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विरोध का तरीका अटलजी से सीखें

विरोध का तरीका अटलजी से सीखें

by रचना प्रियदर्शिनी
in अनंत अटलजी विशेषांक - अक्टूबर २०१८
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अटल जी जितने निष्पक्ष तरीके से विपक्षी पार्टियों के नेताओं की आलोचना करते थे, उतनी ही दिलेरी से वे अपनी आलोचना सुनने का भी साहस रखते थे। यही कारण है कि विरोधी भी उनकी बात को बड़ी तल्लीनता से सुनते थे। उनके व्यक्तित्व की यही ऊंचाई उन्हें भारतीय राजनीति का पितामह बनाती है।

 

‘भारतीय राजनीति के पितामह’ का दर्जा पाने वाले मा. अटल बिहारी वाजपेयी का देहांत हुए माह बीत रहा है। इस दौरान प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया से लेकर अपने आस-पड़ोस तक में उनके बारे में तमाम तरह की बातें पढ़ने, सुनने और जानने को मिलीं। इनमें ऐसी भी बातें सामने आईं कि अटलजी के प्रति किसी की नकारात्मक सोच पर उनके चहेते भावुक हो उठे और संघर्ष पर उतारू हो गए। अटल जी, विरोध को इस रूप में कभी नहीं लेते थे। वे वैचारिक विरोध के पक्षधर थे, व्यक्ति-विरोध के नहीं। उनका विरोध भी शालिनता के दायरे में होता था। हमें उनसे यह सीख अवश्य लेनी चाहिए।

मा. वाजपेयी जी ने हमेशा अपनी आलोचनाओं का स्वागत किया। वे तो स्वयं यह कहते थे-

हास्य-रुदन में, तूफानों में

अमर असंख्यक बलिदानों में

उद्यानों में, वीरानों में

अपमानों में, सम्मानों में

उन्नत मस्तक, उभरा सीना

पीड़ाओं में पलना होगा

कदम मिलाकर चलना होगा।

अर्थात वह भी इस बात को स्वीकार करते थे कि इंसान चाहे कितने भी बलिदान क्यों न दे लें, चाहे कितनी भी ऊंचाइयां हासिल क्यों न कर लें, वह खुद को आलोचनाओं से नहीं बचा सकता। हमें उन आलोचनाओं को अपने साथ ढोते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा।

जब देश में आपातकाल लगा, तो सरकार ने यह दलील दी कि देश में फैली अराजकता की स्थिति को सुधारने के लिए आपातकाल लगाया गया है। इसके बाद 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इंदिरा जी के इस फैसले के विरोध में वाजपेयी जी ने अपनी एक कविता के जरिये तत्कालीन सरकार की कड़ी आलोचना  की-

अनुशासन के नाम पर, अनुशासन का खून

भंग कर दिया संघ को, कैसा चढ़ा जुनून

कैसा चढ़ा जुनून, मातृपूजा प्रतिबंधित

कुलटा करती केशव-कुल की कीर्ति कलंकित

यह कैदी कविराय तोड़ कानूनी कारा

गूंजेगा भारतमाता- की जय का नारा…

इसके बावजूद इंदिरा गांधी के साथ उनके रिश्ते कभी तल्ख नहीं हुए। अक्सर सदन के गलियारों में वे एक-दूसरे के संग हास्य रस का आनंद लेते नजर आए। एक बार वाजपेयी जी के भाषण देने के अंदाज पर चुटकी लेते हुए इंदिरा गांधी ने मजाक में कहा था कि ’वे हाथ हिला-हिलाकर बात करते हैं।’ इस पर अटल जी ने भी बड़े ही चुटीले लहजे में जवाब देते हुए कहा कि ’वह सब तो ठीक है कि मैं हाथ हिला-हिलाकर बात करता हूं लेकिन क्या आपने (इंदिरा गांधी) किसी को पैर हिलाकर बात करते देखा है?’ उनकी इस बात पर पूरे सदन में ठहाका गूंज पड़ा। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी खुद को हंसने से रोक नहीं पाईं।

विरोधी भी कायल थे अटल जी की वाक्पटुता के

दरअसल जितने निष्पक्ष तरीके से वे विपक्षी पार्टियों के नेताओं की आलोचना करते थे, उतनी ही दिलेरी से वे अपनी आलोचनाएं सुनने का भी साहस रखते थे। यही कारण है कि विरोधी भी उनकी बात को बड़ी तल्लीनता से सुनते थे। भारतीय राजनीति के लगभग सभी नेता उनकी वाक्पटुता और तर्कों के कायल रहे हैं। यह उनकी कुशल भाषा शैली और उदार व्यक्तित्व का ही कमाल था कि वर्ष 1994 में विपक्षी नेता होने के बावजूद केंद्र की कांग्रेस सरकार ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारतीय प्रतिनिधि मंडल की नुमाइंदगी अटल जी को सौंपी थी। किसी सरकार का विपक्षी नेता पर सरकार का यह भरोसा आज भी पूरे विश्व के लिए एक उदाहरण है।

यह वाजपेयी जी की अद्भुत वाक्पटुता का ही कमाल था कि पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए जब वह ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा करके बाघा बॉर्डर के रास्ते पाकिस्तान पहुंचे, तो मंच पर खड़े होकर अपने भाषण में पाकिस्तान को फटकार लगाते हुए कहा- ’आप दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं। इतिहास बदल सकते हैं, भूगोल नहीं।’ तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष मुशर्रफ को यह बात भले ही नागवार गुजरी हो, लेकिन वह क्या, पूरा पाकिस्तानी अवाम आज भी वाजपेयी जी की इस बात से इंकार नहीं कर सकता।

’नेता विपक्ष’ के बजाय ’नेता प्रतिपक्ष’ का संबोधन करना था पसंद

इस तरह वह विरोधियों की कड़ी आलोचना भी इस अंदाज में करते थे कि सामने वाला यह जानते-समझते हुए भी उनकी बात से सहमत हुए बिना नहीं रह पाता था। भारतीय संसद में भी विपक्ष यह जानते और समझते हुए भी उन्हें सुनने को मजबूर होता था। वह कभी भी ’विपक्ष’ शब्द का उपयोग नहीं करते थे। उनका मानना था कि राजनीति में विपक्ष नहीं होता, ’प्रतिपक्ष’ होता है। संसद में प्रधानमंत्री के रूप में भाषण देते हुए वह हमेशा ’नेता विपक्ष’ के बजाय ’नेता प्रतिपक्ष’ का संबोधन किया करते थे। उनके अनुसार, एक सरकारी पक्ष है तो दूसरा प्रतिपक्ष है और वह भी देश का उतना ही शुभचिंतक है, जितनी कि सरकार है। राजनीति में कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं होता, इसलिए किसी को शत्रु मानना गलत है। विरोधी हो सकते हैं शत्रु नहीं। इसी तरह, विश्वासमत पर चर्चा के दौरान जब सदस्यगण एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप कर रहे थे, तो उन्होंने कहा था- ’कमर के नीचे वार नहीं होना चाहिए। नीयत पर शक नहीं होना चाहिए।’

अ्रंत में, बस इतना ही कहना चाहूंगी कि किसी भी व्यक्ति के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा या सम्मान (जो भी आपको उचित लगे) दर्शाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि हम उसके जीवन की अच्छाइयों को अपना लें, वरना चांद में भी ’दाग’ है और सूरज में भी ’आग’ है। तय आपको करना है कि आप उनकी शीतलता या जीवनदायिनी ऊर्जा के संवाहक बन कर दुनिया में उनकी रोशनी फैलाते हैं अथवा खुद को उस आग में जला कर अमावस्या की काली छाया में गुम हो जाते हैं।

 

 

रचना प्रियदर्शिनी

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