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समाज की एकता पर ही  राष्ट्र की एकता निर्भर है

समाज की एकता पर ही राष्ट्र की एकता निर्भर है

by हिंदी विवेक
in अनंत अटलजी विशेषांक - अक्टूबर २०१८
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आज बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता है। भगवान वामन ने तो तीन कदमों में जमीन, पाताल और आकाश सबको परिव्यापित कर दिया था। सामाजिक सुधारों की बात जहां हों, वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा होगी, तो एक कदम में- एक ही कदम रखकर पूरा देश परिव्यापित कर सकते हैं।

फिलहाल एक और विभाजन की तैयारी चल रही है। उसके खिलाफ संघर्ष करना होगा और वैसा संघर्ष करने के लिए समाज में जो दुर्बलता है, खामियां हैं, त्रुटियां हैं उन्हें दूर करना आवश्यक है। आज सुबह मैंने उल्लेख किया था कि उत्तर प्रदेश में, बिहार में हमें अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिली? और उत्तर में मैंने कहा था कि समाज विभाजित है, एक वर्णव्यवस्था से विभाजित है, एक जातिव्यवस्था से विभाजित है। जातियों में उपजातियां हैं और यदि वे जब तक रोटी-बेटी व्यवहारों तक सीमित रहती हैं तब तक तो कुछ ठीक चलता है, परंतु कभी-कभी छोटी-छोटी निष्ठाएं व्यापक हितों के आड़े आती हैं और उससे समान राष्ट्रीयत्व की भावना जो प्रकट होनी चाहिए, उसमें रुकावट आती है। संकट के समय हममें एक होने की क्षमता नहीं है यह मुझे कहना नहीं है। हममें एक होने की क्षमता है। यदि हम सदा एक रहे तो संकट अपने दरवाजे पर दस्तक नहीं देगा और दस्तक दे भी दें तब भी दरवाजा नहीं खुलेगा और संकट लौट जाएगा। संकट के समय एकता प्रकट होती है, परंतु यदि संकट कम हो जाए तो, वह अदृश्य हो जाती है। आपस के मतभेदों का हम पर प्रभाव पड़ता है।

हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में हिंदू संगठन का काम कर रहे हैं। मैं वृंदावन में देवराहा बाबा से मिलने गया था। हम पर उनकी बड़ी कृपा है। पचास वर्षों से मैं उन्हें वैसे ही देख रहा हूं। कौन जाने कौनसी साधना कर रहे हैं, कैसा चमत्कार है! उन्होंने पूछा, “अरे संगठन का काम कैसे चल रहा है?” मैं संघ का स्वयंसेवक हूं यह उन्हें पता है। मैंने कहा, “काम ठीक चल रहा है। दलित बंधुओं से कुछ अड़चनें आती हैं, उन्हें जिस मात्रा में शामिल होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है।” उन्होंने पूछा, “क्यों शामिल नहीं होते?” मैंने कहा, “वे हमें कहते हैं कि आपने हमें जन्म से से छोटा बनाकर रखा है, यह हम सहन नहीं करेंगे।” उन्होंने कहा, “हमने उन्हें छोटा नहीं बनाया, यह उन्हें समझाएं।” मैंने कहा, “वे पुरुषसूक्त का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं- ब्राह्मण मुख से पैदा हुआ, क्षत्रिय बाजुओं से, वैश्य जंघाओं से, और शूद्र पैरों से पैदा हुआ।” तब देवराहा बाबा हंसे और कहने लगे, “विराट पुरुष के पैरों से, विष्णु के चरणों से गंगा भी अवतीर्ण हुई है। वे छोटे नहीं हैं- गंगापुत्र हैं और गंगा तो पतितपावन हैं फिर वे पतित कैसे हो सकते हैं?” बात सच है। पुरुषसूक्त का स्पष्टीकरण यदि ऐसा किया गया, शूद्र को चरण कहा इसलिए उनसे कनिष्ठ माना गया है तो, ॠग्वेद की ॠचा के रचियता पर बड़ा अन्याय होगा। एक विराट पुरुष का यदि वर्णन हो तो ऐसा नहीं हो सकता कि विराट पुरुष का सिर होगा, बाजुएं होंगी, जांघें होंगी, लेकिन पैर ही नहीं होंगे। पैरों में स्थिति होती है, पैरों में गति होती है। सिर की पूजा नहीं होती, चरणों की पूजा होती है। आनेवाला कोई यदि सिर को स्पर्श करने लगा तो बड़ा संकट ही उत्पन्न होगा। वह चरणों का स्पर्श करता है। उसे चरण पवित्र लगते हैं। लेकिन मैं पढ़ रहा था- मुझे ऐसा पता चला कि, यह जो पुरुषसूक्त है, वह ॠग्वेद के दसवें मंडल में है। नौवें मंडल तक वर्णव्यवस्था का कहीं भी उल्लेख नहीं है। पुरुषसूक्त में भी अवयव-अवयची भाव व्यक्त हुआ है। छोटा-बड़ा ऐसा कुछ नहीं बताया है। मेरे पैर में कांटा चूभे तो उतनी ही वेदना होगी, जितनी सिरदर्द से होती है, यह तो हम एक-दूसरे पर किस तरह निर्भर है उसे व्यक्त करने की एक पद्धति है। ॠग्वेद के नौवें मंडल तक मनुष्य का उल्लेख है, वर्ण का नहीं। और वे पांच प्रकार यदि मैं आपको पढ़कर सुनाऊं तो उनमें राक्षस भी है। हम उन राक्षसों को बड़ा भयंकर मानते हैं, लेकिन राक्षस भी एक जाति ही थी और वह समाज का हिस्सा मानी जाती थी। उस समय ब्राह्मण थे, क्षत्रिय थे- शेष लोगों को ‘विश्व’ कहा जाता था। वैश्य, शूद्र नहीं थे। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- ‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टम्, गुणकर्म विभागशः।’ गीता का काल याने महाभारत का काल। वैदिक काल में ऐसा कुछ नहीं था। महाभारत के काल तक वर्ण जन्म से नहीं होते थे, व्यवसाय के अनुसार होते थे। वेदों में एक मंत्र है, जिसमें ॠषि कहते हैं- “मेरे पिता वैश्य हैं, मेरी मां पिसाई करने वाली हैं- पीसने, कूटने का काम करती है, लेकिन मैं कवि हूं।” यहां तीनों व्यवसाय अलग-अलग हैं, लेकिन परिवार एक है। महाभारत में ऐसे उदाहरण हैं कि, एक ही वर्ण के लोग अलग-अलग काम करते हैं। ऐसे भी उदाहरण हैं कि विभिन्न वर्णों के लोग एकसाथ रहते हैं। यहां वर्ण का एक ठोस अर्थ है- रंग, श्वेत वर्ण, श्याम वर्ण। क्या आर्य गोरे थे- उनका वर्ण कुछ उजला होगा। लेकिन वे बाहर से आए थे, इसलिए उनका रंग कुछ उजला था यह समझना गलत है।

आर्य कहीं से भी बाहर से नहीं आए हैं, इसके लिए अधिक तर्क जुटाने की आवश्यकता नहीं है। आर्य यदि बाहर से आए होते तो, वे जहां से आए उस प्रदेश की कुछ यादें निश्चित रूप से अपने साथ ले आते। उनके साहित्य में कहीं न कहीं ये यादें प्रतिबिंबित होतीं। ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। आर्यों ने सप्तसिंधु के बारे में प्रेमोद्गार व्यक्त किए हैं- मेरी गंगा, मेरी यमुना, मेरी सरस्वती- वे यदि बाहर से आए होते तो प्रेम इस तरह प्रेम नहीं उफनता। वे इसी भूखंड के निवासी थे। यहां भी हम जरा ऊपर की दिशा में जाएं- प्रकृति में परिवर्तन होता है- रंग का सम्बंध प्रकृति से है। कड़ी धूप हो तो रंग काला पड़ता है। पहाड़ी इलाकों से जो आते हैं, वे कुछ उजले रंग के होते हैं। हमें यहां हर वर्ण के लोग मिलते हैं। सुदूर दक्षिण में भी गौर वर्ण के लोग मिलते हैं। शरीर के रंग के आधार पर वर्णव्यवस्था नहीं बन सकती। अब वर्ण का एक दूसरा विचार है- जो वरण करता है वह। हर व्यक्ति अपना धंधा, अपना व्यवसाय निश्चित करता है। अपनी योग्यता के अनुसार करता है। यह उचित है कि जिस परिवार में वह पैदा हुआ, उसमें कुछ व्यवसाय होता है, इससे उसकी स्वाभाविक पसंद उस व्यवसाय के प्रति होती है। लेकिन धंधा वरण किया जाता है। इसका अर्थ यह कि धंधा छोड़ा भी जा सकता है। अब यदि पुरानी परिभाषा में कहना हो तो, ब्राह्मण को पूजापाठ, यज्ञ के अतिरिक्त और कोई काम नहीं करना चाहिए। तो फिर क्या ब्राह्मण यही करते हैं? ब्राह्मण क्या नौकरी नहीं करते? ब्राह्मण क्या दुकान नहीं करते? और फिर क्षत्रिय को तो लड़ने के अलावा कोई काम नहीं है, लेकिन यदि लड़ाई नहीं हुई तो क्षत्रिय क्या करें? यदि वह बाहर नहीं लड़ा तो अंदर वह लड़ें या आपस में लड़ें? अब जो युद्ध होते हैं उनमें केवल जो जातियां लड़वैया के रूप में जानी जाती हैं उनसे ही काम नहीं चलता। अब तो पूरे देश को ही लड़ना पड़ता है। लड़वैया जमातवाली विचारप्रणाली है कि कुछ जमातें लड़वैया होती हैं। ये भी अब खड़ी नहीं रहतीं। एक जगह लिखा है कि सिकंदर ने कुछ भारतीय सैनिकों को पकड़ा और वे ब्राह्मण थे। यदि वे ब्राह्मण थे तो क्षत्रिय का काम कैसे कर रहे थे? ब्राह्मण होकर क्षत्रिय का काम कर सकते थे, क्षत्रिय अन्य काम कर सकते थे। यह सच है कि पूरी वर्णव्यवस्था में, अपनी जातिव्यवस्था में वे बराबरी से लड़ रहे थे। बाद में उपनयन को लेकर उनका ब्राह्मणों के साथ विवाद हुआ और उन्हें कनिष्ठ बनाया गया- जन्म से कनिष्ठ। अन्य समाजों में भी विभाजन है। किंतु जन्म से किसी को छोटा-बड़ा मानना और उस छोटे-बड़े की भावना के आधार पर उससे जीवनभर वैसा व्यवहार करना पीढ़ी-दर-पीढ़ी चल रहा है। यह हमारे जीवन का बड़ा कलंकित अध्याय है। फिर हम दुनिया को समानता का उपदेश कैसे करें? नामीबिया में, दक्षिण अफ्रीका में रंग के कारण, चमड़ी के रंग के कारण वहां गोरे और काले स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

हमारे यहां ऐसा कोई फर्क नहीं है। खून का रंग एक ही है, चमड़ी का रंग एक ही है, फिर भेदभाव का आधार कहां है? उन्हें वंचित रखा गया- मंदिर में पूजा नहीं कर सकते, उन्हें वंचित रखा गया- वेदों का उच्चारण नहीं कर सकते। उन्हें वंचित रखा गया कि अन्यों के साथ सार्वजनिक रास्ते पर चल नहीं सकते। अन्यों के लिए ऊंचाई का रास्ता होगा, आपके लिए निचला रास्ता होगा और उस रास्ते से आपको गले में हंडी बांधकर चलना होगा, क्योंकि आपको कहीं थूंकना हो तो आप रास्ते पर नहीं थूंक सकते। रास्ता गंदा होगा, गले की हंडी में थूंके और उसे अपने साथ ले जाए। यह सच है कि ये बातें किन्हीं कथाओं जैसी मानी जाए, लेकिन जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी व्यवस्था से जाना पड़ा है, उन्होंने उसकी यादें किसी चिंगारी की तरह अपने दिल में संजोकर रखी हैं। जब राज्यसभा में चर्चा चल रही थी तब तो मैं दंग रह गया। तब कांग्रेस के एक बड़े पुराने नेता बता रहे थे कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ब्राह्मण थे, लेकिन वे छुआछूत नहीं मानते थे। लेकिन उनके बड़े भाई की राय दूसरी थी- किसी के हाथ का भोजन ग्रहण नहीं करते थे। वे बता रहे थे कि एक बार दोपहर के समय गलती से मैं वहां चला गया। मुझे किसी दस्तावेज की जरूरत थी। तब राजाजी के बड़े भाई ने मुझे देखा ही कि भोजन से उठ गए। फिर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मुझसे कहा, “अरे आप कहां उस कमरे में चले गए? आज तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ेगा।” तब मैंने कहा, “मैंने तो कुछ नहीं किया, मैं तो उनके करीब भी नहीं गया।” उस पर राजाजी ने कहा, “मेरे बड़े भाई दृष्टिदोष को मानते हैं- दृष्टिदोष।” अब ऐसा जो कोई मानता है उसकी भावनाओं की मैं दाद देना चाहता हूं। मैं उसे कुछ अच्छा-बुरा नहीं कह सकता। शायद उन्होंने अपने कुछ मानक बनाए होंगे। लेकिन आज वे नहीं चल सकते। वर्णव्यवस्था कभी उपयोगी रही होगी। व्यवसाय के अनुसार काम, उसमें प्रावीण्य, उसमें कौशल, पुत्र जो काम देखता है, पिता को काम करते देखता है, बचपन में ही उस काम को वह सीख लेता है। इससे विकास के कुछ मार्ग खुलने चाहिए; लेकिन वह वंशानुगत नहीं होना चाहिए, जन्मगत नहीं होना चाहिए। कोई यदि दूसरे मार्ग से जाना चाहता है तो उसके लिए मार्ग हैं। इस देश में  फिलहाल लाखों लोग हमारा मैला-मलमूत्र ढो रहे हैं। अब भी यांत्रिकरण नहीं हुआ है। मैला सिर पर ढोते हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसा चल रहा है। परंतु इसका दर्द नहीं है, दर्द यह है कि उनसे हमारे प्रेमपूर्वक रिश्तें ही नहीं हैं। पहले होते थे। मैं जानता हूं- मेरे अपने गांव में भेदाभेद था- छुआछूत थी, लेकिन हमारे बाल काटने के लिए जो आता था उसे हम ‘नाई चाचा’ कहते थे-‘नाई चाचा’। आज ऐसा कोई नहीं कहेगा। व्यवसाय का भी भिन्न वर्गीकरण किया गया। अतः सबका व्यवसाय हो, कोई किसी के व्यवसाय में हस्तक्षेप न करें। हमारे परिवार की खेती थी, लेकिन हम हल नहीं चला सकते थे। घर में चरखा नहीं आ सकता था, तकुआ नहीं चलता था क्योंकि वह दूसरे का काम है, उसमें किसी को हस्तक्षेप करना नहीं चाहिए। फिर यह काम छोटा कैसे हो गया? निम्न दर्जे का कैसे हो गया? स्वाधीनता को 40 साल बीत गए हैं। अनेक संस्थाओं, अनेक संगठनों ने अपने-अपने तरीके से सामाजिक विषमता मिटाने, समता व समरसता लाने के प्रयास किए। उनमें अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी भूमिका है। बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। समाज में सुधारों की गति अधिक तीव्र होनी चाहिए, संघ शायद अपने नाम से न कर पाए, लेकिन संघ के स्वयंसेवक हम कर सकते हैं। प.पू.सरसंघचालक ने पुणे के अपने भाषण में इस सम्बंध में संघ की भूमिका स्पष्ट की है। हम अस्पृश्यता नहीं मानते। हम समाज से अस्पृश्यता का निर्मूलन करना चाहते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के व्यवहार में अस्पृश्यता नहीं आनी चाहिए। हम जन्म से किसी को छोटा-बड़ा न मानें, क्योंकि संघ ने अलग काम हाथ में लिया है। अतः स्वयंसेवक के रूप में यदि आपकी इच्छा हो तो- मैं उसे आपकी इच्छा पर छोड़ रहा हूं- क्योंकि जो कुछ मैंने कहा है उस पर मतभेद हो सकते हैं- विवाद हो सकता है।

हम जिन्हें दलित कहते हैं उन्हें हिंदू समाज से अलग-थलग करने की एक चाल रची जा रही है, साजिश रची जा रही है। ‘दलित-मुस्लिम भाई भाई, हिंदू कौम कहां से आई?’ जैसी घोषणाएं की जा रही हैं। इन घोषणाओं पर अमल करने वाला एक राजनीतिक दल खड़ा हुआ है- उसे कोई विशेष वोट नहीं मिले। अब समाज का हृदय, समाज का मस्तिष्क निरोगी है, लेकिन वे विष फैला रहे हैं। जो विषमता है, उसका लाभ उठा रहे हैं। कम से कम भोजन में और भजन में समानता होनी चाहिए। संघ में ऐसी पद्धति निर्माण की कि जिससे भेदभाव कम होता है, समता बढ़ती है- समरसता बढ़ती है। लेकिन उन्होंने साफ कहा था कि समाज सुधारों का प्रश्न हो तो संघ को एक कदम आगे रहना चाहिए। आगे-पीछे नहीं, आगे रहना चाहिए। और एक कदम आगे रहकर देखना चाहिए कि शेष समाज आ रहा है या नहीं। लेकिन मैं एक और बात कहना चाहता हूं। कदम छोटा भी हो सकता है- बड़ा भी हो सकता है। आज बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता है। भगवान वामन ने तो तीन कदमों में जमीन, पाताल और आकाश सबको परिव्यापित कर दिया था। सामाजिक सुधारों की बात जहां हों, वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा होगी, तो एक कदम में- एक ही कदम रखकर पूरा देश परिव्यापित कर सकते हैं। लेकिन संघ से प्रभावी हमारी भूमिका होनी चाहिए। संघ स्वयंसेवक की भूमिका होनी चाहिए और इसके लिए आप मंथन करें। अपने गांव की स्थिति देखें। यह विच्छेद हमारी कितनी हानि कर रहा है, इसकी चिकित्सा करें। फिर आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि समाज में पैदा हुआ सुराख हमें पाटना है।

हिंदू संगठन का कार्य कंधे पर लेकर हमने बहुत बड़ी जिम्मेदारी स्वीकार की है। उस जिम्मेदारी को पूरा करने की ईश्वर हमें शक्ति दें यह मेरी आग्रहपूर्वक प्रार्थना है।

(रा.स्व.संघ के नागपुर में तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में 3 जून 1990 को सम्पन्न बौद्धिक वर्ग में अटलजी के बौद्धिक का सम्पादित अंश।)

 

 

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