क्या भारत कृषिप्रधान रहेगा?

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यह वर्ष पं. दीनदयाल जी का जन्म शताब्दी का वर्ष हैं और उनके द्वारा प्रस्तुत  एकात्म मानव दर्शन के विचार को भी इसी वर्ष ५० साल पूरे हो रहे हैं| उन्होंने जो  “Not mass production, production by masses’ का विचार रखा था उसे नीति के तौर पर अपनाने की आवश्कता है|

हमारे  देश की पूरे विश्व में एक अलग पहचान है | हमारा देश शुरू से ही कृषि प्रधान देश रहा है| आदि काल से इसकी अपनी पहचान रही है| जब हम स्वतंत्र हुए थे तब हमारे देश में कृषि का घरेलू सकल उत्पाद में योगदान ५०% भी ज्यादा था| कृषि पर अवलंबित जनता ९०% थी| बड़े उद्योग नहीं थे| बहुतेरे ग्रामों में कृषि आधारित छोटे-छोटे व्यवसाय, उद्योग चलते थे जो प्राथमिक रूप से गांव की आवश्यकताओं को पूरी करते थे| उसमें से जो अधिक हो जाता था वह फिर बाजार तक पहुंच जाता था| एक प्रकार से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खेती एवं उससे जुड़े हुए काम देश में चलते थे|

उसके पूर्व में हमारे देश की क्या स्थिति थी यह देखना भी यहां प्रासंगिक होगा| अगर वेद काल से देखते हैं तो हमारे देश में खेती पर सब से ज्यादा जोर दिया जाता था| ॠग्वेद में ‘कृषि मीत कृषस्व’ का उल्लेख है| इसका अर्थ है कि अन्य किसी भी कार्य से खेती करना श्रेष्ठ है, खेती करने से आपको धन, सम्पत्ति, वैभव और प्रतिष्ठा प्राप्त होगी| अन्य कोई बेकार का समय नष्ट करने वाला काम न कर खेती करते हुए अपना जीवन सुख व आनंद से जिएं, यह उपदेश वेदों ने दिया था|

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मिले साक्ष्य और अनेक प्रमाण यह बताते हैं कि उस समय व्यापार बहुत बड़े अधिक पैमाने पर होता था| इस व्यापार में कृषि संबधित वस्तुओं की मात्रा सर्वाधिक थी| हमारे देश की दुनिया में प्रसिद्धि मसालों के पदार्थ, कपड़ा जैसे कृषि उत्पाद के नाम पर ही थी| विदेशी आक्रांता इसकी खोज करते हुए ही हमारे देश में पहुंचे थे, खास कर पाश्चात्य जगत के लोग| यह सिलसिला अंग्रेजों के आने तक चलता रहा| यह इतिहास सब को मालूम है|

जब अंग्रेज हमारे देश में आए थे, उस समय अर्थात् १५हवीं, १६हवीं शताब्दी तक हमारा विश्व के व्यापार में ३३% तक का हिस्सा था जो  कृषि और उस पर चलाने वाले उद्योगों से निर्मित वस्तुओं का था| वास्तविकता यह थी कि हम केवल खेती ही नहीं करते थे बल्कि अन्य  कृषि आधारित उत्पादों का निर्माण व व्यापार भी करते थे| वह व्यवस्था गौ-कृषि-वाणिज्य पर आधारित थी और सही मायने में यही हमारे देश की अर्थव्यवस्था का वास्तविक वर्णन रहा है|

अंग्रजों के ज़माने में हमें जबरदस्ती कृषि प्रधान बनाया गया ताकि उनकी औद्योगिक क्रांति सफल हो| यहां के गांव-गांव में चलने वाले उद्योग अंग्रेजों ने नष्ट किए और उनका पक्का माल लेने के लिए हमें मजबूर किया गया जिसके चलते हमारी आर्थिक स्थिति खराब हो गई और हम पूरी तरह से खेती पर ही निर्भर हो गए|

पहले हमारे यहां खेती जीवनयापन का साधन था न कि व्यवसाय| अपनी और अपने गांव की आवश्यकता पूरी होने पर बचा हुआ सामान बाजार जाता था| आपस में लेन-देन का ही व्यवहार देश भर में प्रचलित था| पैसों का बहुत ही कम मात्रा में उपयोग होता था| धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन आता गया और पैसों का व्यवहार में महत्व बढ़ता गया जिस के कारण वस्तुओं के लेन-देन का काम कम हो गया|

१९४७ में जब हम स्वतंत्र हुए तब तक हमारे देश का अंग्रेजों ने इतना शोषण कर लिया था कि देश में लगभग सभी गांव अकाल की कगार पर खड़े थे| गांव की खेती की दुरावस्था इतनी गंभीर थी कि देश की ३३ करोड़ आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त अनाज भी देश में (५ करोड टन ) नहीं था| गांव की खेती पर चलने वाले उद्योगों की स्थिति अच्छी नहीं थी| रोजगार का एक मात्र साधन खेती ही बची थी|

नीतिकारों के दिमाग में देश की प्रगति के लिए बड़े उद्योग, बड़े बांध जैसे सपने थे और उस दृष्टि से उनके प्रयास चल रहे थे जबकि देश की सही नब्ज जानने वाले गांधीजी ने ‘चलो गांवों की ओर’ का मंत्र दिया था| उसके लिए चरखा और खादी को अपनाया था| उसका प्रचार मात्र केवल देशभक्ति दिखाने के लिए नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए था| परंतु पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास की योजनाएं चलाई गईं जिसमें कृषि को प्राथमिकता नहीं दी गई थी| ६० के दशक में भी यही परिस्थिति थी| अमेरिका से वह गेहूं आया करता था जो कि वहां जानवरों के लिए पैदा किया जाता था| पाकिस्तान के साथ के १९६५ के युद्ध में जमीन पर युद्ध जीत कर भी चर्चा में टेबल पर हार माननी पडी, जिसका गहरा सदमा शास्त्री जी को लगा और ताश्कंद से वे जीवित नहीं लौटे| उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ नारा इसीलिए दिया था|

शास्त्री जी के बाद इंदिरा गांधी ने अनाज के बारे में विदेशों पर निर्भरता को खत्म करने की दृष्टि से हरित क्रांति की पहल की जिसके परिणामस्वरूप १९९७ आते-आते हम अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गए| देश के कृषि विशेषज्ञ, किसान की मेहनत के कारण हम अनाज के मामले में स्वावलंबी हो गए| १९४७ में हम मात्र ५ करोड़ टन अनाज पैदा करते थे वह हरित क्रांति के बाद २३.६ करोड़ और आज वही २७ करोड़ टन के पास पहुंच गया है| यह बढ़ोत्तरी लगभग ५ गुना है जबकि जनसंख्या की बढ़ोत्तरी ४ गुना है|

इसी समयावधि में उद्योग क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, तेजी से बढ़ता गया| उसका सकल घरेलू उत्पाद में प्रतिशत भी बढ़ता गया| १९९० तक तो उद्योग और खेती का हिस्सा लगभग बराबरी का था| सेवा क्षेत्र का कम था| बाद में सेवा क्षेत्र का प्रतिशत बढ़ता गया जबकि निर्माण और खेती का हिस्सा कम होता गया| १९५०-५१ के बाद लगभग १० साल तक सेवा क्षेत्र का जीडीपी में  हिस्सा ३०% के आसपास रहा| बाद में खास कर के ९० के दशक के बाद सेवा क्षेत्र में काफी बढ़ोत्तरी हुई और उद्योग और खेती दोनों के एकत्रित हिस्से से भी आगे निकाल गया| किन्तु इसी समय में हमारे यहां के रोजगार भी घटते एवं बदलते गए|

अगर हम २०१४ के कृषि उत्पाद पर नजर डालते हैं तो ध्यान में आता है कि कुल कृषि उत्पाद १८००० अरब रुपए का हुआ था जो हमारे सकल घरेलू उत्पाद का ६.१% आता है जो विश्व के औसत से अधिक है|

अगर रोजगार की दृष्टि से देखते हैं तो ध्यान में आता है कि १९८३ में कृषि का जीडीपी में हिस्सा ४०% था और रोजगार ६८% देता था| २००९-१० में  कृषि का हिस्सा १४% रह गया और रोजगार ५४% दे रहा था| सभी प्रकार की कृषि उपज में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है| हरित क्रांति के कारण ही हम बाकी क्षेत्रों में अच्छा काम कर सके हैं| श्वेत क्रांति, पीली क्राति, नीली क्रांति- ये सब हरित क्रांति के अगले पड़ाव हैं|

१९७४ में स्व. इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षण करवाया था| उसके बाद राजीव गांधी सरकार के दौरान पूरी तैयारी होने के बावजूद, अमेरिका और अन्य विकसित राष्ट्रों के दबाव के कारण हम परीक्षण नहीं कर पा रहे थे| अगर परीक्षण करेंगे तो अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने की धमकी इन देशों ने दी थी जिसमें तकनीक, विज्ञान तथा खाने-पीने के सामान का व्यापार भी था| अनाज के मामले में परावलम्बी होने के कारण हमारे नेता इसकी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे| जैसे ही १९९६-९८ में हमने अनाज के बारे में आत्म-निर्भरता प्राप्त की, १९९९ में सभी प्रकार के दबाव के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु परीक्षण करने को हरी झंडी दे दी| और अपेक्षा के अनुसार अमेरिका और दुनिया के तमाम देशों ने सभी प्रकार के प्रतिबंध लगाए किन्तु उसका कोई विशेष असर देश पर नहीं पड़ा| सामान्य जनों को किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा और इसका प्रमुख कारण यह था कि हम अनाज में किसी पर निर्भर नहीं थे| इस बात को हमें समझना होगा| जब तक कोई भी देश कृषि में स्वावलंबी नहीं होता, आगे नहीं बढ़ सकता|

लम्बी परतंत्रता और पाश्चात्य सोच के कारण हमारे देश की अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव आ गया है| सभी लोगों को रोजगार देने वाली व्यवस्था बड़े उद्योगों के चलते समाप्त हो गई और जिनके रोजगार चले गए वे नया काम न आने के कारण, गांव में रहने के कारण खेती में ही रोजगार के अवसर तलाशने लगे| परिणामत: खेती पर बोझ बढ़ गया| सभी नीतिकार इसे कम करने की बात करते हैं किन्तु उनको क्या काम देंगे इस बारे में वे चुप्पी साध जाते हैं|

विगत कुछ दिनों में देश भर में किसानों का आक्रोश फूट पड़ा है| जून महीने में महाराष्ट्र से शुरू हुआ आंदोलन मध्यप्रदेश में हिंसक हो गया| मंदसौर में ६ किसान की बलि चढ़ गई| किन्तु इस आंदोलन के जो प्रमुख मुद्दे थे उनका समाधान नहीं हुआ| इस आंदोलन में मुख्य मांगें ये थीं कि कर्ज माफी हो और फसल को लाभकारी मूल्य मिले| जहां तक किसान संघ का सवाल है किसान संघ ने कभी कर्जमाफी का समर्थन नहीं किया क्योंकि यह कोई स्थायी समाधान नहीं है| परन्तु किसान को उसके मूल्य का लाभकारी मूल्य निश्चित ही मिलना चाहिए, यह उसका नैसर्गिक अधिकार है| यह आंदोलन सरकारों द्वारा किसानों की गई अनदेखी का ही नतीजा है| जिस प्रकार से अंग्रेजों ने खेती को मात्र प्राथमिक कच्चे माल का क्षेत्र बना कर रखा था, उसी प्रकार से स्वतंत्रता के बाद भी अभी तक स्थिति रही है|

कृषि हमारे लिए जीवनयापन और रोजगार के संदर्भ में महत्वपूर्ण क्षेत्र है| अनाज में स्वावलंबन भी बढ़ती हुई जनसंख्या तथा सार्वभौमत्व को ध्यान में रखते हुए अत्यावश्यक है| जीवन जब तक चलेगा तब तक मनुष्य को भोजन चाहिए ही और उसके लिए खेती भी होती रहेगी| सवाल यह है की यह खेती कौन करेगा? किसान करेगा की बड़ी-बड़ी कंपनियां करेंगी? अमेरिका जैसे देशों की स्थिति अलग है| वहां जनसंख्या कम है, जमीन ज्यादा है| वहां यंत्रीकरण चल सकता है| हमारे यहां जनसंख्या को ध्यान में रख कर नीति तय करनी होगी| आगे से हमे गौ-कृषि-वाणिज्य को ध्यान में रख कर योजना बनानी होगी| हमारे यहां जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े हो रहे हैं, इस संदर्भ गौ आधारित जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा| इससे खेती की लागत भी कम होगी और छोटे टुकडों पर बैलों से काम कराना आसान भी होगा| इसके साथ गांव-गांव में कृषि प्रक्रिया कुटीर एवं लघु उद्योगों के माध्यम से बढ़ावा देने की नीति अपनानी होगी|

यह वर्ष पं. दीनदयाल जी का जन्म शताब्दी का वर्ष हैं और उनके द्वारा प्रस्तुत  एकात्म मानव दर्शन के विचार को भी इसी वर्ष ५० साल पूरे हो रहे हैं| उन्होंने जो  “Not mass production, production by masses’ का विचार रखा था उसे नीति के तौर पर अपनाने की आवश्यकता है|  आधुनिक भारत का स्वरूप मात्र आज की तरह का कृषि प्रधान न हो बल्कि पूरे पर्यावरण का संतुलन बना कर रखने वाली जीवन शैली, गौ आधारित खेती और साथ में गांव में कृषि उपज पर आधारित व्यापार को बढ़ावा देने वाला हो|

 

 

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