अवसरवाद में फंसा कर्नाटक

कर्नाटक में सत्ता पाने के लिए कांग्रेस और देवेगौडा ने अवसरवाद का खेल खेला है। इसी कारण सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा को सत्ता से हट जाना पड़ा। जिस कांग्रेस ने कभी देवेगौड़ा को धोखा दिया था, उसीके साथ मिलकर वे अब सत्ता का चस्का लेने पर उतारू है।

क र्नाटक के चुनाव को लेकर सम्पूर्ण देश की राजनीतिक खेमें में जिस तरह से इसके परिणाम को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए एक सेमीफाइनल माना जा रहा था उस पर यहां के मतदाताओं ने कम से कम अर्द्ध विराम तो लगा ही दिया है।

कर्नाटक की पहचान जहां शैक्षणिक और आईटी बीटी के हब के रूप में थी अब उसमें राजनीतिक अवसरवादिता ने भी अपना नाम लिखा लिया है। 15 मई को हुए विधान सभा के चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया कि कर्नाटक की राजनीति की दिशा अवसरवादी होगी और किसी भी हालत में यहां सरकार का गठन किसी एक पार्टी नहीं कर सकेगी। हुआ भी यही, 104 सीटें पाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी भारतीय जनता पार्टी को राज्यपाल ने सरकार बनाने का न्यौता दिया परंतु 8 सीटों का समर्थन हासिल करने में भाजपा नाकाम रही। फलस्वरुप 17 मई को प्रातः साढ़े 9 बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले येड्डीयूरप्पा ने 52 घंटे बाद ही 19 मई को शाम साढ़े तीन बजे विश्वास प्रस्ताव के बाद सदन को सम्बोधित करते हुए अपना त्यागपत्र देने की घोषणा की, और सीधे राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया।

मुख्यमंत्री येड्डीयूरप्पा ने कहा कि उन्होंने अपनी राजनीतिक जीवन का आरंभ राज्य की जनता और खासकर किसानों की भलाई के लिए ही किया है। उन्होंने पूर्ववर्ती काँग्रेस सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि पिछले पांच सालों में 3500 से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या की, लेकिन उनकी समस्याओं के समाधान का कोई उपाय नहीं किया गया। राज्य में सिंचाई परियोजनाओं को ईमानदारी से लागू ही नहीं किया गया। उन्होंने सदन में उपस्थित सदस्यों से भावुक होकर आग्रह किया कि वे राज्य की जनता के हित में उनकी सरकार का समर्थन करें। परंतु विपक्षियों की पूर्व निर्धारित राजनीति के कारण उन्हें लगा कि सदन में उनकी सरकार को बहुमत हासिल नहीं होगा इसीलिए उन्होंने प्रस्ताव पर मतदान प्रक्रिया के पूर्व ही अपने सम्बोधन में ही इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। यहीं पर कर्नाटक में सबका विकास की चाहत रखने वाली भाजपा को सत्ता नहीं मिली; परंतु एक बार पुनः अवसरवादी राजनीति का पौधा लगा दिया गया। फर्क इतना था कि 2004 में जहां जद(से) और कांग्रेस गठबंधन में बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को मुख्यमंत्री का पद मिला था, परंतु 2018 की राजनीति में गठबंधन में बड़ी पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस को मुख्यमंत्री का पद जद(से) के एच.डी. कुमारास्वामी को देना पड़ा।

कर्नाटक के इस चुनाव की वास्तविक समीक्षा की जाए तो यही साबित होता है कि 2004 में 122 सीटों वाली कांग्रेस पांच साल तक राज्य में सत्ता पर काबिज रही परंतु 2018 के चुनाव में सिमट कर 78 पर पहुंच गई। इसी प्रकार जद(से) की संख्या 40 से खिसक कर 36 पर पहुंच गई। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी 40 सीटों से 104 पर पहुंची।

परंतु अवसरवादी राजनीति के कारण ही 104 सीटों वाली भाजपा को सत्ता हासिल न हो सकी। संख्याबल के खेल में भाजपा हार गई। कांग्रेस का उद्देश्य यही था कि किसी भी स्थिति में भाजपा की सरकार राज्य में नहीं बननी चाहिए। जनता दल से कहीं अधिक कर्नाटक का चुनाव कांग्रेस के अस्तित्व के लिए एक चुनौती बन गया था। पिछले तीन सालों के दौरान विभिन्न राज्यों में सत्ता को हासिल न कर पाने की कसक पार्टी नेतृत्व को हमेशा ही उसकी नाकामी की याद दिला रही थी। कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के बाद यह निश्चित हो गया था कि राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं बनेगी, इसीलिए जनादेश आने के पूर्व ही कांग्रेस ने जद(से) को बिनाशर्त समर्थन देने का वादा तो किया ही साथ ही मुख्यमंत्री का पद भी उसकी झोली में डाल दिया।

राज्य की राजनीत़ि में देवेगौड़ा का पारिवारिक जनता दल(से) एक बार पुनः राज्य की राजनीति का केन्द्रबिन्दु बन गया है। जनता दल(से) का गठन 1996 में जब कर्नाटक के नेता एच.डी. देवेगौड़ा को कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लेकर प्रधान मंत्री के पद से हटाया था तभी हुआ था। केन्द्र में भाजपा के विरोधी दलों ने कांग्रेस से बाहरी समर्थन लेकर सरकार का गठन किया था। जिसमें सबसे पहले देवेगौड़ा प्रधान मंत्री बने थे। वे उस समय कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर प्रधान मंत्री बनने गए थे। 10 माह में ही कांग्रेस ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जिससे वे पुनः राज्य की राजनीति में सक्रिय हो गए।

1994 का वह काल था जब भारतीय जनता पार्टी पर ‘साम्प्रदायिक’ होने का ठप्पा राज्य में लगा दिया गया था। उस समय रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में एकीकृत जनता दल के तहत चुनाव लड़ा गया था और देवेगौड़ा मुख्यमंत्री बने थे।

आज 2018 में भी राज्य की राजनीति में देवेगौड़ा परिवार की महत्ता बढ़ने का कारण यह है कि यहां के चुनाव में मतदाताओं ने किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं दिया। कांग्रेस पूरे पांच साल तक राज्य में सत्ता पर काबिज़ रही है, उसके मुख्यमंत्री सिद्धारामय्या सरकार के विरुद्ध ही भाजपा और जद ने चुनाव लड़ा। राज्य की जनता ने भी जनादेश कांग्रेस सरकार के विरुद्ध ही दिया। कर्नाटक विधान सभा के 224 स्थानों में से भाजपा 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी और 38 सीटें प्राप्त कर जद(से) तीसरी पार्टी के रूप में उभरी।

2004 में जब भाजपा को 79 सीटें और कांग्रेस को 65 तथा जनता दल को 58 सीटें  मिली थीं उस समय भी कांग्रेस ने ‘सेकुलरिटी’ के नाम पर जनता दल के साथ सरकार का गठन किया था। उस समय कांग्रेस से मुख्यमंत्री धरमसिंह और उपमुख्यमंत्री कुमारास्वामी बने थे। अब इस घटना को 14 वर्ष हो गए हैं। एक बार फिर ‘सेकुलरिटी’ के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस ने गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद पुनः जनता दल(से) को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया है। जब जनता दल(से) की 2004 में 58 सीटें थीं तो कुमारास्वामी कांग्रेस के साथ गठबंधन में उपमुख्यमंत्री थे, उन्हें मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य भाजपा के 79 विधायकों के सहयोग से मिला। उस समय उन्होंने भाजपा को ‘साम्प्रदायिक’ नहीं माना।

कुमारास्वामी ने पत्रकार वार्ता में बताया कि उस समय भाजपा के साथ सरकार बनाने के कारण उन्होंने अपने पिता की ‘सेकुलरी’ छवि पर दाग लगाने का काम किया था, आज उसी दाग को धोने के लिए वे कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार हुए हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने माना कि देश की राजनीति में सेकुलर होना और न होना राजनीतिक स्वार्थ की रणनीति पर तय होता है। हमने देखा है कि कितनी सरकारें ‘सेकुलर’ और ‘साम्प्रदायिक’ रही हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि वे अपने पिता को दुःख न पहुंचे इसलिए कांग्रेस के साथ जा रहे हैं।

केवल कर्नाटक में ही नहीं पूरे देश में कांग्रेस चाहती है कि जितनी क्षेत्रीय पार्टियां हैं वे भाजपा के खिलाफ खासकर, प्रधान मंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के विरुद्ध एक हों। बिहार, उत्तर प्रदेश और अब कर्नाटक में भी यही रणनीति कांग्रेस की ओर से अपनाई गई। कांग्रेस नेतृत्व चाहता है कि किसी भी तरह से कर्नाटक में भाजपा की सरकार का गठन न हो। इसी दृष्टि से उन्होंने 15 मई को पूरे परिणाम आने के पूर्व ही प्रदेश अध्यक्ष जी. परमेश्वर और मुख्यमंत्री सिद्धारामय्या से जनता दल को मुख्यमंत्री पद देने की घोषणा करा दी।        गौरतलब है कि इन्हीं, सिद्धारामय्या के विरुद्ध देवेगौड़ा और कुमारास्वामी ने मिलकर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप भी लगाए थे। सिद्धारामय्या की सरकार ने लोकायुक्त के अधिकारों को सीमित कर दिया और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो का गठन कर दिया, जो जनता दल के लिए एक बड़ा मुद्दा बना था। साढ़े तीन हजार किसानों की आत्महत्या से प्रभावित विधान सभा क्षेत्रों माण़्ड्या, रामनगर, चेन्नपट्टना और मागडी में कांग्रेस के विरुद्ध भारी मतों से जनता दल के उम्मीदवार विजयी हुए हैं। किसानद्रोही कांग्रेस सरकार के खिलाफ लड़ने वाले जनता दल को मालूम था कि उसकी अपनी सरकार तब तक नहीं बन सकती जब तक अन्य राष्ट्रीय दलों का सहारा न मिल जाए।

यहां उस घटना का उल्लेख करना समीचीन होगा, जब सार्वजनिक सभा में प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनता दल के नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष एच.डी. देवेगौड़ा की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे मेरे प्रधान मंत्री बनने के बाद लोकसभा से त्यागपत्र देने वाले थे तो मैंने उनसे आग्रह किया कि आपके अनुभवों का लाभ हम लोगों को मिलेगा इसलिए आप इस्तीफा न दें। वास्तव में 2014 के आम चुनाव के दौरान देवेगौड़ा ने कहा था कि ‘यदि नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बनेंगे तो मैं सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दूंगा।’ प्रधान मंत्री मोदी की प्रसंशा के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष देवेगौड़ा से यह स्पष्ट करने को कहा कि वे ‘सेकुलर’ खेमे में हैं या ‘कम्यूनल’ खेमे में। उसी समय देवेगौड़ा ने कहा था कि हमें यह बताने की जरूरत नहीं है लेकिन हम किसी भी स्थिति में भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाएंगे। फिर भी जब पत्रकारों ने 85 वर्षीय देवेगौड़ा से यह सवाल किया कि इस बार भी यदि विधान सभा में त्रिशंकु की स्थिति बनी तो कुमारास्वामी पिछली बार की तरह भाजपा के साथ जाएंगे, इस पर उन्होंने कहा कि वे कुमारास्वामी को परिवार से अलग कर देंगे। इसी बात को लेकर कुमारास्वामी ने कहा कि हमें भाजपा से भी प्रस्ताव मिला था परंतु पिता को दुःख न हो इसीलिए भाजपा के बजाय कांग्रेस से हाथ मिलाया।

जनता दल की राजनीति हमेशा ही राजनीतिक सौदेबाजी की ही रही है। जब 2004 में त्रिशंकु विधान सभा की स्थिति बनी कुमारास्वामी ने कांग्रेस के साथ ढाई-ढाई साल तक सत्ता में बने रहने का समझौता किया। लेकिन 20 माह के बाद ही जब कांग्रेस से खटकी तो भाजपा के साथ 20-20 माह तक सत्ता में बने रहने का समझौता किया। और, इस समझौते में छोटी पार्टी होते हुए भी वे मुख्यमंत्री बने। लेकिन 20 माह बाद भाजपा को सत्ता सौंपने से मना कर दिया। फलस्वरूप, विधान सभा का मध्यावधि चुनाव 2008 में हुआ। इस चुनाव में भाजपा 110 सीटों पर जीती, जो बहुमत से तीन सीटें कम थीं। जनता दल 28 पर सिमट गया। लेकिन उसका प्रभाव पुराने मैसूर क्षेत्र पर ही बना रहा।

कर्नाटक में पिछले 10 वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी विधान सभा की स्थिति त्रिशंकु हुई है उस समय जनता दल ने राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की है, और सफल रहा है।

2018 का चुनाव भी उसके लिए राजनीतिक लाभ का अवसर बना है। कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर कुमारास्वामी ने राज्यपाल को सरकार बनाने के दावा करने वाला ‘संयुक्त’ पत्र सौंपा है।

क्या कर्नाटक की राजनीति का आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव पर असर होगा? क्या लोकसभा की 28 सीटों पर भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस और जनता दल एक विरुद्ध एक उम्मीदवार की रणनीति अपनाएंगे? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर अभी से राजनीतिक विश्लेषकों के बीच चर्चा की जाने लगी है। यह भी माना जाता है कि अब गठबंधन सरकार के सामने महादायी नदी जल बंटवारा, किसानों की ऋणमाफी, फसलों के समर्थन मूल्य से डेढ़ गुना का भुगतान के ये तीन महत्त्वपूर्ण मुद्दे होंगे। कांग्रेस ने अपने पांच साल के कार्यकाल में इन तीनों समस्याओं का कोई हल नहीं निकाला, जो गौरतलब है।

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