखिलेश यादव अगले कुछ महीनों में और कुछ कठोर फैसले ले सकते हैं ताकि राज्य की जनता के उस आक्रोश को कम किया जा सके जो सत्ताधारी दल के दबंग व्यक्तियों के द्वारा जमीन पर अवैध कब्जों से उपजा है और जो जनता राज्य में पिछले साढ़े चार सालों में पनपे भ्रष्टाचार तथा कानून व्यवस्था की स्थिति में आई गिरावट के कारण सरकार को सबक सिखाने का मन बना चुकी है। अब देखना यह है कि अखिलेश यादव अपने कठोर फैसलों से इस काम में कितने सफल हो पाते ह््ैं।

कृष्ण्मोहन झा

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