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वर्तमान युग में  दीपावली की प्रासंगिकता

वर्तमान युग में दीपावली की प्रासंगिकता

by अनुराग मिश्र
in नवम्बर २०१९, सामाजिक
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दीपावली का त्योहार हमारे जीवन में उमंग एवं खुशी लेकर आता है। लेकिन यह न भूलें कि दीपावली प्रकाश का पर्व है; आगजनी और विस्फोटों का नहीं। धन के प्रदर्शन का नहीं, श्री लक्ष्मी की पावन पूजा का है।

 

होहिं सगुन शुभ बिबिधि बिधि,

बाजहिं गगन निसान।

पुर नर नारि सनाथ करि,

भवन चले भगवान।

श्री पर्व दीपावली। श्री यानी जय। भगवान राम के साथ कई जय जुड़ी हुई हैं। पिता के वचन के 14 वर्ष वन में रह कर घर लौटे बेटे के स्वागत मात्र का पर्व ही दीपावली नहीं है। यह संघर्ष का उत्सव है जो राम द्वारा छोटे-छोटे लोगों को एकत्रित करने से लेकर बलशाली दशकंदर के संहार तक की जीवंत गाथा है। इस संघर्ष यात्रा में कई संदेश हैं, समाज के लिए कई सीखें हैं, और अनगिनत उपदेश भी। आज की भागमभाग भरी जिंदगी एवं अर्थ तथा स्वार्थपूर्ण जीवन में सब के सब आज भी प्रासंगिक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने अनवरत प्रयास के बल पर ही विजय प्राप्त की थी। राम के राज्य में घर-घर में समृद्धि निवास करती थी। राम ने गिलहरी से लेकर बंदर भालू आदि सबको काम देकर सेतु का निर्माण कराया था। इससे पता चलता है कि राम राज्य में हर हाथ को काम मिला हुआ था। कोई खाली नहीं था। कोई चिंतित नहीं था, सब निश्चिंतता पूर्ण जीवन जीते थे। भगवान श्री राम के जीवन के प्रत्येक पहलू से जीवन के करणीय कार्यों की झलक मिलती है। जिन माता के कहने पर राम को राजपाट छोड़ वन में जाना पड़ा, अयोध्या लौटने पर सबसे पहले वे उन्हीं माता से मिले। भगवान राम पेड़ पौधों पशु पक्षियों आदि का भी आदर करते हैं। इस प्रकार भगवान राम के जीवन से जुड़ा यह पर्व हम सबके जीवन में ज्ञान एवं आनंद का प्रकाश फैलाता है।

दीपावली का त्योहार हमारे जीवन में उमंग एवं खुशी लेकर आता है। जीवन से निराशा हटा कर आशा की किरणें बिखेरता है। परंतु बदलते समय के साथ -साथ ही हमारी जीवन शैली में बड़े बदलाव आए हैं और लोगों की जरूरतें भी बदली हैं। इन बदलावों का असर इस पंच दिवसीय पर्व दीपावली पर भी पड़ा है। इस कारण से त्योहार मनाने के तौरतरीकों के साथ उसे मनाने के पीछे की वास्तविक सोच भी बदल चुकी है। आज दीपावली व्यापार का जरिया बन चुकी है। और यही वजह है कि समाज में इसकी अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पहले दीपावली पर एक दूसरे के घर जाकर बधाइयां एवं शुभकामनाएं देते थे, परंतु अब ऐसा नहीं है अब तो हम केवल मैसेज में बंध कर रह गए हैं। खुशी और उत्साह की जगह बेचैनी और हड़बडाहट ने ले ली है। चारों ओर एक प्रतिस्पर्धात्मक होड़ नजर आ रही है। पिछली बार पचास हजार खर्च किए थे तो इस बार एक लाख खर्च करने हैं। चमक-दमक और दिखावे में बढ़ोत्तरी हो रही है। वर्ष प्रतिवर्ष खर्च बढ़ता चला जा रहा है। लोगबाग अपनी धून एवं दिखावे की चमक से दूसरों की आंखें चौंधिया देना चाहते हैं। लोग इसे अपनी समृद्धि की हुंकार भरने का पर्व समझते हैं। दूर कोई अपने अहंकाररूपी दुर्ग में अकेला खड़ा अपनी संपदा का झण्डा बुलंद कर रहा है। जबकि दीपावली के मूल स्वरूप में इस प्रकार का दिखावटीपन नहीं था। अन्य त्योहारों की तरह इसमें सामूहिकता का भाव सबसे अहम होता था।

मुझे आज भी याद है कि मेरे गांव के लोग एक जगह इकट्ठे होकर सनई कर लकड़ियों से मशाल बनाकर उसे हवा में घुमाते हुए मनमोहक दृश्य बनाते थे। गांव का श्याम बिहारी कुम्हार (जिसे हम सब बच्चे प्यार से समबिहरिया चच्चा कहते थे) प्रकाश के इस नन्हें संवाहक दीपक को बनाकर घरों में दे जाता था और फिर उसे दीपकों के बदले बहुत सारा अनाज मिलता था। पूरे गांव में नन्हें -नन्हें दीपक अपनी किरणों से अंधकार का विशाल सीना चीर देते थे। आज उन टिमटिमाते  मिट्टी के दीपकों का स्थान बिजली के रंगबिरंगे घल्लर बत्ती ने ले लिया है। दीपावली की भोर में उन्हीं दीपको में सूये से द्देदे करके तराजू बनाना बच्चों को बहुत अच्छा लगता था, और फिर उसी तराजू से खील खिलौन तौल कर दिल खिल जाता था। गायब होते खील खिलौनों का स्थान तरह-तरह के बन्दूक पिस्टल आदि खिलौनों ने ले लिया है, जो कि बच्चों में विध्वंसक प्रवृत्ति की नींव रखते हैं।

दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा का बीजारोपण कब हुआ यह तो ज्ञात नहीं किन्तु आज यह बढ़ते पागलपन की हद तक पहुंच गई है। लोग अपने ही पैसों में आग लगा कर घर फूंक तमाशा देखने की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। युवा वर्ग अपने पटाखों एवं बमो की धमक से पड़ोसियों का दिल दहला देना चाहते हैं। इस होड़ा-होड़ी में कई लोग अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं। लोग दीपावली को जुआ भी खेलते हैं। वे लोग महाभारत के इतिहास में पांडवों द्वारा अपनी पत्नी द्रौपदी को जुये में हार जाने की घटना से कोई सीख नहीं लेते और जीतने की चाहत में अपना सब कुछ लुटा कर दीपावली का मजा किरकिरा कर लेते हैं। उन्हें नहीं मालूम कि लक्ष्मी जी की कृपा का पात्र विवेकशील व्यक्ति होता है। वह कुपात्र व्यक्ति से दूर चली जाती है। कोई धन में आग लगाकर खुश होता है, तो किसी को धन के दर्शन तक नहीं होते। लोग यह भूल जाते हैं कि दीपावली प्रकाश का त्योहार है; आगजनी और विस्फोटों का नहीं। अंतत: मैं कविता के शिखर पुरूष आदरणीय गोपालदास नीरज जी की आशा में अपना विश्वास प्रकट करते हुए कहना चाहता हूं कि जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

 

अनुराग मिश्र

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