संघकार्य के भास्कर

भास्करराव (मुंडले), ‘भास्करमय’ जीवन जी कर, उनके सम्पर्क में आने वाले हर किसी को प्रकाश देकर अपना जीवन कृतार्थ कर अस्ताचल को गए हैं। …जाते समय भास्करराव उस ‘भास्कर’ की तरह जीवन समृद्ध करने वाले रंग देकर गए हैं। उनके रंग में रंगना, यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

‘भास्कर’ के सम्बंध में कहा जाता है कि, वह उदय के समय भी सृष्टि को प्रसन्न करने वाली रंगछटाएं लेकर आता है और अस्त के समय भी वही रंगछटाएं दे जाता है। जाते समय भास्करराव भी ऐसे ही जीवन समृद्ध करने वाले रंग दे गए हैं। उनके रंग में रंगना, यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

भास्करराव मुंडले की अकाल मृत्यु हुई है ऐसा नहीं कहा जा सकता। सात वर्ष पूर्व उनके ‘सहस्र चंद्रदर्शन’ का कार्यक्रम जोगेश्वरी के अस्मिता विद्यालय में हुआ था। मृत्यु के समय वे 87 वर्ष के थे। उन्हें बीते काफी अर्से से मधुमेह था। वह भी अपना प्रभाव बीच-बीच में दिखाता था। परंतु, भास्करराव के मन पर उसका प्रभाव शून्य था। शरीर धर्म के हिसाब से भास्करराव वृद्ध हो गए थे परंतु मन से वे चिरतारूण्य का वरदान लेकर आए थे। उनका जीवन याने ध्येयासिक्त जीवन का महान आदर्श था। संघ में हम कई बार एक गीत गाते हैं-

दिव्य ध्येय की ओर तपस्वी, जीवनभर अविचल चलता है॥

सजधज कर आए आकर्षण, पग पग पर झूमते प्रलोभन,

होकर सबसे विमुख बटोही, पथ पर सम्हल बढ़ता है॥

अमरत्व की अमिट साधना, प्राणों में उत्सर्ग कामना,

जीवन का शाश्वत व्रत लेकर, साधक हंस कण कण गलता है॥

यह गीत भास्करराव के जीवन पर पूरा-पूरा खरा उतरता है। वे संघ में अंधेरी की शाखा में आए। जिस कालखंड में उनका संघ प्रवेश हुआ, वह कालखंड, सत्ता द्वारा संघ को ‘अस्पृश्य’ घोषित करने का कालखंड था। उस काल में संघ में जाना याने नौकरी मिलने में अड़चन, जीवन की प्रगति में अवरोध निर्माण करना, विरोधियों की गाली खाना इस प्रकार था। भास्करराव भी इन सब कठिनाइयों से पार हुए परंतु उनकी ध्येयासक्ति किसी भी बात से कभी कम नहीं हुई।

संघ काम की एक-एक जिम्मेदारी उन पर आती गई। वे मुंबई महानगर के सहकार्यवाह बने। उस समय कार्यवाह थे मोहरपंत मुजुमदार। वे मुंबई की मुख्य शाखा के स्वयंसेवक एवं कार्यवाह थे। स्वास्थ के कारणों से उन्हें ज्यादा प्रवास करना संभव नहीं था। संघरचना में कार्यवाह के पैरों में चकरी बंधी होती है। वैसे भी मुंबई महानगरी बहुत बड़ी है। तब कुलाबा से लेकर दहिसर तक एवं इस तरफ मुलुंड तक मुंबई का विस्तार था। भास्करराव जोगेश्वरी की सारस्वत कॉलोनी में रहने आए। जोगेश्वरी रेल्वे स्टेशन से उनका घर एक कि.मी. के अंतर पर था।

भाग कार्यवाह एवं मुंबई महानगर के सहकार्यवाह रहते हुए भास्करराव ने मुंबई को जो प्रवास किया, वह आज की भाषा में यदि कहा जाए तो ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में शामिल करना पड़ेगा। महानगरपालिका के जल विभाग में उन्हें नौकरी मिली। नौकरी के बाद सायं 5:30 से रात्रि 12 बजे तक वे प्रवास करते थे। संघ काम याने शाखा कार्य और शाखा कार्य याने जनसम्पर्क। मुंबई महानगर में उस समय लगने वाली 200 से लेकर 225 शाखाओं में भास्करराव का एक बार तो प्रवास निश्चित हुआ होगा। यह लिखना और पढ़ना बहुत सरल है।

अंधेरी में पुलिस मैदान पर एक शाखा लगती थी। दूसरी शाखा अंधेरी स्टेशन से 2-3 किलोमीटर दूर मालपा-डोंगरी में लगती थी। तीसरी शाखा भी इसी प्रकार 2-3 कि.मी. दूर जे.बी.नगर में लगती थी। इन शाखाओं का मैंने भास्करराव के साथ प्रवास किया था।

भास्करराव साइकिल नहीं चलाते थे। कार्यकर्ता को स्कूटर खरीद कर देने की क्षमता उस समय नहीं थी। भास्करराव पूरा प्रवास पैदल ही करते थे। 70के दशक में कार्यकर्ता गिरणगांव, परेल, गिरगांव से उपनगरों में स्थलांतरित हो रहे थे। कोई बोरिवली, कोई मुलुंड तो कोई अंधेरी जा रहा था। भास्करराव के पास यह सब लिखा रहता था। एक बार वे मेरी शाखा में आए और मुझे कहा, “रमेश, जे.बी. नगर में पोतनीस नाम के अपने स्वयंसेवक रहने आए हैं। उन्हें मिलना है, तुम मेरे साथ चलो”। हम दोनों पैदल-पैदल पोतनीस जी के यहां पहुंचे। भास्करराव उनके घर आए इसका आनंद तो उन्हें हुआ ही परंतु मैं संघ की सूची में हूं इसका उन्हें बहुत आनंद हुआ। ऐसे कितने ही कार्यकर्ता भास्करराव ने जोड़ रखे हैं। इसकी गिनती मुश्किल ही है। यह भी एक पराक्रम ही है। मेरे और उनके सम्बंध बहुत आत्मीय थे। अंधेरी के पुलिस मैदान की शाखा अनेक बार मैं और अनिल भागवत नामक मेरे स्वंसेवक मित्र लगाते थे। हम दोनों ही उस समय बालक थे। भास्करराव कभी-कभी शाखा में आते थे। हम दोनों की तारीफ करते थे। भरी बरसात में भी हम शाखा लगाते थे। भास्करराव तब मजाक में कहते कि “रमेश इस शाखा का कार्यवाह एवं अनिल मुख्य शिक्षक।” बचपन में कोई शाखा का मुख्य शिक्षक या कार्यवाह नहीं होता, न ही उस उम्र में उसका अर्थ समझ में आता है। संयोग से, आपातकाल के बाद भास्करराव से मैंने ही मुंबई के सहकार्यवाह का दायित्व सम्हाला एवं भास्करराव की भविष्यवाणी इस प्रकार सच हुई।

संघकार्य हेतु कितनी बैठकें मैंने भास्करराव के साथ कीं इसका हिसाब बताना बहुत कठिन है। महानगर के संघ कार्य के संचालन हेतु निरंतर प्रवास करना पड़ता है, निरंतर बैठकें लेनी पड़ती हैं। संघ के दैनंदिन काम के विषयक बैठकें अतिशय उबाऊ होती हैं, कार्यकर्ताओं की सहनशीलता का अंत देखने वाली होती हैं। जिसे संघ की कोई जानकारी नहीं है ऐसा व्यक्ति इस प्रकार की बैठकों में आधा घंटा भी नहीं बैठ सकता। परंतु संघकार्य पद्धति की यह विशेषता है कि ऐसी उबाऊ बैठकें अपेक्षित कार्यकर्ता कभी टालते नहीं हैं। वे समय पर आते हैं एवं तीन-चार घंटे बैठक में बैठे रहते हैं। ऐसी बैठकें भास्करराव कई घंटों तक लेते थे। उसमें हास्यविनोद का अभाव रहता था एवं वातावरण गंभीर रहता था। बैठक कम कीजिए, ऐसा कार्यकर्ता हमेशा कहते थे। मैं भी उनमें से एक था। परंतु उनके बाद जब मैं सहकार्यवाह हुआ और बैठकें लेने लगा तब भास्करराव के कदमों पर ही मुझे चलना पड़ा।

संघकार्य की आत्मा कार्य के सातत्य में है। यह सातत्य बनाए रखने के लिए संघकार्य की जिम्मेदारी सर्वस्व अर्पण कर निभानी पड़ती है। प्रवास, बैठकें इस कार्य पद्धति का अविभाज्य भाग है। न थकते हुए यह काम सतत करना पड़ता है। भास्करराव ने कोई तय बैठक नहीं ली, किसी वर्ग में वे आए नहीं, मुंबई के शिविर में भास्करराव नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ। सब जगह भास्करराव उपस्थित रहते थे।

आपातकाल के बाद उनको विश्व हिन्दू परिषद की जिम्मेदारी दी गई। संघ का काम अलग, वह शाखा केंद्रित है। विश्व हिन्दू परिषद का काम अलग, वह प्रकल्प केंद्रित एवं प्रश्न केंद्रित है। उदा.राम जन्मभूमि मुक्ति का विषय विश्व हिंदू परिषद का विषय है। संघ क्षेत्र में जीवन खपाने के बाद बिलकुल अलग क्षेत्र की जिम्मेदारी निभाना वैसे सरल काम नहीं है, परंतु देखते-देखते भास्करराव विश्व हिन्दू परिषद के अखिल भारतीय अधिकारी हो गए। उनके प्रवास का क्षेत्र बढ़ गया। नए विषय प्रारंभ हुए। यथावकाश उम्र के चलते वे विश्व हिन्दू परिषद के कार्य से निवृत्त हो गए।

यद्यपि संघ कार्यकर्ता जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है, परंतु वह संघ से अलग नहीं हो सकता। संघ उसका श्वास होता है। निवृत्ति के बाद भास्करराव अपनी पुत्री के पास घोडबंदर रोड ठाणे में रहने आए। पहले उनका सम्पर्क पैदल हुआ करता था, अब फोन के माध्यम से होने लगा। ‘साप्ताहिक विवेक’ एवं ‘दैनिक मुंबई तरूण भारत’ के वे नियमित पाठक थे। लेख पसंद आने पर वे लेखक/लेखिका को फोन कर उसका अभिनंदन करते थे। मैं तो उनके अंतरंगों में था। मेरा अभिनंदन करते हुए उन्हें विशेष आनंद होता था। उनकी शाबासी से मुझे भी लेखन हेतु अधिक स्फूर्ति प्राप्त होती थी।

वे विवाहित थे। घर में मां, छोटा भाई एवं मामा थे। छोटे भाई को फिट्स की बीमारी थी। इस कारण वह बाहर नहीं आ जा सकता था। मेरा जब से उनके घर आना जाना शुरू हुआ, तब से मुझे उनकी मां एवं मामा के दर्शन होने लगे। भास्करराव की तीन पुत्रियां हैं। सतत संघकार्य में लगे रहना, सतत प्रवास, बैठकें, वर्ग, शिविर इन्ही सब में उनकी सारी छुट्टियां समाप्त हो जाती थीं। परिवार के लिए उन्होंने कैसे समय निकाला होगा, उसके लिए उन्हें क्या कसरत करनी पड़ी होगी, इसका अनुभव मुझे सहकार्यवाह बनने के बाद आया।

काल के प्रवाह में उनकी पत्नी का निधन हो गया। पुत्रियों की शादियां हो गईं। वे अपने-अपने घर चली गईं। उनकी पत्नी के निधन के बाद मैं उनके घर गया था, अमोल भी मेरे साथ था। जीवन में मैंने पहली बार भास्करराव को बहुत भावुक होते हुए देखा। उन्होंने कहा, “किस अपेक्षा के साथ उसने मुझसे शादी की यह मैं नहीं बता सकता, परंतु इतने सालों में मेरे संघकाम के आड़े वह कभी नहीं आई”। तब मुझे हमेशा सुनाई देने वाले एक वाक्य की अनुभूति हुई, “हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री होती है।”

ऐसे भास्करराव, ‘भास्करमय’ जीवन जी कर, जो कोई भी उनके सहवास में आया उन्हें प्रकाश देकर अपना जीवन कृतार्थ कर अस्ताचल को गए हैं।

‘भास्कर’ के सम्बंध में कहा जाता है कि, वह उदय के समय भी जसमय भी वही रंगछटाएं दे जाता है। जाते समय भास्करराव भी ऐसे ही जीवन समृद्ध करने वाले रंग देकर गए हैं। उनके रंग में रंगना, यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 

 

 

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