मोदी चीन से रिश्तों में नया इतिहास रचेंगे?

प्रधान मंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की हाल की शिखर बैठक के कारण दोनों देशों की सभी समस्याएं चुटकी बजाते ही हल हो जाएंगी, यह मानना जल्दबाजी होगी। लेकिन यह अवश्य है कि दोनों देश पारंपरिक शत्रुता से समन्वय की ओर बढ़े हैं। यदि वे इसी मार्ग से और आगे बढ़ते हैं तो एक नया इतिहास रचा जाएगा और मोदी उसके नायक होंगे।

भारत-चीन रिश्तों में सुधार आने पर होनेवाले वैश्विक परिवर्तन की ओर इंगित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है, “विश्व में शांति तथा स्थिरता कायम कर समृद्धि लाने में भारत और चीन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।” इसके प्रतिसाद में चीन के राष्ट्रप्रमुख शी जिनपिंग ने कहा, “भारत तथा चीन में विश्व की लगभग 40% जनसंख्या बसती है। अत: दोनों देश मिलकर विश्व की अनेक समस्याओं को सुलझा सकते हैं। पिछले दो हजार सालों से भारत तथा चीन ने मिलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था को गति प्रदान की है। लगभग 1600 सालों से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इन दोनों देशों का वर्चस्व रहा है।” इन दोनों बयानों ने उनके बीच हुई शिखर बैठक के लिए अनुकूल माहौल पैदा कर दिया।

इन बयानों में मोदी तथा शी जिनपिंग एक दूसरे के देशों का गुणगान कर रहे हैं, यह आश्चर्य की बात अवश्य लग सकती है। क्योंकि, 1962 से कल-परसों तक युद्ध जैसेमाहौल में एक दूसरे पर आग उगलने वाले ये दोनों देश इस प्रकार एक दूसरे पर शब्द सुमन बरसा रहे थे। भारत के जो भी पड़ोसी देश हैं उनमें से भारत का पक्का शत्रु अर्थात चीन, भारत का कुटिल शत्रु अर्थात चीन, एशिया में भारत को चुनौती देनेवाला एकमात्र देश अर्थात चीन, जिसने अपने देश की सीमाओं के विस्तार की लालच में भारत के विविध सीमावर्ती राज्यों में घुसपैठ की हो वह देश अर्थात चीन। कुछ दिन पूर्व तक ही डोकलाम विवाद के चलते भारत और चीन के सैनिक एक दूसरे पर बंदूक ताने खड़े थे। किसी भी क्षण युद्ध की स्थिति निर्माण होने की संभावना के बीच दोनों देशों के राष्ट्रप्रमुखों द्वारा एक दूसरे के लिए गौरवपूर्ण बातें कहना आश्चर्य तो है ही, वर्तमान वास्तविकता भी है।

भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी तथा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच चीन के वुहान में अनौपचारिक मुलाकात हुई। इस अनौपचारिक मुलाकात में भारत और चीन के सम्बंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई है। दोनों नेताओं के बीच परस्पर सम्बंधों पर किसी भी प्रकार का समझौता भले न हुआ हो; परंतु इन दोनों की अनौपचारिक मुलाकात ही विश्व को एक संदेश दे गई है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इस मुलाकात के कारण दोनों देशों की सभी समस्याएं चुटकी बजाते ही हल हो जाएंगी; परंतु यह जरूर है कि दोनों पारंपरिक शत्रुता से समन्वय की ओर बढ़े हैं और अब तक बंद से लग रहे दरवाजे थोड़े अवश्य खुल गए हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊंचा उठने के भारत के हर प्रयास को विफल बनाने की चीन की नीति रही है। मोदी सरकार के आने के बाद परमाणु ऊर्जा आपूर्ति करनेवाले देशों के गुट में भारत का समावेश की बात हो या संयुक्त राष्ट्र  सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मसला हो- दोनों ही मुद्दों पर चीन ने रोड़ा लगाया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता में चीन ही सबसे बड़ा अडंगा है। पाकिस्तान से भारत में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देनेवाले अजहर मसूद को आतंकवादी न घोषित करने के प्रयत्नों में भी चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा होता है। पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरिडोर बनाने के लिए चीन ने पाकिस्तान के साथ करार किया है। उसके लिए पाकिस्तान को वह फौजी और तकनीकी मदद भी मुहैया कराता है।

चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ प्रोजेक्ट का भारत विरोध कर रहा है। तिब्बत, डोकलाम, अरुणाचल प्रदेश के साथ अन्य कई मुद्दों पर भारत तथा चीन के बीच विवाद है। विशेष बात यह है कि इसके पूर्व भी विगत 4 वर्षों में नरेंद्र मोदी तथा जिनपिंग लगभग दस बार एक दूसरे से मिल चुके हैं; परंतु इनमें से किसी भी मुलाकात के बाद चीन का भारत के प्रति दृष्टिकोण नहीं बदला है, यही सच है। अत: इस अनौपचारिक मुलाकात के बाद चीन की नीति में कुछ अंतर पड़ेगा इस भुलावे में भारत के जानकार नहीं आएंगे।

दोनों नेताओं की मुलाकात चीन के जिस वुहान नगर में हुई वह सुंदर जलाशयों वाला नगर है। वह माओ का मनपसंद नगर रहा है। यहां माओ का प्रसिद्ध बंगला भी है। यहीं पर उसने विभिन्न विदेशी नेताओं की मेहमाननवाजी की थी।चीन ने उसी नगर में नरेंद्र मोदी को आमंत्रित कर यह संदेश दिया है कि चीन भारत को विशेष महत्व दे रहा है। भारत की ओर देखने के चीन के दृष्टिकोण में अंतर साफ दिखाई दे रहा है। क्या वह भारत को एक ऐसे शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देख रहा है, जिसके साथ समन्वय बनाकर रखना चीन के लिए लाभदायी होगा? आर्थिक, सामरिक तथा सैनिकी दृष्टि से चीन कई गुना अधिक शक्तिशाली है। इस मामले में भारत की तुलना किसी प्रकार से चीन से नहीं हो सकती। फिर, ऐसे क्या कारण हैं कि चीन के मन में भारत के लिए इतना प्रेम और सौहार्द्र उमड़ रहा है? चीनी ड्रेगन ने अपने अडियल रवैये में इतना परिवर्तन कैसे कर लिया?

इन प्रश्नों के जवाब अंतरराष्ट्रीय घटनाओं में छिपे हैं। चीन अब विश्व के शक्तिशाली देशों की कतार में खड़ा हो रहा है। ऐसे में अपनी सीमाएं बढ़ाने, सीमाओं पर सैनिक तैनात करने जैसे छोटे-मोटे कामों में उसकी अब रुचि नहीं रही। प्रादेशिक विवादों में फंसने के बजाय वह एशिया के बाहर अपनी सीमाएं बढ़ाना चाहेगा। अमेरिका ने चीन के साथ ही एशिया के अन्य देशों से आनेवाले माल पर आयात शुल्क बढ़ा दिया है। इसका परिणाम चीन के निर्यात पर होगा। शी जिनपिंग अब लंबे समय तक चीन के राष्ट्राध्यक्ष रहेंगे। अगले छह वर्षों में चीन के सत्ताधारी दल को सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। 20-25 साल से लगातार सिर्फ दो अंकीय विकास तक सीमित रहने वाले चीन को अब वैश्विक महासत्ता बनने की आस है। वर्तमान में अमेरिका वैश्विक महासत्ता है। अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्था में अभी भी काफी अंतर है, यह बात वह जानता है। उसे अब केवल एशिया में वर्चस्व स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है। वह भारत से स्पर्धा नहीं करना चाहता। चीन जानता है कि, अगर वैश्विक महाशक्ति बनना है तो प्रादेशिक विवादों में नहीं फंसना चाहिए। अत: चीन अब भारत के साथ हाथ मिलाकर दूसरे राजनैतिक समीकरण जोड़ने में लगा है। इसी पृष्ठभूमि में भारत और चीन के बीच दो दिवसीय अनौपचारिक शिखर बैठक हुई। जानकार लोग इस बैठक की ओर भारत और चीन के बीच मैत्री का सूत्र जोड़नेवाली बैठक के रूप में देख रहे हैं। अगले साल भारत में लोकसभा चुनाव होनेवाले हैं। अतः प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चाहेंगे कि इस समय चीन की ओर से किसी भी प्रकार से युद्ध जैसी स्थिति न बने। वैसे भी, पाकिस्तान के हमले, आतंकवादियों की घुसपैठ चल ही रही है। ऐसे में चीन की ओर से अन्य कोई मुश्किल न खड़ी हो यह भारत की इच्छा है। भारत से लड़ते रहने के बजाय चीन को वैश्विक स्तर पर अपना दबदबा कायम करना है। ऐसी स्थिति में दोनों देशों का एकसाथ आना आवश्यक था।

जब दो देशों के नेता आमने-सामने आते हैं तो अक्सर मन का मैल साफ होने की संभावनाएं होती हैं। बिना मिले केवल चेतावनियों, धमकियों, आरोप-प्रत्यारोपों में समय व्यर्थ चला जाता है। मुख्य मुद्दा यह है कि युद्ध के बजाय संवाद का मार्ग ही उत्तम होता है। युद्ध से रक्षा कारोबार से जुड़े लोग लाभान्वित होते हैं। अत: सुरक्षा पर होनेवाला खर्च अधिक होकर विकास के लिए धन कम पड़ जाता है। इस पृष्ठभूमि में यह मुलाकत भारत और चीन की 260 करोड़ जनसंख्या को विकास के नए अवसर प्रदान करनेवाली हो सकती है। इस मुलाकात में दोनों देशों के बीच कोई करार नहीं हुआ है; परंतु यह दोनों देशों को जोड़ने वाली मुलाकात है। इन सारे सकारात्मक पक्षों के अलावा सतलुज-ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का प्रश्न, तिब्बत, भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को सहायता, वन बेल्ट वन रोड आदि मुद्दों पर हुआ मतभेद और एक दूसरे का बल तौलनेवाले अरुणाचल प्रदेश आदि जैसे प्रश्न अभी भी कायम हैं। वे एक ही भेंट में खत्म नहीं होंगे।

मोदी तथा जिनपिंग की इस अनौपचारिक भेंट का विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भरपूर मजाक उड़ाया है। देश में घटित होनेवाली हर बात पर राजनीति करना हमारी संस्कृति का ही एक अंग है। अत: राहुल गांधी का बर्ताव हमारी राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप ही था। सन 1954 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन की यात्रा की थी। उस समय भारत तथा चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ था। इसके बाद चीन ने भारत पर आक्रमण कर हजारों भारतीय सैनिकों और नागरिकों की जान ले ली थी। मोदी ने भी इस बार पंचसूत्री एजेंडा रखा है। उस एजेंडे की भी काफी चर्चा है। समान दृष्टिकोण, उत्तम संवाद, मजबूत रिश्ता, समान विचार तथा समान समाधान ये मोदी के पांच सूत्र हैं। चीन का आज तक का अनुभव देखा जाए तो यह डर बना रहता है कि कहीं नेहरू के पंचशील करार की तरह ही मोदी के पंचसूत्रों की भी दशा न हो जाए।

1954 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के चीन दौरे के तुरंत बाद ही भारत चीन युद्ध हुआ। 1962 के युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच के सम्बंध हमेशा ही तनावपूर्ण रहे हैं। 1988 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी का चीन दौरा ऐतिहासिक माना जाना चाहिए। तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति डेंग जिआओ पिंग ने राजीव गांधी को अपना छोटा भाई सम्बोधित कर एक भावनात्मक नाता निर्माण करने की औपचारिकता पूरी की थी। दो पड़ोसी देशों के सम्बंधों की पुनर्रचना करनेवाले बड़े प्रयत्नों के रूप में इस भेंट की ओर देखा जा रहा था। मोदी तथा शी जिनपिंग की वुहान में हुई अनौपचारिक भेंट की भी भारतीय तथा चीनी प्रसार माध्यमों नेप्रशंसा की है। इसे बीजिंग तथा दिल्ली के बीच की दीर्घकालीन नीतियों को मंच प्रदान करनेवाली भेंट कहा जा रहा है। दोनों देशों के प्रसार माध्यमों ने इसे भविष्य में द्विपक्षीय सहयोग के लिए नई शुरुआत के रूप में भी अधोरखित किया है।

भारत-चीन के रिश्तों के साथ जो बात है वही दोनों कोरियाई देशों और अमेरिका के साथ भी है। 1950 में उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण किया था। इसे ‘कोरियाई युद्ध’ कहा जाता है। यह युद्ध तीन सालों तक चला था। 1953 के बाद से इन दोनों देशों में युद्धबंदी लागू है। परंतु युद्ध का अंत अभी तक नहीं हुआ है। यही क्यों, उत्तर कोरिया के सर्वेसर्वा किम जोंग की तानाशाही के कारण लगातार हायड्रोजन बम का परीक्षण करके दक्षिण कोरिया और अमेरिका को ध्वस्त करने की बात कही जाती रही है। इसके कारण पूरे विश्व में चिंता का वातावरण बना हुआ था। संघर्ष की ऐसी स्थिति में अचानक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। कोरियाई भूमि को संघर्ष विराम की आवश्यकता है। साथ ही इस सम्पूर्ण क्षेत्र को परमाणु अस्त्रों से मुक्त किया जाना चाहिए और शांति के लिए निरंतर अवसर मिलना चाहिए। यह विचार उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के राष्ट्राध्यक्षों की भेंट के दौरान सामने आई और पूरी दुनिया ने राहत की सांस ली। 12 जून को उत्तर कोरिया के राष्ट्राध्यक्ष किम जोंग और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की सिंगापुर में भेंट होनेवाली है। कुछ दिनों पूर्व जो राष्ट्रप्रमुख एक दूसरे के विरोध में आग उगल रहे थे, जिनकी उंगलियां परमाणु बम की बटनों पर थीं वे राष्ट्रप्रमुख आज शांति के विचार के लिए मिलनेवाले हैं। परस्पर समन्वय के लिए चर्चा करने वाले हैं। दुनिया के पांच महत्वपूर्ण देशों भारत, चीन, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच यह संवाद विश्व में शांति स्थापित करने के लिए सहायक सिद्ध होगा।

भारत के लिए चीन एक बड़ी चुनौती है। चीन के साथ हुए करार और चर्चा कितनी ही लुभावनी क्यों न हो परंतु वह तात्कालिक समाधान देनेवाली ही होगी, यह आशंका मन में कायम है। इसके पूर्व भी चीन के साथ हुई चर्चाओं के बाद भारत ने भले ही संतोष का राग आलापा था परंतु चीन ने अपनी विस्तारवादी भूमिका से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। मोदी और जिनपिंग के बीच हुई अनौपचारिक भेंट के बाद यह प्रश्न उठता है कि क्या मोदी इस इतिहास के अपवाद बनेंगे?

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