हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
 वास्तुशास्त्र और खेती-बाड़ी

 वास्तुशास्त्र और खेती-बाड़ी

by आर. के. सुतार
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, सामाजिक
0

प्राचीन काल में भारत में नगर नियोजन पर वास्तुशास्त्र के ग्रिड पैटर्न आधारित था| वास्तुशास्त्र के अन्य नियमों का भी पूरी श्रद्धा से पालन किया जाता था| इसीलिए भारत विश्व गुरु और सोने की चिड़िया था, परन्तु आज प्रायः देश के गांवों में गलियां, घर और खेत भी टेढ़े-मेढ़े बने हुए हैं| यह समृद्धि के विरोध में है|

आप जाने अनजाने में वास्तुशास्त्र का पूर्णरुपेण पालन चाहे न     भी कर पाए परन्तु यदि भूखंड चौरस हो और बसावट ग्रिड पैटर्न पर हो तो वास्तुशास्त्र के एक मूलभूत सिद्धांत का पालन स्वतः ही हो जाता है| वो बात अलग है कि वास्तुशास्त्र के अन्यान्य नियमों का पालन करके आप जीवन को और भी अधिक सुखी बना सकते हैं परन्तु यदि आपने केवल ग्रिड पैटर्न पर बसावट ही सुनिश्चित कर दी तो भी आप प्रगति के कीर्तिमान रच देंगे| ना केवल प्राचीन काल में सिन्धु सभ्यता के नगर ही ग्रिड पैटर्न पर बसे थे बल्कि ग्रिड पैटर्न पर बसे हांगकांग के अलावा यूरोप और अमेरिका के गांव और शहर इसके सशक्त उदहारण हैं|

प्राचीन काल में भारत में भी नगर नियोजन में केवल ग्रिड पैटर्न आधारित रास्तों का ही नहीं वरन् वास्तु के अन्य नियमों का भी पूरी श्रद्धा से पालन किया जाता था| इसीलिए भारत विश्व गुरु और सोने की चिड़िया था परन्तु आज प्रायः देश के गांवों में गलियां और घर टेढ़े-मेढ़े बने हुए हैं| पहले मंदिर, किले और कारखाने तो वास्तुशास्त्र के अनुसार बनाए ही जाते थे, पशुपालन से लेकर खेतीबाड़ी तक में वास्तुशास्त्र के नियमों का ध्यान रखा जाता था| पहले सिंचाई के पर्याप्त साधन और उन्नत तकनीकें नहीं थीं परन्तु किसान समृद्ध था और खेती को व्यवसाय से भी अधिक प्राथमिकता दी जाती थी| प्राचीन काल में कहा जाता था कि ‘उत्तम खेती मध्यम बान| निषिद चाकरी भीख निदान॥अर्थात खेती सबसे अच्छा कार्य है| व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख मांगना सबसे बुरा कार्य है| आज वास्तुशास्त्र के पालन के अभाव में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं| किसान की इस बदहाली में उसके खेत के वास्तु की अहम् भूमिका होती है| जिन किसानों की फसल लगातार खराब हो जाती है, सामान्यतः उनके खेत अनियमित आकार के होते हैं, जिनका ढ़लान दक्षिण या पश्चिम दिशा की ओर होता है और इन्हीं दिशाओं में भूमिगत पानी का स्रोत जैसे कुंआ, बोरवेल इत्यादि होता है| इसके विपरीत जिन खेतों को ढ़लान उत्तर या पूर्व दिशा में होता है और भूमिगत पानी के स्रोत भी इन्हीं दिशाओं में होता है उनके खेतों में फसल हमेशा अच्छी होती है जिस कारण वह किसान आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हैं|

प्राचीन काल में किसान वास्तुशास्त्र के नियमानुसार कृषि योग्य भूमि के दक्षिण पश्चिम में भारी ऊंची वनस्पति, दक्षिण पूर्व में छोटी वनस्पति एवं उत्तर-पूर्व में सब से छोटी वनस्पति लगाते थे| बांस, बेंत, जलने वाली वनस्पति दक्षिण पूर्व में केले, धान जलीय भूमि में लगाते थे| कृषि में सिंचाई हेतु नलकूप उत्तर पूर्व में बनवाते थे| रोपण कार्य भी इसी प्रकार करते थे| फसल की देखभाल के लिए मचान दक्षिण पश्चिम में लगाते थे| हल, लोहे के यंत्र आदि दक्षिण पश्चिम में रखते थे| फसल काटकर दक्षिण पूर्व में रखते थे| पशुओं के रहने का घर उत्तर-पश्चिम यानि वायव्य दिशा में बनवाते थे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि ‘वायव्य पशु मन्दिरम्|’| पशुओं की खाने की नांद उत्तर पश्चिमी दीवार पर बनवाते थे| ध्यान रखते थे कि कृषि के लिए समतल भूमि हो| कृषि भूमि की ढलान पूर्व या उत्तर की ओर रखते थे| कृषि फार्म आयताकार या वर्गाकार होते थे| उत्तर की ओर कटीली तार की फेंसिंग रखते थे तथा दक्षिण पश्चिम में दीवार बनवाते थे| बुवाई की क्यारियां उत्तर से दक्षिण की ओर रखी जाती थीं| फसल की बुआई बांई से दांयी दिशा में और कटाई बांई से दांयी दिशा में करते थे| बेचने वाले अनाज उत्तर पश्चिम में रखते थे| फूलों की खेती के लिए पूर्व दिशा की ओर लाल, गुलाबी, उत्तर दिशा की ओर सफेद और पीले, दक्षिण दिशा की ओर नीले, पश्चिमी दिशा की ओर पीले, जामुनी फूल लगाते थे| खेत के बीच में कोई टीला या ऊंचा स्थान नहीं बनाते थे| खेत में पूर्व और उत्तर दिशा के अतिरिक्त कहीं भी गड्ढे नहीं रखते थे| दक्षिण पश्चिम दिशा के अतिरिक्त कहीं भी मिट्टी ऊंची नहीं रखते थे|

किसी भी किसान के लिए आर्थिक बदहाली से बचने का एकमात्र तरीका है कि वह अपने खेत में निम्नलिखित परिवर्तन करके अपने खेतों को वास्तुनुकूल करें-

१. अनियमित आकार के खेत को आयताकार कर उसके चारों तरफ एक से डेढ़ फीट ऊंची मिट्टी की मेढ़ बनाएं या बागड़ लगाएं| यदि खेत का कोई भाग इस आयताकार भाग से बच गया है तो उस छोटे भाग पर अलग से फसल उगाएं| यदि खेत बड़े आकार का है और उसमें बढ़ाव-घटाव ज्यादा है तो ऐसी स्थिति में एक से अधिक आयताकार खेत बना कर उनमें मेढ़ बनाएं या बागड़ लगाएं|

२. खेत की दक्षिण और पश्चिम दिशा में जो ढ़लान हो उसे उत्तर और पूर्व दिशा से मिट्टी खोद कर खेत की दक्षिण व पश्चिम दिशा में डाल कर खेत को समतल करें| खेत को समतल करने के लिए मिट्टी कम पड़ने पर कहीं और से भी मिट्टी लाकर वहां डाली जा सकती है|

३. खेत में आग्नेय कोण, दक्षिण दिशा, नैऋत्य कोण, पश्चिम दिशा, वायव्य कोण तथा मध्य में कहीं भी भूमिगत पानी का स्रोत जैसे- कुंआ, बोरवेल, बावड़ी, टंकी हो तो उसे मिट्टी भर कर समतल कर दें और पानी का नया भूमिगत स्रोत खेत की उत्तर दिशा, ईशान कोण या पूर्व दिशा में कहीं भी बनाएं|

४. खेत में आने-जाने का रास्ता पूर्व ईशान, दक्षिण आग्नेय, पश्चिम वायव्य और उत्तर ईशान में ही कहीं पर रखें| पूर्व आग्नेय, दक्षिण नैऋत्य, पश्चिम नैऋत्य और उत्तर वायव्य में कभी भी ना रखें| आर्थिक बदहाली से परेशान किसान यदि वास्तुशास्त्र के उपरोक्त सिद्धांतों का पालन कर लें तो यह तय है कि वह हमेशा अच्छी फसल प्राप्त करेगा, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी|

५. कृषि भूमि अथवा खेत वर्गाकार एवं आयताकार अच्छे माने गए हैं| खेत त्रिभुजाकार, अष्टभुजाकार, धनुषाकार, पंखिनुमा, तबला व मृदंग के आकर के वास्तुशास्त्र की दृष्टि से अनुपयोगी है| उक्त प्रकार के खेतों में जितना क्षेत्र आयताकार अथवा वर्गाकार बने, उस पर खेती करें एवं शेष को खाली छोड़ दें|

६. खेत का रास्ता उत्तर-पूर्व में होना शुभकर है| दक्षिण दिशा में रास्ता रखने से बचना चाहिए| खेत में से किसी अन्य के खेत में जाने का रास्ता भी नहीं होना चाहिए|

७. खेत का विस्तार हमेशा उत्तर-पूर्व दिशा में करना चाहिए| खेत का बंटवारा करते समय यह विशेष ध्यान रखें कि खेत का उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा न कटे|

८. खेत की भूमि समतल हो| खेत की भूमि की ढलान पूर्व, उत्तर अथवा ईशान दिशा में शुभकर हैं| कृषि भूमि का ढाल पश्चिम या दक्षिण में कदापि न हो|

प्राचीन काल की जब बात कर रहे हैं तो वास्तुशास्र्त्र की प्राचीनता और जीवन के विविध क्षेत्रों में उसके उपयोग और उदाहारण व परिणामों पर भी आइये एक नज़र डालते हैं| सबसे पहले यह देखते हैं कि वास्तु शब्द का अर्थ क्या है? ‘वास्तु’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘वस्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ ‘बसना’ होता है| चूंकि बसने के लिए भवन की आवश्यकता होती है अतः ‘वास्तु’ का अर्थ ‘रहने हेतु भवन’ है| ‘वस्’ धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि शब्द बने हैं|

दो-तीन हजार वर्ष ई. पू. विकसित सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से एक आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आया है कि भारत की प्राचीनतम कला सौंदर्य की दृष्टि से ऐसी ही बेहतरीन थी, जैसी आजकल की कोई भी सभ्यता| जब आजकल की कोई भी सभ्यता जागरण की अंगड़ाई भी न ले पाई थी तब भारत की यह कला इतनी विकसित थी| इन बस्तियों के निर्माताओं का नगर नियोजन संबंधी ज्ञान इतना परिपक्व था, उनके द्वारा प्रयुक्त सामग्री ऐसी उत्कृष्ट कोटि की थी और रचना इतनी सुदृढ़ थी कि उस सभ्यता का आरंभ बहुत पहले, लगभग चार पांच हजार वर्ष, ईसा पूर्व, मानने को बाध्य होना पड़ता है| हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से प्राप्त अवशेष तत्कालीन भौतिक समृद्धि के सूचक हैं|

बौद्ध लेखक धम्मपाल के अनुसार, पांचवीं शती ईसा पूर्व में महागोविंद नामक स्थपति ने उत्तर भारत की अनेक राजधानियों के विन्यास तैयार किए थे| चौकोर नगरियां बीचोबीच दो मुख्य सड़कें बना कर चार-चार भागों में बांटी गई थीं| एक भाग में राजमहल होते थे, जिनका विस्तृत वर्णन भी मिलता है| सड़कों के चारों सिरों पर नगरद्वार थे| मौर्यकाल (४थी शती ई. पू.) के अनेक नगर कपिलवस्तु, कुशीनगर, उरुबिल्व आदि एक ही नमूने के थे, यह इनके नगरद्वारों से प्रकट होता है| जगह-जगह पर बाहर निकले हुए छज्जों, स्तंभों से अलंकृत गवाक्षों, जंगलों और कटहरों से बौद्धकालीन पवित्र नगरियों की भावुकता का आभास मिलता है|

तत्कालीन वास्तुकौशल के उत्कृष्ट उदाहरण पत्थर और ईंट के साथ-साथ लकड़ी पर भी मिलते हैं, जिनके विषय में सर जॉन मार्शल ने भारत का पुरातात्विक सर्वेंक्षण, १९१२-१३ में लिखा है कि वे तत्कलीन कृतियों की अद्वितीय सूक्ष्मता और पूर्णता का दिग्दर्शन कराते हैं| उनके कारीगर आज भी यदि संसार में आ सकते, तो अपनी कला के क्षेत्र में कुछ विशेष सीखने योग्य शायद न पाते|

पांचवीं शती से ईंट का प्रयोग होने लगा| तत्कालीन मंदिरों में भीटागांव (कानपुर जिला), बुधरामऊ (फतेहपुर जिला), सीरपुर और खरोद (रायपुर जिला), तथा तेर (सोलापुर के निकट) के मंदिरों की शृंखला उल्लेखनीय है| भीटागांव का मंदिर, जो शायद सब से प्राचीन है, ३६ फुट वर्ग के ऊंचे चबूतरे पर बुर्ज की भांति ७० फुट ऊंचा खड़ा है|

भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने भारत के बाहर श्रीलंका, नेपाल, बर्मा, स्याम, जावा, बाली, हिंदचीन और कंबोडिया में भी मिलते हैं| नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बर्मा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकाक के मंदिर, जावा में प्रांबनाम का विहार, कलासन मंदिर और बोरोबंदर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के व्यापक प्रसार के प्रमाण हैं| जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण ४थी शती ईसवी के मिलते हैं| वहां के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में ६२५ से ९२८ ई. तक वास्तुकला का स्वर्णकाल और पूर्वी जावा में ९२८ से १४७८ ई. तक रजतकाल था|

इसी प्रकार से कामाख्या मंदिर अपने भीतर कई रहस्य और मायावी संसार को समेटे हुए है| भारत के प्राचीन मंदिरों में शुमार देवी सती का यह मंदिर ५१ शक्ति पीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है| मंदिर का प्रवेश द्वार उत्तर ईशान कोण में है| इस मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर उत्तर दिशा में ब्रह्मपुत्र नदी बहती है जो काफी शुभ है|

भारत के प्राचीन किलों में कुम्भलगढ़ का दुर्ग राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है| उदयपुर से ७० किमी दूर समुद्र तल से १,०८७ मीटर ऊंचा और ३० किमी व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यशश्वी महाराणा कुम्भा की सूझबूझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है| इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के द्वितीय पुत्र संप्रति के बनाए दुर्ग के अवशेषों पर १४४३ से शुरू होकर १५ वर्षों बाद १४५८ में पूरा हुआ था| वास्तुशास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर, जलाशय, बाहर जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल, मंदिर, आवासीय इमारतें, यज्ञ वेदी, स्तम्भ, छत्रियां आदि बने हैं| इस किले को ‘अजेयगढ’ कहा जाता था क्योंकि इस किले पर विजय प्राप्त करना दुष्कर कार्य था| इसके चारों ओर एक बड़ी दीवार बनी हुई है जो चीन की दीवार के बाद दूसरी सबसे बड़ी दीवार है| यह दुर्ग कई घाटियों व पहाड़ियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा| इस दुर्ग में ऊंचे स्थानों पर महल, मंदिर व आवासीय इमारतें बनाई गईं और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया| वहीं ढलान वाले भागों का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया| इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है| यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुदृढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है| इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है| महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है| महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा| यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था| महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन-पोषण किया था| हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे| इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर यह दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है|

वेदों में भी वास्तु संबंधित अनेक प्रसंग हैं| वास्तु के अधिष्ठाता देव का  नाम वास्तोष्पति है| ऋग्वेद काल से आयुर्वेदिक तथा शतपथ ब्राह्मण काल तक वास्तुशास्त्र क्रमशः विकसित हुआ| सतयुग के बाद त्रेता में रामायण में अयोध्या तथा लंका के वर्णन में वास्तु विज्ञान का प्रयोग वास्तुशास्त्र के विकास का प्रबल प्रमाण है| फिर द्वापर युग में देव शिल्पी विश्वकर्मा तथा दैत्य शिल्पी मंत्र के चमत्कार का नमूना इंद्रप्रस्थ निर्माण, द्वारिका व हस्तिनापुर का निर्माण वास्तु विकास के दृश्यंत हैं| कलियुग में दिल्ली का लाल किला, आगरा का ताजमहल, मदुरै का मीनाक्षी मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर इसके मंदिर विकास के उदाहरण हैं| अतः वास्तुशास्त्र वैदिक काल से ही अस्तित्व में आया|

सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि जैसे आरोग्य शास्त्र के नियमों का विधिवत पालन करके मनुष्य सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है, उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार भवन निर्माण करके प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बना सकता है| चिकित्सा शास्त्र में जैसे डॉक्टर असाध्य रोग पीड़ित रोगी को उचित औषधि एवं आपरेशन द्वारा मरने से बचा लेता है, उसी प्रकार रोग, तनाव और अशांति देने वाले पहले के बने मकानों को वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार ठीक करवा लेने पर मनुष्य जीवन में पुनः आरोग्य, शांति और संपन्नता प्राप्त कर सकता है|

 

आर. के. सुतार

Next Post
 भारत में पारंपारिक ग्रामीण खेल

 भारत में पारंपारिक ग्रामीण खेल

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0