ग्रामीण सहकारी बैंक:   एनपीए समस्या और समाधान

बैंकों का वह कर्ज जो डूब गया हो और जिसके फिर से वसूल होने की उम्मीद नहीं के बराबर हो उसे एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग असेट) कहा जाता है। अगर बैंक को कर्ज की ईएमआई तीन महीने पर नहीं आती तो ऐसे खाते को एनपीए घोषित किया जाता है। पिछली तिमाही में देश के बैंकों का करीब 8 लाख 30 हजार करोड़ रुपये का कर्ज डूबत खाते में था। दूसरे शब्दों में बैंकों का 10 फीसदी से ज्यादा कर्ज एनपीए है।

एनपीए को बड़ी समस्या के रूप मे देखा जा रहा है। ध्यान देने वाली बात है कि, पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले इस साल की पहली तिमाही में बैंकों के एनपीए 34 फीसदी बढ़े हैं। इतना ज्यादा एनपीए ग्रोथ बैंकिंग सिस्टम के लिए बहुत बुरी खबर है। इसलिए एनपीए को देश के बैंकों की बड़ी समस्या के रूप में देखा जा रहा है। एनपीए को समय के साथ रोकना ही देशहित का कार्य हो सकता है। अन्यथा बैंकों का मुसीबत में आना ही है, जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर अनेक प्रकार से पड़ सकता है।

अमेरिका और चीन जैसे आर्थिक रूप से मजबूत देशों में एनपीए अनुपात 2 फीसदी से भी कम है। कुछ देशों में एनपीए की समस्या अपने देश से भी भीषण है। एनपीए समस्या के कारण देश आर्थिक, सामाजिक एवं औद्योगिक संकट में पड़ सकता है।

भारत कृषि आधारित देश है और इसकी 70 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में रहती है। सहकारी समितियां ग्रामीण भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। विशेष रूप से कृषि प्रधान ग्रामीण क्षेत्र में, सहकारी बैंक आम व्यक्ति को प्रभावित करने और उसकी व्यवसायिक और व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ग्रामीण सहकारी बैंकिंग क्षेत्र भारतीय बैंकिंग संरचना के मुख्य भागीदारों में से एक है। सहकारी बैंकों की संस्थागत ऋण संरचना के माध्यम से ग्रामीण भारत तक अधिक पहुंच है। सहकारी बैंक क्षेत्र की देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सहकारी बैंक आदर्श हैं। सहकारी ऋण संरचना 1904 से भारतीय समाज की सेवा कर रही है और तबसे  इसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। सीमित ग्राहकों, व्यापार की छोटी मात्रा, राजनीतिक हस्तक्षेप के बावजूद यह आंदोलन पिछले 108  वर्षों से खड़ा है और समाज की सेवा कर रहा है। कृषि ऋण नीति, अनिवार्य ऋण योजना, विशिष्ट क्षेत्र के लिए रणनीतियों को अपनाने, ऋण नीतियों और प्रक्रियाओं के युक्तिकरण और उधार की लागत को नीचे लाने के माध्यम से जमीनी स्तर पर ऋण प्रवाह बढ़ाने पर जोर देती है। किसानों को फसल उत्पादन कार्यक्रमों के वित्त पोषण के लिए अल्पकालीन ऋण के रूप में मध्यम अवधि/दीर्घकालीन ऋण के रूप में बैंक ऋण उपलब्ध है। और भूमि की खरीदी सहित भूमि विकास संबध्द गतिविधियों, लघु सिंचाई, कृषि यंत्रीकरण, डेअरी विकास, मुर्गी पालन, पशुपालन, वृक्षारोपण, बागवानी, कृषि उपज के भंडारण और विपणन के लिए ऋण उपलब्ध है। नाबार्ड बैंक को पुनर्वित्त प्रदान करता है। नाबार्ड एक शीर्ष संस्था है, जो ग्रामीण क्षेत्र में कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण के क्षेत्र में नीति और संचालन से संबंधित सभी मामलों में मान्यताप्राप्त है। यह ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों को बढ़ावा  देने के लिए निवेश, उत्पादन ऋण प्रदान करने वाली संस्था है।  इसके जरिए ग्रामीण भागों में लगभग रु 4.50 लाख करोड़ दिए गए हैं। अन्य सहकारी बैंकों का कर्ज 17 फीसदी अलग है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बैंक रीढ़ की हड्डी की तरह है। ऐसे में बैंकों में बढ़ रहे एनपीए बड़ा संकट पैदा कर रहे हैं। साल 2008 में भारतीय कम्पनियों को मंदी का शिकार होना पड़ा था। मंदी के दौर से बाहर आने के बाद बैंकों ने बड़ी कम्पनियों को कर्ज देते समय उनकी वित्तीय स्थिति और क्रेडिट रेटिंग की अनदेखी की। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था एनपीए के जाल में फंसने लगी। जिन सेक्टरों में बैंकों के सबसे ज्यादा कर्ज डूबे हैं उनमें सीमेंट, मेटल,  टेक्स्टाइल्स, कन्स्ट्रक्शन और इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल हैं। इनमें ज्यादा सेक्टर वे हैं जिनकी सेहत देश के विकास दर से जुड़ी होती है। मतलब यह कि विकास दस अगर तेज होती है तो इन सेक्टरों में काम करने वाली कम्पनियों की सेहत बेहतर होती है और कर्ज चुकाने की भी। बैंकों का पैसा एनपीए के कारण डूबने का सीधा मतलब है बैंक के पास कर्ज देने की रकम में कमी और कर्ज देने की रफ्तार में कमी का मतलब है अर्थव्यवस्था में सुस्ती। मतलब यही कि यह पहले अंडा आया या मुर्गी जैसी यह पहेली है। किसी एक को ठीक करें तो दूसरा अपने-आप ठीक होगा। अगर ग्रामीण क्षेत्र पर पूरा ध्यान दिया जाता तो भारत में मंदी का असर कम होता।

सब से ज्यादा कर्ज पांच औद्योगिक सेक्टरों को दिए गए हैं। इनमें सीमेंट, मेटल, टेक्स्टाइल्स, कन्स्ट्रक्शन और इंफ्रास्ट्रक्चर है। सब से अधिक एनपीए इन्हीं क्षेत्रों में बढ़ा है। हालांकि यह दावा किया जाता है कि कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र को दिए गए ज्यादातर कर्ज एनपीए में बदल जाते हैं। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। ग्रामीण इलाकों का विचार करें तो सहकारीे बैंकों के जरिए किसानों को खेती के लिए कर्ज दिए जाते हैं। किसानों के लिए कर्ज को माफ करने की  सरकार की योजना चल रही है। किसानों के वित्तीय बोझ  को सीमित करने के लिए कुल छूट राशि का आकलन लगभग 4.50  लाख करोड़ ही है। लगभग 17 फीसदी ग्रामीण ॠण को, जो सहकारी बैंकों द्वारा दिया गया है उसे सरकार ने माफी से दूर रखा है। किसानों के कर्ज माफ करना ही समस्या का हल नहीं है। एक छोटी सी बात पर जान दिया जाए तो शायद किसानों की दशा में सुधार आ सकता है। किसी भी किसान के लिए ऋण का सबसे  सुलभ और आसान स्रोत उसके गांव का साहूकार होता है और साहूकार किसी भी सहकारी या सरकारी बैंक से कई गुना ज्यादा ब्याज वसूल करता है। किसान पहले सावकार से ऋण लेता है। वह उसे चुका न सका तो फिर सहकारी बैंक से कर्ज लेता है। अगर सरकार किसानों को साहूकार के चंगुल से निकलवा सके तो शायद किसान सहकारी बैंकों का ऋण समय पर चुकाने लायक हो जाएगा और इस तरह कर्जमाफी (राजनैतिक होहल्ले) की जरूरत नहीं रह जाएगी। इस साल  बैंकों में एनपीए की वृद्धि  ज्यादा देखेंगे और यह मुख्य रूप से सरकारों द्वारा घोषित छूट के कारण होगा। कर्जमाफी किसानों के बीच पुनर्भुगतान की संस्कृति को नष्ट कर रही है। हमारे लिए हमारी जनसंख्या ही विपत्ति बन रही है।

गैर-निष्पादित संपत्तियों याने एनपीए के लिए प्रावधान के लिए बाँड (पीएससी) जारी करने से बैंकों के परिचालन लाभ को बचाने में मदद मिलेगी और बैंकों के तुलन-पत्र की हालत अच्छी दिखेगी। पुनर्पूंजीकरण बैंकों के पूंजी आधार को मजबूत करेगा। यह बैंकों के लिए क्रेडिट निर्माण करने में मददगार साबित होगा। बैंकों का  मुनाफा बढ़ेगा। समय-समय पर पुनर्पूंजीकरण के साथ सहकारी बैंकों के कामकाज को पारदर्शी बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए।  सरकार और रिजर्व बैंक की सहभागिता से एक संपत्ति पुनर्निर्माण कम्पनी (असेट रिकन्स्ट्रक्शन कम्पनी) का गठन हो, जो बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए को खत्म कर सके। किसी संस्था या कम्पनी को ऋण स्वीकृत करने से पहले उसकी वित्तीय स्थिति और परियोजना की व्यवहारिकता की जांच हो तथा बगैर पर्याप्त सुरक्षा और बंधक के  कोई ऋण मंजूर न हो।

सबसे अचूक इलाज है अर्थव्यवस्था में तेजी। लेकिन, तेजी बहुत सारे घटकों पर निर्भर होती है। सरकार ने बैंकों को तत्काल नई पूंजी देने का फैसला किया है। उससे कुछ फायदा हो सकता है। नई पूंजी आने से बैंकों के पास कर्ज वितरण के लिए रकम बढ़ेगी तो बैंकों की सेहत में सुधार हो सकता है।

हमारी सकल आमदनी ही 22.50 लाख करोड़ रुपये हैं।  अभी राज्यों से जो प्रस्ताव  ग्रामीण क्षेत्रों में कर्जमाफी के लिए आए हैं वे 4.50 लाख करोड़ के हैं। सकल आमदनी में लिए हुए कर्जों का ब्याज, वेतन, विविध क्षेत्रों में विकास कार्यों में खर्च, अनेक मूलभूत सुविधाएं देनी हैं, जिसेे वित्तीय बोझ बुरी तरह बढ़ सकता है।

इसीलिए सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में  मूलभूत सुविधा बढ़ाने का जो विचार कर रही है वही सही रास्ता दिखाई पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्र में बिजली, स्वच्छ पानी, अच्छी स्कूलें, अच्छे अस्पताल, मंगल कार्यालय, अनाज भंडार, शीतगृह, खेती, खेती के साथ में संलग्न व्यवसाय करने की सुविधाएं एवं मार्गदर्शन जैसी सुविधाएं बढ़ती हैं तो सीमित आमदनी में ग्रामीण व्यक्ति का शहरी क्षेत्रों में जाना कम होगा। ग्रामीण गरीब जनता तथा खेती करने वालों को साहूकार के जाल से मुक्त करना होगा। ग्रामीण बैंकों के माध्यम से लघु व कुटीर उद्योग, ग्रामीण उद्योग, खादी एवं हस्त उद्योग जैसे अनेक विकासात्मक कार्य  ग्रामीण बैंकों के जरिए पूर्ण किए जा रहे हैं। खेती और उससे संलग्न व्यवसाय जैसे दूध, कुक्कुट पालन, बकरीपालन, पशुपालन से खेती के साथ ग्रामीण विकास भी हो सकता है, जो कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की आदर्श ग्राम योजना में ग्रामीण विकास के सूत्र हैं। जिससे ग्रामीण जनता पूर्णता आत्मनिर्भर होगी। हमारे संस्कारों में ही है किसी का लिया देना। ज्यादा हो तो किसी की मदद करना। यही हमारा स्वभाव बनेगा। इससे सस्ते में अनाज लेना या कोई चीज मुफ्त पाने की अभिलाषा रखने वाले स्वभाव में भी कमी आएगी और ग्रामीण क्षेत्र में ऋण अदागयी की समस्या पर निश्चित अंकुश आएगा। सशक्त ग्राम सशक्त भारती कल्पना पूर्ण हो जाएगी।

 

 

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