तन, मन जीवन समर्पित

स्वरूपजी अब इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके आचार-विचार समाज को सदैव प्रचोदित और प्रेरित करते रहेंगे। …जीवन के 90 वर्ष -9 पूर्णांक, शून्य अनंत का गान, बना एक समाज समर्पित जीवन का चिरस्थान, ॐ राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम। पूर्णमद: पूर्णमिदंं।

इस प्रेरणास्पद गीत की उपयुक्त पंक्ति के शब्द-शब्द को जिसने अपने 90 वर्ष की जीवन यात्रा से सार्थक किया या दूसरे शब्दों में, जिस महामानव ने उक्त गीत को अपने जीवन का दर्शन बना लिया, ऐसे सत्पुरुष को मुंबई का समाज पिछले साठ वर्षों से स्वरूपचंद गोयल के नाम से जानता रहा है।

सोमवार, 8 जुलाई सबेरे दस बज कर तीन मिनट पर मोबाइल की घंटी बजी थी, दूसरी ओर से श्री सुरेन्द्र विकल भरे गले से बता रहे थे स्वरूपजी नहीं रहे, मैं उनके घर जा रहा हूं। यह संयोग ही है कि उसी समय एफ. एम. पर पुरानी फिल्म का बड़ा ही प्रसिद्ध गाना चल रहा था- ‘चल उड जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना।’ मन में विचार आया कि एक दीवाना समाज जीवन में लगे हजारों कार्यकर्ताओं को अचानक बेगाना बना कर चला गया। इस आकस्मिक समाचार से उबरने में कुछ क्षण लगे और यह आश्वासन स्वतः ही मिला कि जिस सत्पुरुष ने अपने जीवन को श्री हरि की सत्संग साधना और वंचित वनवासियों की सेवा में समर्पित किया हो, उसे यदि श्री हरि ने अपनी कृपा प्रदान करके अपने पास बुला लिया, तो शोक का क्या कारण है? गीता में कहे गए श्री कृष्ण के वचन याद आने लगे।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पंडिता:॥

हे अर्जुन, तुमने शोक न करने योग्य का शोक किया है और फिर पंडितों जैसी बाते करते हो। जिनका मरण होता है या जिनका मरण नहीं होता है, उनके लिए समझदार लोग शोक नहीं करते क्योंकि यही संसार का सत्य है। यही बात आचार्य विष्णुकांत जी ने अपने गुरू पूज्य अखण्डानंदजी के गोलोकवास पर कही थी – ‘मृत्यु का आघात किसी की भी पंचभौतिक सत्ता को समाप्त कर सकता है, किन्तु क्या वह किसी ऐसे पुण्यात्मा की चिन्मयी सत्ता का स्पर्श भी कर सकता है, जिसने अपना सारा जीवन समाज की सेवा में लगा दिया हो। वह व्यक्ति क्या कभी मर सकता है, जिसने अपने जीवन का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण केवल राष्ट्र साधना और वंचितों की सेवा के नाम कर दिया हो। ऐसे महामानव नाम और रूप की मिथ्या ग्रंथियों से छूट कर केवल अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होकर अमर हो जाते हैं।’ श्री शास्त्री का उपर्युक्त कथन स्वरुपजी, जिन्हें सब आदर से बाबूजी कहते थे, के लिए भी उतना ही सत्य था, क्योंकि उन्होंने अपने सत्कर्म से न केवल अपने जीवन को बल्कि अपनी मृत्यु को भी उत्सव का रूप दे दिया था।

कहना नहीं होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में तप कर आगरा के इस फक्कड़ प्रवासी ने मुंबई की मायानगरी को अपनी सेवा साधना के मोहपाश में ऐसा बांधा था कि उनके व्यक्तित्व के आगे बड़े-बड़े उद्योगपति, उद्यमी, व्यवसायी, विद्वान, विचारक, संत महात्मा, साहित्यकार, कवि- कथाकार नतमस्तक होते थे। अतएव ऐसे महापुरुष के लिए शोक का कोई कारण नहीं, बल्कि उनका सदैव स्मरण आवश्यक है। वह इसलिए कि मरण को भी चुनौती देता है स्मरण। उसकी शक्ति ध्वनित होती है, घनानन्द की इस पंक्ति में “दीढि आगे डोलो जो न बोलो कहा बस लागे मोंहि तो वियोग में दीसत समीप हो।” संयोग में नहीं बल्कि वियोग में व्यक्ति अधिक समीप लगता है, क्योंकि उसका सदैव स्मरण रहता है। यह सत्य है कि स्वरूपजी हमसे भौतिक दृष्टि से दूर हो गए हैं किन्तु उनकी स्मृति, उनका स्मरण, उनकी चेतना का आवरण और उनकी कर्मनिष्ठा का आचरण हमारे पास सदैव रहेगा। शास्त्र कहता है स्मृति:सर्व विपद्विमोक्षणम्। भगवान की स्मृति ही सभी विपत्तियों का नाश करती है, उसी प्रकार स्वरूपजी की स्मृति भी हम सबको अपने-अपने दायित्वों को पूरा करने की प्रेरणा देगी और हमारी अक्षमता, अकर्मण्यता का नाश करेगी। स्मरन्त: स्मारयन्तश्च।

स्वरूपचंदजी साम्प्रत समाज के ऐसे बिरले व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने परिश्रम और पुरूषार्थ से देश की विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया था। 90 वर्ष की आयु में भी उनकी ऊर्जा, काम करने की क्षमता और निपुणता देखते ही बनती थी। मुंबई में उनका आगमन साठ के दशक में हुआ। वे यमुना मैया के तट से रोजगार की तलाश में एक सामान्य व्यक्ति के रूप में मायानगरी मुंबई के सागर तट पर आए थे। वे बहुत छोटे वामन के रूप में मुंबई आए, किन्तु साठ वर्ष में अपने पुरूषार्थ से सागर की तरह विराट व्यक्तित्व के धनी बन कर अनंत में लीन हुए। हमने वामन से विराट बनने की कथा श्रीमद्भागवत में सुनी थी, लेकिन सिंधु सागर के तट पर स्वरुपजी के जीवन में घटते हुए प्रत्यक्ष देखी।

मुंबई की विविध सामाजिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक संस्थाओं के वे जनक थे। आगरा नागरिक संघ, अग्रोहा विकास ट्रस्ट, जनता की पुकार, आदर्श रामलीला समिति के माध्यम से स्वरूपजी ने मुंबई के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को हमेशा जीवंत बनाए रखा। जनता की पुकार के कवि सम्मेलन के माध्यम से वे प्रति वर्ष बड़ी राशि इकट्ठी करके किसी न किसी सत्कार्य के लिए प्रदान करते थे। मारीशस के रामायण सेंटर के परिसर में श्री राममंदिर के निर्माण का कार्य हो या विश्व हिन्दू परिषद प्रणीत सायन कोलीवाडा में हनुमान टेकडी पर अशोक सिंहल रुग्ण सेवा सदन का निर्माण हो अथवा वर्षों पहले उत्तराखंड में आए विनाशकारी भूकंप के पीड़ितों को पुनर्स्थापित करने के लिए पूज्य दीदी मां (साध्वी ऋतंभरा) की प्रेरणा से वात्सल्य ग्राम द्वारा मकानों, विद्यालय भवनों का निर्माण का कार्य हो, इन सबके लिए स्वरूपजी का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।

स्वरूपजी वनवासी क्षेत्रों में विगत तीस वर्षों से चल रहे एकल अभियान के कर्णधार थे। वे श्रीहरि सत्संग समिति के राष्ट्रीय संरक्षक थे। उनकी छत्रछाया में मुंबई की श्री हरि सत्संग समिति प्रति वर्ष अनेक कार्यक्रमों, कथाओं का आयोजन करके वनवासियों के सेवार्थ एक बड़ी धनराशि एकत्र करके श्री हरि सत्संग समिति को प्रदान करती थी। सेवा तथा संस्कार के निमित्त संसाधनों तथा वित्तीय साधनों को एकत्र करने में वे अद्वितीय थे। समिति के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। 90 वर्ष की आयु और अस्वस्थता के बावजूद वे समिति के सभी कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति से कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते थे और उन्हें समिति के उपक्रमों के लिए काम करने के लिए सदैव प्रेरित करते थे, कभी प्यार से, कभी मनुहार से, कभी अधिकार से और कभी डांट कर।

श्री हरि सत्संग समिति के संस्कार शिक्षा के उद्देश्य को   देश के 4 लाख गांवों के 9करोड़ वनवासियों तक पहुंचाना उनका सपना था, उस सपने को साकार करने के लिए वे अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक अहर्निश प्रयत्न करते रहे तभी तो उनके अकस्मात गो लोक वास पर संतप्त मन से समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सत्य नारायण काबरा कह रहे थे कि एक स्वप्नदर्शी महामानव चला गया और एक युग का अंत हो गया तब मुझे श्री वीरेंद्र मिश्र की पंक्तियां याद आने लगीं।

एक सपना सो गया है, सो गया है साथ उसके

एक युग  पूरा जमाना

पास खड़े मुंबई समिति के अध्यक्ष गोपाल कंदोई कह रहे थे कि  ‘श्री हरि के काम के लिए अब हमें डांटेगा कौन?’ एक और सज्जन वहीं खड़े थे, उन्होंने कहा कि ‘बाबूजी ने जीवन भर सेवा संस्कृति के उत्थान के लिए धन इकट्ठा किया और फिर बांटा जिससे विभिन्न संस्थाएं फलीं और फूलीं तथा आज बहुत अच्छा काम कर पा रही हैं। लेकिन अब ऐसी संस्थाओं को देखेगा कौन और उसे सम्हालेगा कौन?’ वह बांटने वाला, डांटने वाला, सबको अच्छे कामों के लिए जोड़ने वाला चला गया था। श्री विनोद लाठ कह रहे थे, ‘मुंबई के समाज और सार्वजनिक जीवन में एक बहुत बड़ा शून्य पैदा हो गया है, उस खालीपन को भरना अब कठिन होगा। अब तो बस उनकी स्मृति का आश्रय लेकर आगे बढ़ना, यही एक मात्र रास्ता बचा है।’

सायं के 4 बजने वाले थे। अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी थी, खुले रथ पर स्वरूपजी का पार्थिव शरीर पधराया गया, सभी ने अश्रुभरे नेत्रों से पुष्पाजंलि दी। बाणगंगा की ओर अंतिम यात्रा की तैयारी। सूर्य अस्ताचल गामी हुआ। आकाश से मेघों ने स्वरूपजी के पार्थिव शरीर का अभिषेक किया और बाबूजी अनंत में लीन होने के लिए निकल पड़े, पीछे-पीछे लोग जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता मुकुंदराव कुलकर्णी, सुरेश भगेरिया, श्याम अग्रवाल, विमल केड़िया, देवकीनंदन जिंदल, सुशील जाजू, भा.ज.प. के विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा, राज पुरोहित, राज्यमंत्री अमरजीत मिश्र, अतुल शाह आदि सभी। अटलजी की पंक्तियां याद आने लगीं।

जन्म मरण का अविरत फेरा जीवन बंजारों का डेरा

आज यहां कल कहां कूच है कौन जानता किधर सबेरा

एक दृष्टि बीती पर डाले, यादों की पोटली टटोलें

अपने मन से अब क्या बोलें।

अंक शास्त्र में 9 के अंक को पूर्णांक माना गया है और शून्य अनंतता का प्रतीक है। स्वरूपजी 90 वर्ष की आयु इसी 18 अगस्त को पूर्ण कर रहे थे। शायद वे इससे आगे जाने की इच्छा नहीं रखते थे। विधि के विधान और अपने जीवन के प्रति शाश्वत समाधान का यह कुछ विचित्र संयोग था, जिसका उल्लेख 10 जुलाई को श्रद्धांजलि सभा में उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए एकल अभियान के प्रणेता माननीय श्री श्यामजी गुप्त ने किया। उन्होंने कहा कि दो तीन महीने पहले स्वरूपजी से उन्होंने मुंबई में दिसम्बर मास में एक विराट वनवासी अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन तथा उनके सम्मान के बारे में बात की थी। स्वरूपजी ने उसी समय उन्हें कह दिया कि क्या करोगे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन करके, उसकी कोई जरूरत नहीं। किसे पता था कि उन्होंने पहले ही अन्तर्यामी से अपने मिलन की तिथि तय कर ली थी, इसीलिए वे मना कर रहे थे। कहते-कहते श्यामजी नि:शब्द हुए थे, किन्तु उनका मौन मुखर हो रहा था। इन शब्दों में।

यादों के दर्पण में मेरे, रुप-स्वरूप का अब भी हंसता

मन मंदिर में बसी मूर्ति जो, मंत्र अर्चना के मैं जपता

जीवन के 90 वर्ष -9 पूर्णांक, शून्य अनंत का गान बना, एक समाज समर्पित जीवन का चिरस्थान, ॐ राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम। पूर्णमद: पूर्णमिदंं।

स्वरूपजी अब इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके आचार-विचार समाज को सदैव प्रचोदित और प्रेरित करते रहेंगे। प्रतीक्षा रहेगी उनको, जिनको उन्होंने अपने नेतृत्व और कर्तृत्व से प्राणवंत किया। अज्ञेय की पक्तियां- आश्वस्त करेंगी उन सबको-

लेकिन फिर आउंगा मैं लिए झोली में अग्निबीज

धारेगी धरा जिसके ताप से, होगी रत्न प्रसू।

स्वरूपजी, बाबूजी की परम चेतना को शत शत नमन।

 

 

 

Leave a Reply