एक शाम की मुलाकात

शादी के पहले के प्रेम के किस्से बहुत होते हैं परन्तु शादी के बाद अपने जीवनसाथी से प्रेम की पराकाष्ठा के किस्से कम ही सुनने को मिलते हैं। इन दोनों ही युगलों के प्रेम की पराकाष्ठा थी। यह कहना कठिन होगा कि पुष्पेश-मीनाक्षी का रिश्ता अधिक प्रगाढ़ था या शशांक-तेजस्विनी का। ये दोनों ही युगल एक से बढ़कर एक थे।

जयपुर से मोटीवेशनल सेमिनार से लौटकर पुष्पेश अपने माता-पिता से मिलने जोधपुर पहुंचा। मां-बाबूजी ने उसे कई महीने के बाद देखा था। उसे देखते ही उनकी आंखों में प्रेम के आंसू छलछला उठे। उसने बाबूजी के पैर छुए तो बाबूजी ने सीने से लगा लिया। उस समय राजस्थान का बेस्ट मोटीवेटर पुष्पेश अबोध बच्चे की तरह बाबूजी के सीने से चिपका परम सुख की अनुभूति कर रहा था।

ऐसे ही छोटे बच्चे की तरह वह मां से मिला। मां के आंचल की बात ही कुछ और होती है। यही कारण है मां के आंचल में व्यक्ति सारे दु:ख-दर्द भूल जाता है। मां उसका सिर सहला रही थी और वह बार-बार मां के चेहरे को निहार रहा था।

कुछ देर बाद जब वह मां से अलग हुआ तो मां किचिन में गई। चाय के साथ मूंग दाल के पकौड़े बनाये, पापड़ तले और गाजर के हलवे के साथ बैठक में ले आईं।

मां ने कहा- “बेटा! नाश्ता तेरी पसंद का है, खूब खाना।”

वह बोला- “अवश्य खाऊंगा मां! इसमें आपके हाथों का जादू जो है; लेकिन गाजर का हलवा हमेशा की तरह आप अपने हाथों से खिलाएंगी और पकौड़े बाबूजी।”

“ठीक है, तू आज भी छोटा बच्चा ही है।”- मां ने कहा।

बाबूजी बोले- “बचपन से ही पुष्पेश को अपने मां-बाबूजी का प्यार सबसे ऊपर दिखता है, उमा!”

मां-बाबूजी उसे गाजर का हलवा एवं पकौड़े खिलाते हुए बात करने लगे। बातों ही बातों में मां ने कहा- “बेटा! इस तरह मीनाक्षी की यादों के साथ कब तक जीयेगा? दूसरी शादी कर ले बेटा!”

पहले तो पुष्पेश ना नुकर ही करता रहा लेकिन जब मां-बाबूजी ने उसे समझाया तो उसने उत्तर दिया-“ठीक है! यदि कोई उपयुक्त लड़की मिली तो मैं दूसरी शादी कर लूंगा।”

दो दिन मां-बाबूजी के साथ रहकर वह अजमेर लौट आया।

शाम का समय था। ठंडी हवा चल रही थी। मौसम सुहाना हो रहा था। उस दिन फिर पुराने दिनों ने उसके मन पर दस्तक दी।

पुष्पेश और मीनाक्षी अक्सर पुष्कर रोड पर घूमने जाया करते थे। वहां उन्हें कितनी खुशी मिलती थी! बात करते हुए, गुनगुनाते हुए और आइसक्रीम का आनंद लेते हुए उन्हें घंटों बीत जाया करते थे। पुष्कर रोड पर बने नगर निगम के पार्क में बैठना और झूले पर झूलना मीनाक्षी को बहुत पसंद था।

मीनाक्षी के असमय निधन के बाद भी पुष्पेश मौसम के खुशनुमा होने पर पुष्कर रोड पर घूमने चला आता है, पुराने दिनों को याद करने के लिए। मीनाक्षी के साथ को दिल में सहेजे अपने आप से कुछ पल बात करने के लिए।

वह अपने अतीत को याद करते हुए आगे बढ़ रहा था, तभी उसे सामने से आती हुई तेजस्विनी दिखाई दी। वे दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। शशांक के साथ तेजस्विनी की शादी होने पर वे दोनों रिश्तेदार बन गये थे लेकिन शादी से पहले वे साथ-साथ ही पढ़ते थे। बी.कॉम. भी दोनों ने साथ-साथ अजमेर विश्वविद्यालय से ही किया था। इसे इत्तफाक ही कहा जाएगा कि पुष्पेश की शादी मीनाक्षी के साथ हुई थी और तेजस्विनी की शशांक के साथ।

शादी के पहले के प्रेम के किस्से बहुत होते हैं परन्तु शादी के बाद अपने जीवनसाथी से प्रेम की पराकाष्ठा के किस्से कम ही सुनने को मिलते हैं। इन दोनों ही युगलों के प्रेम की पराकाष्ठा थी। यह कहना कठिन होगा कि पुष्पेश-मीनाक्षी का रिश्ता अधिक प्रगाढ़ था या शशांक-तेजस्विनी का। ये दोनों ही युगल एक से बढ़कर एक थे। एक दूसरे को जी-जान से चाहते थे। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही युगल अपने जीवन साथियों के प्रति पूर्णत: समर्पित थे।

कभी-कभी विधाता संसार के लिए कुछ श्रेष्ठतम कृतियों की रचना करता है और फिर शायद उन सांचों को तोड़ देता है जिन सांचों में ये कृतियां ढलती हैं। ये दोनों युगल भी विधाता की ऐसी ही श्रेष्ठतम कृतियों में से थे।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दोनों ही युगलों के प्राणाधार क्रूर काल ने छीन लिए थे। दोनों के प्रिय सदा-सदा के लिए उनसे बिछुड़ गए थे।

पांच वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में मीनाक्षी की मौत हो गई और हार्टअटैक से शशांक तेजस्विनी से हमेशा-हमेशा के लिए छिन गया। दोनों की आंखों से आंसू निर्झर बनकर झरते रहे। दोनों ने अकेलेपन को झेला तथा अपने प्रिय की यादों को सहेजे रखा।

तेजस्विनी के निकट आते ही पुष्पेश रूका। तेजस्विनी को अभिवादन करते हुए उसने पूछा- “कैसी हैं आप?”

तेजस्विनी ने उत्तर दिया- “जिंदगी के सफर के हालात इतने अजीबोगरीब हैं पुष्पेश कि कह भी नहीं सकते और सह भी नहीं सकते।”

बात करते हुए वे सामने स्थित पार्क की बैंच पर जा बैठे।

पुष्पेश बोला-“तेजस्विनी! आपके जैसी औरत के माथे पर निराशा की लकीरें अच्छी नहीं लगतीं। मैं जानता हूं आपको। आपका धैर्य, साहस और संघर्ष कभी आपको पराजित नहीं होने देगा।”

वह बोली-“जिंदगी का सफर बिना हमसफर के कठिन हो जाता है पुष्पेश! शशांक के जाने के बाद हर पल मैंने इसे महसूस किया है।…….. शायद मीनाक्षी के बिना आपको भी ऐसा लगता होगा।”

“हां! मीनाक्षी के जाने के बाद जीवन में जो खालीपन आया है, उससे नियमित लड़ रहा हूं। मोटीवेटर हूं न …… सबको मोटीवेट करता हूं,….. स्वयं को भी कर रहा हूं। मीनाक्षी के जाने के बाद मैंने अपने आपको बहुत व्यस्त कर लिया है …… लेकिन जब भी फुरसत के पल होते हैं, ……. वो एक्सीडेंट और मीनाक्षी का रक्तरंजित चेहरा मेरी आंखों के सामने होते हैं। मीनाक्षी ने जो मिठास मेरे जीवन में घोली थी, उसे कैसे भूल सकता हूं मैं।”

कहते हुए उसकी आंखों की कोर भीग गईं। तेजस्विनी से नज़र बचाकर उसने धीरे से उन्हें पोंछा।

तेजस्विनी ने रूंधे हुए गले से कहा- “पु….. पु….. पुष्पेश! शशांक से शादी के बाद मैं और शशांक सदा एक-दूसरे के सुख-दु:ख के साथी बनकर रहे। उन्होंने मुझे खुश रखने के लिए कभी कोई कमी नहीं छोड़ी। वे सदा मुझे मुस्कराते हुए देखना चाहते थे …… लेकिन प्राइवेट नौकरी और रोजाना के टारगेट उन्हें मुझसे छीन ले गए। पुष्पेश! उनके बिना जीना मेरे लिए कितना कठिन है, यह मैं ही जानती हूं।

“आप सच कह रही हैं तेजस्विनी! …….. लेकिन आप शादी भी तो कर सकती हैं?”

पुष्पेश के प्रश्न को सुनकर वह बोली- “पुष्पेश! दूसरी शादी तो मैं तभी करूंगी जब कोई मेरे दोनों बेटों स्वास्तिक और सात्विक के साथ मुझे स्वीकार करेगा। अन्यथा मैं दूसरी शादी कभी नहीं करूंगी। …… खैर जाने दो पुष्पेश! यह बताओ कि मीनाक्षी के जाने के बाद आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की? आप तो पुरूष हैं और फिर …….. आपके पास तो मीनाक्षी की निशानी कोई बेटा या बेटी भी नहीं है।”

यह उसने अपनी भीगी हुई पलकों को पोंछते हुए कहा।

“हां, तेजस्विनी! शादी तो मैं कर लेता लेकिन मीनाक्षी जैसी कोई दूसरी लड़की क्या मुझे सरलता से मिल पाती? …….. और मीनाक्षी ने अपने अंतिम पलों में मुझसे सौरभ भैया का ध्यान रखने के लिए कहा था; क्या दूसरी शादी करके मैं मीनाक्षी को दिया वचन निभा पाता?” – पुष्पेश ने प्रश्न किया।

तेजस्विनी उसे समझाते हुए बोली- “माना कि जीवन में किसी और के आ जाने से तुम्हारी आशंकाएं सच भी साबित हो सकती थीं। हो सकता था कि तुम अपना वचन नहीं निभा पाते। …. परंतु क्या हमें भविष्य के प्रति पहले से ही आशंकित होना चहिए? नहीं, पुष्पेश! मैं आशावादी हूं। शशांक के जाने के बाद यदि मैं आशंकाओं के साथ ही जीने का प्रयास करती तो मेरा और मेरे बच्चों का भविष्य संभवत: अंधकार में ही होता, ……. परंतु मैंने हार नहीं मानी और आज मैं अपने बच्चों के साथ अपने घर में हूं।”

पुष्पेश ने अगला प्रश्न किया- “लेकिन ……. क्या यह मीनाक्षी के साथ अन्याय नहीं होता? तुम ही बताओ, क्या किसी और से शादी करके तुम शशांक को याद रख सकोगी?”

“पुष्पेश! हम जिसकी यादें लेकर जीते हैं, उसकी तस्वीर किसी और में देखकर भी जी सकते हैं; सारे वचन निभा सकते हैं, बस! जीवनसाथी समझदार मिल जाए। जीवन के बहुत सारे निर्णय दिमाग से नहीं दिल से लिए जाते हैं पुष्पेश! मेरी मानो शादी कर लो।”

इस बार तेजस्विनी के शब्दों में उसकी समझ और साहस का उच्चतम सोपान था।

पुष्पेश ने एकटक उसे देखा और बोला- “तेजस्विनी! मैं तुम्हारे दोनों बेटों स्वीकार करता हूं। क्या तुम बनोगी मेरी हमसफर?”

वह बोली- “हां पुष्पेश! यदि तुम मेरे बच्चों को स्वीकार करते हो तो मैं तैयार हूं। एक बार और सोच लो।”

इस बार उसके स्वर में और अधिक गंभीरता थी।

पुष्पेश ने उत्तर दिया- “हां, तेजस्विनी! अवश्य ….. परंतु आपको भी एक निर्णय लेना होगा।”

“क्या” – तेजस्विनी ने पूछा।

उसे पुष्पेश की वाणी निर्मल झरने सी लग रही थी और जैसे वह स्वयं उसमें नहा रही थी।

वह बोला- “तेजस्विनी! यदि हम अपने जीवन में रोशनी भरने के साथ-साथ दूसरों के जीवन से भी अंधेरा दूर करें तो यह मेरे लिए सौभाग्य होगा, क्या तुम मेरा साथ देगी?”

“पुष्पेश! शादी दो आत्माओं का मिलन होता है। यदि हम शादी के लिए तैयार है तो हर निर्णय में हम एक-दूसरे के साथ हैं। मैं सदा आपका साथ दूंगी।”

इस बार तेजस्विनी के स्वर में और भी अधिक दृढ़ता थी।

पुष्पेश ने आगे बोलना शुरु किया- “तेजस्विनी! आप अच्छी तरह जानती हैं कि सौरभ भैया और पूजा भाभी मीनाक्षी के भैया-भाभी हैं। वे मीनाक्षी के जाने के बाद भी मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं। वे तुम्हारे भी रिश्तेदार हैं। शशांक उन्हें बहुत मानते थे। नि:संतान होने का दु:ख उन्हें जीने नहीं देता। शशांक के जाने के बाद जब स्वास्तिक उनके पास रहा तो जैसे उन्हें सारी खुशियां मिल गईं थीं…… जब से आप उसे वापस लाई हैं, वे निराश और परेशान हैं।”

“पुष्पेश! ईश्वर ने उन्हें संतान नहीं दी, इसका दु:ख मुझे भी है। सच मानो, सौरभ भैया और पूजा भाभी की मैं बहुत इज्जत करती हूं। उनके व्यवहार में कितना प्यार और अपनत्व है …… लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं अपने कलेजे का टुकड़ा सदा-सदा के लिए उन्हें सौंप दूं।” – उसने तर्क पूर्वक कहा।

“मैं तो बस इतना कह रहा था कि स्वास्तिक हमारे पास भी रहे और उनके पास भी। भगवान श्री कृष्ण भी तो देवकी और यशोदा दोनों के पुत्र बन कर रहे थे।” पुष्पेश बोला।

“ठीक है! …….. तो मैं स्वयं स्वास्तिक को लेकर पूजा भाभी के पास जाऊंगी।” – तेजस्विनी बोली।

पुष्पेश ने एक बार फिर पूछा- “कुछ और कहना है आपको?”

तेजस्विनी ने मुस्कराते हुए न में सिर हिलाया। उसकी आंखों में जीवन-संघर्ष में प्राप्त होती विजय की आभा थी।

रात घिरने लगी थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। चंद्रमा भी जैसे उन दोनों के निर्णय से प्रसन्न होकर मुस्करा रहा था। पूरा शहर बिजली की दूधिया रोशनी में नहा रहा था। वे दोनों पार्क की बैंच से उठे और एक-दूसरे का हाथ थाम लिया। पुष्पेश ने तेजस्विनी को उसके घर छोड़ा।

अगले दिन वे दोनों अपने निर्णय के अनुसार कोर्ट पहुंचे, जहां उनकी शादी हुई। इस शादी के गवाह बने तेजस्विनी के पिता रामस्नेही, शशांक की दादी गायत्री देवी, पुष्पेश के मां-बाबूजी तथा सौरभ और पूजा।

दोनों ने चरणस्पर्श कर बड़ों का आशाीर्वाद लिया। सभी पुष्पेश और तेजस्विनी को बधाई देने लगे। सौरभ और पूजा ने भी दोनों को बधाई दी। तभी तेजस्विनी ने पूजा का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- “मुझे माफ कर दो भाभी! मैं स्वार्थी हो गई थी। स्वास्तिक पर आपका पूरा अधिकार है। मैं देवकी हूं और आप यशोदा। स्वास्तिक को लेकर मैं स्वयं आपके घर आऊंगी।”

पूजा की आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलछला उठे। तेजस्विनी ने उनके आंसू पोंछते हुए उन्हें सीने से लगा लिया। इस तरह एक शाम की मुलाकात ने भग्न हृदयों पर प्रेम एवं विश्वास का मजबूत नवनिर्माण किया।

 

 

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