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यूरोप के समक्ष अधार्मिक संकट

यूरोप के समक्ष अधार्मिक संकट

by प्रमोद पाठक
in अक्टूबर-२०१६, सामाजिक
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युद्धपीड़ित मुस्लिम शरणार्थियों को मानवीयता के आधार पर आने देने के प्रति यूरोप के देशों में सरकारों, राजनीतिक दलों एवं जनसाधारण का विरोध लगातार बढ़ रहा है। इस तरह मानवता धर्म से परे होने की अधार्मिक आपत्ति यूरोप के सामने है। इसके लिए मुस्लिम समाज स्वयं ही जिम्मेदार है। मानवता का स्वांग भरने वाले मुस्लिम समाज को, काफिरों से नफरत कर धार्मिक वर्चस्व प्रस्थापित करने के लिए किसी भी हद तक जाने की मध्ययुगीन मानसिकता जो मिली है वही उनके पतन के लिए जिम्मेदार है।

साल डेढ़ साल पहले इसिस ने बाकायदा खिलाफत स्थापन कर सीरिया और इराक पर हमले करना शुरू किया। तब पहली बार यहूदी, ईसाई जैसे गैरमुस्लिम समाज को जान हथेली पर रख कर सुरक्षित जगहों पर विस्थापित होना पड़ा। उन्हें दक्षिण में अरब देशों में अथवा पूर्व में ईरान, तुर्कमेनिस्तान इत्यादि देशों में जगह न मिली। यूरोप उनके लिए सुरक्षित जगह थी। एक तरफ तुर्कस्तान में सड़क से होकर तथा इटली और ग्रीस तक समुद्री मार्ग से जाने के लिए शरणार्थियों की कोशिशें शुरू हुई। उन पर होने वाले अत्याचारों को देख कर सामान्य लोगों को उन पर दया आने लगी। धार्मिक स्थल के समान पवित्र पर्वत के आसपास अटके हुए यहूदी लोगों को हेलिकॉप्टर की सहायता से छुड़ाने हेतु ईसाई देश आगे बढ़े।

ये शरणार्थी जब जान जोखिम में डाल कर और मुश्किल सफर करके यूरोपीय देशों में पहुंचते, तब ऐसा लगता था कि उनका स्वागत करने रेल्वे स्टेशनों पर और उनके रास्ते पर उन्हें जरूरती मदद देने के लिए सैंकड़ों की तादाद में यूरोपीय निवासी उत्सुक थे।

इसिस ने गैरमुस्लिम समाज का बड़ा अमानवीय तरीके से कत्ल करना शुरू किया। उसके बाद उन्होंने बड़े प्रदेश पर अपनी धाक जमाने बगदाद और दमिश्क जैसी राजधानियों की दिशा से हमले शुरू किए। इस प्रदेश में रहने वाली बहुत सी जनजातियों ने उग्रतर संघर्ष किया। स्थानीय मुस्लिम शरणार्थियों की संख्या बढ़ने लगी। यूरोप के कई देशों ने इराक और अफगानिस्तान की लड़ाइयों के अनुभव को ध्यान में रखकर विद्रोही सैनिकों को हवाई मदद देने की शुरूआत की। हवाई हमलों के कारण सामान्य नागरिकों का जीवन मुश्किल हुआ, वे यूरोप की ओर जाने लगे। उनके विस्थापन को यूरोप के देश ही जिम्मेदार होने के कारण केवल गैरमुस्लिमों को ही नहीं बल्कि सीरिया, इराक जैसे युद्धग्रस्त देशों से स्थलांतरित या प्रवासित होने वाले मुस्लिम नागरिकों को भी मानवीय दृष्टिकोण से सहायता मिलें, ऐसा आग्रह मदद कार्य देने वाले संगठनों ने किया। उन्हें वैश्विकस्तर के स्वयंसेवी संगठन और संयुक्त राष्ट्र संगठन की मदद मिलने लगी। जहां पर ये विस्थापित जाएं वहां उन्हें अस्थायी सहायता दिलाने और रहने हेतु देने का काम जल्द शुरू किया गया। यूरोप में मानवतावादी काम करने के लिए बहुत लोग संगठित हुए।

मानवता ही धर्म

ईसाई और मुस्लिम ये दोनों सामरिक – एकेश्वरवादी धर्म है। ये धर्म मानवीयता, सहिष्णुता के लिए विख्यात नहीं हैं। इतिहास साक्षी है कि मध्ययुगीन कालखंड में इन धर्मों के लोगों ने आपस में अपने ही संप्रदायों पर अत्याचार, हिंसाचार किए। उस समय यूरोप में समृद्धि नहीं थी। पहले महायुद्ध के दौर में यातायात के साधनों में वृद्धि हुई, जिसके कारण संघर्ष तीव्रतर होते गए। बीसवें शतक में बड़े पैमाने पर हुआ नरसंहार यूरोपीय समाज ने भुगता। पहले महायुद्ध के दरमियान आर्मेनिया में दस-पंधरा लाख ज्यू लोगों की और ईसाइयों का कत्ल हुआ जो यूरोपीय देशों ने देखा, अनुभव किया। पहला महायुद्ध समाप्त होने के दो दशकों के बाद उससे भी ज्यादा खतरनाक दर्दनाक महायुद्ध यूरोप में ही हुआ। नतीजतन यूरोप के पढ़े-लिखे, जिन्होंने युद्ध के परिणाम भुगते हैं, उन लोगों को युद्ध से नफरत उत्पन्न हुई। उससे प्रथम संयुक्त राष्ट्र संगठन, मानवता पर आधारित कार्यक्रम, शरणार्थियों के बारे में दया, करूणा के कारण स्वयं आपात्कालीन परिस्थितियों से गुजरे यूरोपीय समाज में मानवतावादी विचार-प्रवाह बहने लगा। लोगों की सोच बढ़ गई। मुसीबत के मारे लोगों की मदद करने हेतु संस्थाएं स्थापन हुईं। दोनों महायुद्धों में लाखों लोग तानाशाही के (ऋरलळीीं) बलि चढ़ गए। ज्यू लोग ज्यादा मारे गए। कई छोटे बड़े समुदायों को जुल्म और वांशिक विद्वेष का सामना करना पड़ा। धार्मिक और वांशिक अल्पसंख्यकों को उनके देश में सताया जाए तो उन्हें सरकारी स्तर पर आश्रय दिया जाए, यह बात मदद देने वाले संगठनों ने स्वीकार की। दूसरे महायुद्ध के दौरान ज्यादातर ज्यू का कत्ल करने वाली जर्मनी ने प्रायश्चित के तौर पर राजनीतिक विद्रोहियों को स्वीकारने की बात सोची। नोमचॉस्की जैसे तत्वज्ञ वियतनाम युद्ध के विरोध में अपने ही देश के प्रशासन के विरोध में खड़े हुए। उन्होंने मानवतावादी सोच उत्पन्न की। पारंपरिक धर्म से ऊपर उठ कर ‘मानवता ही धर्म’ जैसी सोच ने यूरोप-अमेरिका में जोर पकड़ा। उन्हें साम्यवादी देशों में उत्पन्न खौफ, दहशत जिम्मेदार थी। जब पूर्व यूरोप की हंगेरी, चेकोस्लोवाकिया जैसे देश रूस की साम्यवादी एकाधिकारशाही (तानाशाही) में सताए जा रहे थे, तब समृद्धि बढ़ने वाले यूरोप के देशों ने धर्म से परे मानवीयता और समता का दृष्टिकोण रखा। दुनिया में जहां संघर्ष है, वहां पर आपात्कालीन मदद और चिकित्सा उपलब्ध कराई। उस देश के नागरिक इसमें आगे थे। कुछ संगठनों में काम करने वाले लोगों को नियमित आय मिलती थी। युद्धपीड़ित, बाढ़पीड़ित इलाकों में जाकर वहां के वातावरण का सामना करते हुए मदद पहुंचाने जैसा काम प्रशंसनीय है। ईसाई धर्म से प्रेरित होकर कुछ संगठनों ने धर्म प्रसार किया भी होगा, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। विगत चार-पांच दशकों का मदद-कार्य देखते हुए पश्चिम यूरोप के देशों में ‘मानवता यही धर्म’ इसी सोच से प्रवासित (स्थलांतरित) लोगों के लिए मदद-कार्य जारी है।

भिन्न भिन्न देशों के विस्थापितों में अंतर

यूरोप के देशों में 1956 से 1968 तक आश्रय मांगने वाले प्रवासितों में 2,33,000 लोग साम्यवादी देशों से सताए गए, भागे हुए थे। दूसरे देशों के प्रवासितों की संख्या केवल 1000 थी। ये प्रवासित जिन देशों में स्थायी हुए, उन देशों का रहन-सहन, संस्कृति और कायदे-कानून के साथ उन्होंने अपने आपको ढाल लिया। अपने-अपने देश का सांस्कृतिक अस्तित्व संभालते हुए उन्होंने स्थानीय संस्कृति, नियम, न्याय व्यवस्था और शिक्षा आदि के साथ संघर्ष करना टाला।

हम जब अमेरिका में थे तब यूरोप के प्रवासितों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में शामिल होते थे। वहां पर पारंपरिक भोजन, पोशाकें, नृत्य इत्यादि खास बातें देखने के लिए। ह्यूस्टन में कई भारतीय रहते हैं। उनके द्वारा आयोजित होली, दीवाली, गणेशोत्सवों में अमेरिकी नागरिक शामिल होते थे। ह्यूस्टन में मैं जिस ‘गांधी पुस्तकालय’ का सदस्य था, जिन्होंने शुरू किया ‘गांधी सप्ताह’ का कार्यक्रम अब ह्यूस्टन महानगरपालिका ने गोद लिया है। ईसा मसीह के बाद गांधीजी को शांतिदूत मानने वाले काले-गोरे अमेरिकी उसमें अपने-अपने समूह के साथ शामिल होते हैं। केवल मुस्लिम देशों के सहभाग का अपवाद छोड़ दें तो यूरोप-अमेरिका के उदारतावादी सोच का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे इस ‘गांधी सप्ताह’ के दौरान हुआ।

जिन मुस्लिम देशों पर यूरोप के देशों ने शासन किया, 1970 के बाद उन देशों के मुस्लिम प्रवासितों की संख्या बढ़ रही थी। इंग्लैंड में पाकिस्तान, बांग्लादेश, फ्रान्स में अल्जीअर्स, लिबिया, जर्मनी में तुर्कस्तान इन देशों से आए प्रवासितों की संख्या ज्यादा है। इन मुस्लिम प्रवासितों ने संबंधित देशों में अपना स्थान या ठिकाना बसा लिया है।

इंग्लैंड में मुस्लिम प्रवासितों की संख्या गत चार-पांच दशकों से बढ़ने लगी। अफगानिस्तान में विद्रोह शुरू होने पर वहां से आने वाले प्रवासितों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ हिस्सों में मुस्लिम प्रवासितों की बढ़ती संख्या देख, स्थानीय लोगों ने उस इलाके के घर को छोड़ देना प्रारंभ किया। मुस्लिमों की बस्ती ही वहां बस गई। उस भाग में मुस्लिम वातावरण जोर पकड़ने लगा। जो इंग्लैंड में घटा वही फ्रान्स, बेल्जियम जैसे देशों में भी होने लगा। इससे पुर्तगाल और स्पेन जैसे कट्टर कैथलिक देशों का अपवाद था।

इंग्लैंड में जो मोहल्ला मुस्लिमों का है, उस मोहल्ले में शरीया का कानून लागू करना शुरू हुआ। वह सरकारी स्तर पर माना जाने की मांग होने लगी। इन बस्तियों में जाना भी पुलिस को खतरनाक लगने लगा। इससे मुल्ला-मौलवियों ने फायदा उठाया। ता.28 मार्च 2016 के इंडियन एक्सप्रेस में जाहन लेमन का लेख प्रसारित हुआ। पाकिस्तानी मुल्ला अंजेम चौधरी के भड़कीले भाषण के कारण उन पर नजर रखी गई। उनकी गतिविधियों पर पाबंदी लगाई गई। उन्होंने डहरीळर4णघ नामक संस्था शुरू कर प्रचार माध्यमों से उसके विचारों का प्रसारण करना शुरू किया। बाद में उसने बेल्जियम जाकर वहां पर डहरीळर4इशश्रसर्ळीा स्थापित किया। बेल्जियम का मौलेनबीक इलाका मानो देशांतर्गत मुस्लिम देश ही हुआ है। बेल्जियम की अराजकता बढ़ने के कारण आतंकियों की मनमानी बढ़ गई है। लेबनान, फ्रान्स, बेल्जियम जैसे देशों के ज्ञात आतंकियों के नाम दिए हैं। वे सीरिया, इसिस प्रदेश में जाकर वापस आए हैं। यूरोप के कई देशों में मुस्लिम युवक अंजेम जैसे कट्टर मुल्लाओं के संपर्क से और इसिस के इलेक्ट्रानिक माध्यम से चलाए जा रहे प्रचार की तकनीक के कारण इसिस में शामिल हो रहे हैं। लेमन मौलेनबीक के बारे में लिखता है कि पहले नशाबाज, तस्कर और अपराधी प्रवृति रखने वाले मुस्लिम युवक आज इसिस के इन देशों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, इन देशों में आतंकी कृत्य कर रहे हैं। जर्मनी में तुर्क, अफगानी, सीरियन, इराकी प्रवासित लोगों का आतंकी कृत्यों के प्रति झुकाव-लगाव बढ़ गया है।

शरणार्थियों का जमघट और भूतदया

गत दो-ढाई सालों से कई शरणार्थी इटली और तुर्कस्तान से यूरोप की ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें मानवतावादी दृष्टीकोण से यूरोप की जनसंख्या की तरह शामिल करें, इसलिए जर्मनी ने अगुआई करके दस लाख शरणार्थीयों को स्वीकारा, ऐसा श्रीमती एंजेला मार्केल ने कहा। कई शरणार्थी यूरोप की दिशा में बढ़ने लगे। एंजेला मार्केल की बिना कारण की उदारता दिखाने की तथा नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की लालसा को मैंने ही ‘साप्ताहिक विवेक’ के 15 मई 2016 के अंक में उजागर किया था। एंजेला मार्केल के विचारों को साथ देने वाले, स्वयंसेवी संस्थाओं के सदस्य जोर-शोर से भूतदया दिखाने लगे। धीरे-धीरे पूरे यूरोप में हर तरफ मुस्लिम देशों के शरणार्थियों के झुंड हाथ-पांव फैलाने लगे। भारत के हिंदुओं को हृदय के ‘करूणाविस्तार’ के सेक्युलर रोग से फेफडें दबाने का जो अनुभव प्राप्त हो रहा है वहीं अनुभव गत दो ढाई साल से यूरोप के देशों में आ रहा है। बेल्जियम के मुस्लिम निवासियों की मनःस्थिति की जानकारी देने वाले तथा शेष लोगों के प्रति उनकी तटस्थता, आपस के मतभेद और मुस्लिम युवकों की बढ़ती आतंकी प्रवृत्ति का विस्तार से लेखा-जोखा ऐंड्र्यू हिग्गीन्स और किमिको तमुरा ने (इंडियन एक्सप्रेस ता. 28 मार्च 2016) को प्रस्तुत किया है। उसमें उन्होंने पेरिस और बेल्जियम में आतंकी कार्रवाइयां करने वाले युवकों का स्थानीय लोगों को किस प्रकार शक होता था, इसकी जानकारी दी है। इसमें कहा गया है कि इन लोगों में से एक अब्देसलाम को पांव में गोली लगने से पहले चिकित्सा उपलब्ध कराने के मानवीय कारण से उसकी पुलिसी जांच नहीं करवाई गई। ऐसा होता तो शायद पुलिस को होने वाले आतंकी हमले की जानकारी मिल जाती।

पास्साल, पहली बार इंग्लैंड ने समुद्री सुरंग से फ्रान्स से इंग्लैंड आने वाले मुस्लिम शरणार्थियों पर पाबंदी लगाने की कोशिशें कीं, तो निराधार शरणार्थियों ने यातायात व्यवस्था ही निराधार कर दी। अंत में फ्रेंच सैनिकों को सारी शक्तिसमेत उन सब को हटाना पड़ा। मानवीय मदद प्राप्त करना अपना हक है, ऐसा शरणार्थी समझने लगे। उसे छीन लेने की मगरूर हरकत करने लगे। एक बुर्के वाली महिला बूढे पेन्शनर को धक्के देकर स्वयं मदद लेने का प्रयत्न कर रही थी। यह सी.डी. माध्यमों से तीव्र गति से प्रसारित हुई। 1 जनवरी की रात को 2016 साल का स्वागत करने की तैयारी में मग्न जर्मन महिलाओं को मुस्लिम शरणार्थियों ने छेड़ा। कुछ महिलाओं पर अत्याचार किए, उसको जल्दी किसी ने देखा नहीं तो भी खबर फैल ही गई (इंडियन एक्सप्रेस 2 जून 2016) तब जर्मन नागरिकों को अपने फेंफड़े दबने का, निचोड़ने का अनुभव मिला। मर्यादा को लांघ कर दिखाई गई भूतदया के परिणाम दिखाई दिए।

मानवतावादियों के सामने आया धर्मसंकट

मुस्लिम शरणार्थियों के कारण आई गरीबी, बेरोजगारी, उनकी उद्दंड प्रवृत्ति और स्थानीय मुस्लिमों की आतंकी कार्रवाइयां, इन सबके कारण यूरोप के देशों से और अमेरिका से सामान्य नागरिकों के स्तर पर आवाजें उठने लगीं। मानवतावादी होने का दिखावा कर रहे मानवतावादी लोगों का विरोध होने लगा। श्रीमती मार्केल के कारण शरणार्थियों को आपस में बांट लेने का विधेयक यूरोपीय संगठनों के सामने आया। पर घटक देशों ने उसका विरोध किया। स्थानीय स्तर पर मदद दे सकते हैं, इससे ज्यादा और कुछ नहीं जैसी बात सोची गई। स्विट्जरलैंड के छोटे से देश ने अपनी मानवता को एक तरफ रख कर दो लाख पौंड का खर्च नकद देने परंतु शरणार्थियों को न स्वीकारने का स्वयंनिर्णय लिया। उनके जिम्मे सिर्फ दस शरणार्थी ही आनेवाले थे, पर उनको न स्वीकारने का निर्णय उन नागरिकों ने लिया। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 30 मई 2016) अमेरिका में कुछ घंटों के हवाई जहाज के सफर में कुछ अमेरिकियों को साथ में मुस्लिम हमसफर नहीं चाहिए थे, इसलिए उन सफर करने वालों को (मुस्लिमों को) हवाई जहाज कंपनी ने नीचे उतार दिया। अमेरिका के किसी अध्यायक ने मुस्लिम छात्र को उसके धर्म के कारण आतंकी करार दिया। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 अप्रैल 2016) यह सब आतंकी डर की प्रतिक्रिया थी। इन सारी घटनाओं से यही साबित होता है कि पाश्चात्य देशों के सामान्य नागरिकों के मन में मुस्लिम शरणार्थियों के साथ दूसरे मुस्लिम नागरिकों से संबंधित असंतोष पनप रहा है। प्रवासितों के प्रवजन करने वालों के संबंध में मानवता धर्म को दूर करने की अधार्मिक आपत्ति यूरोप के सामने है। मानवता का स्वांग भरने वाले मुस्लिम समाज को, काफिरों से नफरत कर धार्मिक वर्चस्व प्रस्थापित करने हेतु, किसी भी हद तक जाने की मध्ययुगीन मानसिकता न समझी हो या वे समझने की इच्छा नहीं रखते हो, तो भी सामान्यजन को उससे पीड़ा होने लगी है। सरकारी स्तर पर विरोध होने लगा है। स्थानीय चुनाव लड़ते समय प्रव्रजनों की (प्रवासित) संख्या पर पाबंदी लगाने वाली, उन्हें वापस भेजने की शर्तें दलीय घोषणा-पत्र में देने तथा मुस्लिम समाज के विरोध में राजनीतिक दलों को जनाधार मिल रहा है। ये दल खुले आम मुस्लिम समाज के विरोध में अपनी भूमिका स्पष्ट करते हैं। उन्हें ऋेी ठळसहींळीीं माना जाता है। उनकी तरफ से आए रूझान के वोटों में 2016 के चुनाव में बढोत्तरी हुई है। अमेरिका में उटपटांग बातें करने वाले डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के संदर्भ में मतदाताओं का आधार मिल रहा है। इस वैश्विक मुस्लिम विरोधी वातावरण की तानाशाही (ऋरलळीा) कह कर अमेरिका में ट्रम्प की बढ़ती लोकप्रियता तथा आस्ट्रिया, रोमानिया, स्लोवाकिया, पोलैंड जैसे कई यूरोपीय देशों में ठळसहींळीीं प्रवृत्ति के राजनीतिक दलों के मतों की बढ़ोत्तरी दिखाने वाली विस्तृत जानकारी प्रसिद्ध हुई है। (इंडियन एक्सप्रेस, 30 मई 2016)। ऑस्ट्रिया में हाल ही में हुए चुनाव में ठळसहींळीीं विचारधारा के लोग चुने गए। मतदाताओं का वह रूझान देख कर ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री सैबेस्टीयन क्रुज़ ने अपने साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि जिन शरणार्थियों ने अवैध तरीके से घुसपैठ की है, उन्हें स्थापित न होने दिया जाए, उन्हें उनके देश वापस भेजा जाए। उन्होंने आस्ट्रेलिया का उदाहरण दिया कि आस्ट्रेलिया ने अवैध रीति से आने वाले प्रव्रजनों को बाहर से ही वापस भेज दिया। उस पर उन्होंने “There is a country we can learn from, Australia had a similar problem; but the country managed to decide itself who is allowed to come and did not leave this decision to people – smugglers” विचारधारा रखने वाले दल में तात्विक आधार देने वाले विचार सामने रखते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के 30 मई को उनका साक्षात्कार प्रसिद्ध हुआ है। उनके अनुसार जर्मनी ने ढोंगी मानवता से स्वयं को बचाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मुस्लिम समाज को स्थानीय सभ्यता वाले समाज में आना-जाना तो अलग, पर एक-दूसरे से मेल-जोल में भी बाधाएं आती हैं। जर्मन समाज के रीति-रिवाज, बातचीत का ढंग, रोजमर्रा की जिंदगी की औपचारिकता स्वीकार करना नए सिरे से आने वालों को नहीं आता। देश अराजकता की ओर बढ़ता जाएगा। इस संदर्भ में जनता से खुली आम चर्चा हो, इसलिए वे अऋऊ पक्ष की ओर से बोलने हेतु चुनाव लड़ रहे हैं, वे कहते हैं कि लोगों की उम्मीदों की ओर अनदेखा करने वाले दल जनतंत्र विरोधी हैं। हमें समाजवादी, तृणमूल, राजद इत्यादि दलों के सोच-विचार में अलग क्या दिखाई देता है?
——–

प्रमोद पाठक

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