मुफ्तखोरी का फैशन

“अपने देश में मुफ्तखोरी का फैशन बहुत चल निकला है। अर्थात यदि कोई चीज मुफ्त में मिल रही हो, तो फिर उसके लिए हाथ, जेब और झोली के साथ ही दिल भी बेरहम हो जाता है।”

मान्य रूप से फैशन का संबंध कपड़े, जूते, घड़ी, बेल्ट, माला, अंगूठी, चूड़ी या बालों के स्टाइल से होता है; पर मैं एक अलग किस्म के फैशन की बात कर रहा हूं, जिससे ‘हम भारत के लोग’ बुरी तरह पीड़ित हैं। वो है मुफ्तखोरी का फैशन। उर्दू साहित्य में इसके लिए बाकायदा ‘माले मुफ्त दिले बेरहम’ जैसी कहावत भी है। अर्थात यदि कोई चीज मुफ्त में मिल रही हो, तो फिर उसके लिए हाथ, जेब और झोली के साथ ही दिल भी बेरहम हो जाता है। भले ही वो हमारे काम की हो या नहीं।

ऐसा कहते हैं कि भारत में चाय का प्रचलन अंग्रेज कम्पनियों ने किया। वे बाजार में घूम-घूमकर लोगों को मुफ्त चाय पिलाते थे; पर लोग चाय का ठेला देखकर दूर भाग जाते थे। उन्हें लगता था कि इसमें जरूर कुछ खराब चीज है, जिसे पिलाकर ये विदेशी हमारा धर्म और जीवन खराब करना चाहते हैं। जैसे आजकल एक खास बिरादरी के कई मूर्ख लोग ये सोचकर अपने बच्चों को पोलियो की दवा नहीं पिलाते कि इससे बच्चे नपुंसक हो जाएंगे। वे सोचते हैं कि चूंकि हम सीधी तरह से सुधरने को तैयार नहीं हैं, इसलिए सरकार ने हमारी जनसंख्या घटाने का ये तरीका निकाला है। ऐसे बेअक्लों पर खुदा की लानत।

बस ऐसी ही कुछ धारणा उन दिनों चाय के प्रति थी; पर विदेशी कम्पनियों ने हिम्मत नहीं हारी। धीरे-धीरे हमारी मुफ्तखोरी की आदत ने जोर मारा और चाय चल पड़ी। फिर भी बहुत सालों तक कुछ सम्पन्न घरों में ही चाय की पत्ती रहती थी। मोहल्ले में कोई बीमार हुआ, तो वहां से थोड़ी चाय लाकर उसे पिलायी जाती थी; पर अब तो चाय खुद ही एक बीमारी बन गई है। किसी से मिलने जाएं, तो पानी भले ही न आए; पर चाय जरूर आ जाती है। पिछले दिनों मैंने एक मित्र को खाने पर बुलाया। अगले दिन उनकी पत्नी ने किसी से शिकायत करते हुए कहा कि खाना तो बहुत अच्छा था; पर भाई साहब एक कप चाय भी पिला देते, तो उनका क्या घट जाता? तो जनाब, ये है चाय की महिमा।

कुछ लोग बड़े उत्साह से किसी दूसरी भाषा को सीखने या बोलने की कोशिश करते हैं। उनका ये प्रयास स्तुत्य है; पर इस चक्कर में कई बार अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। आजादी के बाद पटना के एक समारोह में नेहरू जी के साथ फील्ड मार्शल करियप्पा भी उपस्थित थे। अब करियप्पा ठहरे दक्षिण भारतीय; पर वे समारोह में टूटी-फूटी हिन्दी में बोले। सबने ताली बजाकर उनका उत्साह बढ़ाया; पर उनके एक वाक्य से वहां बड़ा असमंजस पैदा हो गया।

करियप्पा जी ने अपने भाषण में कहा कि अंग्रेज चले गए हैं। इसलिए अब मैं भी मुफ्त और तुम भी मुफ्त। असल में वे कहना चाहते थे कि अब मैं भी आजाद और तुम भी आजाद; पर उन्होंने अंग्रेजी शब्द ‘फ्री’ का अनुवाद मुफ्त कर दिया। सब लोग हंसने लगे। इस पर नेहरू जी ने उन्हें फ्री का ठीक अनुवाद बताया। तो कभी-कभी मुफ्त में ऐसे मजेदार प्रसंग भी सुनने और पढ़ने को मिल जाते हैं।

खैर बात मुफ्तखोरी की हो रही थी। आजकल होली, दीवाली जैसे पर्वों पर ये बीमारी खूब बढ़ती है। कमीज के साथ कटोरी या पैंट के साथ प्लेट मुफ्त के विज्ञापनों से अखबार पटे रहते हैं। पिछले दिनों जी.एस.टी. लागू होने से पहले भी ऐसे विज्ञापन और सेलों की बाढ़ आ गई थी। लाखों लोगों ने बिना जरूरत ही खरीदारी कर डाली। उन्होंने ये नहीं सोचा कि ये व्यापारी मूर्ख हैं क्या, जो अपना घर फूंक रहे हैं; पर नहीं साहब, चीज मुफ्त में मिल रही हो, तो पैसे वाले भी हाथ फैला देते हैं। एक बार शमशान के बाहर खुली एक दुकान ने विज्ञापन दिया कि दो बड़े कफन लेने पर बच्चे का कफन मुफ्त मिलेगा। उसे पढ़कर कई लोग एडवांस में ही खरीदारी करने वहां भी पहुंच गए। ये हाल है मुफ्तखोरी का मेरे भारत महान मेंं।

पर इन दिनों कुछ लोग मुफ्त में मिली चीजों से परेशान हो रहे हैं। पता नहीं भारत बदल रहा है या फिर लोगों का स्वभाव? हमारे प्रिय शर्मा जी भी उनमें से एक हैंं। पिछले साल यात्रा के दौरान उन्होंने रेलगाड़ी में वेज बिरयानी मंगाई, तो उसमें छिपकली निकल आई। यद्यपि वह भी काजू-किशमिश के साथ अच्छे से तली गई थी, पर थी तो छिपकली ही। बस शर्मा जी का पारा चढ़ गया। उन्होंने अपने मोबाइल से उसका फोटो खींचा और रेलमंत्री सुरेश प्रभु को भेज दिया। अब प्रभु जी ठहरे अंतर्यामी। उन्होंने रेलगाड़ी के गंतव्य पर पहुंचने से पहले ही खाना बनाने वाली उस एजेंसी का ठेका रद्द कर दिया।

पर कुछ दिन बाद फिर दुर्घटना हो गई। इस बार उन्होंने पकौड़े लिए, तो उसमें एक कॉकरोच मिल गया। बस फिर क्या था? शर्मा जी पकौड़े लाने वाले कर्मचारी को गाली बकने लगे। कर्मचारी ने बहुत समझाया कि ये पकौड़े हमने नहीं बनाए। इस रेलगाड़ी में तो रसोई ही नहीं है। ये तो पिछले स्टेशन से पैक अवस्था में ही आए हैं; पर शर्मा जी का गुस्सा कम नहीं हुआ। उन्होंने चटनी समेत वह प्लेट उसके मुंह पर दे मारी।

इससे वह कर्मचारी नाराज हो गया। डिब्बे के यात्री भी दो भागों में बंट गए। कुछ लोग शर्मा जी के पक्ष में थे, तो कुछ कर्मचारी के। शोर-शराबा होते देख उस डिब्बे का टी.टी. आ गया; पर फिर भी शांति नहीं हुई। अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी, तो स्टेशन मास्टर को बुलाया गया। उसने शर्मा जी को समझाते हुए कहा कि छिपकली या कॉकरोच जैसी हाई प्रोटीनयुक्त चीजों को आप रेल विभाग की तरफ से मुफ्त उपहार समझें। वरिष्ठ नागरिक होने के नाते हम आपसे इनके पैसे नहीं लेंगे।

इस पर शर्मा जी की क्या हालत हुई होगी, आप समझ सकते हैं। तब से उन्होंने तय कर लिया है कि वे रेलगाड़ी में यात्रा ही नहीं करेंगे। और यदि कोई मजबूरी हो ही गई, तो खानपान का पूरा सामान घर से ही लेकर चलेंगे।

कल सुबह टहलते हुए जब शर्मा जी ने ये बात बताई, तो गुप्ता जी ने भी एक किस्सा सुना दिया। उन्होंने बताया कि एक बार उनके चाचा जी डॉक्टर के पास दांत निकलवाने गए। डॉक्टर उस दिन अपना चश्मा घर ही भूल आया था। इस चक्कर में उसने चाचा जी के कई दांत उखाड़ लिए; पर जो दांत खराब था, वह अभी अपनी जगह ही विद्यमान था। जब चाचा जी ने शिकायत की, तो वह हंसते हुए बोला, “आप चिंता न करें। चाहे आपका पूरा जबड़ा उखड़ जाए, पर पैसे मैं एक दांत के ही लूंगा। बाकी सब काम आप मुफ्त में हुआ समझें।”

ये किस्सा सुनकर शर्मा जी ने अपना निर्णय बदला या नहीं, ये तो वही जानें; पर मैंने तो रेलगाड़ी में यात्रा के दौरान कुछ नहीं खाने का निश्चय कर लिया है। इससे बचत के साथ ही उपवास का लाभ मुफ्त में मिल जाएगा। आखिर मैं भी तो आपकी तरह ‘माले मुफ्त दिले बेरहम’ में विश्वास रखता हूं।

 

 

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