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हम और हमारे वन

हम और हमारे वन

by देवेन्द्र मेवाड़ी
in वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019
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वनों में जीवों की जो दुनिया बसती है, उसमें सभी जीवों का एक आपसी रिश्ता है। सच तो यह है कि जड़ और चेतन सभी का अटूट रिश्ता है। जीवन तो वनों के कारण पनपता है। इसका विनाश कर हम अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारेंगे।

वनों से हमारा आदिकाल से संबंध रहा है। इसी हरियाली में जीव पनपे। इसी ने हमें आश्रय दिया, भोजन दिया। हम मानवों का विकास भी यहीं से शुरू हुआ। मानव का ही क्यों, वन्य जीवों, पक्षियों, कीट-पतंगों, सूक्ष्म जीवों और पेड़-पौधों की हजारों प्रजातियों का जन्म भी वनों में ही हुआ। वे यहीं पनपीं।

वन ही इनकी जन्मस्थली बने और वनों में ही जीवों का संसार पला-बढ़ा। असल में पृथ्वी के दो मुख्य रंग रहे हैं। सागरों में भरे पानी का नीला रंग और वनों का हरा रंग। यह हरा रंग हमारे हरे-भरे वनों की हरियाली से ही है। हमारी पृथ्वी के कुल भूभाग का एक-तिहाई हिस्सा वनों से घिरा है। विश्व भर में जीवों की जो लाखों प्रजातियां हैं, उनमें से 80 प्रतिशत आज भी वनों में ही पनप रही हैं। अनुमान तो यह है कि विश्व भर में आज भी करीब 30 करोड़ से अधिक लोग वनों में रहते हैं। वन ही उनका घर हैं। और, करीब एक अरब 60 करोड़ लोगों की आजीविका वनों पर निर्भर है।

इतने महत्वपूर्ण वन, लेकिन शहरीकरण और विकास की दौड़ में इनको बुरी तरह काटा और उजाड़ा गया। अनुमान है कि हर साल करीब एक करोड़ 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वनों का विनाश हो रहा है। इसे वनों का ही विनाश नहीं बल्कि लाखों जीव प्रजातियों के घरों का विनाश भी कहेंगे; क्योंकि उनका तो निवास ही वन है। वनों में जीवों की जो दुनिया बसती है, उसमें सभी जीवों का एक आपसी रिश्ता है। सच तो यह है कि जड़ और चेतन सभी का अटूट रिश्ता है।

जड़-चेतन का यही रिश्ता वनों की पारिस्थितिकी बनाता है। वनों का पारितंत्र यानी इको-सिस्टम बनाता है। उस पारितंत्र में हर जीव जी रहा है। जी भी रहा है और ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ के नियम का भी पालन कर रहा है।

ऊपर मैं जड़ और चेतन की बात कर रहा था। वनों का जो चेतन जगत है, उसमें हैं हरे-भरे पेड़-पौधे, पेड़ों पर लिपटी लताएं, भूमि पर उगी घासें, फफूंदियां, काई, मौस वगैरह। इसके अलावा वन्य जीव, चहचहाते पक्षी, कीट-पतंगे, सांप आदि रेंगने वाले प्राणी और मिट्टी में बसा है लाखों सूक्ष्म जीवों का संसार।

दूसरी ओर, जड़ वस्तुओं में हैं: मिट्टी, पत्थर, सूखी, सड़ी-गली अजीवित चीजें, खनिज, पानी, हवा वगैरह। इन सब का चेतन यानी जीव जगत से अटूट रिश्ता है। वैसे गौर से देखें तो वनों की कई परतें दिखाई देती हैं। जैसे वनों की भूमि की सतह, जिसमें सूखी और सड़ी-गली पत्तियां होती हैं, सूखे टूटे तने और लकड़ियां होती हैं। वन्य पशुओं का गोबर होता है। वे सभी चीजें सड़-गल कर नई उपजाऊ मिट्टी बनाती हैं जिसमें बीज उगते हैं और सूक्ष्म जीव पनपते हैं।

फिर है- बीच की परत। यानी मध्य भाग। इसमें झाड़ियां होती हैं, नए पौधे होते हैं जो बड़े पेड़ों की छांव में पनपते हैं। और, होती हैं घासें, जिनकी जड़ें मिट्टी को मजबूती से बांधे रखती हैं।

इस मध्य परत के ऊपर होता है- वृक्षों का छत्र यानी कैनोपी जो पत्तियों, शाखाओं और टहनियों से बनती है। सूरज की रोशनी और कार्बन डाइआक्साइड से वृक्ष इसी भाग में सब से अधिक भोजन बनाते हैं। कैनोपी यानी छत्र की छांव अपने नीचे भूमि तक में पनपते जीवन की रक्षा करती है। हां, और कहीं-कहीं उससे भी ऊपर उम्रदराज, ऊंचे पेड़ों की फुनगियां झांकने लगती हैं। ऐसा अक्सर ट्रापिकल यानी उष्णकटिबंधी वर्षा वनों में देखा जाता है।

अच्छा हां, उष्ण कटिबंधी से एक बात याद आ गई। ये वन पृथ्वी के सब से उष्ण यानी गर्म क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भौगोलिक दृष्टि से देखें तो भूमध्यरेखा के 10 डिग्री ऊपर या नीचे। विश्व के उष्णकटिबंधी वर्षा वन इसी भूभाग में पाए जाते हैं। यों, पूरी पृथ्वी पर जगह-जगह वनों की हरियाली छाई हुई है। सागर तटों से लेकर, मैदानों, घाटियों और पहाड़ों तक में। ऊंचे पहाड़ों में ‘ट्री लाइन’ के इलाके तक। केवल उन जगहों को छोड़ कर जहां पेड़ों के जीने लायक पारिस्थितियां ही नहीं हैं- जैसे रेगिस्तानों में या फिर, वन वहां नहीं हैं जहां मनुष्य ने उन्हें उजाड़ कर अपने शहर बसा दिए हैं।

लेकिन, अगर हम पूरी पृथ्वी पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें दिखाई देंगे- भूमध्यरेखा के दोनों ओर उष्णकटिबंधी वन, उनसे ऊपर घने, पुष्पधारी वृक्षों वाले शीतोष्ण वन और ध्रुवों के निकट सुईनुमा पत्तियों वाले शंकुधारी, हरे-भरे सदाबहार वन।

एक बात और है। ये जो ट्रापिकल वर्षा वन हैं या फिर टैम्परेट यानी शीतोष्ण वन, इनमें पेड़-पौधों और वन्य जीवों की सब से अधिक प्रजातियां होती हैं। जबकि, ऊंचे टैगा वनों या पर्वतीय वनों में इनकी प्रजातियां कम होती हैं। इसीलिए पृथ्वी पर फैले वनों के ऐसे अलग-अलग इलाकों को अलग-अलग इकोजोन यानी पारिस्थितिक क्षेत्र माना गया। वनों के इन अलग-अलग पारिस्थितिक क्षेत्रों में नाना प्रकार की प्रजातियां पनप रही हैं। कहते हैं इस धरती पर जो जीव हैं, उनमें से 75 प्रतिशत इन्हीं इकोजोन्स में पनप रहे हैं।

इस हिसाब से जब हम अपने देश भारत की ओर देखें तो यहां भी वनों की बड़ी विविधता है। इसका कारण हमारे देश की भौगोलिक विशेषता है। यहां भी सागर तटों से लेकर, विशाल मैदान, रेगिस्तान, नदी घाटियां और ऊंचे पहाड़ सभी कुछ हैं। इसीलिए यहां नम और सूखे उष्ण कटिबंधी यानी ट्रापिकल वन हैं, तो उपोष्ण यानी सब-ट्रापिकल वन भी हैं। इसी तरह उपोष्ण पर्वतीय वन हैं तो शीतोष्ण पर्वतीय वन भी हैं।

इनके अलावा गर्म क्षेत्रों में समुद्र तटों के ज्वारीय वन भी हैं। मेंग्रोव के वन तो हमारी पारिस्थितिकी में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमारे वनों की विशेषता यह भी है कि यहां सदाबहार वन भी हैं, पतझड़ी वन भी हैं और सुई जैसी पत्तियों वाले कोनिफरस यानी शंकुधारी वन भी हैं। अनुमान है कि भारत में लगभग 6 करोड़ 78 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वन फैले हुए हैं। इनमें जीवों की हजारों लाखों प्रजातियां पनप रही हैं। बल्कि कहा तो यहां तक जाता है कि विश्व भर में जितने प्राणी हैं, उनमें से लगभग 14 प्रतिशत हमारे देश के इन्हीं वनों में पाए जाते हैं।

और, यह भी सच है कि हमारे देश में वन हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं। अनेक पेड़ और वन हमारे लिए पूजनीय रहे हैं। पीपल और बरगद को ही ले लीजिए। इनकी पूजा की जाती है। पूजा के साथ-साथ पेड़ों और वनों की रक्षा के लिए भी लोगों ने अपनी जान हथेली पर लेकर लड़ाइयां लड़ी हैं।

‘चिपको आंदोलन’ को ही ले लीजिए। यह आंदोलन गढ़वाल के रैंणी गांव से शुरू होकर दुनिया भर में फैल गया। इसकी सूत्रधार गौरा देवी थीं। और, राजस्थान के खेजड़ली गांव में तो बिश्नोई समुदाय के सैकड़ों लोगों ने खेजड़ी के वृक्षों को बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी। उस आंदोलन की मुखिया अमृता देवी थीं।

देववनों के कारण भी हमारे देश में वनों की हरियाली बची हुई है। हिमाचल में ऐसे पूजनीय देववन हैं जिनमें लोग पेड़-पौधों को नहीं काटते, न उनमें रहने वाले वन्य जीवों को कोई नुकसान पहुंचाते हैं। कर्नाटक में भी ऐसे देववन हैं। उत्तर पूर्व में मेघालय में भी देववनों की हरियाली फैली हुई है।

इतनी हरियाली और वनों के हम पर इतने उपकार हैं कि समझ में नहीं आता, विश्व भर में फिर भी हर साल इनका क्षेत्रफल क्यों घटता जा रहा है। एक अनुमान है कि विश्व भर में हर साल वनों के लगभग एक करोड़ 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र का विनाश हो रहा है। वन तो हमारे ‘हरे फेफड़े’ कहलाते हैं। ये हमारे लिए प्राणवायु बनाते हैं। बल्कि, हमारी सांसें बनाते हैं। ये हवा से विषैली गैस कार्बन डाइऑक्साइड को सोख कर हमें प्राणवायु देते हैं। भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं। जल स्रोतों को पानी मुहैया कराते हैं।

ये वायुमंडल में भी नमी बढ़ाते हैं जिसके कारण वहां वर्षा अधिक होती है। भूमि पर ये मिट्टी का कटाव रोकते हैं। यानी, वनों का हमारे पर्यावरण से सीधा संबंध है। जलवायु विज्ञानी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हमें वनों की हरियाली को बचाना होगा।

सही बात तो यह है कि वनों की हरियाली बढ़ेगी, तभी तपती धरती की तपन भी कम होगी। ग्लोबल वार्मिंग में कमी आएगी। जीव-जंतुओं के घर भी तो वन ही हैं। आज गांवों और शहरों में वन्य जीवों के कारण कई तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं। बंदरों, हाथियों और तेंदुओं से सामना हो रहा है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि हमने उनके घर उजाड़ दिए हैं। वनों का विनाश कर दिया है। वे वन्य जीव जाएं तो कहां जाएं? उनके लिए भी जीवन मरण का प्रश्न है। लेकिन, हमारे बायोस्फेयर रिजर्वों और बायोडाइवर्सिटी हॉट-स्पाट्स में दुर्लभ जीव-जातियां अभी बची हुई हैं। ये भी सघन वनों में ही हैं।

हमारे देश में ऐसे करीब 16 बायोस्फियर रिजर्व हैं। इनमें से कुछ प्रमुख बायो स्फियर रिजर्व हैं: अगत्स्यमलाई, नंदादेवी, नीलगिरि, मानस, सुंदरबन, सिमलिपाल, देहांग-देबांग, पंचमढ़ी और कच्छ आदि। वनों में वन्य जीवों की रक्षा के लिए देश भर में कई अभयारण्य और वन्य जीव संरक्षण क्षेत्र घोषित किए गए हैं। इनसे वनों और वन्य जीव-जंतुओं की रक्षा के प्रयास किए जा रहे हैं।

कई बार वनों में और विशेष रूप से पहाड़ी इलाकों के वनों में भीषण आग लग जाती है। वह विनाश का बहुत भयानक मंजर होता है। मैंने अल्मोड़ा से बिनसर, कौसानी, चौकोड़ी, गंगोलीहाट और नैनीताल जिले के कई वनों में आग से विनाश का हाल देखा है। वे भीषण आग के शिकार होते हैं जिसके कारण मिट्टी-पत्थरों को जकड़ने वाली घासों की जड़ें जल जाती हैं। कीट-पतंगे, पक्षियों के घोंसले और अंडे, जमीन पर विचरने वाले छोटे जीव-जंतु आग की भेंट चढ़ जाते हैं। पेड़-पौधों की नई पीढ़ी भस्म हो जाती है।

मुझे आग से जले उन वनों में पक्षियों का कलरव नहीं सुनाई दिया। न बंदरों-लंगूरों और अन्य जीवों के खाने के लिए वहां कुछ बचा था। जले, झुलसे लंगूर भी मैंने देखे। जंगलों के जलने की गंध वातावरण में फैली हुई थी और चारों ओर पहाड़ों के गिर्द धुआं और धुंध ही धुंध थी। वनों का पारितंत्र बुरी तरह नष्ट हो गया था। जिसे बनने में कई दशक लगे होंगे और अब फिर कई दशक लगेंगे। साफ पता लगता था कि वनों के पारितंत्र का कितना महत्व है और उसे हमें हर हालत बचाए रखना चाहिए। क्योंकि, वन रहेंगे तो हम रहेंगे, हमारे जीव-जंतु और हरियाली रहेगी।

देवेन्द्र मेवाड़ी

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