नगालैण्ड के अनुभव

नगालैण्ड जैसे दुर्गम परिसर, विविधता से भरे ईसाई बहुल राज्य में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य की नींव डालने का सौभाग्य विद्याधर ताठे को मिला। श्री ताठे ‘एकता’ मासिक पत्रिका के सम्पादक, साप्ताहिक विवेक के पूर्व प्रतिनिधि हैं। वर्ष १९८० से १९८३ के दरमियान की उनकी कुछ यादें और कुछ अनुभव प्रस्तुत है उनकी ही जुबानी।

गालैण्ड! पूर्वोत्तर भारत का म्यांमार की     सीमा के नजदीक का, प्राकृतिक सुंदरता से भरा, केवल १६,५०० किमी क्षेत्र का पहाड़ी राज्य।

महाराष्ट्र के छोटे जिले जैसा आकार; पर बाहर का आदमी इसे देखकर हैरान रह जाता है। इस छोटे से राज्य में १३ जिले हैं। अलग-अलग १७ जनजातियों के नगा अपनी-अपनी जनजातियों के साथ अलग-अलग स्वतंत्र गांव में रहते हैं। इसके अलावा, उपजातियां अलग हैं। इन नगा जनजातियों की अलग- अलग ३६ बोलियां हैं। भारत के किसी भी प्रांत में/ राज्य में इतनी बोलियां नहीं हैं। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक नगा जनजाति की भाषा दूसरी नागा जनजाति नहीं समझती। एक गांव, एक नगा जनजाति और उनकी एक स्वतंत्र बोली, ऐसी नगालैण्ड की रचना है। अपनी कल्पना से बिलकुल परे। इस प्रकार जनजाति के अनुसार अलग गांव सिर्फ नगालैण्ड में ही मिलते हैं। एक नागा जनजाति के गांव में उसी जनजाति के नगा रहेंगे, दूसरी जनजाति के नगा उधर नहीं पाए जाते। इसके अपवाद सिर्फ उंगलियों पर गिने जा सकेंगे- वे हैं राजधानी कोहिमा, और व्यापारी केन्द्र दीमापुर। दीमापुर के अलावा बाकी सब गांव पहाडों की चोटियों पर बसे हुए हैं। यह नगालैण्ड की विशेषता है। जिस प्रकार हर एक नगा जनजाति की बोली अलग है, उसी प्रकार, हर एक जनजाति की वेशभूषा, परंपरा, लोकनृत्य, त्यौहार अलग हैं। केवल पोशाक से पता चलता है कि वह व्यक्ति किस नगा जनजाति का है। विशेष पोशाक, विशिष्ट रंग और चित्रमयी शाल उस जनजाति की खास विशेषता मानी जाती है। दूसरी जनजाति उसकी नक़ल नहीं उतारती। यह पोशाक या वेशभूषा हर एक नगा जनजाति के गर्व का विषय है। इन सब की ‘नगमी’ नामक स्वतंत्र संपर्क भाषा है, इस से दो जनजातियों में संपर्क स्थापित होता है। ईसाई प्रवेश के बाद, ईसाई स्कूलों के कारण साक्षर नगा लोगों की सम्पर्क भाषा अंग्रेजी है।

नगालैण्ड विधान सभा ने इस बोली भाषा के चक्कर में न पड़ कर वर्ष १९६७ में अंग्रेजी को राजभाषा को दर्जा दिया है।  ईसाई मिशनरियों ने नगाओं की अनेक बोलियों को रोमन लिपि में बांधा है। इस राज्य में पहले जितने साक्षर थे, वे सब ईसाई थे; इसलिए साक्षर होना यानी ईसाई होना यही मतलब माना जाता है।

अंग्रेजी राज शुरू होने के बाद, १८८४ में धर्म प्रचारार्थ पहला मिशनरी नगालैण्ड में आया। १९७२ में नगालैण्ड में पहला चर्च बनाया गया। आज नगालैण्ड की जनसंख्या में ९५% नगा लोगों ने ईसाई धर्म का स्वीकार किया है। वहां की ‘आवो’ जनजाति में ईसाई मिशनरियों ने ईसाई धर्मांतर का सेवा कार्य शुरू किया।  ब्रिटिश राजसत्ता की सुरक्षा में नगालैण्ड की सारी जनजातियों को ईसाई धर्म का बाप्तिस्मा देने में वे सफल हुए। उसमें से सिर्फ तीन चार जनजातियों को वे अपने वश में नहीं कर सके। वे जनजातियां प्रकृति को महत्वपूर्ण मान कर अपने रीति-रिवाजों, अपना धर्म निभाती रहीं। ऐसी जनजातियों को कहा जाता है, – ‘झेलियांरोंग’ नगा।

इसी ‘झेलियांरोंग’ जनजाति में स्वतंत्रता सेनानी ‘रानी गायडीनल्यू’ का जन्म हुआ था। ‘झेलियांरोंग’ यह उपजातियों का संयुक्त नाम है (जेमी + लिंगमाई + रोंगमाई)। इन जनजातियों में जो प्राचीन, पारंपरिक प्रकृति पूजा का, आचरण धर्म का पालन होता है उसे ‘हेराका’ कहते हैं। ‘झेलियांरोंग हेराका एसोसिएशन’ नामक संगठन ने ईसाई मिशनरियों के कुटिल षड्यंंत्रों को टक्कर दी। आज भी ये जनजातियां ‘नॉन-क्रिश्चन’ हैं यानी ईसाई नहीं बनी हैं। ये जनजातियां ईसाई न होने के कारण इन्हें गांव में सरकारी स्कूल, चिकित्सालय और अन्य सुविधाओं से वंचित रहना पड़ा है। सरकारी योजनाएं ईसाई मिशनरी और चर्च के द्वारा ही राज्य में कारगर होती थीं। इन हालात को ध्यान में रख कर ‘रानी गायडीनल्यू’ के मार्गदर्शन में ‘अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम’ ने ‘झेलियांरोंग हेराका’ संगठन को मदद देकर एक अंग्रेजी स्कूल खोलने की योजना बनाई। यह काम आसान नहीं था। बलशाली मुग़ल साम्राज्य को टक्कर देकर छत्रपति शिवाजी राजा द्वारा स्वराज्य स्थापना करना जैसा कठिन कार्य किया था, वैसा ही यह निश्चय था। १८४१ में ईसाई मिशनरियों ने नगालैण्ड में कार्य शुरू किया था, उसके १४१ वर्ष बाद वनवासी कल्याण आश्रम जैसी भारतीय राष्ट्रीय संस्था के कार्य की नींव नगालैण्ड में डाली जा रही थी। १४१ वर्ष के लंबे काल में ब्रिटिश सरकार की सुरक्षा में ईसाई  अलग कर दिया था, तोड़ दिया था। ङ्गछरसरी रीश पेीं कळपर्वीी रपव छरसरश्ररपव ळी पेीं खपवळरफ यह बात उन्होंने नगा लोगों के दिमाग में भरी थी। जब मैं पहली बार नगालैण्ड गया, तब नगा जवानों के मुंह से यह बात सुन कर दंग रह गया। ‘भारतीय लोग यानी हिंदू, हम नगा हिंदू नहीं है। ङ्गथश हरींश कळपर्वी रपव खपवळरपफ साक्षर नगा लोग इस प्रकार की बात करते थे। यह विदारक सत्य सामने आता है कि ईसाई मिशनरियों ने हिंदू भारतीयों के विरूद्ध नगा लोगों के मन में यह विद्वेष का जहर भर दिया था। इतना ही नहीं बल्कि, नगालैण्ड में ङ्गछरसरश्ररपव षेी उहीळीीं, छरसरी रीश षेी उहीळीींफ जैसे पोस्टर सड़कों पर लगाए थे। ऐसे वातावरण में वनवासी कल्याण आश्रम के कार्य का प्रारंभ ‘झेलियांरोंग’ नगा जनजाति में १९८१ से १९८२ वर्ष में हुआ। मेरे सौभाग्य से वनवासी कल्याण आश्रम, नगालैण्ड और मणिपुर राज्य के संगठन मंत्री के तौर पर मेरी जिम्मेदारी थी। वनवासी कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष बालासाहेब देशपांडे और अखिल भारतीय संगठन मंत्री रामभाऊ गोडबोले इन दोनों ने नगालैण्ड में सफर, ‘रानी गाइडीनल्यू’ से मुलाकात और ‘झेलियांरोंग हेराका’ संगठन से संपर्क सहयोग आदि बातें बड़ी जोखिम उठा कर पर सफलता से कीं। उस काल में स्वयं ‘रानी गाइडीनल्यू’ की जान जोखिम में थी। इसके लिए नगालैण्ड सरकार ने उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी। ‘रानी गाइडीनल्यू’ से कौन-कौन मिलता है? इस पर भी ईसाई मिशनरियों की कड़ी नजर रहती थी।

रानी गाइडीनल्यू से प्रेरणादायी भेंेट

‘वनवासी कल्याण आश्रम’ नगालैण्ड, मणिपुर राज्य के संगठन मंत्री के पद की जिम्मेदारी का स्वीकार कर मैं पहली बार मणिपुर गया। वहां संघ कार्य चल रहा था, कार्यालय था। इसके बाद खास ‘इनर लाइन परमिट’ लेकर मैंने नगालैण्ड का सफर किया। आज भी नगालैण्ड में बाहर वालों को ‘इनर लाइन परमिट’ लेकर ही प्रवेश दिया जाता है। भारत में जैसे किसी भी राज्य में कभी भी जा सकते हैं, वैसे नगालैण्ड में मुक्त संचार नहीं कर सकते। नगालैण्ड में प्रवेश करने से पूर्व अर्जी देकर, नगालैण्ड में आने का कारण और समय की मर्यादा के अनुसार परमिट लेना पड़ता है। पर्यटन के लिए सरकार दस दिन का परमिट देती है। विशिष्ट क्षेत्र में घूम फिर कर हमें दस दिनों में राज्य के बाहर जाना पड़ता है। नहीं तो जुर्माना और कैद की सजा भुगतनी पड़ती है। इस परमिट पद्धति का उपयोग ईसाई मिशनरियों के कहने पर वहां के प्रशासन ने हिंदू संस्था, संगठन सेवा संस्था के विरुद्ध किया। कइयों को प्रवेश करने से मना किया। कुछ अपवाद के रूप में हिंदू धर्म गुरु, संगठन नेता को प्रवेश दिया; पर उन पर सख्त पहरा रखा गया। यह बात मुझे नगालैण्ड में उस समय के केन्द्र सरकार के कचहरी में काम करने वाले अधिकारियों ने बताई है। अर्थात यह एक ‘ओपन सीक्रेट’ है।

नगालैण्ड में मैं गया तो पत्रकार के तौर पर, वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता के तौर पर मुझे परमिट नकारा गया था। जानकारों से पता चला कि कल्याण आश्रम का कार्यकर्ता बन कर नगालैण्ड में जाने पर आप पर हमेशा सख्त नजर रखी जाएगी। ईसाई मिशनरी नगा दहशतगर्दों के साथ मिल कर कुछ अनर्थ भी कर सकते हैं। मुंबई के साप्ताहिक ‘विवेक’ और दिल्ली की समाचार संस्था ‘हिंदुस्तान समाचार’ के प्रतिनिधि के रूप में मैंने कोहिमा में लंबे समय तक रहने का परमिट प्राप्त किया। कोहिमा के प्रतिनिधि (ब्यूरो चीफ) के द्वारा मुझे नगालैण्ड सरकार के पत्रकार के तौर पर अधिकृत, अधिस्वीकृति पत्र (एक्रेडिशन कार्ड) भी मिला। पी. टी. आय. के कार्यालय में जरूरत के अनुसार रहने की सुविधा मिली, क्योंकि वह कार्यालय निवासी बंगला ही था। कोहिमा के कुछ राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं और कुछ लोगों के नाम मेरे पास थे, उसी के अनुसार मैं एक एक कर उनसे मिला। सबसे पहले मैं श्री जगदम्बा मल्ल से जाकर मिला। वे मूलतः उत्तर प्रदेश के स्वयंसेवक थे और राजधानी कोहिमा में ए.जी. ऑफिस में नौकरी करते थे। उन्होंने घर के पास एक पंसारी की दुकान भी खोल रखी थी। उनके पास पांचजन्य, ऑर्गनायजर जैसे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय विचार के साप्ताहिक आते थे। उन्होंने नगालैण्ड की नगमी भाषा भी सीख ली थी। मैं पूर्ण समय कार्यकर्ता बन कर यहां आया हूं इस बात को सुन कर वे बड़े खुश हुए। ‘ईसाई मिशनरी विदेश से आकर इस राज्य में सेवा के बहाने धर्म प्रचार करते हैं; पर अपने देश से गैर-ईसाई नगाओं के लिए दौड़ कर कोई नहीं आता’ इस बात का उन्हें गम था। अभी आप आए हैं तो प्रारंभ अच्छा ही हुआ। कल रविवार है, मुझे छुट्टी है, कल हम कुछ लोगों से मिलेंगे। मैंने उन से कहा कि सब से पहले हम ‘रानी गाइडीनल्यू’ से मिलेंगे, फिर दूसरों से। रात को जगदंबा मल्ल के घर खाना खाकर मैं रहने के  लिए पी.टी.आय. कार्यालय आया। रास्ते में मुझे दो स्थलों पर पुलिस ने पहचान पत्र मांगा। परमिट देख कर छोड़ दिया। नगा लोगों से अलग शक्ल, रंग होने के कारण सब जगहों पर नगा लोग मेरी ओर प्रश्नार्थक और शक भरी नजरों से देख रहे थे।

रविवार को सुबह दस बजे जगदम्बा मल्ल मुझे लेने के लिए पी.टी.आय. कार्यालय आए। हम दोनों ‘रानी गाइडीनल्यू’ के निवास पर गए। पी.टी.आय. कार्यालय से घंटे भर पैदल चल कर दो पहाड़ और एक घाटी पार कर हम बंगले के पास पहुंचे। बाहर सुरक्षा रक्षक खड़ा था। अदब से सैल्यूट कर वह हमें बंगले के स्वागत कक्ष में ले गया। श्री जगदम्बा मल्ल जी नगमी भाषा जानते थे, उन्हें यहां सब पहचानते थे। वे मुझे बिठाकर अंदर गए, दस मिनट के बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया। कक्ष की बड़ी आराम कुर्सी पर ‘रानी गाइडीनल्यू’ बैठी थीं। उन्होंने पारंपरिक काले रंग की नगा पोशाक पहनी थी, और आंखों पर काला चश्मा लगाया था। उन्होंने नगमी भाषा में बैठने को कहा। मैंने उन्हें उनकी राष्ट्र सेवा के लिए आदरपूर्वक अभिवादन किया। जगदम्बा मल्ल जी के माध्यम से उन्होंने मेरे साथ संवाद किया। उन्होंने नगमी में और मैंने हिंदी में बहुत बातें कीं। अब आप खाना खाकर ही जाइये ऐसा आग्रह उन्होंने किया, तब वे ६५ वर्ष की थीं। उनकी उम्र और स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए जंगलों में घूम फिर कर जो कड़ा संघर्ष किया था उससे उनकी तबीयत थकी हुई प्रतीत होती थी। पर आवाज सख्त थी। उसमें अब भी संघर्ष करने की जिद थी। उन्होंने कहा, ‘ईसाइयों ने नगालैण्ड में बहुत काम किया है, हमें भी ऐसा सेवा कार्य करना चाहिए। अब भी जो गैर ईसाई नगा हैं उन्हें संगठित कर के स्कूल, चिकित्सालय खोलने का काम कल्याण आश्रम के द्वारा करना चाहिए। अर्थात कल्याण आश्रम के नाम पर काम करना बहुत मुश्किल है, हमें यहां के नगा, स्थानीय संगठनों का सहारा लेकर, मदद लेकर उन्हें समर्थ और सक्षम बनाने की जरूरत है। ‘झेलियांरोंग’ नगाओं का हेराका संगठन है। उसके द्वारा हम पेरिन,टेनिंग इलाके में कार्य कर सकते हैं। जल्द से जल्द इन्हें एन.सी.जेलियांग (विधायक) से मिलवा दें, ऐसा उन्होंने जगदम्बा मल्ल जी से कहा। साथ में खाना खाने के बाद उन्होंने मुझे उपहार स्वरूप एक नगा शॉल देकर शुभकामनाएं दीं।

दिल्ली सम्मलेन में बारह नगा कार्यकर्ताओं का सहभाग

‘रानी गाइडीनल्यू’ की सूचना के अनुसार जगदम्बा मल्ल मुझे एन.सी.जेलियांग के पास ले गए। बहुत देर तक उनसे बातचीत और चर्चा चलती रही। ‘झेलियांरोंग’ नगा हेराका संगठन और कल्याण आश्रम किस प्रकार कार्य कर सकते हैं इसकी एक योजना उन्होंने हमारे सामने रखी। विधायक एन.सी.जेलियांग को लेकर मैं दीमापुर, गुवाहाटी, कोलकाता गया। कल्याण आश्रम के पूर्वोत्तर भारत के संगठन मंत्री, निशिकांत जोशी, अखिल भारतीय पदाधिकारी वसंतराव भट की एन.सी.जेलियांग के साथ सविस्तार चर्चा हुई और उपरोक्त योजना को अंतिम स्वरूप दिया गया।

इस दौरान दिल्ली में अ.भा. वनवासी कल्याण आश्रम का राष्ट्रीय अधिवेशन सम्मलेन था। सम्मलेन के लिए एन.सी.जेलियांग जी दस बारह नगा कार्यकर्ताओं को ले जाए यह बात तय हुई। उसके अनुसार पांच नगा युवक और युवतियों के साथ मैं रेल से दिल्ली गया। विधायक एन.सी.जेलियांग जी बाद में हवाई जहाज से दिल्ली आए। दिल्ली के वनवासी कल्याण आश्रम के सम्मलेन में एन.सी.जेलियांग की राष्ट्रीय पदाधिकारियों के साथ बैठक हुई। सम्मलेन के मुख्य मंच से विधायक एन.सी.जेलियांग जी का परिचय करवाया गया। बाद में एन.सी.जेलियांग जी ने अपने ‘मन की बात’ कही। उन्होंने अंग्रेजी में भी बातचीत की। एन.सी.जेलियांग इस प्रकार नगालैण्ड कल्याण आश्रम के साथ जुड़ गए। एक नए प्रांत में नई जनजाति में कल्याण आश्रम के कार्य का परिचय हुआ।

 मा. बालासाहेब देशपांडे जी का नगालैण्ड दौरा और रानी गाइडीनल्यू से मुलाकात

दिल्ली सम्मलेन से आने के पश्चात् विधायक एन.सी.जेलियांग जी उत्साह से कार्यरत हुए। यह उत्साह ज्यादा बढ़े इसलिए कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री बालासाहेब देशपांडे जी (वकील) का मणिपुर  नगालैण्ड भेंट का कार्यक्रम तय हुआ। मणिपुर में उनके स्वागत हेतु भव्य सभा का आयोजन हुआ। मणिपुर के संघ कार्यकर्ता मधुमंगल शर्मा जी को प्रचारक के. भास्कर ने इस कार्यक्रम की जिम्मेदारी सौपी, क्योंकि वनवासी कल्याण आश्रम मणिपुर समिति हाल ही में स्थापित हुई थी। उन्हें इस प्रकार के कार्यक्रम का अनुभव नहीं था। मणिपुर विधान सभा सभापति वाय. यायमसिंह जी के सुपुत्र वाय. जितेनसिंह के मातहत एक स्वागत समिति का गठन किया गया। मणिपुरी नृत्य के नृत्य गुरु आर. के. गोपालसना की अध्यक्षता में कल्याण आश्रम के अध्यक्ष बालासाहेब देशपांडे जी का भाषण हुआ। कल्याण आश्रम के ‘काकचिंग’ छात्रावास को भेंट देकर दूसरे दिन इम्फाल से मोटर से बालासाहेब देशपांडेजी को लेकर हम नगालैण्ड की राजधानी कोहिमा चले गए। कोहिमा में विधायक एन.सी.जेलियांग ने नगा पारंपरिक शॉल देकर सब का स्वागत किया। बाद में हम एन.सी.जेलियांग के साथ रानी गाइडीनल्यू के घर गए। वहां पर रानी गाइडीनल्यू और श्री बालासाहेब देशपांडे की अनुवादक के माध्यम से घंटा डेढ़ घंटा चर्चा हुई। उस समय आश्रम के निशिकांत जोशी, मैं, जगादेवराव उरांव, जगदम्बा मल्ल और गुप्ता (उद्योगपति) चर्चा सुन कर बहुत प्रभावित हुए। दो द्रष्टा समाज सेवकों की चर्चा एक प्रकट राष्ट्र चिंतन ही था।

 मा. रामभाऊ गोडबोले द्वारा भूमिपूजन

‘रानी गाइडीनल्यू’ और कल्याण आश्रम अध्यक्ष बालासाहेब देशपांडे जी की मुलाकात के बाद नगालैण्ड के कार्य ने तीव्र गति पकड़ ली। विधायक एन.सी.जेलियांग जी के साथ मैं और जगदम्बा जी नगालैण्ड का दक्षिण भाग टेनिन पेरिन गए। वहां के नगाओं की बैठक ली गई। विचार-विमर्श करने पर पेरेन जिले के टेनिन में कल्याण आश्रम की मदद से ‘झेलियांरोंग’ हेराका इंग्लिश स्कूल शुरू करने की बात तय हुई। इस अंग्रेजी स्कूल का भूमिपूजन वनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय संगठन मंत्री रामभाऊ गोडबोले के शुभ हाथों करने का निश्चित हुआ। पर ऐन वक्त पर प्राकृतिक आपदा और दूसरी बार रामभाऊ की सेहत के कारण दो बार भूमिपूजन समारोह स्थगित हुआ। रामभाऊ गोडबोले बाद में आएंगे, समय पर काम पूरा हो, इसलिए भूमिपूजन कर लेने की बात तय हुई। पर स्वयं रामभाऊ ने जल्द से जल्द नगालैण्ड भेंट देने की सोची। उसके अनुसार ‘झेलियांरोंग’ हेराका इंग्लिश स्कूल का भूमिपूजन समारोह बड़े परिश्रम और लंबे सफर के बाद उन्हीं के हाथों संपन्न हुआ। टेनिन जाने का रास्ता बहुत दुर्गम, पहाड़ी, और घाटी में से जाने वाला था। रामभाऊ को ले जाने वाली मोटर दो-तीन बार बंद पड़ गई। कई बार रामभाऊ को चल कर आगे जाना पड़ा। गाड़ी रिपेअर होकर बाद में आई।

नगा गांव पहाड़ी की चोटी पर ही होता है। इन गांवों की रचना अलग प्रकार की होती है। पूरे गांव का प्रवेश द्वार एक ही होता है। तीनों ओर जंगल और घाटियां होती हैं। मानो वह जंगल और घाटियां गांव में जाने का रास्ता ही बंद कर देती हैं। ये घर ज्यादातर बाम्बू के बने होते हैं, घर में एक तरफ सदैव चूल्हा जलता रहता है। बारह महीने बाहर सर्दी, ठंडक रहती है। चूल्हे के जलने से घर में गर्मी बनी रहती है। इस चूल्हे पर तीन चार फुट की ऊंचाई पर बाम्बू का एक छीका, चौकट टंगी रहती है। उस पर सूअर, मुर्गा, भैंस का मांस लटका कर रखते हैं। धुआं और आग के कारण मख्खियां, मच्छर मांस पर नहीं बैठते हैं। फ्रिज के बगैर भी मांस बहुत दिनों तक टिकता है। जरूरत के अनुसार निकाल कर वापस लटका कर रखा जाता है। सूअर, भैंस, भैंसा, मुर्गे इतना ही नहीं तो सांप, चूहें सारे पक्षी नगा जाति के भोजन की चीजें हैं। घर में चावल से बनाई शराब और मांस नगा जाति का मुख्य आहार है। गांव के जवान लड़के और लड़कियों के लिए स्वतंत्र रूप से डोरमेट्री (शयन कक्ष) रहता है। छह साल से बीस साल के सारे लड़के और लड़कियां अपने माता पिता से अलग सामूहिक शयन गृह में सोते हैं। लड़कों और लड़कियों का शयन गृह अलग-अलग होता है। ये शयन गृह युवाओं का सांस्कृतिक मंच है। यहां नगा लोकनृत्य, लोकगीत और खेल के द्वारा नगा परंपराओं का जतन होता है। इस शयन गृह को ‘मोरांग’ कहा जाता है। हर एक गांव के प्रवेश द्वार पर बाम्बू की भव्य कमान होती है। उस पर अनेक चिह्न होते हें। वे गांव की वीरता का प्रतीक होते हें। बहुत से पुराने गांवों के प्रवेश द्वारों पर मानवी खोपड़ियां लटकाई दिखाई पड़ती हैं। वे नगा जाति के हेड हंटिंग के निशान हैं। अभी इस हेड हंटिंग (सिर कलम करना) पद्धति पर कानून की रोक है। पर पहले जनजाति के संघर्ष में इस प्रकार हेड हंटिंग होता था। गांव की बहादुरी बताने हेतु, हेड हंटिंग की खोपड़ियां प्रवेश द्वार पर बड़े गर्व के साथ लटकाई जाती थीं।

मा. रामभाऊ गोडबोले जी ने टेनिन के युवकों से किए मुक्त संवाद से अनेक प्रथाएं, परम्पराएं जान लीं। ‘झेलियांरोंग’ नगा प्रकृति पूजक, सूर्योपासक हैं। सूर्योदय के समय सूर्य को प्रणाम करते हुए पारंपरिक रीति से सूर्य प्रशंसा के लोकगीत वे सब मिल कर गाते हैं। हिंदू परमपराओं में बरगद पूजा, आमला वृक्ष पूजा, अश्वत्थ (पीपल) पूजा, तुलसी पूजा जैसी वृक्ष पूजा की प्राचीन परम्परा है उसी प्रकार गायत्री मंत्र से सूर्योपासना की भी परंपरा है। ‘झेलियांरोंग’ नगाओं की श्रद्धा और धर्माचार, प्रकृति पूजा और सूर्योपासना का है। हिंदू परम्परा और ‘झेलियांरोंग’ नगाओं की परंपरा एक समान है। यहीं एकात्मता सूत्र कल्याण आश्रम संस्था को नगाओं की हेराका संगठन के साथ कार्य करने वाला अपनेपन का सूत्र है।

‘रानी गाइडीनल्यू’ जन्म शताब्दी वर्ष कार्यक्रम

तीस पैंतीस साल पहले डाली गई कार्य की नींव अब मजबूत बन चुकी है। उस समय ‘झेलियांरोंग’ जनजाति के श्री एन.सी.जेलियांग एकमात्र विधायक थे। अब नगालैण्ड के मुख्यमंत्री इसी जनजाति के हैं। श्री टी.आर. जेलियांग मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं। २०१५ ‘रानी गाइडीनल्यू’ की जन्म शताब्दी का वर्ष है। दिल्ली में केन्द्र सरकार की ओर से भव्य समारोह में रानी गाइडीनल्यू का जन्म शताब्दी कार्यक्रम संपन्न हुआ। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने स्वतंत्रता सेनानी रानी गाइडीनल्यू का गौरव किया। ‘रानी’ किसी राजघराने का पद न होकर ‘गाइडीनल्यू’ लोकप्रिय होने के कारण है। पंडित नेहरू और नगा जनजाति के लोगों ने उन्हें यह सम्मान दिया है। २६ जनवरी १९१५ को जन्मी ‘गाइडीनल्यू’ ने अपनी उम्र के १३हवें साल में ब्रिटिशों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का मुक्ति संग्राम किया था। उसके लिए उन्हें ब्रिटिशों के कारावास में भी रहना पड़ा था। तब पंडित नेहरू उनसे मिलने गए थे। ‘रानी गाइडीनल्यू’ की लोकप्रियता को कुछ अन्य जनजातियों का विरोध है, वह सिर्फ ईर्ष्या के कारण है। विरोधकों ने रानी गाइडीनल्यू का जन्म मणिपुर राज्य में हुआ है, उनका नगालैण्ड से कोई सम्बन्ध नहीं जैसा प्रचार किया। पर केन्द्र सरकार और नगालैण्ड सरकार ने १९६७ साल में रानी गाइडीनल्यू के साथ एक करार किया। उन्हें सरकारी पेंशन देकर कोहिमा में रहने की व्यवस्था कर दी। १९६७ से १९९२ तक वे नगालैण्ड में कोहिमा में सरकारी व्यवस्था में रहती थीं। स्वतंत्रता के संग्राम के उनके अपूर्व योगदान को देख कर भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरी सम्मान पद्मभूषण दिया। राष्ट्रपति के हाथों उनका गौरव हुआ। ऐसा सम्मान प्राप्त करने वाली वे एकमात्र नगा महिला, स्वतंत्रता सेनानी हैं। १९९३ में उनका ७८ साल में निधन हुआ। नरेंद्र मोदी ने नगालैण्ड के ईसाई चर्च के विरोध को अनदेखा कर रानी गाइडीनल्यू का जन्म शताब्दी वर्ष समारोह दिल्ली में मनाया। उन्होंने एक नए पर्व की शुरुआत की। रानी गाइडीनल्यू से प्रत्यक्ष मिलने का, उनके मार्गदर्शन का प्रेरणादायी सहवास का नगालैण्ड में अनेक बार मुझे अवसर मिला। उसके बारे में मैं आज भी मन ही मन गर्व अनुभव करता हूं।

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  1. बहुत विगत पूर्ण जानकारी मिली

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