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इनर लाइन परमिट

इनर लाइन परमिट

by प्रशांत मानकुमरे
in नवम्बर २०१५, सामाजिक
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स्वतंत्र भारत का हिस्सा है, फिर भी वहां से मिजोराम, नागालैण्ड और अरुणाचल प्रदेश में जाने के लिए इनर लाइन परमिट (आंतरिक यात्रा अनुमति पत्र) लेना पड़ता है। यह सिर्फ सुनने के लिए आसान है, पर यह परमिट प्राप्त करना और जांच करवाना ‘भारतीय नागरिक’ के तौर पर अपमानकारक लगता है। ये परमिट आठ से पंद्रह दिन के लिए दिए जाते हैं। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में अथवा हवाई अड्डे पर, संबंधित प्रांत के रेसिडेंट कमिशनर और उनके प्रतिनिधियों के दफ्तर में सुबह १० बजे से १ बजे तक और दोपहर में ३ से ५ बजे तक परमिट दिए जाते हैं। तीन पासपोर्ट फोटो के साथ एक अर्जी और पहचान-पत्र, दाखिले की झेराक्स प्रतिलिपि देकर २०/-रुपये फीस भरकर सुबह अर्जी देने के पश्चात उसी दिन श्याम को या दूसरे दिन परमिट मिलता है। राज्य में प्रवेश करते समय मौलिक प्रमाणपत्र दिखाना पड़ता है। अरुणाचल प्रदेश विस्तृत होने के कारण वहां तवांग, इटानगर और तेजू विभागों के लिए तीन अलग अलग अनुमति-पत्र लेने पड़ते हैं। विदेशियों को मणिपुर और सिक्किम इन राज्यों के लिए भी अलग परमिट लेने पड़ते हैं, पर उनको सारे परमिट दिल्ली से मिलते हैं। कुछ एजेंट योग्य दस्तावेज देने पर ऐसे परमिट दिलाते हैं। पूर्वांचल से दूर प्राकृतिक विपत्ति, हडताल, चक्का जाम, आतंकी गतिविधियों के कारण यहां के सफर की योजना सुयोग्य रूप से नहीं बन पाती, अगर बन भी जाए तो वह यथोचित कारगर होने का भरोसा नहीं होता।

बड़े-बड़े सफर का आयोजन करने वाली कंपनियां यात्रियों के परमिट की व्यवस्था तो करती है, पर उनकी यात्रा बड़ी मर्यादित और महंगी होती है। जिन्हें स्वतंत्रता से घूमना फिरना होता है, उनके लिए परमिट लेना सिरदर्द बन जाता है। सफर करते समय मिजोराम के चेकपोस्ट पर मिजो पुलिस, एकसाइज, मिजोराम स्टुडेंट यूनियन के अधिकारी अपनी ओर दुष्टताभरी और शंकित नज़रों से देखते हैं। बैग खोलकर तलाशी ली जाती है। यह अपमान असहनीय होता है कि अपने ही देश के नागरिकों को प्रवेश के लिए अनुमति-पत्र की जरूरत है।

असम के जंगल और खनिजों का पूरा लाभ मिल सके इसलिए अंग्रेजों ने प्रारंभ में पूरे असम में इनर लाइन परमिट लगाया था। आगे चलकर वह कुछ विभागों तक सीमित रखा। अब स्वतंत्र भारत में ये अलग प्रांत निर्माण होने के बाद उन्हें यह परमिट लगाने का अधिकार दिया है। ईसाई मिशनरियों को इनर लाइन परमिट का लाभ ही लाभ मिला है। यहां पर कोई न आए और कारवाइयॉं न देखें। विदेशों से आने वाले उनके मिशनरी दिल्ली से सहजता से परमिट प्राप्त करते हैं। स्वतंत्रता के बद ईसाई बनने का प्रमाण पहले से ज्यादा है। इससे बहुत कुछ समझा जा सकता है। इन तीनों प्रदेशों से म्यांमार, बांग्लादेश, भूटान व तिब्बत-चीन सीमाएं जुड़ी हैं। शायद सीमा-सुरक्षा के लिए भी इस परमिट का उपयोग होता होगा। इस सटे सीमा-प्रांत से अवैध घुसपैठिए खुले आम आते हैं। भारतीयों के बाहर जाने पर कड़ी शर्ते रखी गई हैं।

किसी समय पहाड़ी लोग इस इलाके में अपने तौरतरीकों से रहते थे। शिक्षा के प्रसार से वे आधुनिक बने। यहां आधुनिक शिक्षा संस्थाएं हैं, पर शिक्षा का स्तर ऊंचा नहीं। पहाड़ी प्रदेश, प्रकृति का प्रकोप कब आ जाए इसका भरोसा नहीं, हडताल, आतंकी गतिविधियों आदि के कारण यहां का व्यापार पनपता नहीं। उत्तर भारत के छल-कपट या धोखे का अनुभव करने के पश्चात यहां के अनेक नवयुवक नौकरी-धंधे के लिए मुंबई-पुणे की ओर आने लगे हैं। यहां के खुले और आधुनिक वातावरण में रहने के बाद उन्हें ऐसा लगता है कि वे अपने प्रांत में क्यों रहे? यह बात उनके ध्यान में आई है कि दफ्तर की भाषा अंग्रेजी होने पर भी व्यवहार में स्थानीय भाषा या हिंदी भाषा बोली और समझी जाती है। हिंदी सिनेमा संगीत, टी.वी.चैनल्स, रामायण-महाभारत ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग दिया है। शिक्षा या व्यापार में आगे बढ़ना हो तो हिंदी भाषा तथा भारत के दूसरे प्रांतों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध होना जरूरी है। इस कार्य में इनर लाइन परमिट बाधा निर्माण करता है, इस बात को वे समझ चुके हैं।

अब इस परमिट की जरूरत नहीं। सीमा सुरक्षा के लिए बी.एस.एफ. कार्यरत है। बड़ी बड़ी यात्रा-कंपनियां, मुसाफिर यहां आएं। इन प्रांतों के और बाहरी दुनिया देखने वाले स्थानीय नागरिकों को केंद्र सरकार के पास यह आवाज उठानी चाहिए। केंद्र सरकार एक दिन इस पर जरूर विचार करेगी, यह असुविधाजनक इनर लाइन परमिट निकाल देगी।

प्रशांत मानकुमरे

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