मजदूर आंदोलन के क्रांति पुरुष – दत्तोपंत ठेंगडी

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी की अगले वर्ष जन्म शताब्दी है। उनके अथक परिश्रमों और एकात्म समाज चिंतन से ऐसा मजदूर संगठन खड़ा हो गया है, जो इस समय देश का प्रथम क्रमांक का श्रम संगठन है। उनका व्यक्तित्व एक ‘महान श्रम पुरुष’ है, जिनके पदचिह्नों का सदा आभास होता रहेगा।

देश के लिए कष्ट सहने वाले समाज में राष्ट्रप्रेम जागृत कर समाज को देशविघातक शक्तियों के पंजे से छुड़ा कर उन्हें राष्ट्रभक्ति का मार्ग दिखाने का ऐतिहासिक कार्य भारत में जिस ऋषितुल्य व्यक्ति ने किया उनका नाम है, श्री दत्तात्रेय बापूराव ठेंगडी जो कि दत्तोपंत ठेंगडी के नाम से प्रसिद्ध है। श्रमिक क्षेत्र में अवहेलना, बहिष्कार, अपमान, मज़ाक उड़ाने जैसा विष वर्ष-दर-वर्ष पचा कर भी दत्तोपंत ठेंगडी जी ने अपना कार्य जारी रखा। वर्धा जिले के आर्वी गांव में दिवाली के दूसरे दिन दत्तोपंत ठेंगडी जी का जन्म हुआ। उनकी जन्म तिथि थी 10 नवंबर 1920। आर्वी तथा उसके बाद नागपुर में स्नातकोत्तर एवं कानून की पढ़ाई करते समय उनका संबंध विविध व्यक्तियों एवं संस्थाओं से हुआ। प्रथम आर्वी में वानर सेना, उसके बाद नागपुर में दलित आंदोलन में डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य श्री गुरुजी से उनका संपर्क हुआ। नागपुर में श्रीगुरुजी उनके पालक ही थे।

बहुआयामी व्यक्तित्व

शिक्षा पूर्ण कर वे संघ के प्रचारक बने एवं बाद में बंगाल में संघ कार्य करते हुए आजीवन ‘व्रती’ जीवन का निर्वाह किया। दत्तोपंत ठेंगडी जी ने 1955 में आज के प्रथम क्रमांक के मजदूर संगठन ‘भारतीय मजदूर संघ’ की स्थापना की। उन्होंने भारतीय मजदूर संघ को 49 वर्ष तक पालापोसा तथा बड़ा किया। राष्ट्रप्रेम के नए प्रवाह का सृजन कर उन्होंने अलौकिक ख्याति प्राप्त की। वैश्वीकरण के माध्यम से होने वाले आर्थिक आक्रमण की नींव अर्थात विदेशी चिंतन का सफलता से सामना करते हुए उन्होंने स्वदेशी चिंतन को पुनर्जीवित किया एवं सन 1991 में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। किसानों की समस्याओं की गंभीरता को देखते हुए उस क्षेत्र में राष्ट्रभक्त विकल्प के रूप में उन्होंने 4 मार्च 1979 को भारतीय किसान संघ की स्थापना की। सामाजिक मतभेद केवल कानून के माध्यम से समाप्त नहीं किए जा सकते उसके लिए सामाजिक समरसता का भाव जागृत करना पड़ेगा, इसअपूर्व कल्पना से उन्होंने सामाजिक समरसता मंच की प्रस्तुति 14 अप्रैल 1983 को समाज के सामने रखी। ऊपर ऊपर दिखने वाले मतभेदों के मूल में जो समाज है वह एकरस है, यह सत्य उन्होंने निर्भयता से घोषित किया। विभिन्न पंथों की उपासना पद्धतियां भले एक हो फिर भी हम सारे एक ही भारतमाता के पुत्र हैं। हम सबका डीएनए एक है, इसलिए सभी संतों का समान आदर व सम्मान कर भेदों की खाई मिटाई जा सकती है। इस भावना के साथ श्रमिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए उन्होंने 14 अप्रैल 1991 को सर्वपंथ समादर मंच की स्थापना की। भोपाल गैस कांड के बाद ‘उद्योग एवं पर्यावरण का संतुलन साधने वाला विचार प्रस्थापित करने से ही राष्ट्र का औद्योगिकीकरण मानवीय मूल्यों के आधार पर होगा‘ इस विचार से उन्होंने भारतीय मजदूर संघ के तत्वावधान में पर्यावरण मंच की स्थापना की। प्रज्ञा प्रवाह, विद्यार्थी परिषद जैसे कामों की वैचारिकता को सबल बनाने का काम उन्होंने अपने हाथ में लिया। रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न गुटों के आपसी मतभेद दूर हों, और वह एकजुट पार्टी बने इसके लिए उन्होंने 60 के दशक में प्रयत्न किए। उन्होंने अपने प्रदीर्घ सामाजिक जीवन में ऐसे अनेक उपक्रम किए। 1967 से 1976 के कालखंड में वे राज्यसभा के सदस्य थे। इस दौरान उनके द्वारा किए गए संसदीय कार्य अविस्मरणीय हैं। ‘जगतमित्र’ के रूप में ख्याति प्राप्त ठेंगडी जी के वामपंथी, दक्षिणपंथी एवं अन्य सभी मतों के व्यक्तियों से मित्रता एवं स्नेहपूर्ण संबंध थे।

नई संकल्पनाओं को समाज के सम्मुख रखने हेतु उन्होंने पूरे भारत में सैकड़ों व्याख्यान दिए। विदेश दौरे किए। अंतरराष्ट्रीय परिषद में भी डंका बजाया। राष्ट्रपति श्री गिरि के प्रतिनिधि के रूप में उनकी रूस की यात्रा, चीन के निमंत्रण पर की गई चीन की यात्रा, श्रम मंत्रालय के मार्गदर्शक के रूप में की गई जिनेवा यात्रा आदि उनकी महत्वपूर्ण विदेश यात्राएं रहीं।

उन्होंने अनेक छोटी बड़ी किताबें लिखीं। उनके सार्वजनिक जीवन की इतिश्री 14 अक्टूबर 2004 को उनके निधन के साथ हुई। उनके बहुआयामी कार्यों का लेखा-जोखा रखने का साहित्य भंडार चकित करने वाला है। सुरुची प्रकाशन ने उनका साहित्य 2016-17 में 9 खंडों में प्रकाशित किया है।

विविध जनसंगठनों का निर्माण एवं दलित आंदोलन में उनका योगदान व चिंतन यह अलग लेखन का विषय है। देश में अनेक समाज सुधारक अपना कार्य समाप्त कर परलोकवासी हो गए। कुछ के प्रयत्न उनके जीवन काल तक रहे एवं बाद में समाप्त हो गए। कुछ के काम आगे जारी रहे और फलदायी रहे, जिनमें ठेंगडी जी हैं।

कार्य विस्तार

इन सब में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की विशेषता ऐसी थी कि उनके समाज कार्य एवं व्यक्तिगत जीवन में परिपूर्ण एकात्म भाव था। इसलिए उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन उनके कार्यक्षेत्र के मूल्यांकन से ही सहज सिद्ध होता है। उनके व्यक्तित्व की जीती जागती मिसाल है उनके द्वारा देशभर में स्थापित किया गया विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों का संजाल। अत: उर्ध्वगामी विस्तार पाने वाले भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच के रूप में उनके व्यक्तित्व की छाया आने वाले अनेक वर्षों तक पड़ती रहेगी एवं इसी से उनके व्यक्तित्व की महानता समझ में आएगी।

समाज के विभिन्न स्तरों में अपने कार्य की छाप छोड़ कर उन्होंने कई कार्य सिद्ध किए हैं। यही उनके जीवन का सफल आलेख है। परंतु उनका कार्य व जीवनी एक कठोर तपस्या है तथा उसके लिए उन्हें हर बार परीक्षा देनी पड़ी है। समाज के सबसे निचले तबके के, कष्ट करने वाले गरीब एवं उपेक्षित वर्ग में राष्ट्रीय भावना जगाने का जो महती कार्य प्रारंभ किया, उसकी कार्यपद्धति तथा उस काम को करने वाले कार्यकर्ता का आकलन करना, उसकी मीमांसा करना इन सब से ही ठेंगडी जी के कार्य की सच्ची पारदर्शी प्रतिमा खड़ी की जा सकती है। श्रमिक क्षेत्र का गठन वैश्विक स्तर पर मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर हुआ है। वह प्रभाव विश्व में आज भी है। कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स के विषय में रूसी चिंतक लियोनादो अपने ग्रंथ थ्री फेजेस ऑफ मार्क्सिज्म में कहते हैं, सर्वोपयोगी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था तथा राज्यतंत्र की चर्चा कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स ने कभी नहीं की। क्योंकि मार्क्स कहता है कि श्रमिकों को किसी भी आदर्श के पीछे भागना नहीं है वरन पुरानी समाज व्यवस्था को समाप्त कर उसमें से नई समाज रचना का निर्माण करना है।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिस चिंतन से विश्व में श्रमिक आंदोलन का उदय हुआ उस चिंतन के जन्मदाता के पास देने हेतु कोई भी आदर्श नहीं था। मूलत: श्रमिक को केवल आर्थिक प्राणी मानने के कारण उसके मन, बुद्धि, आत्मा आदि को सुपर मैटर मान कर विषय समाप्त कर दिया गया। अत: विश्व में यह धारणा द़ृढ़मूल है कि श्रमिक शक्ति सत्ता परिवर्तन का एक औजार है। मार्क्सवाद प्रणीत इंटरनेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियंस (आईसीएफटीयू) एवं चर्च प्रणीत वर्ल्ड कॉन्फेडरेशन ऑफ लेबर (डब्लूसीएल) इन दोनों संगठनों को मिलाकर आईटीयूसी अर्थात इंटरनेश्नल ट्रेड यूनियन कॉन्फडरेन बना। इनके विचारों में भी श्रमिक राजसत्ता की कठपुतली है। ये दोनों पद्धतियां श्रमिक संगठनों को राजनीति का ट्रांसमिशन बेल्ट मानती है।

बोल्शेविक आंदोलन को 100 वर्ष पूरे हो गए हैं। रूस ने 1989 में सोवियत रूपी बीमारी से मुक्ति पा ली। पेरेस्त्रोईका एवं ग्लासनोस्त परिवर्तन को 30 वर्ष पूर्ण हो गाए हैं। वैश्वीकरण केकारण उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव हुआ है और उसके कारण औद्योगिक संबंधों के संदर्भ में हम भी बदल गए हैं। विश्व में तेजी से जॉब प्रोफाइल भी बदल रही है।

इन सब परिवर्तनों के बाद भी श्रमिक आंदोलनों के मूलभूत तात्विक चिंतन में किसी भी प्रकार का दर्शनीय बदलाव नहीं हुआ है।

यूरोप, अमेरिका में लोकतंत्रीय प्रक्रिया में भाग लेने वाला वैश्विक श्रम संगठन आईटीयूसी है और राज्य सत्ता का अंग बनी ऑल चायना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अविभाज्य दल बन कर काम कर रही है। इन सब का आधार आज भी बदला नहीं है। ये सब राजनीतिक दलों के अंग बन कर काम करते हैं तथा श्रम संगठन का उद्देश्य सत्ता प्राप्ति ही रखते हैं। सत्ता के माध्यम से समाज परिवर्तन होता है ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। भारत के विभिन्न श्रम संगठनों का आधार भी वही है। इसका कारण उनकी चिंतन-प्रेरणा विदेशी है। भारत के साम्यवादी श्रम संगठन, समाजवादी संगठन तथा कांग्रेस प्रणीत इंटक संगठन इन सबसे राजनीतिक हित संबंधित छोड़ दें तो श्रम संगठन के विषय में उनका स्वीकृत मॉडल वही है जो मार्क्स एंगेल्स, लेनिन का लेफ्ट मॉडल है।

इस पृष्ठभूमि में 1955 में ठेंगडी जी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना कर एक अलग सूत्रपात किया। उस समय देश की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि जनमानस में यह धारणा निर्माण की गई थी कि यदि देश में नेहरू का कोई विकल्प है तो केवल साम्यवादी हैं।

सैद्धांतिक भूमिका

ऐसे माहौल में ठेंगडी जी ने अलग विचारों की प्रस्तुति के माध्यम से भारतीय मूल चिंतन की स्थापना की और कहा कि हम समाजवादी नहीं हैं। किसी वाद की संकल्पना ही स्वीकार नहीं है; क्योंकि जन जीवन हमेशा प्रवाह ही होता है और यदि जीवन पद्धति पुस्तकबंद हो गई तो इज्म (वाद) तैयार होते हैं। हमारा कोई इज्म नहीं परंतु यदि उनकी भाषा में कहा जाए तो हमारा नेशनलिज्म है। राष्ट्र के लिए जो हितकर है वही हम करेंगे। उस समय समाज में स्थापित मान्यताओं को नकार कर प्रवाह के पूर्ण विरोध में खड़ी की गई यह प्रस्तुति वास्तव में क्रांतिकारक थी। ‘द ब्लैक स्वान’ नामक विश्व प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक नसीम तालेब लिखते हैं कि मनुष्य के घटते मन के घटते अन्वेषण के तीन कच्चे धागे होते हैं- 1) विश्व में क्या घटित हो रहा है, यह सब समझता है ऐसा भ्रम, 2) किसी घटना को हम देख रहे हैं इस प्रकार अपनी इच्छा या मान्यता के अनुसार अर्थ निकाल कर इतिहास लिखना यह दूसरा भ्रम और 3)वस्तुस्थिति को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करना है तीसरा भ्रम।

मार्क्सवादी चिंतकों द्वारा लेनिन के बाद विश्व में प्रस्तुत साम्यवादी चिंतन ऐसा ही भ्रामक है और विश्व में इसी भ्रामकता पर श्रमिक क्षेत्र का काम चलता है। परंतु ठेंगडी जी ने समाज हमारा है एवं हम समाज के अविभाज्य घटक हैं ऐसे समाज से एकात्म करने वाले विचारों के सूत्र ठेंगडी जी ने प्रस्तुत किए एवं उनसे कार्यकर्ताओं की रचना हुई। नारे निकले तथा मांगें भी प्रस्तुत की गईं। इसी प्रक्रिया से श्रमिक क्षेत्र के ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे के सम्मुख ‘भारत माता की जय’ का नारा दिया गया। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण इस मूलभूत सिद्धांत को मानने वाले श्रम मानकों के सामने नई घोषणा आई एवं वह थी श्रमिकों के राष्ट्रीयकरण की।

वेतन में हो रही हानि की भरपाई करने हेतु बोनस होता है, अत: बोनस विलंबित वेतन है। इस मत का स्पष्ट प्रतिपादन कर, सरकारी, अर्धसरकारी कर्मियों के लिए बोनस मांगने वाला एवं बोनस के कानून की मूलभूत परिभाषा को विलंबित वेतन के रूप में प्रस्तुत करने वाला भारतीय मजदूर संघ क्रांतिकारी कार्यक्रमों का जनक बना।

रोजी रोटी के लिए जीवित रहने वाला मनुष्य केवल आर्थिक प्राणी है एवं उसमें मन, बुद्धि, आत्मा का अस्तित्व नकारने वाला चिंतन मनुष्य को भेड़ों के झुंड़ के समान मानता है। ऐसे श्रमिकों को समाज हेतु काम करने के त्याग, तपस्या एवं बलिदान के त्रिसूत्रों ने आकर्षित किया। मैं भी सबके समान समाज का महत्वपूर्ण घटक हूं यह प्रस्तुति श्रमिकों को बता गई कि समाज में उनका स्थान भी सम्मान एवं स्वाभिमान के साथ जीने का है। इन सब के प्रतीक के रूप में ‘भारत माता की जय’ की नवीन उदघोषणा श्रमिक जगत मे पैदा हुई। सन 1963 में कानपुर के मैदान पर स्व. रामनरेश सिंह उर्फ बड़े भाई ने सभी श्रम संगठनों की एकत्र सभा में यह नारा दिया। अन्य सब संगठनों ने पहले प्रतिप्रश्न किया था कि, श्रमिकों का भारत से क्या संबंध? उन्हें लगता था कि भारत माता की जय सुनकर श्रमिक सभा छोड़ कर चले जाएंगे। परंतु भारत माता की जय के नारे से वह सभा 20 मिनट तक गूंजती रही।

भ्रम पालने वालों का भ्रम उस दिन टूट गया। राष्ट्र की संकल्पना श्रमिकों की समझ में आनी चाहिए। सारा राष्ट्र एक है इसलिए समाज के सभी घटक एक दूसरे के पूरक हैं। मालिक एवं मजदूर एक दूसरे के पारंपारिक शत्रु नही हैं। इसलिए राष्ट्र- उद्योग एवं मजदूरों का हित एकात्मता की दिशा में कदम बढ़ाने से साध्य होगा यह विचार दत्तोंपत जी ने सार्थ कर दिखाया।

इतनी कारण मीमांसा यदि श्रमिकों ने समझ ली तो समझो उनका राष्ट्रीयकरण हो गया। उद्योंगो की मालकियत के अनेक प्रकार हो सकते हैं। उद्योग केवल राष्ट्रीयकरण के माध्यम से ही चले यह साम्यवादी श्रद्धा है। उनके सामने उद्योग नहीं मजदूरों का राष्ट्रीयकरण हो, यह अपूर्व कल्पना प्रस्तुत हुई।

सहकारी प्रतियोगिता

राष्ट्रसमर्पित, समाजसेवी, स्वयंपूर्ण एवं स्वायत्त जनसंगठन द्वारा गैरराजनीतिक रह कर राजसत्ता पर अंकुश रखने वाली जनशक्ति के रूप में समाजरक्षा एवं समाजसेवा करनी चाहिए। इस भूमिका का पुनर्उच्चारण, फरवरी 1973 की ठाणे चिंतन बैठक में संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू. गुरुजी ने किया था। संविधान के माध्यम से चुन कर आने वाली प्रत्येक सरकार से ऐसे जनसंगठन का व्यायहारिक संबंध प्रतियोगी सहकारिता का होना चाहिए। सरकार जिस प्रमाण में मजदूर हितैषी निर्णय लेती है उतने प्रमाण में सहयोग और जितने प्रमाण में विरोधी भूमिका में रहती है उतना असहयोग ऐसी प्रतियोगी सहकारिता की कार्यपद्धति से जनसंगठन कार्य करेगा यह मार्गदर्शन भी उनका ही था।

इसके कारण राजनीतिक दल के साथ सत्ता के साथ श्रम संगठनों के आदर्श संबध कैसे हो इसकी भूमिका ही भा.म.संघ ने बांध दी, ऐसा कहा जा सकता है। 1983 की भारतीय श्रम परिषद में भा. म. संघ के अध्यक्ष स्व. मनोहर मेहता ने भा.म.संघ का प्रतिनिधित्व किया था। सी.पी. आई. की सांसद श्रीमती पार्वती कृष्णन ने परिषद में उनसे कहा, आपका यह प्रतियोगी सहकारिता का तत्व एक दिन हमें नष्ट करने वाला है। 35 साल बाद उनका कथन किस तरह सच साबित हुआ ये उनके ही श्रम प्रतिनिधि आज बताते हैं। क्योंकि वे आज एक से चौथे क्रमांक पर चले गए हैं। सदस्य संख्या के मामले में भी वे भा.म. संघ के 30% ही है। सरकार के साथ एक स्वयंपूर्ण जनसंगठन के संबध कितने उच्च स्तर के हो सकते हैं इसका पाठ भी भारतीय मजदूर संघ ने अन्य संगठनों को पढ़ाया।फ

 

मुंबई में 1973 की रेल्वे की हड़ताल के अध्यक्ष ने इस प्रस्तुति का सार्वजनिक मज़ाक उड़ाया था। परंतु बीस साल बाद उन्हें कहना पडा कि जिस स्थान पर हम थे उससे उच्च स्थान पर भा.म.संघ हैं, जिसने श्रमिकों के राष्ट्रीयकरण की बात की थी।

सन 1963 में जिन्होंने भारत माता की जय के उद्घोष का विरोध किया था उनके प्रतिनिधि एवं सांसद का. गुरुदास गुप्ता ने 2012 में रामलीला मैदान, नई दिल्ली में आयोजित मजदूर संगठनों के जलसे में स्वयं वंदे मातरम एवं भारत माता की जय के नारे का उद्घोष कर राष्ट्रवादी चिंतन की विजय पर अपनी मुहर लगाई थी।

1963 के मुंबई के संयुक्त आंदोलन के कारण 23 अगस्त का मुंबई बंद सफल रहा था। लकडावाला समिति की स्थापना हुई एवं उसने यह फैसला दिया कि मुंबई के लिए जो मंहगाई का सूचकांक है वह गलत है। भा. म. संघ आंदोलन के केंद्र स्थान में था। गैर वामपंथी मोर्चे का नेतृत्व भा. म. संघ ने किया था।

हमें सब समझता है, महंगाई भत्ता सूचकांक में सुधार की मांग पागलपन और बचकानी है ऐसा मज़ाक उड़ाने वाले कामरेड डांगे को इस आंदोलन की सफलता से भविष्य का पता लग गया था। शिवाजी पार्क में आयोजित अगस्त 1963 की सभा के अध्यक्ष स्व. नानासाहेब गोरे ने यह संदेश भेजा कि ठेंगडी संघ प्रचारक हैं और मेरा नियम है कि मैं संघ के व्यक्ति के साथ मंच साझा नहीं करता। फिर भी, व्यापक श्रमिक हितों के लिए ठेंगडी जी ने यह अपमानास्पद व्यवहार सहन कर लिया। प्रास्ताविक भाषण देकर एवं स्व. नानासाहेब गोरे के सभाध्यक्ष होने की सूचना देकर वे मंच से नीचे उतर आए। परंतु 15 वर्ष बाद आपातकाल की समाप्ति पर जनता पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ठेंगडी जी की मुलाकात नानासाहेब गोरे से पुणे में हुई। उस समय नानासाहेब ने ठेंगडी जी से 1963 की घटना के लिए माफी भी मांगी।

उदाहरण स्वरूप दी गई उपरोक्त घटना को देखने से ध्यान में आता है कि संपूर्ण श्रमिक क्षेत्र को अवाक करने वाली इस वैचारिक प्रस्तुति को क्रमश: मान्यता प्राप्त होने लगी। सन 1980 में पूरे देश में सदस्यता के सत्यापन (सरकार द्वारा) के बाद भा.म.संघ को देश में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। सरकारी तंत्र के दरवाजे भामस के लिए खुले एवं विदेशों तक भा.म.संघ का एकात्मता का विचार पहुंचा। सन 1989 में सदस्यता के अनुसार भा. म. संघ न एक क्रमांक पर पहुंच गया।

द्वेष तथा तिरस्कार से अंधे होकर अन्य संगठनों ने तब तक विदेशों में भारतीय मजदूर संघ की प्रतिमा विकृत कर रखी थी। 1998 में जिनेवा की अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठनों की परिषद में विदेशी प्रतिनिधियों ने भा. म. संघ के कार्यकारी अध्यक्ष श्री वेणूगोपाल से पूछा- आप केवल हिंदुओं का संघटन ही क्यों करते है? तब साथ बैठे हुए पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने भारतीय मजदूर संघ की भूमिका उन्हें विशद कर बताई। उन्होंने कहा- मैं भारतीय मजदूर संघ को जानता हूं। ये नेकदिल इंसान हैं। आप जो कह रहे है वह गलत है।

श्रमिक क्षेत्र में

2003 में आंगनवाडी सेविकाओं का मानदेय सरकार ने दुगना कर दिया इसलिए मा. प्रधानमंत्री जी का सत्कार करने हेतु 1250 महिलाएं 12 जनवरी 2003 को एकत्रित हुईं। सत्कार के बाद प्रधानमंत्री अटल जी ने सबको भोजन कराया। स्वतंत्र देश के इतिहास मे यह शायद पहली घटना होगी। प्रास्ताविक भाषण में श्रम प्रतिनिधियों ने कहा, आंगनवाडियोेें की ओर से हम सम्मान करने जा रहे हैं। पर उसी समय सरकारी उद्योगों में विनिवेश के निर्णय का विरोध करने वाला विरोध-पत्र भी देने जा रहे हैं। सम्मान के उत्तर में मा. प्रधानमंत्री जी ने कहा- मैं केवल हार पहनने के लिए ही नहीं हूं, मैं सरकार विरोधी प्रहार भी उतने ही आनंद से झेलूंगा।

परस्पर आदर, सम्मान, स्नेह तथा कर्तव्य की समझ रखने वाली यह डोर ही समाज को बांध कर रखेगी एवं शोषणमुक्त समाज के निर्माण की ओर कदम बढ़ाती रहेगी इसकी गवाही ही मानो इस प्रसंग  ने श्रमिक जगत को दी।

समाजहितवादी जनसंगठन की कार्यपद्धति उतनी ही प्रभावी होनी चाहिए एवं कार्यकर्ताओं के आचरण में वह प्रकट होनी चाहिए। समर्पित निरंतर कार्यमग्न कार्यकर्ताओं की ओर देख कर उनके विचारों की पहचान होती है। ऐसे निष्कलंक हजारों कार्यकर्ताओं की फौज ठेंगडी जी ने निर्माण की। नए विचारों को समझना उन्हें आत्मसात करना एवं जीवन में उतारना यह अत्यंत कठिन कार्य है। 1955 से 1967 के कालखंड में उन्होंने देश भर में अविराम प्रवास कर श्रम क्षेत्र में कायर्र्कर्ताओं का निर्माण किया। 1980 के दशक में किसान आंदोलन एवं 90 के दशक में स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ताओं का निर्माण भी इसी पद्धति से किया।

प्रेरणा स्थान

चरैवेति यह उनके जीवन का मंत्रजाप मृत्युपर्यंत अविरत चला। पहले कार्यकर्ता खडे हुए एवं उनके पारदर्शी चरित्र की ओर देखकर नए-नए कार्यकर्ताओं को प्रेरणा मिली। देश भर में 2 करोड़ तीस लाख सदस्य 5400 संगठन 450 जिलों में काम यह हजारों कार्यकर्ताओं की दिनरान मेहनत का परिणाम है। ठेंगडी जी उन्हें मृत्यु के बाद भी प्रेरणा दे रहे हैं।

उन्ही की प्रेरणा से आज लाखों कार्यकर्ता सदस्यों ने राष्ट्रवाद की दीक्षा ली है। श्रमिक क्षेत्र समाज की रक्षा करने वाला राष्ट्रवादी शक्तियों का खड़गहस्त बन कर कार्यरत रहे यही अपेक्षा पूरी करने की राह पर भा.म. संघ तथा उसके साथ भारतीय किसान संघ सरीखे जनसंगठन अग्रसर हैं।

पालघाट के सी पी एम के लोकसभा सदस्य एवं ठेंगडी जी के मित्र बालचंद्र मेनन ने ठेंगडी जी से कहा, “किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने की स्केल है उसके कार्य की भविष्य में पड़ने वाली लंबी छाया।” उस कसौटी पर ठेंगडी जी का संपूर्ण मूल्यांकन आज नहीं हो सकता; क्योंकि उनके समाज हितैषी कार्यक्रमों की छाया अभी भी अनेक दशकों तक रहेगी। इसके अतिरिक्त किया गया काम केवल नींव भराई है। उस पर विशाल श्रम भवन की निर्मिति होनी अभी शेष है।

इसके लिए कार्य विस्तार करना होगा तथा भा.म.संघ की स्थिति सदृढ़ करनी होगी। श्रमिक क्षेत्र में अब तक जो काम होता आया वह लेफ्ट मॉडल था। क्योंकि श्रम क्षेत्र की वह परिभाषा थी। अब यह परिभाषा  एकात्म समाज की संकल्पना के अनुरूप परिवर्तित होनी चाहिए। उसकी प्रस्तुति ठेंगडी जी ने अपनी ‘श्रम नीति’ पुस्तक में की है। स्थानाभाव के कारण उसका पूर्ण विश्लेषण यहां संभव नहीं है। केवल एक मुद्दा लेते हैं। उत्पादन बढ़ाने में श्रमशक्ति और उसमें श्रमिकों की उचित हिस्सेदारी कितनी हो, इस प्रश्न का समाधान 1961 की श्रम नीति इस पुस्तक में किया गया है। इसके आधार पर भविष्य के कार्यक्रम की प्रस्तुति हो सकती है। सामूहिक सौदेबाजी याने सरेराह लूटमार है; कारण उसमें समाजहित का कोई संदर्भ नहीं है। इस समस्या पर ठेंगडी जी ने मालिक-मजदूर-ग्राहक-सरकार ऐसी चार पक्षीय रचना की वैकल्पिक सूचना उनकी नेशनल कमिटमेंट संकल्पना में 1981 में की है। उसकी युगानुकूल व्यावहारिक प्रस्तुति होनी चाहिए। उनके चिंतन में  विश्व की समस्याओं का समाधन करने का सामर्थ्य है।

एक समय परंपरा से प्राप्त ज्ञान को परिपूर्ण मान कर मानव समाज ने राजहंस यह श्वेतवर्णीय ही होता है ऐसी समझ निर्माण कर ली थी। ऑस्ट्रेलिया की खोज के बाद शेष विश्व को वहां काला राजहंस भी देखने को मिला। भ्रामक कल्पना संकल्पना चूरचूर हो गई एवं सत्य का एक अलग ही साक्षात्कार हुआ।

स्व. श्रद्धेय दंत्तोपंत ठेंगडी श्रमिक विश्व के चिंतन का एक ऐसा ही साक्षात्कार है। श्रमिक विश्व के चिंतन का अंतिम सत्य अब आकार ले रहा है।

 

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