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कश्मीर से गुजरते हुए

कश्मीर से गुजरते हुए

by हेम चंद्र सकलानी
in नवम्बर २०१९, सामाजिक
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कश्मीर का इतिहास, संस्कृति भारत से कभी जुदा नहीं थी। वहां के सारे राजा हिन्दू थे, अधिकांश प्रजा भी हिन्दू मूल की ही है। बाद के वर्षों में बाहरी आक्रमणों तथा सत्ता लोलुपता की राजनीति के कारण स्थितियां बदलीं और कश्मीर की शांत घाटी अशांत हो गई। अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए के खात्मे के साथ वह अब फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने की कोशिश कर रहीं है।

लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर की यात्रा, वह भी विश्व के सबसे सुंदरतम स्थानों में से एक, जहां पृथ्वी की सुंदरता के साथ प्रकृति ने अपना सम्पूर्ण सौंदर्य लुटाया हो, विश्व के प्रसिद्व हिमाच्छादित दर्रों, ग्लेशियरों, सूर्य की रोशनी में दमकते हिम मण्डित शिखरों की, विश्व के सबसे अधिक ऊंचाई से गुजरने वाले मोटर मार्गों से गुजरना, बर्फ से जमी झीलों, नदियों को देखना, एक ऐसी झील को स्पर्श करना जिसका 90 किलोमीटर क्षेत्र चीन में और 45 किलोमीटर क्षेत्र भारत में हो, जो अपने तीन रंगों, पारदर्शी, हरे रंग, नीले रंग से सबको मोहित कर दे, एक ऐसा क्षेत्र जो मटमैले रंग के पहाड़ों से घिरा हो, जिसमें वनस्पति का हरापन कहीं भी न हो, बर्फीले रेगिस्तान जहां आक्सीजन की कमी दिल का धड़कना बंद कर दे, ऐसी जगह की यात्रा करने का मन तो हमेशा करता रहा पर ऐसा स्वप्न में भी पूरा हो सकेगा मुझे कभी संभव नहीं लगा। पर किसी ने सही कहा है, विचार, सोच, सपने कभी मरते नहीं हैं, वे दब भले ही जाते हैं पर जब मन, इच्छा द़ृढ़ और सक्रिय हों तो पूरे भी हो जाते हैं।

इतनी लम्बी यात्रा पर निकलने से पूर्व ही मन में कई आशंकाएं जन्म लेती रहीं। दो रात सो न सका, जाऊं न जाऊं मन डगमगाता रहा। क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही सोपियां कांड हो चुका था पर मसूरी से भाई नवीन त्रिपाठी जी, दीदी चन्द्रलेखा त्रिपाठी तथा आदरणीय मनोरंजन त्रिपाठी डी.आई.जी. (बी.एस.एफ.) श्रीनगर के आग्रह पर मैं इतनी लम्बी यात्रा पर निकल ही पड़ा। स्वयं मेरा साथ निभाने वाले श्री राजेन्द्र प्रसाद उनियाल जी का मन भी कई बार डगमगाया था। जम्मू रेलवे स्टेशन पर जब उतरे तो काफी सैनिक हलचल दिखाई पड़ी थी।

रेलवे स्टेशन पर से बी.एस.एफ. का जवान हमें पांंच किलोमीटर दूर बेस कैम्प में ले जाता है जहां से बी.एस.एफ. की कम्यून के साथ हमें श्रीनगर के लिए चलना था। चार बसें, चार बख्तरबंद गाड़ियां जिनमें ए.के. 47 ताने जवान हर क्षण सतर्क निगाहों से चारों ओर देखता, कई ट्रक तथा जीप के साथ यह काफिला चला। झेलम नदी, जो प्राचीन काल से वितिस्ता के नाम से प्रसिद्व है, के किनारे-किनारे हम आगे बढ़ते हैं। कुछ घण्टे बाद शिवालिक हिल रेंज को छोड़ पीर पंजाल की पहाड़ियों पर बढ़ते हैं। चारों ओर हरी भरी पहाड़ियां हैं। 45 किलोमीटर चलकर जम्मू-कश्मीर के बहुत खूबसूरत हिल स्टेशन ‘पल्नी टाप’ पर पहुंचते हैं। समुद्र तल से लगभग साढ़े पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित यह देवदार, चीड़ के वृक्षों तथा फूलों के पौधों से आच्छादित हिल स्टेशन सबको मोह लेता है। खूबसूरत होटल, बंगलें, काटेज हैं यहां पर। प्रकृति प्रेमियों के लिए, शांतिप्रिय लोगों के समय व्यतीत करने के लिए यह एक बेहद आदर्श हिल स्टेशन है। टॉप पर पहुंच कर छोटे से होटल में चाय लेते हैं और भरपूर नजर डालते हैं जम्मू घाटी पर। कुछ देर बाद शिखर से नीचे उतरने के बाद अब हम एक गगन चूमते शिखर की ओर बढ़ते हैं। किसी समय का यह प्रसिद्व पहाड़ बनिहाल पास (दर्रे) के नाम से जाना जाता था। तब सर्दियों में इस हिमाच्छादित दर्रें से गुजर कर कश्मीर घाटी में प्रवेश करना काफी कठिन कार्य था। सम्पूर्ण कश्मीर राज्य तीन रीजन में विभक्त है- एक जम्मू रीजन, दो श्रीनगर (कश्मीर घाटी) तथा तीन लद्दाख रीजन। पर कुछ वर्ष पूर्व बनिहाल दर्रें की पहाड़ी के ठीक मध्य से जवाहर टनल बन जाने से अब बनिहाल दर्रें के टॉप तक नहीं जाना पड़ता और जवाहर टनल से ही कश्मीर घाटी में प्रवेश करते हैं। इस जवाहर टनल के बन जाने से समय की, तेल की तो बचत हुई ही है, पर अब यह मार्ग वर्ष भर खुला रहता है। पहले भयंकर बर्फवारी के कारण कई दिनों तक कश्मीर घाटी तथा जम्मू घाटी के बीच बनिहाल दर्रें से आवागमन बंद हो जाता था। जवाहर टनल की लम्बाई 2547 मीटर है। टनल के दोनों छोर पर हर क्षण सशस्त्र सेनाओं के जवान पहरा देते हैं। टनल से बाहर निकलते ही कश्मीर घाटी का रमणीय द़ृश्य नजर आने लगता है। फिर झेलम के किनारे किनारे हम अनंतनाग पहुंचते हैं। जम्मू से अनंतनाग 249 किलोमीटर दूर है। अनंतनाग कश्मीर घाटी का एक प्राचीन शहर है। यहां के प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर में भगवान सूर्य की मार्तंड के रूप में पूजा होती है। वहां एक हजार वर्ष पुरानी देवी देवताओं की प्रतिमाएं हैं।

कश्मीर के सम्पूर्ण इतिहास पर जब द़ृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि वह आदिकाल से भारतीय उपमहादीप का अंग रहा। वहां की संस्कृति कहीं भी भारतीय संस्कृति से अलग नहीं रही। बाद के वर्षों में बाहरी आक्रमणों तथा सत्ता लोलुपता की राजनीति के आघात से वह प्रभावित जरूर हुई है। वहां के सारे राजा और अधिकांश प्रजा हिन्दू मूल की ही रही। प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण कश्मीर भारत के अंतर्गत किसी समय एक हिन्दू बाहुल्य राज्य था। सदैव से यहां हिन्दू राजाओं का अधिपत्य रहा था।

महाराजा हरि सिंह द्वारा भारत के साथ देरी से विलय प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने तथा नेहरू जी द्वारा युद्व विराम स्वीकार कर एल.ओ.सी. पर सहमति तथा यू.एन.ओ. पर्यवेक्षकों की नियुक्ति के बाद ही कश्मीर का एक बड़ा भाग आजाद कश्मीर के नाम से पाकिस्तान ने अपने अधिकार में ले लिया था। तब से लेकर आज तक कश्मीर घाटी में अशांति की स्थिति बनी हुई थी। सन 1952 में भारत सरकार के तत्कालीन मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान के कानून को अस्वीकार करते हुए त्यागपत्र दे दिया था, और विरोध स्वरूप बिना परमिट श्रीनगर गए जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और वहां रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु हुई।

5 अगस्त को भारत की संसद ने उक्त अनुच्छेद 370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर को दो भागों में विभक्त कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केन्द्र शासित प्रदेशों के रूप में बांट दिया। इससे जम्मू-कश्मीर लेह लद्दाख अब राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो गए। अब देश के अन्य प्रदेश के नागरिक उसी तरह वहां रह सकेंगे जैसे अन्य प्रदेशों में रहते हैं। आशा की जा सकती है बहुत तीव्र गति से इन दोनों राज्यों को विकास और उन्नति के अवसर प्रदान होंगे और केन्द्र सरकार इसके लिए बहुत प्रयास कर रही है।

जिस समय अनंतनाग में हमने प्रवेश किया वहांं सोपियां में हुए काण्ड की वजह से चारों ओर कर्फ्यू जैसा महौल नजर आया। खेतों, में, बंद बाजारों में, सड़कों-गलियों में जगह-जगह सशस्त्र फौजी पहरा देते दिखाई पड़े। लगभग एक घण्टे बाद हम कश्मीर के ऐतिहासिक एवं एक अन्य प्राचीन नगर अवंतिपुर में प्रवेश करते हैं। यहां वैसे ही दहशत भरा वातावरण नजर आया, थोड़ी देर इस प्राचीन शहर के भग्नावशेषों, मंदिरों के अवशेषों के आसपास घूमते हैं। विशाल प्रवेश द्वार, जगह-जगह रखे अवशेष इस राज्य की तत्कालीन भव्यता, वैभवता, सभ्यता, संस्कृति, धार्मिकता, स्थापत्य कला, शिल्पकला के स्वर्णयुग की गाथा कहते नजर आते हैं। अवंतिपुर शहर खूबसूरत वितिस्ता (झेलम ) नदी के किनारे हरी-भरी घाटी में बसा हुआ है। अवंतिपुर मे प्राचीन काल में राजा अवंतिवर्मन का राज था। उस काल के अवन्तेष स्वामी तथा अवंतिश्वर मंदिरों के बेहद खूबसूरत अवशेष यहां दिखाई पड़ते हैं। नवीं शताब्दी के ये मंदिर शिव तथा विष्णु को समर्पित हैं।

श्रीनगर में हमने सात बजे के लगभग प्रवेश किया। सड़कों पर सन्नाटा और दहशत भरा माहौल था। हर गलियों के सामने बुजुर्ग, आदमी-महिलाएं, लड़के खड़े थे। लड़कों के झुण्ड कुछ न कुछ करने के मूड में थे। अनंतनाग से अधिक दहशत भरा वातावरण हमें नजर आया। पूरा श्रीनगर पुलिस, सी.आर.पी.एफ, बी.एस.एफ. की छावनी सा नजर आ रहा था। आर्मी के बख्तरबंद काफिले पर अक्सर भीड़ आकर पत्थरबाजी कर गलियों में भाग जाती थी। आर्मी की कम्यून के आगे पुलिस फोर्स दौड़ती हुई उपद्रवियों को खदेड़ देती है। क्योंकि अक्सर उनकी पत्थरों की बौछार से गाड़ी के विन्ड स्क्रीन टूट जाते थे। श्रीनगर के मध्य आर्मी बेस कैम्प में हम जीप द्वारा पहुंचते हैं। जगह-जगह गाड़ियों को रोका जाता है। जांच की जाती है, तब जाकर हम विश्राम गृह में प्रवेश कर पाए थे। सोपियां में दो महिलाओं की रेप के बाद हत्या से कश्मीर घाटी का माहौल काफी तनावपूर्ण था। लोग इन रेप और हत्या का आरोप सुरक्षा बलों पर मढ़ रहे थे। यासीन मलिक और जिलानी के वक्तव्य आंदोलन में घी का काम कर रहे थे। श्रीनगर के पास से दुग्धगंगा, सोस्वांग तथा झेलम नदियां बहती हैं। पूरा श्रीनगर पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण तक डल झील के आसपास, झील के मध्य तथा विशाल डल झील के किनारे किनारे फैला हुआ है।

श्रीनगर का प्राचीन नाम प्रवरपुर था। यह कश्मीर घाटी का क्षेत्र कभी सती सरोवर के नाम से जाना जाता था। मान्यता है पार्वती जी यहां आती थीं। श्रीनगर को लक्ष्मी नगर अर्थात श्री नगर भी कहा जाता था। बहुत विशाल क्षेत्र में फैले इस श्रीनगर का विकास वितिस्ता नदी, जो झेलम कहलाती है, के किनारे धीरे-धीरे हुआ। आज यह शहर वितिस्ता के दोनों किनारों पर मीलों दूर तक फैला नजर आता है। अनेक नगरों, गांवों, कस्बों ने इसके तट पर जन्म लिया। इस नदी को स्थानीय लोगों ने आवागमन का साधन बनाया। अब इसमें हाउस बोट तैरते नजर आते हैं। आज यह बहुत प्रदूषित हो गई है। आज पुराना श्रीनगर आगरा, कानपुर, अलीगढ जैसी तंग गलियों का नगर बन गया है। नया श्रीनगर जहां-जहां बसा है वह किसी आधुनिक शहर की तरह सुंदर लगता है। हर शहर का, क्षेत्र का, राज्य का, देश का अपना एक प्राचीन इतिहास होता है। श्रीनगर के प्रताप संग्रहालय में श्रीनगर कश्मीर घाटी के पुरावशेषों को देखा जा सकता है। पास में ही कुछ किलोमीटर दूर गुलमर्ग में सर्दियों में जब हिमपात होता है तो स्कीईंग प्रतियोगिताएंं आयोजित होती हैं। जिसमें देश विदेश के सैकड़ों खिलाड़ी भाग लेते हैं। वितिस्ता को कश्मीर घाटी की जीवन रेखा कह सकते हैं। जिसके तट पर कश्मीर की संस्कृति फली-फूली, विकसित हुई है। प्राचीन कथाओं के अनुसार यह कश्मीर घाटी कभी विशाल सरोवर थी, और कश्यप ॠषि ने इस सरोवर से घाटी को बाहर निकाला, तब कश्यप के नाम पर यह क्षेत्र कश्मीर कहलाया अथवा कश्यप घर कहलाया। प्राचीन ग्रंथों के एक सूत्र के अनुसार इसे कशेमूर भी लिखा गया। अपने समय के चीनी यात्री ह्वेंगसांन ने यहां की यात्रा की तथा अपने संस्मरण में इसे का.शी.मी.लो. नाम से अंकित किया। बनिहाल दर्रे में पीर पंजाल के वेरीनाग से वितिस्ता का जन्म हुआ। कश्मीर मे इसे व्यथ के नाम से भी जाना जाता है। श्रद्वालुओं ने पार्वती के नाम से  इसकी पूजा अर्चना की। राजतंरगिणी के अनुसार अशोक ने यहां एक स्तूप खड़ा किया था। कनिष्क ने यहां अपने काल में अनेक बौद्व सम्मेलन आयोजित कराए थे। जिस कारण इसका नाम कनिष्कपुर भी पड़ा। जिन-जिन स्थलों से वितिस्ता गुजरती है वे तीर्थ बनते गए। फिर यह प्राचीन स्थल अवंतिपुर को स्पर्श करती है। वितिस्ता सोपोर, पापोर, होकर श्रीनगर पहुंचती है। फिर बुल्लर झील जिसका राजतरंगिणी में प्राचीन नाम उल्लोलसर था और इसे महापदमसर नाम से भी पुकारा गया, मनसबल बुल्ल झील से मिल कर यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है।

अगले दिन प्रात: हम उस खूबसूरत गेस्ट हाउस से बाहर आते हैं। आसमान में धुंध छायी हुई है। डी.आई.जी. श्री मनोरंजन त्रिपाठी हमारे साथ घूमने निकलते हैं। सिर के ऊपर सांय-सांय करते वायुसेना के फाइटर्स विमान दूर पाकिस्तानी सीमा के पास तक जाते हैं तथा भारतीय भू भाग में, लक्ष्य पर निशाना साधने का अभ्यास करते हैं। आर्मी का यह बेस कैम्प 350 एकड़ क्षेत्र में फैला है। यहां पर बच्चों के लिए स्कूल हैं, कैन्टीन हैं, जहां सारा सामान उपलब्ध रहता हैं, मंदिर है, क्लब है, हेल्थ क्लब हैं। यहां जवानों ने बादाम के ग्यारह हजार वृक्ष लगाए हैं। चार किलोमीटर की परिक्रमा कर हम लौटते हैं शहीद स्मारक स्तम्भ के पास, जो आंखों को स्वत: ही नम कर जाता है। यह काले ग्रेनाइट के चमचमाते पत्थरों का एक बेहद खूबसूरत स्मृति स्तम्भ है जो उपद्रवियों, अलगाववादियों से कश्मीर घाटी में संघर्ष करते हुए शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में बनाया गया। हाथ जोड़ प्रणाम करते इस स्मृति स्तम्भ पर हम अपने श्रद्वा सुमन के रूप में पुष्प अर्पित करते हुए दो मिनट का मौन रखते हैं और मन ही मन प्रणाम करते हैं उन माता-पिताओं को जिन्होंने अपने लाड़लों को देश पर न्यौछावर कर दिया। स्मृति स्तम्भ आकृति की द़ृष्टि से शिल्पकला की द़ृष्टि से बेहद सुंदर है। लौट कर हम आठ किलोमीटर दूर डल झील के सामने पहाड़ी की ओर चलते हैं। यहां पर निर्मित है खूबसूरत कटे पत्थरों से निर्मित परी महल किसी समय यह पीर महल के नाम से जाना जाता था। 17वीं शताब्दी में इसका निर्माण मुगल शासक दारा शिकोह ने कराया था। इसके सामने एक बेहद खूबसूरत बगीचा है। जहां मखमली घास और रंगबिरंगे पुष्प हैं तथा भवन में एक छोर से दूसरे छोर तक अनेक मेहराबदार कमरे से बने हैं। इस महल के नीचे कई गुप्त रास्तों वाली सुरंगे हैं। दारा शिकोह ने इसे अपने परिवार की महिलाओं के लिए बनवाया था। यहां से कश्मीर घाटी, विशेष कर डल झील, सन्तूर होटल, राजभवन तथा श्रीनगर का दूर-दूर तक फैला खूबसूरत द़ृश्य दिखाई पड़ता है। दूर सुदूर सामने हरि पर्वत पर महाराजा हरि सिंह का महल दिखाई पड़ता है। परी महल के दायीं ओर खड़ी हैं गोमाद्री तथा जेबरन हिल पर्वत श्रृंखलाएं। सुरक्षा की द़ृष्टि से पहाड़ियों के शिखरों पर चौबीसों घण्टे सीमा सुरक्षा बल की कई टुकड़ियां मौजूद रहती हैं।

शाम होने से पहले हम पास में ही स्थित चश्मेशाही को देखने चलते हैं। इस पानी के स्रोत को शाहजहांं ने 1632 ए.डी. में बेहद खूबसूरत रूप देकर बनवाया तथा इसे चश्मेशाही नाम दिया था। उद्यान में प्रदेश करने के लिए दो खूबसूरत प्रवेश द्वार बनाए गए हैं। बीच में जल के फव्वारे तथा उनके दोनों ओर फुटपाथ, फुटपाथ के दोनों ओर खूबसूरत हरीभरी घास, तथा फूलों से युक्त लान हैं। फिर कुछ सीढ़ियां ऊपर चढ़ कर ऐसा ही रंगबिरंगा उद्यान है। मुगलकालीन धातु के फव्वारे आज भी उस काल की याद दिलाते हैं। सामने मेहराबदार भवन है जिसके नीचे से मीठे जल का स्रोत निकलता था। दारा शिकोह ने इस स्रोत को पक्का करवाया और इसके ऊपर चार छोटी मीनारों के मध्य गोल गुम्बद पत्थरों का निर्मित करवा कर इसे बेहद खूबसूरत रूप प्रदान किया। इस जल को पीने के बाद ही इसकी सुंदरता, स्वाद, शुद्धता का पता चलता है। इस स्रोत के जल पर मुग्ध हुए थे पंडित जवाहर लाल नेहरू। नेहरू जी जब तक जीवित रहे तब तक उनके लिए इस चश्मेशाही का पानी प्रतिदिन हवाई जहाज से श्रीनगर से दिल्ली पहुंचाया जाता था।

अगले दिन प्रात: हम प्रसिद्व नेहरू बॉटोनिकल गार्डन देखने चल देते हैं। यह बॉटोनिकल गार्डन विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, पर आश्चर्य हुआ यह देख कर कि नाम तो इसका बॉटोनिकल गार्डन है, यहां पर विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे होने चाहिए थे, पर नहीं थे। मगर खूबसूरत फूल, हरीभरी घास, वृक्ष इसकी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे। एक खूबसूरत देवदार का वृक्ष मन मोह लेता है। सत्य तो यह है इसका नाम बॉटोनिकल गार्डन के बजाय फ्लावर्स गार्डन होना चाहिए था।

दोपहर होने को है। अब हम प्रसिद्व शंकराचार्य मंदिर की ओर चल देते हैं। श्रीनगर में शायद यह अब अकेला मंदिर शेष है। क्योंकि यह मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर समुद्र तल से 6240 फुट की ऊंचाई पर स्थित है जहां पहुंचने के लिए ढाई सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। शायद दुर्गम चढ़ाई होने के कारण उपद्रवी इस प्राचीन मंदिर तक पहुंचते उससे पहले ही सेना ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। अब यहां चौबीसों घण्टे सेना का पहरा पूरी पहाड़ी पर रहता है। मान्यता है कि यहां पर पाण्डवों द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिर था और बाद मे अशोक के पुत्र जलूक ने 200 ई. पूर्व इसकी आधारशिला रखी थी। 820 ई. में चौथे शंकराचार्य ने इस पर्वत पर तपस्या की थी। कालांतर में महाराजा गोपदित्य ने पांचवीं शताब्दी में इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया और इसे शिव को समर्पित किया। इस मंदिर में स्थापित विशाल काले पत्थर का चार फुट ऊंचा शिवलिंग, महाराज प्रताप सिंह द्वारा मंदिर को प्रदान किया गया था। यह मंदिर गोमाद्री तथा जबरन हिल के ठीक सामने ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। विशाल कटे, तराशे गए बड़े पत्थरों से निर्मित इस मंदिर का शिखर, शिखर शैली का न होकर गुम्बदीय शैली का दिखाई पड़ता है। मंदिर से श्रीनगर घाटी का, डल झील का खूबसूरत द़ृश्य मन को मोह लेता है और शायर हजरत अमीर खुसरो का कश्मीर पर शेर बरबस याद आ जाता है- “अगर फिरदौस बर रूह-ए-जमीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो हमीं अस्त॥” पृथ्वी पर यदि कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है।

कुछ देर मंदिर परिसर में विचरण करने के बाद हम डल झील के पास उतर आते हैं। कहते हैं बिना डल झील के कश्मीर घाटी और श्रीनगर ऐसे हैं जैसे बिना रंग और खुशबू के कोई फूल हो। डल झील बिल्कुल शांत है। चारों ओर सन्नाटा पसरा है। सारी रंगबिरंगी खूबसूरत नावें, शिकारे झील के किनारे खड़े हैं। यदि कश्मीर में सब कुछ शांंत होता तो शायद नाव या शिकारा आसानी से नहीं मिल पाता। रंगबिरंगी नावें, शिकारे, बोट झील में सैकड़ों की तादाद में तैरते नजर आते हैं। एक शिकारे वाले को बुलाते हैं। वह हमें डल झील की सैर कराता है। वह बेहद उदास लगता है। पूछने पर बताता है, कश्मीर के हालात काफी खराब हैं। आज कई दिनों बाद कोई पर्यटक शिकारे में बैठने आया है। कहता है बड़े लोगों के पास तो रूपयों पैसों की कमी नहीं है पर हमें तो रोज कमाना पड़ता है। वह चाहता है कश्मीर में जल्दी शांंति स्थापित हो जाए। हम तो दो दिन में परेशान हो गए पर कश्मीर की गरीब, प्रतिदिन कमाने वाली जनता कैसे इतने वर्षों से यह सब झेल रही है यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा था। कश्मीर के इतिहास में कहते हैं यह झील तीन बार पूरी तरह बर्फ से जम गई थी। स्थानीय निवासी बताते हैं कि आज भी जब जमती है तब इस झील के ऊपर अनेक ग्रुप क्रिकेट खेलते या घूमते फिरते नजर आते हैं।

सुबह उठते ही हम हरि पर्वत पर महाराजा हरि सिंह पैलेस की पहाड़ी की ओर चल देते हैं। इसे प्रदुम्नगिरी, प्रद्युन शिखर, प्रद्युम्न पीठ के नाम से भी पुकारा जाता है। सड़कों पर अभी भी सन्नाटा पसरा है। एक दो वाहन कभी-कभी हार्न देते हुए गुजरते हैं। सशस्त्र सेनाओं को कश्मीर में आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं इसके लिए नि:संदेह यह देश, इस देश की जनता कभी देश के नेताओं को क्षमा नहीं करेगी, न ही कश्मीर की धरती, न वहां के लोग। जितना ध्यान नेताओं ने गत सत्तर वर्षों में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में लगाया यदि उसका थोड़ा सा भी ध्यान कश्मीर की ओर दिया होता, तुष्टीकरण की नीति को न अपनाया होता, कश्मीर छोड़ते लाखों हिन्दुओं की त्रासदी और भावना को समझा होता, कदम उठाए होते, तो यह विश्व का सबसे सुंदर शांत क्षेत्र आज आतंकवाद से न जूझ रहा होता, न नासूर जैसी समस्या बनता। आज जो कुछ सशस्त्र सेनाओं को वहां झेलना पड़ रहा है वह एक भयावह प्रश्न से कम नहीं। श्रीनगर में ठहरना अब उचित नहीं समझ रहे थे क्योंकि वहां की स्थिति देख हम बहुत व्यथित हो उठे थे। श्रीनगर बस स्टैण्ड ठीक शंकराचार्य पहाड़ी के नीचे है। वहां से हम द्रास, कारगिल, लेह, लद्दाख के लिए बस पकड़ते हैं जो सुबह सात बजे चलती है। शहर के बीच में से जीप का गुजरना हमें दहशत में भर रहा था। लेकिन इस यात्रा का सुख, अनुभव बहुत ही रोमांचक था।

 

 

हेम चंद्र सकलानी

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