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संस्कृत सम्भाषण तथा अध्ययन की भाषा हो

संस्कृत सम्भाषण तथा अध्ययन की भाषा हो

by pallavi anwekar
in अगस्त २०१८, साक्षात्कार
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आज दुनिया के कई देशों ने यह मान लिया है कि कम्प्यूटर के लिए भी सबसे शुद्ध भाषा संस्कृत है। परंतु इसका व्यावहारिक उपयोग न्यूनतम है। संस्कृत भारती के द्वारा पिछले कई वर्षों में संस्कृत के प्रसार और सम्भाषण पर जोर दिया जा रहा है। संस्कृत से सम्बंधित विविध मुद्दों पर संस्कृत भारती के महामंत्री श्रीश देवपुजारी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

त्रिभाषा सूत्र क्या है?

सन 1986 से लागू हुई शिक्षा नीति के अंतर्गत यह त्रिभाषा सूत्र लागू किया गया था। इसके अनुसार कक्षा छठवीं से आठवीं तक के पाठ्यक्रम में तीन भाषाएं पढ़ानी आवश्यक है। इन तीन भाषाओं में से पहली भाषा प्रादेशिक होगी, दूसरी अन्य प्रदेश की हो और तीसरी विदेशी हो यह आवश्यक किया गया।

इन मुद्दों पर अंग्रेजी मीडिया में इस प्रकार हल्ला मचाया जा रहा था कि जैसे संस्कृत विदेशी भाषा हो और जर्मन संविधान की अधिसूचित भाषा?

मेरा मानना यह है कि जिन लोगों को हल्ला मचाना होता है वह तो मचाते ही हैं। उनका उद्देश्य किसी न किसी बहाने सरकार को घेरने का होता है। वे हर बार कोई मुद्दा ढ़ूंढ़ते रहते हैं। परंतु इस बार उन्होंने भाषा का यह जो मुद्दा उठाया है वह आधारहीन है, इसलिए ही वह सर्वोच्च न्यायालय में नहीं टिक पाया।

जर्मन भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाए जाने के आदेश को लेकर बहस छिड़ी थी। इस पर आपके क्या विचार हैं?

यहां केवल संस्कृत ही मुद्दा नहीं था, वरन अन्य कोई प्रादेशिक भाषा यह मुद्दा था। यह नियम बनाया गया तब अन्य प्रादेशिक भाषा के लिए दक्षिण के लोगों ने सोचा कि हिंदी कठिन है अत: उन्होंने संस्कृत को चुना और उत्तर के लोगों को भी दक्षिण की कोई भाषा से संस्कृत सरल लगी इसलिए उन्होंने भी संस्कृत को चुना। अत: यह मुद्दा केवल जर्मन और संस्कृत पर टिक गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि यदि विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाई जा रही है तो अन्य कोई विदेशी भाषा नहीं पढ़ाई जाएगी। फिर वह फेंच हो, जर्मन हो या अन्य कोई। अंग्रेजी के स्थान पर ही ये भाषाएं पढ़ाई जा सकती हैं, उसके साथ नहीं। अत: जिसने भी अन्य प्रादेशिक भाषा के स्थान पर जर्मन भाषा की बात की उनका आधार ही गलत है।

भाषाओं की जेल हो रही है और हम उसमें फंसते जा रहे हैं?

मुझे इसके ठीक विपरीत परिस्थिति दिखाई देती है। आज के विद्यार्थी कोई भी भारतीय भाषा ठीक से नहीं बोलते। अर्थात बिना अंग्रेजी के शब्दों का या अन्य किसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किए वे भारतीय भाषा नहीं बोलते। वे मिश्रित भाषा बोलते हैं।

जब भारतीय भाषाओं का सम्मेलन होता है तब वह सम्मेलन भी अंग्रेजी में चलाया जाता है क्योंकि कोई भी एक भारतीय भाषा वहां उपस्थित सभी लोगों को समझ में नहीं आती। स्वतंत्रता के 71 सालों के बाद भी हमारी यह परिस्थिति है। हमें यह सोचना होगा कि इस समस्या से कैसे छुटकारा मिलेगा।

आज के दौर में संस्कृत पढ़ने का क्या फायदा है?

आज अगर हम देखते हैं कि हमारे पास जो भी ज्ञान है वह विदेश से आयातित है। हम अंग्रेजी पढ़ते हैं अत: हमें, वह ज्ञान प्राप्त होता है। परंतु भारतीय ज्ञान के भंडारों का जो अनुपम उपहार हमें प्राप्त है, उसका हम उपयोग ही नहीं कर पाते, क्योंकि वह सारा संस्कृत में ही है और हमें संस्कृत नहीं आती।

दूसरी बात यह है कि आज के ज्ञान का उद्देश्य केवल अर्थाजन है। उस ज्ञान से आत्मिक शांति या जीवन का विकास सम्भव नहीं है। लोगों को यह लगता है कि अर्थाजन कर लेने से जीवन विकसित हो जाएगा परंतु ऐसा नहीं है। उससे केवल जीवन निर्वाह के साधन विकसित होंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो आज महाविद्यालयों में म. गांधी या स्वामी विवेकानंद की जगह मुकेश अम्बानी की तस्वीर होती। अत: जो ज्ञान आत्मिक शांति या जीवन के विकास के लिए आवश्यक है, वह भारतीय दर्शन में ही है और भारतीय दर्शन का गहराई से अध्ययन करने के लिए संस्कृत सीखनी व समझनी आवश्यक है।

संस्कृत के प्रति हमारे देश में उपेक्षा का भाव क्यों है?

प्राचीनकाल से अब तक हमारे देश की अधिकतम जनसंख्या ‘चार्वाक दर्शन’ के अनुसार चल रही है। ‘चार्वाक दर्शन’ का अर्थ है- ‘खाओ, पीओ, मजा करो’। उपभोग ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। इस तरह से जीवनयापन करनेवाले लोगों को संस्कृत सीखकर अन्य कुछ जानने की इच्छा ही नहीं होगी। अत: वे संस्कृत की उपेक्षा करेंगे ही। परंतु अधिक जानने की इच्छा रखनेवाले लोग जरूर सीखेंगे। वास्तव में भारतीय दर्शन में पुण्य की जो संकल्पना है, उसके लिए तो अंग्रेजी में शब्द भी नहीं है। पाप के लिए ‘सिन’ शब्द है, परंतु पुण्य के लिए कोई शब्द नहीं। अत: उपभोगवादी जीवन से अलग हटकर जो लोग सोचना चाहते हैं, उनके मन में संस्कृत के प्रति उपेक्षा का भाव कभी नहीं आएगा।

संस्कृत को लोगों तक पहुंचाने के लिए क्या करना चाहिए?

मार्ग तो कई हैं। आज जो प्रचलित मार्ग हैं उनसे अलग मार्ग भी सोचे जा सकते हैं। आवश्यकता है इच्छाशक्ति की। अगर इच्छा होगी तो मार्ग अपने आप निकल आएंगे। सबसे पहले तो यह इच्छाशक्ति नीतिनिर्धारकों में होनी चाहिए। उसके बाद उसका क्रियान्वयन करनेवालों में होनी चाहिए।

जिन विद्यालयों में संस्कृत छोटी कक्षाओं में पढ़ाई जा रही है, उनमें प्रारंभिक रूप में भाषा का सरलीकरण होना चाहिए। अगर कोई विद्यार्थी शास्त्राध्ययन करना चाहे तो उसका भाषा पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।

दक्षिण पूर्व एशिया के देशों की भाषाएं संस्कृत से किस प्रकार करीब हैं?

वहां की सभ्यता का मूल भारत ही है। यहीं से उसका उगम हुआ है। अत: इसमें कोई दो मत नहीं है कि दक्षिण पूर्व की भाषाएं संस्कृत के करीब हैं। थायलैंड के राजा अपने नाम के आगे ‘राम’ लगाते हैं। ‘राम’ शब्द का अर्थ है ‘रमन्ते योगिन: तस्मिन स: राम:’। यह अर्थ केवल इसलिए नहीं है क्योंकि राम दशरथ के पुत्र हैं। यह अर्थ उस शब्द विशेष का है। संस्कृत के कई शब्द इसी प्रकार विविध अर्थ में जावा, मलेशिया, इण्डोनेशिया, सुमात्रा आदि देशों की भाषाओं में प्रचलित हैं।

संस्कृत को किसी एक धर्म की या उच्चवर्णियों की भाषा कहा जाता है। इस पर आपका क्या मत है?

मुझे तो यह आधारहीन आरोप लगता है क्योंकि संस्कृत भाषा पढ़ने के लिए, अपनाने के लिए कभी भी किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था। संस्कृत साहित्य में कई जगह ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि यह जनभाषा थी।

दूसरी बात आती है धर्म विशेष की तो हमारे यहां धर्म का अर्थ है नियम। हमारे संस्कृत विश्वविद्यालयों में धर्मशास्त्र पढ़ाया जाता है। परंतु जो लोग धर्म का अर्थ रिलिजन के रूप में लेते हैं वे इस तरह की भ्रांतियां फैलाने का कार्य करते हैं। धर्म पर चलना अर्थात अनुशासन से चलना, नियमों पर चलना। अगर किसी को परीक्षा अच्छे गुणों से उत्तीर्ण करनी है तो उसे कुछ नियम बनाकर चलना होगा। यही उसका धर्म होगा।

संस्कृत किसी समय में जनभाषा व ज्ञानभाषा थी। यह आप कैसे स्पष्ट करेंगे?

लोगों के अध्ययन का माध्यम संस्कृत था। लोग जो भी लिखते थे, पढ़ते थे, वह संस्कृत में होता था। इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा थी। पाली, प्राकृत तथा अन्य भाषाएं भी थीं। लोग बोलते भी थे, परंतु गुरुकुलों में पढ़ाई का माध्यम संस्कृत था। इसलिए केरल में जन्मे आदि शंकराचार्य ने अपनी रचनाएं संस्कृत में लिखीं। वे भी स्थानीय भाषा में लिख सकते थे। परंतु पूरे देश को जो भाषा समझे उसमें रचना करने की इच्छा होने के कारण उन्होंने संस्कृत में रचनाएं कीं। केवल आदि शंकराचार्य ने ही नहीं सभी आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे।

संस्कृत मृतभाषा है, यह शास्त्रीय परंतु अर्धसत्य विधान है। क्या आपको ऐसा लगता है?

यह विधान तर्कहीन है। मृतभाषा उसे कहा जाता है जिसे कोई बोलता नहीं। भारत में 2011 में हुई जनगणना के आंकडे अभी प्रकाशित हुए हैं। उसमें चौबीस हजार लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा लिखा है। साथ ही कुछ लाख लोगों ने दूसरी व तीसरी भाषा संस्कृत लिखी है। फिर यह मृतभाषा हो ही नहीं सकती।

संस्कृत को राजभाषा बनाने के लिए जो आंदोलन हुए उसका क्या परिणाम हुआ?

आंदोलन तो विशेष कोई नहीं हुआ। भाषा आंदोलन जो खड़ा किया गया था वह संस्कृत भारती ने ही खड़ा किया था। अभी राजभाषा हिंदी है। परंतु यह भी एक असफल प्रयोग है। मूलत: पूर्वी भारत और दक्षिणी भारत हिंदी के प्रति आग्रही नहीं है। इसका प्रमुख कारण स्वयं हिंदी भाषी लोग भी हैं। हिंदी का अधिकतम प्रसार चलचित्रों के कारण हुआ है। परंतु चलचित्रों में प्रयोग की जाने वाली भाषा शुद्ध हिंदी नहीं है। वह उर्दूनिष्ठ हिंदी है। हिंदी भाषी लोग भी शुद्ध हिंदी नहीं बोलते और तर्क देते हैं कि भिन्न-भिन्न भाषा के शब्द लेने से भाषा का विकास होता है। हिंदी प्रयोग असफल हो गया है। अब फिर यह प्रश्न है कि कौन सी भाषा राजभाषा हो जो सभी की समझ में आए। कोई भी प्रांतीय भाषा पूरे देश को समझ में नहीं आएगी। अत: एक ही भाषा बचती है, वह है संस्कृत। यहां एक बिंदु यह भी है कि संस्कृत के प्रति लोगों के मन में श्रद्धा है। इससे भी उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी।

संस्कृत के प्राचीन वैभवशाली वाङ्मय को आप कैसे स्पष्ट करेंगे?

निश्चित ही यह एक समृद्धशाली भाषा और वाङ्मय है। उसमें लिखी हुई बातें जीवन के अनुभवों के आधार पर लिखी हुई हैं। आज विश्व के सामने जो समस्याएं हैं उन सभी का निराकरण भारतीय दर्शन में है। यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 देशों के समिट में कही थी कि दुनिया के सामने अभी जो दो प्रमुख समस्याएं हैं वे हैं पर्यावरण और आतंकवाद। इनका निराकरण अन्य देशों के पास नहीं है परंतु भारतीय चिंतन में है। हम संस्कृत सीखकर तथा इस चिंतन को पढ़कर विश्व को बचा सकते हैं।

क्या संस्कृत को समाप्त करने का षड्यंत्र चल रहा है?

संस्कृत को तो नहीं परंतु संस्कृत को आधार बनाकर भारतीय संस्कृति पर आघात होते रहते हैं। इसमें अमेरिका अग्रणी है। कुछ विदेशी लोग संस्कृत का अध्ययन सकारात्मक रूप से करते हैं और कुछ इसलिए करते हैं जिससे यह ढ़ूंढ़ा जा सके कि कमियां कहां हैं और उन कमियों को आधार बना कर भारत पर आघात किया जा सके, उसे किसी तरह से विभाजित कर सकें।

भारत की सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं के घोषवाक्य संस्कृत में हैं। फिर उनके दैनंदिन कार्यों में संस्कृत का समावेश क्यों नहीं है?

क्योंकि उनको केवल वाक्य तक ही सीमित रहना है। उसे आचरण में नहीं लाना है। क्या सत्यमेव जयते जिनका घोषवाक्य है, वे कभी इसे आचरण में लाते हैं? अत: बोलने, सुनने, पढ़ने तक तो ठीक है परंतु आचरण में लाना बहुत कठिन है।

संस्कृत के संदर्भ में जनजागृति लाने के लिए संस्कृत भारती किस प्रकार कार्यरत है?

संस्कृत भारती के माध्यम से हम लोगों से आग्रह करते हैं कि वे संस्कृत सीखें, उसमें बात करने का प्रयत्न करें। लोग हमसे पूछते हैं कि इसकी क्या आवश्यकता है। हमें उन्हें तार्किक दृष्टि से यह समझाना होता है कि संस्कृत पढ़ना क्यों आवश्यक है।

आपकी संस्कृत में रुचि कैसे उत्पन्न हुई?

वैसे तो मैंने ग्यारहवीं तक संस्कृत विषय के रूप में पढ़ी थी। केंद्रीय विद्यालय की कुछ परीक्षाएं भी दी थीं। अत: मेरी रुचि तो थी। इंजीनियरिंग की पढ़ाई आदि के कारण उससे कुछ समय के लिए दूरी बढ़ गई थी। फिर 1994 में संस्कृत भारती से जुड़ने का अवसर मिला। उनके पत्राचार के माध्यम से होनेवाले पाठ्यक्रमों की तीन परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं। मुझे संस्कृत बोलने का अभ्यास नहीं था। परंतु जब से संस्कृत भारती का दायित्व आया तब से सम्भाषण भी सीख गया।

आज के दौर में संस्कृत का व्यावहारिक उपयोग किस प्रकार हो सकता है?

यह तो भाषा है। भाषा का जितना वार्तालाप के माध्यम से उपयोग होगा उतना ही अधिक प्रसार और व्यावहारिक उपयोग होगा।

दसवीं-बारहवीं तक संस्कृत स्कोरिंग विषय होता है। परंतु ग्रेजुएशन में संस्कृत भाषा लेकर उसका शास्त्रशुद्ध अध्ययन करने वाले लोग बहुत कम होते हैं। ऐसा क्यों?

इसका मुख्य कारण यह है कि लोग व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की ओर बढ़ जाते हैं जिसमें संस्कृत नहीं है। ज्ञानार्जन करने के लिए संस्कृत आवश्यक है, इसलिए इसे पढ़ना चाहिए यह किसी को नहीं लगता।

कम्प्यूटर में संस्कृत का उपयोग कैसे हो सकता है?

मैंने अनुसंधानकर्ताओं से जो सुना है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के पीछे जो लोग लगे हुए हैं, जो विमान या ड्रोन बन रहे हैं उसे नियंत्रित तो कम्प्यूटर ही करता है। इसमें संस्कृत सहायक हो सकती है। दूसरी एक बात जो लैंग्वेज प्रोसेसिंग की आती है वहां निश्चित ही संस्कृत का उपयोग होगा क्योंकि उससे शास्त्रशुद्ध भाषा अन्य कोई नहीं है।

संस्कृत विद्यापीठ कहां-कहां हैं? उनकी भूमिका क्या है?

अभी कुल 15 विद्यापीठ हैं जिसमें शास्त्रों का समान अध्ययन अध्यापन होता है। हमारा प्रयास यह है कि इनमें किसी एक विषय विशेषज्ञता प्राप्त करें। साथ ही समाज में आजकल जो समस्याएं हैं उसके सम्बंध में संस्कृत ग्रंथों में जो निराकरण दिए गए हैं, उनका भी अध्यापन हो, यह प्रयास है। लिव इन रिलेशनशिप या सेरोगेसी जैसी जो समस्याएं आज उत्पन्न हो रही हैं उनको रोकने के मार्गों के दिशानिर्देश देने की भूमिका में ये विद्यापीठ आ सकते हैं। यहां से पढ़कर निकले हुए लोग या अध्यापक भी विदेशों में संस्कृत के शिक्षक की भूमिका में आ सकते हैं।

2015 में थाइलैंड में 16हवां वैश्विक संस्कृत सम्मेलन हुआ। इसकी भूमिका क्या है?

ऐसे सम्मेलन हर पांच वर्ष में होते रहते हैं। लोग आकर अपने शोधनिबंध पढ़ते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं होता। सबसे बड़ी विड़म्बना तो यह है कि संस्कृत सम्मेलन तो है पर संस्कृत भाषा में नहीं होता, अंग्रेजी में होता है।

क्या वर्तमान सरकार संस्कृत संवर्धन के लिए अपेक्षित योगदान दे रही है? किस प्रकार?

अपेक्षित तो नहीं परंतु कुछ योगदान जरूर कर रही है। कुछ मंत्री हैं जो संस्कृत के लिए स्वयं योगदान करते हैं। स्मृति ईराणी जब मानव संसाधन मंत्री थीं तो हमने उनसे कहा कि आप एक समिति बनाकर संस्कृत की उन्नति के लिए आवश्यक रोड मैप तयार करें। उन्होंने तैयार तो किया परंतु क्रियान्वयन जिन अधिकारियों के हाथ में होता है, उनका संस्कृत से कोई लेना देना नहीं है। इसी तरह सुषमा स्वराज भी संस्कृत के प्रति आस्था रखती हैं इसलिए उन्होंने योग दिवस के दिन भारत से विदेश में ऐसे वक्ता भेजे थे जो संस्कृत तथा अंग्रेजी में संभाषण कर सकते थे। उन्होंने हर भारतीय दूतावास में संस्कृत शिक्षक नियुक्त करने की प्रक्रिया भी शुरू की है।

इजराइल ने हिब्रू जैसी मृतप्राय भाषा को पुनर्जीवित किया, उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया, यह तत्व संस्कृत भाषा को लागू क्यों नहीं होता?

वहां के लोगों की और देश के नागरिकों की इच्छा शक्ति थी इसलिए वह हो पाया। अगर हम भी इस तरह से प्रयास करेंगे तो निश्चित ही संस्कृत भी हमारी राजभाषा हो सकती है।

 

 

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