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‘मनोहर’ सपना टूट गया…

‘मनोहर’ सपना टूट गया…

by दिलीप करंबेलकर
in देश हित में मतदान करें -अप्रैल २०१९
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मनोहर पर्रीकर सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों का जतन करके अपने कर्तृत्व के बल पर शून्य से विश्व का निर्माण करने वाले सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके प्रति जनमानस के आकर्षण का मूल कारण यही था।

मनोहर पर्रीकर की असमय मृत्यु ने सारे देश को झकझोर कर रख दिया है। देखा जाए तो गोवा भारत का एक बहुत छोटा सा राज्य है। यहां से भले ही 2 सांसद लोकसभा में जाते हों परंतु अगर अन्य राज्यों के मतदाताओं की संख्या से गोवा तुलना की जाती तो शायद इसे एक भी मतदान क्षेत्र नहीं मिलता। मुंबई का एक पार्षद भी गोवा के सांसद की तुलना में अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। मनोहर पर्रीकर का किसी राजनैतिक घराने से न होना या राजनीति में उनका कोई गॉडफादर न होना यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।

भारत में लोकतंत्र जड़ों तक समाया है, अत: और भी अन्य ऐसे नेता गिनाए जा सकते हैं। किसी राजनैतिक नेता का आईआईटी इंजीनियर होना भी अब कुछ नवीन नहीं है। उनके जैसा साधा जीवन जीने वाले अनेक राजनैतिक नेताओं के भी कई उदाहरण मिल जाएंगे। वामपंथियों में तो ऐसे लोग भरे पड़े हैं। केंद्रीय रक्षा मंत्री के रूप में भी वे केवल सवा दो साल ही कार्यरत रहे। फिर भी मनोहर पर्रीकर की मृत्यु के कारण देश भर के सुशिक्षित, प्रगल्भ तथा सामाजिक संस्कारों से युक्त कई लोगों को ऐसा लगा कि भारत की राजनीति को बदलने की क्षमता रखने वाले एक नेता का निधन होना किसी सुंदर स्वप्न के टूटने जैसा है। निकट इतिहास में ऐसा नहीं हुआ है। यही मनोहर पर्रीकर के व्यक्तित्व का अनोखापन था। वे राजनीति को बदल सकते हैं यह विश्वास उन्होंने लोगों के मन में निर्माण किया था। आज की भाषा में कहा जाए तो पूरे भारत में उनसे कनेक्ट होने वाला बहुत बड़ा समूह था।

वास्तविक रूप से भारतीय राजनीति में सफल होने के लिए जो परंपरागत गुण होने आवश्यक होते हैं, उसका मनोहर के पास अभाव था। वे अच्छे वक्ता नहीं थे। सम्पूर्ण जीवन में दिए गए उनके भाषणों को अगर इकट्ठा किया जाए तो भी एक ग्रंथ बनाना कठिन होगा। उसके नजदीक रहने से किसी को भी लाभ नहीं मिलता था। अमूमन उनका बर्ताव बड़ा नपातुला होता था और जो लोग उस तौल पर खरे नहीं उतरते थे, उनसे वे कम ही सम्पर्क रखते थे। राजनेता और प्रसिद्धि का सम्बंध परछाई की तरह होता है। जब व्यक्ति राजनीति के प्रकाश में आता है, तो उसके पीछे-पीछे प्रसिद्धि अपने आप आ जाती है। परंतु फिर भी अधिक से अधिक प्रसिद्धि कैसे प्राप्त हो इसका प्रयत्न राजनेता करते रहते हैं। मनोहर पर्रीकर इसका अपवाद थे।
अरविंद केजरीवाल ने जब अपने साधारण रहन-सहन की मार्केटिंक करनी शुरू की तो उसके उत्तर के रूप में कुछ मीडिया हाउस ने मनोहर पर्रीकर के रहन-सहन को प्रचारित करने के लिए उनके साथ पूरे एक दिन का कार्यक्रम प्रसारित करने का सुझाव रखा, जिसके लिए मनोहर ने मना कर दिया। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि वे यह जानते और समझते थे कि उनका साधारण रहन-सहन उनके स्वभाव का हिस्सा है, प्रचार का नहीं। दूसरा कारण यह कि वे अच्छी तरह से जानते थे कि साधारण रहन-सहन कार्यक्षमता का विकल्प नहीं हो सकता। वे अपनी कार्यक्षमता के कारण राजनीति में टिके रहेंगे, न कि अपने रहन-सहन के कारण। अत: प्रसिद्धि के लिए किसी भी प्रकार का नाटक उन्होंने नहीं किया। इसी वजह से मनोहर पर्रीकर लोगों को भा गए। उनके पारदर्शी वक्तव्यों के कारण, सहज और नैसर्गिक कृति के कारण वे लोगों के पसंदीदा बन गए थे। मन को भाने वाली एक नि:शब्द भाषा होती है। मनोहर पर्रीकर का सम्पूर्ण व्यक्तित्व वह भाषा बोलता था। लोगों पर उस भाषा का जादू था।

राजनेताओं का और जनता का एक अलग रिश्ता होता है। उपयोगिता के आधार पर देखा जाए तो हजारों लोगों को रोजगार देने वाले उद्योगपति या लाखों लोगों का जीवन बदल देने वाले वैज्ञानिक का अधिक महत्व होना चाहिए। कोई खिलाड़ी या कोई अभिनेता अपने कर्तृत्व के सर्वोच्च शिखर पर होते हैं परंतु लोग उससे अपना भविष्य नहीं जोड़ते हैं। राजनेताओं को रोज अपशब्द कहने वाले भी उनकी ओर आकर्षित हुए बगैर नहीं रह सकते। इसका कारण यह है कि लोकतंत्र में राजनीति जनभावनाओं का कुरुक्षेत्र होती है। उसमें लड़नेवाले सेनानियों के चारों ओर जनता चक्कर काटती रहती है। यह एक सनातन प्रश्न है कि राजनेताओं को इतना महत्व क्यों दिया जाता है?

महाभारत के युद्ध के बाद युद्ध की हिंसा से व्यथित हुए युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से जो प्रश्न पूछे उसकी चर्चा शांतिपर्व में की गई है। इस चर्चा की शुरुआत करते हुए युधिष्ठिर पूछते हैं “राजा सर्वसामान्य होता है, फिर भी लोग उसे भगवान की तरह क्यों मानते हैं?” इसके उत्तर में भीष्म पितामह जो ने कहा उसका संक्षेप में अर्थ यह है कि कृतयुग में जब सभी लोग एक दूसरे की रक्षा करते हुए रहते थे, तब न राजा था और न ही राज्य थे। परंतु जब मनुष्य में लोभ जागृत हुआ तब वेद और धर्म को खतरा उत्पन्न हुआ। इससे मार्ग निकालने के लिए ब्रह्मा ने नियम बनाए। इन नियमों का पालन करवाने के लिए उन्होंने एक मनुष्य को चुना और उसमें विष्णु ने प्रवेश किया। अत: हमारी परम्परा में राजा को विष्णु का अंश माना जाता है। भीष्म नि:संकोच बताते हैं, ‘राजा के आश्रय पर ही समाज के सभी घटक टिकते हैं। उनके संरक्षण में जो प्रजा रहती है, उसके पुण्यकर्मों में राजा का भी हिस्सा होता है।’

लोकतंत्र में राजा सम्पूर्ण समाज-मन का प्रतिनिधित्व करता है। मनोहर पर्रीकर सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों का जतन करके अपने कर्तृत्व के बल पर शून्य से विश्व का निर्माण करने वाले सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके प्रति जनमानस के आकर्षण का मूल कारण यही था। इस जनमानस ने मनोहर पर्रीकर के यश-अपयश से स्वत: को बांध लिया था। अपने भावविश्व में उनको स्थान दिया था। वे जब दिल्ली से पुन: गोवा लौटे तब उन्हें भी इसका अनुभव हुआ था। मनोहर पर्रीकर का जीवन आज की भ्रष्ट राजनीति के साथ लड़ा गया युद्ध था। इस युद्ध की उन्हें भी पूरी कल्पना थी। गोवा जैसे एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री की अंतिम यात्रा के लिए प्रधानमंत्री से लेकर अनेक मंत्री तथा हजारों की तादाद में जनसमुदाय का होना उनकी सफलता नहीं थी वरन वे तो देश-विदेश के भारतीय लोगों के मन में लोकतंत्र की सफलता की किवदंती बन गये। विवेकनिष्ठा, नैतिकता और स्वतंत्रता की ईर्ष्या को जर्मन तत्वज्ञ हेगेल आधुनिक राजनीति का त्रिसूत्र मानते थे।

“हिंदी विवेक’ और पर्रीकर जी का ‘अबाउट टर्न’

भारत के पूर्व रक्षा मंत्री तथा गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर का लम्बी बीमारी के बाद देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात कई लोगों ने उनकी स्मृतिशेषों को सोशल मीडिया के जरिए साझा किया था। ‘हिंदी विवेक’ परिवार के साथ भी उनके सम्बंध बहुत आत्मीय रहे हैं। ‘हिंदी विवेक’ द्वारा प्रकाशित गोवा विशेषांक के लिए लिया गया उनका साक्षात्कार हो या उनकी उपस्थिति में किया गया सुरक्षा विशेषांक का विमोचन कार्यक्रम हो, मनोहर पर्रीकर जी की स्मृतियां हर समय अविस्मरणीय रही हैं।
पर्रीकर जी के अनुशासन और सादगी के किस्से बहुत प्रसिद्ध हैं ही, ‘हिंदी विवेक’ के रक्षा विशेषांक के समय उनकी समय सूचकता और हाजिर जवाबी का भी अनूठा अनुभव ‘हिंदी विवेक’ टीम को मिला। प्रसंग ‘हिंदी विवेक’ के सुरक्षा विशेषांक का विमोचन कार्यक्रम था। उस समय मनोहर पर्रीकर जी रक्षा मंत्री थे। उनके साथ ही मंच पर रा.स्व.संघ के सहसरकार्यवाह कृष्णगोपाल जी, पूर्व लेफ्टिनेंट दत्तात्रेय शेकटकर जी तथा अन्य मान्यवर भी उपस्थित थे। कार्यक्रम के पूर्व अधिक समय न होने के कारण ‘हिंदी विवेक’ की पूरी टीम चाहती थी कि कार्यक्रम के उपरांत मनोहर पर्रीकर जी के साथ सभी का एक ग्रुप फोटो लिया जाए।
जाहिर सी बात है कि इतने मान्यवरों के मंच पर उपस्थित होने के कारण मीडिया कर्मियों की संख्या भी बहुत थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद मनोहर पर्रीकर जी से मिलने लोगों का तांता लगने लगा। किसी तरह उन तक यह बात पहुंची कि ‘हिंदी विवेक’ की टीम को उनके साथ एक ग्रुप फोटो लेना है। उन्होंने सभी को जल्द से जल्द मंच पर पहुंचने के लिए कहा। परंतु सामने से आने वाली भीड़ को रोकना बाहुत कठिन था। हम सभी जैसे ही उनके पीछे खड़े हुए उन्होंने हमारे फोटोग्राफर को पीछे बुलाया और हमारी टीम से कहा कि जैसे ही मैं कहूं ‘अबाउट टर्न’ आप सभी को मेरे साथ पीछे मुड़ जाना है। हम सभी उनकी इस समय सूचकता के कायल हो गए; क्योंकि इस तरह पीछे मुड़ जाने से ‘हिंदी विवेक की पूरी टीम और स्वयं रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर जी ही कैमरे के सामने थे। बाकी सभी लोग पीछे छूट गए थे। फोटो के बाद उनके मुंह से निकले वे शब्द आज भी कानों में गूंजते हैं कि जिन लोगों ने विशेषांक को बनाने में इतनी मेहनत की है, उनके साथ एक फोटो तो होना ही चाहिए था।

मनोहर भारतीय राजनीति के इस त्रिसूत्र के उदाहरण थे। कई बार राजनीति को बदमाशों के आखरी अड्डे के रूप में परिभाषित किया जाता है। परंतु हेगेल के अनुसार आधुनिक राज्य कल्पना बुद्धिगम्य स्वतंत्रता का परिपूर्ण उदाहरण है। वह परिवार और समाज को संयमित करने वाले तत्वों के रूप में अवतरित होती है। व्यक्तियों की स्वतंत्र इच्छा, आकांक्षा और स्वतंत्र प्रज्ञा के रूप में अवतरित होती है और वही समाज की सामूहिक आध्यात्मिक चेतना होती है। जब ऐसा होता है तब राज्य परमात्मा के भूतल पर छपा पदचिह्न होता है। मनोहर पर्रिकर का जीवन यही पदचिह्न था। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी पार्टी में, वैचारिक परिवार में, उनके सहयोगियों में से कितने लोगों को इसकी दैवीय आवाज सुनाई दी होगी परंतु करोड़ों भारतीयों के मन में इनका नाद अवश्य गूंज रहा था। मनोहर पर्रीकर के सामने दो विकल्प थे। वे अपनी कार्यशक्ति को राष्ट्रीय राजनीति पर केंद्रित करें या गोवा की राजनीति पर। उनके जाने के बाद देश-विदेश से आईं प्रतिक्रियाओं को देखकर यह कहना पड़ रहा है कि उन्होंने अपने लिए आसान प्रश्नपत्र चुना था। लोगों को उनसे अधिक अपेक्षाएं थीं और उनमें उतनी क्षमताएं भी थीं। इन क्षमताओं का जाना आघात तो है ही।

दिलीप करंबेलकर

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