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 डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी कश्मीर के लिए बलिदान

 डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी कश्मीर के लिए बलिदान

by विशेष प्रतिनिधि
in मार्च २०१७, सामाजिक
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श्यामाप्रसाद मुखर्जी का जन्म एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में ६ जुलाई १९०१ को हुआ था| उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने-माने वकील थे, जो कालांतर में कोलकाता विश्‍वविद्यालय के कुलपति बने| उनकी माता का नाम था योजमाया देवी मुखर्जी| जिनकी साधना का चरम उत्कर्ष था कि उन्होंने ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसने देश की अखण्डता के लिए आत्माहुति दे दी|

स्नातक परीक्षा में वे प्रथम स्थान एवं प्रथम श्रेणी लेकर उत्तीर्ण हुए| अंग्रेजी विषय लेकर यह सर्वोच्च स्नातक उपाधि उन्होंने सन १९२१ में प्राप्त की| १९२३ में वे परास्नातक एवं १९२४ में विधि स्नातक बन गए| १९२३ में ही वे सीनेट के सदस्य बने| १९२४ में वे एडवोकेट के रूप में कोलकाता उच्च न्यायालय में पंजीकृत हुए| सन १९२६ में वे इंग्लैण्ड गए और वहां उन्होंने अध्ययन पूर्ण कर १९२७ में बैरिस्टर बन गए| १९३४ में वे कोलकाता विश्‍वविद्यालय के सब से कम उम्र वाले (३३ वर्ष) कुलपति बने| १९३६ तक वे इस पद पर रहे|

उनका विवाह सुधा देवी से हुआ था| केवल ११ वर्ष के गृहस्थ जीवन में उनकी ५ संतानें हुईं| उनकी अंतिम संतान एक पुत्र  मात्र ४ माह की आयु में डिप्थीरिया का शिकार होकर चल बसा, जिसके आघात से उनकी पत्नी सुधा देवी की भी बाद में मृत्यु हो गई|

 राजनीतिक जीवन

श्री मुखर्जी १९२६ में कोलकाता विश्‍वविद्यालय के कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में विधान परिषद के सदस्य चुने गए| कुछ समय बाद कांग्रेस छोड़ कर निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ा, जीत कर बंगाल प्रांत के वित्त मंत्री बन गए| १९४१-४२ में वे इस पद पर रहे| इसके पश्‍चात वे हिन्दुओं का पक्ष रखने वाले एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभरे और ‘हिन्दू महासभा’ से सम्बद्ध हो गए| १९४४ में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने| उन्होंने ‘मुस्लिम लीग’ के साम्प्रदाीयक हथकण्डों से हिन्दुओं की रक्षा करने का संकल्प किया|

११ फरवरी १९४१ को डॉ. मुखर्जी ने एक हिन्दू महासम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था, ‘‘जो मुसलमान पाकिस्तान में रहने के इच्छुक हैं, उन्हें अपना बोरिया- बिस्तर समेट कर भारत छोड़ देना चाहिए|’’

 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्‍चात

प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने उनको अंतरिम केन्द्रीय सरकार में श्रम और आपूर्ति मंत्री का पद प्रदान किया| वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वाधिक सम्मानित नेता के रूप में उभरते गए| सरदार वल्लभभाई पटेल सहित सभी भारतीय उनसे अत्याधिक प्रभावित थे|

परंतु १९५० में पाकिस्तान के प्रधान मंत्री लियाकल अली खां के साथ जो ‘दिल्ली समझौता’ हुआ उससे सहमत न होने एवं उसका विरोध करते हुए ६ अप्रैल १९५० को उन्होंने नेहरू मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया|

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर से परामर्श कर डॉ. मुखर्जी ने २१ अक्टूबर १९५१ को दिल्ली में भारतीय जनसंघ दल की स्थापना की तथा उसके प्रथम अध्यक्ष बने| १९५२ में हुए चुनावों में जनसंघ को संसद में ३ स्थान प्राप्त हुए, जिनमें एक सीट उनकी थी|

विचारधारा के दृष्टिकोण से जनसंघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के अधिक निकट था, जो हिन्दू राष्ट्रवाद के राजनीतिक रक्षक के रूप में चर्चित था| यह दल सम्पूर्ण भारतीयों के लिए समान विधान चाहते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रबल विरोधी था|

 जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के सम्बंध में उनके विचार

जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद ३७० के अंतर्गत विशेष दर्जा दिए जाने के विरोध में उन्होंने हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ मिल कर एक संयुक्त मोर्चा बनाया| उन्होंने विनाशकारी व्यवस्थाओं के विरुद्ध एक प्रचण्ड सामूहिक सत्याग्रह किया| इसी संदर्भ में बातचीत के लिए १९५३ में वे कश्मीर पहुंचे, जहां ११ मई को गिरफ्तार किए गए| वहां बंदी अवस्था में ही २३ जून को उनकी कथित रहस्यमयी मृत्यु हो गई|

कांग्रेस द्वारा कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के अंतर्गत उसको अपना ध्वज, अपना प्रधान मंत्री रखने का प्रावधान दिया गया| इस प्रावधान के अंतर्गत सिवाय राष्ट्रपति के कश्मीर में कोई भारतीय प्रवेश नहीं कर सकता था| इस व्यवस्था के विरोध में डॉ. मुखर्जी का नारा था, ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे|’

परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह विश्‍वास कि कश्मीर में जहर देकर उनकी हत्या कर दी गई, सत्य प्रतीत होता है| उनकी रहस्यमयी मृत्यु ने इस विश्‍वास को और भी गहरा दिया| उनकी माता ने नेहरू को पत्र लिख कर उनकी रहस्यमय मृत्यु की जांच का आग्रह किया था पर नेहरू ने उसे ठुकरा दिया| अटल बिहारी वाजपेयी ने २००४ में कहा था कि डॉ. मुखर्जी की गिरफ्तारी ‘नेहरू षड्यंत्र’ था|

 

 

विशेष प्रतिनिधि

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