बे्रक्जिट से उपस्थित नई समस्याएं

ब्रिटेन ने जनमत संग्रह के जरिए यूरोपीय यूनियन से हटने (ब्रेक्जिट) का निर्णय किया है। इससे एक बुनियादी प्रश्न उपस्थित हुआ है। क्या जनतंत्र में अनियंत्रित जनमत संग्रह का मार्ग अपनाना उचित है? वह भी ऐसे प्रश्नों के लिए जिनके बारे में निर्णय करने के लिए जनता शायद ज्ञान और तजुर्बे की कसौटी पर खरी न उतरे?

ब्रिटेन द्वारा यूरोपीय यूनियन से बाहर जाने का (ब्रेक्जिट) निर्णय लेने के बाद बीबीसी ने इंग्लैंड के कुछ लोगों से उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही जिनमें से एक प्रतिक्रिया काफी प्रातिनिधिक थी। बीबीसी ने जब एक महिला से इस निर्णय के बारे में जानने की कोशिश की तो उसका क्रोध काफी झलक रहा था। उस महिला का कहना था कि हालांकि उन्होंने बाहर जाने के लिए मतदान किया था फिर भी उन्होंने यह कभी भी नहीं सोचा था कि यूनाइटेड किंगडम की जनता प्रातिनिधिक रूप से बाहर निकलने का निर्णय लेगी। वे आश्चर्यचकित तो थीं ही, साथ में इस निर्णय से काफी निराश भी थी। उन्होंने बाहर निकलने के पक्ष में मतदान सिर्फ इस आवेग में किया था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनकी आवाज, उनकी सरकार के प्रति निराशा सरकार तक पहुंचाने का यही एक मार्ग है। किन्तु जब निर्णय सामने आया और बाजार में उथल-पुथल मच गई तब उन्हें अपने इस निर्णय पर पछतावा होने लगा। इस प्रकार की प्रतिक्रिया देने वाली वह अकेली नहीं है। पिछले कुछ दिनों से ट्विटर, रेडिट, और क्वोरा जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर इस प्रकार की ढेरों प्रतिक्रियाएं देखी जा सकती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में कई मुद्दे उभर कर सामने आते हैं। क्या देश और व्यापार नीतियों के निर्णय इस प्रकार जनता के हाथ में उन्हें बिना प्रबुध्द किए दिए जा सकते हैं? क्या जनमत संग्रह द्वारा देश का भविष्य निर्धारित कर सरकार अपने उत्तरदायित्व से भाग सकती है? इस निर्णय से होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या यह निर्णय पिछले कुछ समय से उभर रहे अति राष्ट्रवाद के ओर झुकाव को दर्शाता है? साथ ही इस निर्णय का आने वाले समय में यूरोप, विश्व, और भारत पर क्या असर पड़ सकता है? ये जानने के लिए हमें सर्वप्रथम कुछ मूल मुद्दों को जानना होगा।

क्या है ब्रेक्जिट?

ब्रेक्जिट अर्थात ब्रिटेन का यूरोपीय यूनियन से हट जाना है और यह 2016 की सर्वाधिक चर्चित घटनाओं में से एक है। पिछले कुछ वर्षों से यूनायटेड किंगडम के कुछ राजनेता यूरोपीय यूनियन की नीतियों से खुश नहीं हैं। उन्हें यह लगता है कि यूनायटेड किंगडम, जो कि इंग्लैंड, उत्तर आयरलैंड, आयरलैंड, स्कॉटलैंड, और वेल्स से मिल कर बना है, के साथ यूरोपीय यूनियन में ठीक बर्ताव नहीं हो रहा है। इसलिए उन्होंने यूरोपीय यूनियन से बाहर निकलने के लिए मुहीम छेड़ी हुई थी। इस मुहीम को मिलने वाले समर्थन को देखते हुए डेविड कैमेरान, जो ब्रेक्जिट के पूर्व तक यूनायटेड किंगडम के प्रधान मंत्री थे, ने पिछले चुनाव में जीत कर आने पर इस विषय पर जनमत संग्रह लेने का वादा किया था। यह जनमत संग्रह पिछले जून माह में सम्पन्न हुआ जिसमें यूनायटेड किंगडम की जनता ने 52% मतों के साथ बाहर जाने का निर्णय किया। इस निर्णय से इंग्लैंड और यूरोप में खलबली मच गई। डेविड कैमेरान (जो स्वयं बाहर जाने के पक्ष में नहीं थे) ने इस निर्णय की जिम्मेदारी लेते हुए प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इंग्लैंड की मुद्रा पौंड पिछले 25 सालों के सबसे निचले दर पर आ पहुंची। साथ ही यूनायटेड किंगडम की अर्थव्यवस्था में तात्कालिक मंदी जैसे हालात दिखने लगे। यह हुआ इसलिए क्योंकि किसी ने भी ऐसा नहीं सोचा था कि जनमत संग्रह बाहर जाने के पक्ष में निर्णय लेगा। डेविड कैमेरान सहित कई राजनेता यह सोच रहे थे कि इस जनमत संग्रह से वे जनता के मन में विश्वास जगाएंगे कि सरकार की चावी जनता के हाथ में है। किन्तु वे जनता का मन भांपने में चूक गए और उनका पासा उल्टा पड़ गया।

आखिर यूरोपीय यूनियन क्या है?

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब यूरोप के देशों को अपनी अर्थव्यवस्था पुनः खड़ी करने में दिक्कत होने लगी तब उन्हें यह एहसास हुआ कि एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर व्यापार करने के बजाय एक दूसरे के साथ मिल कर एक व्यापारिक शक्ति के रूप में खड़ा होने पर उन्नति के अवसर अधिक हैं। इस विचार से यूरोपीय यूनियन अर्थात ईयू की स्थापना हुई। आज यूरोपीय यूनियन में 28 देश हैं जिनमें से अधिकांश देश एक मुद्रा अर्थात यूरो का इस्तेमाल करते हैं। इन 28 देशों की आयात-निर्यात तथा विदेश नीतियां एकसमान हैं। यूरोपीय यूनियन की अपनी संसद है, जिसमें इन सभी देशों से प्रतिनिधि चुन कर जाते हैं। यह संसद ईयू से सम्बंधित निर्णय लेती है जो इन सभी देशों पर लागू होते हैं। इन देशों के नागरिक ईयू के किसी भी देश में बिना किसी वीजा के घूम सकते हैं, काम कर सकते हैं, तथा पढ़ सकते हैं।

यूनायटेड किंगडम इनमें कुछ हद तक अलग है। उदाहरण के लिए शुरुआत से ही यूनायटेड किंगडम की अपनी अलग मुद्रा रही है। किन्तु फिर भी मोटे तौर पर यूनायटेड किंगडम ईयू के नियमों से बंधा हुआ है। यूनायटेड किंगडम में यूरोप के बाकी देशों से विस्थापित हुए लोगों की संख्या काफी बड़ी है जो वहां के लोगों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।

जनमत संग्रह

इस जनमत संग्रह से कुछ काफी रोचक बातें सामने आई हैं। कुल मतदान का 52% बाहर जाने के पक्ष में है तथा 48% ईयू में रहने के पक्ष में है। अर्थात बहुमत का प्रतिशत सिर्फ 4% ज्यादा है। साथ ही साथ यह काफी हद तक आयु पर भी निर्भर है। यूनायटेड किंगडम की अधिकांश युवा जनता ने ईयू में रुकने के पक्ष में मतदान किया जबकि 40 वर्ष के ऊपर के वयस्कों ने बाहर निकलने के पक्ष में। यह जहां एक ओर पीढ़ी के बीच के अंतर को दर्शाता है वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी के वैश्विक नजरिये की ओर भी रुख करता है। नई पीढ़ी बाहरी विस्थापन से उस तरह असुरक्षित महसूस नहीं करती जिस तरह पुरानी पीढ़ी करती है। उसे इस बात का ज्ञान है कि यूके के बढ़ते आयु अंतर को देखते हुए आने वाले समय में इंग्लैंड को युवा शक्ति की काफी जरूरत होगी और विस्थापन तथा स्थलांतर इस कड़ी में एक आवश्यक पड़ाव है।

यह जनमत संग्रह एक काफी मूलभूत प्रश्न की ओर भी रुख करता है। क्या जनतंत्र में अनियंत्रित जनमत संग्रह का मार्ग अपनाना उचित है? वह भी ऐसे प्रश्नों के लिए जिनके बारे में निर्णय करने के लिए जनता शायद ज्ञान और तजुर्बे की कसौटी पर खरी न उतरे? लोकतंत्र का अर्थ हर प्रश्न को जनता की ओर ले जाना नहीं होता। कई विषय ऐसे होते हैं जिनके बारे में निर्णय लेने के लिए जनता प्रशिक्षित नहीं होती। इसीलिए लोकतंत्र में चुनाव के माध्यम से ऐसी सरकार का चुनाव किया जाता है जो ये निर्णय जनता की ओर से ले सके। यदि सरकार हर ऐसे निर्णय के लिए जनता के पास वापस जाने लगे तो यह सरकार की अक्षमता को अधोरेखित करता है।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जनता द्वारा लिए गए निर्णय कई बार भावनाओं पर आधारित हो सकते हैं, जैसा कि इस जनमत संग्रह में देखा गया है। और किसी भी परिपक्व लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है कि उसके निर्णय सिर्फ भावनाओं के आधार पर लिए जाए। ब्रेक्जिट के संदर्भ में यह बात अधोरेखित करने वाला एक और रोचक तथ्य है। जनमत संग्रह के दिन यूके में थहरीं ळी र्एीीेशिरप णपळेप? यह वाक्य गूगल सर्च इंजन पर सब से ज्यादा सर्च किया गया वाक्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारी मात्रा में लोग इस पूरे विषय पर अनभिज्ञ थे। इस पार्श्वभूमि पर उनके द्वारा लिया गया निर्णय किस हद तक समझदारीपूर्ण निर्णय माना जाए? साथ ही, जैसा कि जनमत संग्रह के निर्णय के बाद देखा गया, कई लोगों ने सिर्फ इसलिए बाहर निकलने के पक्ष में मतदान किया था क्योंकि वे सरकार के प्रति अपना रोष व्यक्त करना चाहते थे। ब्रेक्जिट के मूल मुद्दों में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी। यह आने वाले समय में नीतियों के लिए काफी घातक सिध्द हो सकता है।

भारत पर असर

भारत के लिए यह विषय कई मायनों में महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम जनमत संग्रह पर भारत में कई बुध्दिजीवी तरह-तरह के बयान देते हुए अक्सर पाए जाते हैं चाहे वह कश्मीर प्रश्न हो या उत्तर पूर्व भारत। जनमत संग्रह सूक्ष्म प्रबंधन के लिए कई बार काफी कारगर सिध्द होता है जैसे कि मोहल्ला सभाएं इत्यादि। किन्तु देश के झुलसते प्रश्नों पर जनमत संग्रह विपरीत और घातक साबित हो सकता है यह ब्रेक्जिट से सिध्द होता है।

दूसरा प्रश्न है, भारत और ब्रिटेन के व्यापारिक सम्बंधों का। अभी तक भारत ब्रिटेन से ईयू के माध्यम से व्यापारिक संधियां करता था। किन्तु अब भारत को व्यापारिक सम्बंधों को मजबूत बनाने के लिए कूटनीति की अलग राह पकड़नी होगी। यह भारत के लिए एक नया मौका भी सिध्द हो सकता है। आज भारत की ब्रिटेन से व्यापारिक संधियां ईयू की वजह से सीमित हैं, पर यह चित्र आने वाले समय में बदल सकता है।

इंग्लैंड के समक्ष चुनौतियां

आने वाला समय इंग्लैंड के लिए चुनौती वाला समय हैै। वैसे अभी इंग्लैंड के ईयू से औपचारिक रूप से अलग होने में काफी औपचारिकताएं बाकी हैं, फिर भी इस जनमत संग्रह ने कुछ समीकरण तो निश्चित बदले हैं। इंग्लैंड इस समय निर्णायक अवस्था से गुजर रहा है। ये जनमत संग्रह एक शुरुआत हो सकती है। ऐसे जनमत संग्रहों की मांग भी उठ सकती है जो इंग्लैंड के भी टुकड़े कर दे। उदाहरण के लिए स्कॉटलैंड की जनता ने ईयू में रहने के पक्ष में मतदान किया तथा अब बाहर जाने का पलड़ा भारी होने पर स्कॉटलैंड एक और जनमत संग्रह की मांग कर रहा है जिसमें वे इंग्लैंड से स्वतंत्र होकर एक अलग देश के रूप में अपना अस्तित्व बनाना चाहते हैं।
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