अभिनव गुप्त का साहित्य को योगदान

जि न आचार्यों ने विभिन्न ग्रंथ-रत्नों का प्रणयन कर न केवल      संस्कृत-वाङ्मय अपितु समस्त भारतीय वाङ्मय का श्रीवर्धन किया, उन लब्ध-प्रतिष्ठ आचार्यों में आचार्य अभिनव गुप्तपाद मूर्धन्य हैं| इस महान आचार्य ने एक ओर ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘लोचन’ तथा ‘नाट्य-शास्त्र’ पर ‘अभिनव-भारती’ टीका का प्रणयन कर साहित्य का महान उपकार किया, दूसरी ओर ‘तंत्रलोक’ आदि नाना ग्रंथों तथा टीका-ग्रंथों की रचना करके भारतीय दर्शन तथा तंत्र शास्त्र की महती सेवा की| अभिनव गुप्त भारतीय शास्त्रीय साहित्यिक परंपरा के वह देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिसकी प्रभा से भारतीय नाट्य तथा ध्वनि के दुर्गम मार्ग प्रशस्त हुए| एक ओर टीका ग्रंथों की रचना करके उन्होंने शास्त्रीय ग्रंथों को सुग्राह्य बनाया तो दूसरी ओर मौलिक ग्रंथों को रच कर उन्होंने अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से साहित्यिक तथा दार्शनिक जगत को चमत्कृत किया|

 संक्षिप्त जीवन-परिचय

यद्यपि नाना भारतीय विद्याओं के इस महापंडित का जन्म कश्मीर में हुआ, तथापि आचार्य अभिनव गुप्तपाद के पूर्वज २०० वर्ष पूर्व ही कन्नौज से कश्मीर में आए थे| उस समय कन्नौज नगर अत्यंत समृद्ध एवं शक्तिशाली साम्राज्य था| ८वीं शताब्दी में कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कन्नौज पर आक्रमण करके वहां के राजा यशोवर्मा को पराजित किया| राजा ललितादित्य विद्वत-प्रिय थे| सम्राट वहां के एक विद्वान ब्राह्मण अत्रिगुप्त को कश्मीर ले गए और उनके लिए एक भवन बनवाकर आदर के साथ प्रचुर संपत्ति तथा जागीर देकर वितस्ता नदी के किनारे निवास प्रदान किया| पं. अत्रिगुप्त के वंश में ही २०० वर्ष बाद इस नाना शास्त्रों में निष्णात महापंडित अभिनव गुप्त का जन्म हुआ| ‘तंत्रालोक’ में आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने पितामह वराह गुप्त, पिता नृसिंह गुप्त या चुलुकख तथा अपने जन्म का वर्णन किया है|

संस्कृत-परंपरा के कवियों, लेखकों तथा विद्वानों के साथ यह विडंबना रही है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने जीवन काल के विषय में संकेत प्रायः नहीं दिए| यही कारण है कि उनका जीवन-वृत्त तथा स्थिति काल अतीत के गहवर में कहीं खो जाता है तथा अटकलों और अनुमानों का विषय ही बन जाता है| इसके विपरीत इस महान विद्वान ने अपने ग्रंथ-लेखन के पर्याप्त संकेत प्रदान किए हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य अभिनव गुप्तपाद का स्थिति काल दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध तथा ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध था| पिता नृसिंह गुप्त विद्वान थे, जिनसे आचार्य अभिनव गुप्त ने व्याकरण- शास्त्र का अध्ययन किया| उनकी माता का नाम विमलकला या विमला था|

आचार्य का पूरा नाम अभिनव गुप्तपाद था| उनके नाम के विषय में भी रोचक उल्लेख प्राप्त होता है| ‘काव्यप्रकाश’ के टीकाकार वामन के एक उल्लेख के अनुसार वे अपने सहाध्यायियों को बहुत परेशान किया करते थे| सर्प के समान भय देने के कारण उनके गुरुओं ने उनको यह नाम प्रदान किया| सर्प के पैर गुप्त होते हैं अत: सर्प को संस्कृत में गुप्तपाद भी कहा जाता है| गुरु प्रदत्त इस नाम को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए स्वयं उन्होंने भी उल्लेख किया है –

  ‘अभिनवगुप्तस्यकृति: सेयं यस्योदिता गुरुभिराख्या’|

अभिनव गुप्त का बाल्यकाल अत्यंत ही कष्टकारक रहा| बाल्यावस्था में ही उनकी माता का निधन हो गया| माता के निधन के पश्‍चात् पिता ने भी वैराग्य धारण कर लिया| इन नकारात्मक प्रतीत होने वाली घटनाओं ने भले ही अभिनव गुप्त को स्वाभाविक रूप से आहत किया हो किंतु इससे उनके जीवन की दिशा परिवर्तित हो जाने से उनकी रचना धर्मी प्रतिभा से दार्शनिक तथा भक्ति संबंधी साहित्य का महान उपकार हुआ| अब वे सरस साहित्य के अध्ययन के स्थान पर धर्म, दर्शन तथा भक्ति में रम गए| आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे कठोर साधना में लीन रहे| अपने जीवन का अंतिम भाग उन्होंने श्रीनगर तथा गुलबर्ग के मध्य स्थान के ५ मील दूर भैरव नाम के ग्राम में बिताया| यहां भैरव नाम की नदी बहती है और यहीं पर भैरव गुफा भी है| ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन के अंतिम समय में वे इसी पवित्र गुफा में प्रविष्ट हुए और फिर लौट कर नहीं आए| यह भी कहा जाता है कि उनकी इस अंतिम यात्रा में उनके १२०० शिष्य भी उन्हें विदा करने आए| इस प्रकार त्याग, तप, विद्या और साधना का वह मूर्तिमान स्वरूप अपनी आभा को छोड़ कर इस धराधाम से अदृश्य लोक की ओर प्रस्थान कर गया| उस समय कश्मीर प्रदेश संस्कृत-विद्याओं का एक बड़ा केंद्र था| यहां विभिन्न विद्याओं तथा शास्त्रों के मूर्धन्य पंडित थे| अभिनव गुप्त का विद्या-व्यसन इतना प्रबल था कि जिस-जिस शास्त्र के जो भी प्रसिद्ध विद्वान कश्मीर प्रदेश में थे, उन विभिन्न विद्वानों के पास जाकर उन्होंने तत्त्व शास्त्र का अध्ययन किया| अपने २० गुरुओं का आचार्य ने स्वयं उल्लेख किया है जिसमें ७ आचार्यों का उल्लेख उन्होंने शास्त्रों सहित किया है| यथा-व्याकरण के गुरु इनके पिता नृसिंह गुप्त| द्वैताद्वैत-तंत्र के गुरु वामनाथ| द्वैतवादी शैव-संप्रदाय के गुरु बूतिराज तनय, प्रत्यभिज्ञा-क्रम तथा त्रिक दर्शन के गुरु लक्ष्मण गुप्त| ध्वनि-सिद्धांत के गुरु भट्ट इंदुराज| ब्रह्मविद्या के गुरु भूतिराज| नाट्य-शास्त्र के आचार्य भट्ट तोत्त| अपने शेष १३ गुरुओं का भी उन्होंने एक श्‍लोक में उल्लेख किया है| यथा-

      ‘‘श्रीचन्द्रशर्मभवभक्तिविलासयोगा-

       नन्दाभिनन्दशिवशक्तिविचित्रनाथा:;

       अन्येअपि धर्मशिववामनबोधभट्ट-

       श्री भूतेशभास्करमुख प्रमुखता महान्त:|’’

इस प्रकार इतने गुरुओं से विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करके जो विशाल, गहन एवं गभीर ज्ञान-राशि अर्जित की, तंत्रलोक, अभिनव भारती जैसे विभिन्न ग्रंथ-रत्न उसी ज्ञान साधना के विलक्षण फल हैं|

यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि अभिनव गुप्त नामक एक अन्य आचार्य भी रहे हैं| उनका जन्म कामरूप (असम) में हुआ था| वे शाक्त थे तथा ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने वेदांत सूत्रों पर शाक्त भाष्य भी लिखा था| नाम-साम्य के कारण दोनों दार्शनिक आचार्यों के एक ही व्यक्ति होने का भ्रम होता है किंतु वास्तव में दोनों भिन्न थे| माधवाचार्य ने उनके शंकराचार्य से पराजित होने का उल्लेख भी किया है| उल्लेखनीय है कि शंकराचार्य हमारे द्वारा वर्णित अभिनव गुप्तपाद से लगभग २०० वर्षों से भी अधिक पहले हुए थे| अत: शंकराचार्य से पराजित वे आचार्य इनसे भिन्न थे|

 अभिनव गुप्त का कृतित्व

संसार से विरक्तप्राय: इस आचार्य ने अपने अध्ययन और साधना के बल पर एक विशाल ग्रंथ-राशि साहित्य-संसार को समर्पित की| संस्कृत की, आचार्य-परंपरा के इस महामनीषी ने जो कृतियां साहित्य-संसार को समर्पित कीं, उनकी नाम -परिगणना से ही आचार्य की बहुमुखी प्रतिभा और अदृष्य वैदुष्य का स्वत: अनुमान किया जा सकता है| आचार्य द्वारा प्रणीत साहित्य का यह वैशिष्य है कि उनकी परवर्ती कृतियों में प्रसंगानुसार पूर्व कृतियों का नामोल्लेख भी प्राप्त होता है, जिससे ग्रंथ-लेखन पौर्वापर्य क्रम का निर्धारण करना सरल हो जाता है| इन कृतियों का काल क्रम से उल्लेख यहां पर किया जाता है- बोधपज्वदशिका, परात्रींशिका-विवृत्ति, मालिनी-विजय-वार्तिक, तंत्रालोक, तंत्र-सार, तंत्रवट-धानिका, ध्वन्यालोक-लोचन, अभिनव -भारती, भगवद्गीतार्थसंग्रह, परमार्त-सार, ईश्‍वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृत्ति-विमर्शिनी-बृहती, क्रम-स्त्रोत्र, देहस्थ-देवता-चक्र-स्तोत्र, भैरव-स्तोत्र, परमार्थ-द्वाद्शिका, अनुभव-निवेदन, परमार्थ-चर्चा, महोपदेशविंशतिका, अनुत्तराष्टिका, तथोंच्चय, घटकर्पर-कुलक-वृत्ति, क्रमकेलि, शिव-दृष्टयालोचन, पूर्वपज्चिका, पदार्थप्रवेशनिर्णय-टीका, प्रकीर्णक-विवरण, प्रकरणक-विवरण, काव्यकौतुक-विवरण, कथामुखटीका,लघ्वी प्रक्रिया, भेदवाद-विदारण, देवी-स्तोत्र-विवरण, तत्वार्थ-प्रकाशिका, शिवशक्त्यविनाभाव-स्तोत्र, बिम्बप्रतिबिम्बवाद, परमार्थसंग्रह, अनुत्तरशतक, पकरण-स्तोत्र, नाट्यलोचन, अनुत्तरतत्वविमर्शिनी|

उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त प्रथम ११ ग्रंथ स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हो चुके हैं| १२हवां ग्रंथ ‘ईश्‍वर प्रत्यभिज्ञा-विवृत्ति’ जिस पर आचार्य ने टीका लिखी है, वह अनुपलब्ध है| क्रम-संख्या १३ से २० तक लघुकाय ग्रंथ हैं, जिनका प्रकाशन डॉ. कांतिलाल पांडेयजी के अभिनवगुप्त-विषयक शोध-प्रबंध के परिशिष्ट के रूप में हुआ है| ‘तंत्रोच्चय’ तथा ‘घटकर्पर-कुलक-वृत्ती’ के संप्रति उपलब्ध पाठ का कर्तृत्व कतिपय कारणों से संदिग्ध है| आगे के १३ ग्रंथ ऐसे हैं, जिनके उल्लेख आचार्य के उपलब्ध ग्रंथों में प्राप्त होते हैं किंतु वे आज किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं होते| शेष अंतिम छह का केवल नामोल्लेख ही सूची-पत्रों में प्राप्त होता है|

 साहित्य तथा साहित्य-शास्त्र के क्षेत्र में योगदान

ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि अपने माता पिता से वियुक्त हो जाने के बाद अभिनव गुप्तपादाचार्य विरक्त हो गए और सरस साहित्य के अध्ययन और प्रणयन को छोड़ कर दर्शन में ‘घटकर्पर-कुलक-वृत्ती’ सहित उनके केवल ३ ही ग्रंथ प्राप्त होते हैं तथापि उनकी ख्याति प्रमुख रूप सा साहित्य के क्षेत्र में है| साहित्य के क्षेत्र में उनकी कीर्ति के आधार -स्तंभ हैं ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘लोचन’ टीका तथा ‘नाट्य-शास्त्र’ पर ‘अमिनव-भारती’ नाम की टीका|

 ध्वन्यालोक

‘ध्वन्यालोक’ एक प्रसिद्ध साहित्य-शास्त्रीय ग्रंथ है| जिसके कर्ता ध्वनि-संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनंदवर्धन हैं| साहित्य-शास्त्र के इस अत्यंत महनीय ग्रंथ पर आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने जो वैदुष्यपूर्ण टीका लिखी है, वह साहित्य-शास्त्र के क्षेत्र में अत्यंत समादृत है| जब ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘चंद्रिका’ टीका उपलब्ध थी, तब ‘लोचन’ के प्रणयन की क्या आवश्यकता थी? आचार्य अभिनव गुप्त ने इस प्रश्‍न का बहुत ही सुंदर उत्तर दिया है- ‘‘क्या लोचन नहीं है, तब तक चंद्रिका से ही यह लोक चमक सकता है?’’ अर्थात जब तक लोचन नहीं है, तब तक चंद्रिका के चमकने की प्रतीति हो ही नहीं सकती| इसीलिए अभिनव गुप्त ने यह लोचन का उन्मीलन किया है|’’

अभिनव भारती

साहित्य के क्षेत्र में अभिनव गुप्तपाद का दूसरा अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है ‘नाट्य-शास्त्र’ पर उनकी ‘अद्भुत-भारती’| यदि यह टीका उपलब्ध न होती तो नाट्य-शास्त्र के मर्म को समझना ही हमारे लिए सर्वथा कठिन हो जाता| आचार्य अभिनव गुप्त की टीका के अत:साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने नाट्य-शास्त्र की अनेक हस्तलिखित प्रतियों का अत्यंत श्रम के साथ अध्ययन किया और उन्हें विषयों के एकाधिक पाठांतर भी उपलब्ध हुए| यह निश्‍चय ही आचार्य की अनुपम कृति है| वस्तुत: इसी कारण आज नाट्य-शास्त्र का अस्तित्व और महत्व सुरक्षित रह सका है| इस में अत्यंत स्पष्टता तथा विद्वत्ता  के साथ आचार्य भरत के मंतव्य को प्रतिपादित किया गया है| टीका के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि अभिनव गुप्त के रूप में अभिनव भरत का प्राकट्य ही हो गया है|

इन दोनों ग्रंथों के विषय में यह कहा जा सकता है कि भले ही ये टीका-ग्रंथ हैं, तथापि इनका महत्व किसी भी मौलिक ग्रंथ से कई गुणा अधिक है|

 दार्शनिक क्षेत्र में योगदान

कश्मीर शैव प्रत्यभिज्ञा दर्शन के क्षेत्र में आचार्य अभिनव गुप्तपाद का विशिष्ट योगदान है| यह दर्शन शैवाद्वैत दर्शन के नाम से भी जाना जाता है| ईश्‍वर -प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में आचार्य ने अपनी गुरु-परंपरा का भी उल्लेख किया है| इस दर्शन के संस्थापक आचार्य त्र्यंबक थे| आगे चल कर सोमानंद नामक आचार्य ने इस पद्धति को आगे बढ़ाते हुए ‘शिव-दृष्टि’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया| उदयाकर के पुत्र उत्पल ने १९० कारकाओं में प्रत्यभिज्ञा -सूत्र की रचना की| साथ ही उन्होंने इस ग्रंथ पर वृत्ति की रचना की| उसी शिष्य -परंपरा में लक्ष्मण गुप्त हुए| आचार्य लक्ष्मण गुप्त का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है| उन्हीं लक्ष्मण गुप्त का शिष्य अभिनव गुप्त हुआ| ‘‘मालनी-विजय-वार्तिक‘‘ में अभिनव गुप्ताचार्य ने अपने गुरु के वैदुष्य की अत्यधिक प्रशंसा की है| प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के क्रम को आगे बढ़ाते हुए आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने विशेष रूप से दो महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रणयन किया| प्रथम उत्पलदेव-चरित्र ‘प्रत्यभिज्ञा-कारिका’ पर ‘ईश्‍वर-प्रत्यभिज्ञा-वमर्शिणी’ है तो दूसरी उत्पलदेव की टीका पर ‘ईश्‍वर-प्रत्यभिज्ञा-वमर्शिणी-वृत्ति’ है| दार्शनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उनका तीसरा ग्रंथ ‘‘भगवद्गीतार्थसंग्रह’’ है|

‘ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञा-वमर्शिणी’ जैसा कि उपर उल्लेख किया जा चुका है कि आचार्य ने उत्पलपादाचार्य के सूत्र-ग्रंथ ‘ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञा-सूत्र’ पर ‘वमर्शिणी’ टीका लिखी| यही ‘ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञा-वमर्शिणी’के नाम से जानी जाती है| सूत्रों के तात्पर्य को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करने वाला यह ग्रंथ प्रकाशित है| इस ग्रंथ का आकार ४ हजार श्‍लोक-प्रमाण है, अत: इसे चतु:साहस्री तथा अपने दूसरे विवृत्ति-ग्रंथ की अपेक्षा दृष्टि से लघ्वीविमर्शिणी भी कहा जाता है|

ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञा-वमर्शिणी में यह उल्लेख किया जा चुका है कि आचार्य के प्रगुरु उत्पलाचार्य ने अपने सूत्र-ग्रंथ ‘ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञासूत्र’ पर स्वयं एक विवृत्ति लिखी थी| इसी ग्रंथ पा आचार्य अभिनव गुप्त ने वृत्ति की रचना की जो ‘ईश्‍वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्ति-वमर्शिणी’ के नाम से प्रसिद्ध है| इस ग्रंथ को लघ्वीविमार्शिणी की अपेक्षा-दृष्टि से बृहती विमर्शिणी भी कहा जाता है| इस ग्रंथ का परिणाम १८ हजार श्‍लोक-प्रमाण है| अत: इसे अष्टादश-साहस्री भी कहा जाता है| स्पष्ट है कि आचार्य ने इस ग्रंथ में उत्पलाचार्य के मंतव्य को स्पष्टता से प्रतिपादित किया है|

यहां यह उल्लेखनीय है कि उत्पलाचार्य द्वारा अपने ग्रंथ पर लिखी गई विवृत्ति संप्रति उपलब्ध नहीं है| अत: इस ग्रंथ का महत्व स्वत:सिद्ध है|

 उपसंहार

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की नाना विद्याओं के अद्भुत समाराधक आचार्य अभिनव गुप्तपाद द्वारा प्रणीत साहित्य निश्‍चय ही विलक्षण है| उनकी लेखनी इतनी प्रभावी तथा सशक्त थी कि वाङ्मय के जिस क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी कलम चलाई, अध्येता उन्हें उसी का प्रामाणिक अधिकारी विद्वान समझते रहे| निश्‍चय ही विभिन्न विद्याओं के अधिकारी विद्वानों से तत्तत शास्त्र के अध्ययन का ही ऐसा विलक्षण परिणाम है| यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने वाङ्मय की सेवा करते हुए जो टीका-संपत्ति प्रदान की, उसका महत्व किसी भी मौलिक ग्रंथ से कहीं अधिक है|

आचार्य के जीवन तथा साहित्य के पर्यालोचन से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य अभिनव गुप्त का सम्पूर्ण जीवन साधना से परिपूर्ण था| मानव की व्यक्तिगत साधना का पुण्य भले ही व्यक्ति-विशेष की ऐहिक तथा पारलौकिक समृद्धि का कारण बनता है किंतु आचार्य ने अपनी जीवन साधना और तप से वाङ्मय की जो सेवा की है, वह अद्भुत है| अपनी लेखनी की शक्ति से उन्होंने जिस साहित्य का प्रणयन किया, उससे धर्म, दर्शन, मंत्र, संस्कृति तथा साहित्य की महती सेवा हुई| उस महान साहित्य के अध्ययन और पर्यालोचन से सदैव साहित्यकारों, दार्शनिकों, साधकों तथा जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन होता रहेगा|

 

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