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 त्रिपुरा में जातीय संघर्ष एवं बगावत

 त्रिपुरा में जातीय संघर्ष एवं बगावत

by अशोक मोडक
in नवम्बर २०१५, सामाजिक
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त्रिपुरा में पिछले सात दशकों में जातीयता एवं बगावत के घटनाक्रम का बारीकी से अध्ययन करना हो तो अटल बिहारी वाजपेयी के ये शब्द बहुत माकूल हैं, ‘‘कहानी तो शुरू सब को करनी आती है, खत्म कैसे करेंगे, किसी को नहीं आता।’’ क्या यह त्रिपुरा की माकपा सरकार के लिए सीख नहीं है? माकपा ने तो कहानी आरंभ कर दी, लेकिन उसे खत्म करना नहीं आ रहा है।

पूर्वांचल का राज्य त्रिपुरा जातीय संघर्ष एवं   बगावत की समस्या से जूझ रहा है, यह सभी जानते हैं। त्रिपुरा के लोग इसके लिए माकपा एवं कोग्रेस दोनों को जिम्मेदार मानते हैं। इसके अलावा बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ, ईसाई मिशनरियों की करतूतें तथा कुछेक जनजातीय वर्गों का संकीर्ण दृष्टिकोण भी जिम्मेदार है। स्वाधीनता के बाद की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों ने त्रिपुरा को इस तरह अशांत कर दिया है। कई अध्ययनों ने इस बात को स्पष्ट किया है।

आलोक भट्टाचार्य का कहना है कि राज्य में बंगालियों के भारी मात्रा में आने से जनसंख्या का जातीय अनुपात बदल गया और गरीब जनजातीय लोग संकट में पड़ गए। स्थानीय जनजातीय लोगों के कर्ज में डूबे होने, गरीबी और उनके जमीन से उखाड़े जाने के कारण बगावत को और बल मिला। १९३१ में त्रिपुरा की जनसंख्या में जनजातीय लोग ५०.२५% थे, जो कि २००१ में ३१.०५ रह गए। बंगाल के पूर्वी भाग से लोगों के भारी मात्रा में आने के कारण ऐसा हुआ। इस तरह बंगालियों के विरुद्ध रोष फैल गया और इससे बगावत के बीज पड़ गए। बीबीसी के संवाददाता सुबीर भौमिक के अनुसार, ’ढीर्ळिीीर हरी लशलेाश ींहश लेसशू-लेू षेी ेींहशी ीींरींशी ळप ींहश ीशसळेप’ अर्थात त्रिपुरा इलाके के अन्य राज्यों के लोगों के लिए खतरनाक बन गया।

त्रिपुरा के जातीय आंदोलन को पांच चरणों में बांटा जा सकता है- पहला चरणः १९६०-१९७० का दशक-जनजातीयकरण एवं सांस्कृतिक विरोध; दूसरा चरणः १९७०-१९८८ का दशक- भूमिगत उग्रवाद एवं सशस्त्र संघर्ष; तीसरा चरणः १९८८-१९९३- समझौतों एवं विभाजन; चौथा चरणः १९९३-२०००- समर्पणों की राजनीति; और पांचवां चरणः २००० के बाद- वामपंथी सरकार को चुनौती।

१९६० के दशक में वनवासियों की जमीनें भारी मात्रा में गैर-वनवासियों को हस्तांतरित की गईं। इसके खिलाफ दो संगठन खड़े हुए- त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति एवं सेंग्राक (जमीन न छोड़ो) संगठन। पहला राजनीतिक संगठन था, जो परम्परागत संस्कृति को बचाने का समर्थक था और बंगाली सांस्कृतिक आक्रमण का विरोधी था। ‘सेंग्रिक’ ने स्वयं को प्रतिबंधित मिजो नेशनल फ्रंट का हिस्सा बताया और त्रिपुरा से सभी गैर-वनवासियों को खदेड़ने के लिए हिंसक बंगाली-विरोधी आंदोलन आरंभ किया। दूसरे चरण तो टीएनवी (त्रिपुरा नेशनल वालंटियर) जैसे विद्रोही संगठनों और ‘आमर बंगाली’ जैसे प्रतिक्रिया में खड़े हुए संगठनों के बीच साम्प्रदायिक रक्तपात से सना है।

तीसरे चरण में १९८८ में टीएनवी ने समर्पण किया, लेकिन इसके साथ ही एनएलएफटी (नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा) एवं एटीटीएफ (ऑल त्रिपुरा टायगर फोर्स) जैसे संगठन अस्तित्व में आए। १९९३ के आसपास वामपंथी सरकार ने विद्रोहियों से बगावत

छोड़ने और मुख्य धारा में लौट आने की अपील की। लगभग ४००० विद्रोहियों ने समर्पण किया, लेकिन अन्य ने बगावत जारी रखी। वनवासियों के आंदोलन के पांचवें चरण में वामपंथी-विरोधी मोर्चा अस्तित्व में आया। इस मोर्चे में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) एवं इंडिजिनस पीपुल फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) शामिल थे। लेकिन वे वामपंथियों के विरोध में वनवासियों का बल नहीं जुटा पाए और वनवासियों के बीच राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विभाजन के कारण अशांति उबलती रही।

इस बात को और विस्तार से सोचना होगा। उपर्युक्त विश्लेषणों से पता चलता है कि मुख्य राजनीतिक दलों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता ने त्रिपुरा में जातीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया और उसका अपने हितों के लिए दुरुपयोग किया। बाहरी शक्तियों या एजेंटों ने वनवासियों एवं गैर-वनवासियों के बीच खाई को और चौड़ा किया। ईसाई मिशनरियों एवं इस्लामिक कट्टरपंथियों के समर्थन के कारण विद्रोह की समस्या और जटिल हो गई।

मुख्य राजनीतिक दलों की जब हम बात करते हैं तब कांग्रेस की भूमिका का अवश्य उल्लेख करना होगा। कांग्रेस ने १९६० के दशक में बगावत को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की। कांग्रेस ने यह महसूस किया कि केवल गैर-वनवासियों एवं बंगालियों पर निर्भर रह कर वे सत्ता हासिल नहीं कर पाएंगे और उसने नवगठित टीयूजेस से गठबंधन कर लिया। इस अवसर का कांग्रेस को लाभ अवश्य मिला, लेकिन उससे मार्क्सवादी कम्यूनिस्टों द्वारा १९४० के दशक में बोए गए विद्रोह के बीज का वृक्ष बनने में देर नहीं लगी। टीयूजेएस के नेता वनवासियों को न्याय दिलाने में इच्छुक थे। अतः उन्होंने वनवासियों की भूमि उन्हें लौटाने, कोक-बोराक भाषा को मान्यता देने आदि मांगें उठाईं। इस तरह उनकी मांगें माकपा के नेताओं के लिए अनुकूल थीं। उन्हें पता था कि उनके कार्य की बुनियाद पहाड़ी क्षेत्र है, जिस पर माकपा का प्रभाव है। अतः उन्होंने माकपा का दबदबा कम करने की कोशिश की। टीयूजेएस नेता पहले तो अपने को स्वतंत्र मार्ग से चलने वाले वनवासी समर्थक बताया करते थे और कांग्रेस तथा माकपा दोनों से समान दूरी बनाए रखते थे। लेकिन शीघ्र ही वे कांग्रेस के समर्थक बन गए। इसी तरह विद्रोही गुट टीएनवी एवं आइएनपीटी भी कांग्रेस के साथ हो गए। यही क्यों, बंगाली शरणार्थियों को बसाने के लिए भूमि पर कब्जा करने वाले बंगाली-समर्थक संगठन ‘स्वस्ति समिति’ भी कांग्रेस के शिविर में चली गई। त्रिपुरा की राजनीति बड़ी रोचक है। कांग्रेस ने यहां अवसरवाद का सहारा लिया, जबकि जनजाति नेताओं ने वनवासियों के हितों को तिलांजलि देकर सत्ता हथियाने के लिए कांग्रेस का साथ दिया। यहां तक कि बगावती जनजातीय नेताओं द्वारा गठित एनएलएफटी ने बंगाली सॉ-मिल मालिकों से सांठगांठ कर ली और उन्हें पेड़ काटने की छूट दे दी। अतः यह स्पष्ट है कि सत्ता और राजनीति के खातिर जनजाति विद्रोहियों ने जनजातियों के विकास को तिरोहित कर दिया। कांग्रेस ने इन अवसरों का लाभ उठाने में कोई चूक नहीं की और बाकी बातें दरकिनार कर दीं। यही कारण है कि कांग्रेस सरकार ने दुमपुर एवं गुमती जल परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान की और हजारों वनवासी परिवारों को विस्थापित कर दिया! इससे जनजातियों में जातीय-राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला।

जनजातीय इलाकों में जातीय-राष्ट्रवाद को बढ़ाने में ईसाई मिशनरियों एवं मुस्लिम कट्टरपंथियों की भूमिका को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। इसकी मिसाल है टीयूजेएस की स्थापना में मिशनरी संगठन त्रिपुरा बाप्तिस्ट क्रिश्चन यूनियन (टीबीसीयू) द्वारा प्रदान की गई सहायता। ईसाइयों ने कोक-बोरोक के बजाय रोमन लिपि के इस्तेमाल, वनवासियों की देवताओं की आराधना त्यागना, जनजातीय पेहराव का त्याग करना आदि शर्तों पर यह समर्थन दिया था। ईसाई मिशनरियों ने वनवासियों से यहां तक कहा कि वे बंगाली भाषा एवं बंगाली साड़ियों का बहिष्कार करें, हिंदू मंदिरों में एवं परम्परागत पवित्र स्थानों पर न जाएं। उन्होंने पहाड़ों में अपने स्कूल स्थापित किए और सरकारी स्कूल वीरान हो गए। दिनेश सिंह समिति का कहना है कि जून १९८० में हिंसक गतिविधियों के पीछे ईसाई बने मिजो नेशनल फ्रंट का हाथ है। इस्लामी कट्टरपंथियों एवं उग्रवादियों के लिए बांग्लादेश पनाहगार है। वे चटगांव के पहाड़ी क्षेत्रों में भाग जाते हैं।

त्रिपुरा में जातीयता एवं बगावत फैलाने में मार्क्सवादी कम्यूनिस्टों की भी बड़ी भूमिका रही है। माकपा ने १९४० के दशक में जन मंगल समिति (जेएमएस), जन शिक्षण समिति (जेएसएस), त्रिपुरा प्रजा मडल (टीपीएम) आदि संगठनों के जरिए राज्य में बगावत के बीज बो दिए। जेएसएस ने शिक्षा के क्षेत्र में त्रिपुरा में जो काम किया उससे इन्कार नहीं किया जा सकता; लेकिन इसके पीछे वनवासी इलाके में जातीयता फैलाने का भी लक्ष्य था। कम्यूनिस्टों ने टीपीएम का उपयोग राजशाही, सामंती व्यवस्था व बंगालियों के विरोध में राजनीतिक संगठन के रूप में किया।

१९७० के दशक के अंतिम वर्षों में कम्यूनिस्टों ने वनवासी-अनुकूल नीतियां आरंभ कीं। लेकिन टीएनवी के विद्रोह को उन्होंने नहीं रोका। बाद के वर्षों में माकपा सरकार ने कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार के लिए काफी कुछ किया, लेकिन विद्रोह की समस्या पूरी तरह खत्म नहीं हुई। इस वर्ष मई में मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) को राज्य से हटा दिया। इसके दूरगामी परिणाम होंगे।

त्रिपुरा में जनजाति आंदोलन मूलतया कृषि भूमि से जुड़ा है, अतः सरकार को इस बारे में तेजी से कदम उठाने चाहिए। दुमपुर एवं गुमती परियोजनाओं के विस्थापितों का पूरी तरह पुनर्वसन किया जाना चाहिए। उसे रबर बागानी की अपनी पुरानी नीति पर गौर करना चाहिए। यही नहीं, राजनीतिक दलों को विद्रोही गुटों से दूरी बनाए रखनी चाहिए। कांग्रेस एवं टीएनवी तथा माकपा एवं डीवाईएफआई के बीच सांठगांठ सर्वपरिचित है। माकपा ने न केवल एटीटीएफ, बल्कि ऑल त्रिपुरा टायगर फोर्स को भी पनाह दे रखी है।

त्रिपुरा में पिछले सात दशकों में जातीयता एवं बगावत के घटनाक्रम का बारीकी से अध्ययन करना हो तो अटल बिहारी वाजपेयी के ये शब्द बहुत माकूल हैं, ‘‘कहानी तो शुरू सब को करनी आती है, खत्म कैसे करेंगे, किसी को नहीं आता।’’ क्या यह त्रिपुरा की माकपा सरकार के लिए सीख नहीं है? माकपा ने तो कहानी आरंभ कर दी, लेकिन उसे खत्म करना नहीं आ रहा है।

 

अशोक मोडक

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