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बचाना ही होगा पर्यावरण

बचाना ही होगा पर्यावरण

by हिंदी विवेक
in फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक, सामाजिक
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दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।

प्रकृति जो समस्त प्राणी जगत को जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ भोजन के रूप में उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है। आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है। यह धरती आज तरह-तरह के खतरों से जूझ रही है।

लगभग 100-150 साल पहले धरती पर घने जंगल थे, कल-कल बहती स्वच्छ नदियां एवं झीलें थीं। निर्मल झील व पावन झरने थे। हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुओं से आबाद थे, आज ये सब ढूंढे नहीं मिलते, नदियां प्रदूषित कर दी गई हैं।

सदियों से मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी का तमगा प्राप्त गंगा नदी भी इससे अछूती नहीं है। झील झरने सूख रहे हैं। जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं। बहुत सी प्रजातियां तो विलुप्त हो चुकी हैं। अभी वर्तमान में उनकी संख्या अत्यंत ही कम है। मौजूदा समय मे शेर भी गिर के जंगलों में ही बचे हैं। इसी तरह राष्ट्रीय पक्षी मोर, हंस, कौए, गिद्ध और घरेलू चिड़ियां भी विलुप्ति के कगार पर हैं।

यही हाल हवा का है। शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है, जिसमें हम सभी का योगदान है।

महानगरों (दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता) की बात तो दूर नोएडा, रायपुर और पटना जैसे शहरों की हवा अब सांस लेने लायक नहीं है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (उझउइ) के आंकड़े बताते हैं कि इन शहरों की वायु में प्रदूषित कणों की मात्रा मानक से दो से तीन गुना तक पाई गई है जो कि चिंतनीय है।

शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें घुली रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हाइड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही है। वहीं पृथ्वी के वायुमंडल का सुरक्षा कवर ओजोन गैस की परत में छेद बन गया है जो कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।

विकास की प्रतिस्पर्धा के कारण मिट्टी का भी हाल बहुत खराब हो चुका है। जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं, जो मिट्टी खेत और खलिहान में है, खेल का मैदान है, वह तरह-तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी हैं।

कृषि क्षेत्र में देखें तो ज्यादा-से-ज्यादा फसल लेने की चाहत में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण मौजूदा हाल में देश की लाखों हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है।

हमारे कई त्योहार एवं उत्सव भी पर्यावरण हितैषी नहीं हैं। दीपावली और विवाह के मौके पर की जाने वाली आतिशबाजी हवा को बहुत ज्यादा प्रदूषित करती है। पिछले कुछ सालों से होली पर जलाने वाली लकड़ी की मात्रा भी बढ़ती जा रही है।

सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं का क्या कोई हल है? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है? दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।

वर्तमान स्थितियों के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से जरा भी नहीं हिचकते। हमारी संस्कृति में नदियों को मां कहा गया है, परंतु उन्हीं मां स्वरूपा गंगा, यमुना, सरयू तथा नर्मदा आदि नदियों की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा-कचरा, हार फूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं। नतीजतन ये नदियां कचरा और गंदगी की ट्रांसपोर्टर बन चुकी हैं। पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा।

पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने एवं प्रेशर हॉर्न नहीं बजाने का नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा। सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढ़कर आज कोई पूजा नहीं है।

अगर हम सच्चे ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया की हवा, जल- जंगल-  जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं वर्तमान संदर्भों में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है। जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है, साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की ख़ातिर बदलाव लाना होगा। याद रहे हम प्रकृति से हैं प्रकृति हम से नहीं।

संपूर्ण विश्व में पर्यावरण को हुए भारी नुकसान से भुखमरी भी बढ़ी है। दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फैल सकती है, जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी। इस वैश्विक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।

बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने वायुमंडल में ऑक्सीजन को कम कर दिया है। वायुमंडलीय परिवर्तन को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का नाम दिया गया है। इसने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है। भारत और चीन सहित कई देशों में भूकंप, बाढ़, तूफान, भूस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाएं आती रहती हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण ही आजीविका पर सीधा असर हो रहा है तथा काम के अभाव में शिथिल होते मानव अंग अब बीमारी की जकड़ में आ रहे हैं। जिसके कारण आपराधिक मामले भी बढ़ रहे हैं।

पिछले कई सालों में पर्यावरण को हुए नुकसान के  फलस्वरूप कृषि तंत्र प्रभावित होकर हमें कई सुलभ खाद्य पदार्थों की सहज उपलब्धि से वंचित कर सकता है। अंगूर, संतरा, स्ट्रॉबेरी, लीची, चैरी आदि फल ख्वाब में परिवर्तित हो सकते हैं।

हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुंच रहा है। हम पर्यटन के रूप में विकसित स्थलों से वंचित हो सकते हैं। वर्षों तक ठोस बर्फ के रूप में जमे पहाड़ों की ढलानों पर स्कीइंग खेल का आनंद बर्फ के अभाव में स्वप्न हो सकता है। हॉकी, बेसबॉल, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, गोल्फ आदि खेलों पर जंगलों में उपयुक्त लकड़ी का अभाव तथा खेल के मैदानों पर सूखे का दुष्प्रभाव देखने को मिल सकता है।

तापक्रम परिवर्तन के कारण अलग-थलग पड़े समुद्री जलचर अपनी सीमा लांघ सकते हैं तथा समुद्री सीमाओं को लांघकर अन्य जलचरों को हानि पहुंचा सकते हैं। वैश्विक तापक्रम वृद्धि के फलस्वरूप जंगली जीवों की प्रवृत्ति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर उनकी नस्लों की समाप्ति हो सकती हैं। प्रवजन पक्षी (माइग्रेट्री बर्ड्स) अपना रास्ता बदलकर भूख और प्यास से बदहाल हो सकतें हैं। चिड़ियों की आवाजों से हम वंचित हो सकते हैं। सांप, मेंढ़क तथा सरीसर्प प्रजाति के जीवों को जमीन के अंदर से निकल कर बाहर आने को बाध्य होना पड़ सकता है।

पिघलते ध्रुवों पर रहने वाले स्नो बीयर (सफेद भालू) जैसे बर्फीले प्रदेश के जीवों को नई परिस्थिति की से अनुकूलनता न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है। बढ़ते तापमान के कारण ही उत्पन्न लू के थपेड़ों से जन-जीवन असामान्य रूप से परिवर्तित हो कर हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की याद के रूप में गहरे कुओं व बावड़ियों, कुइयों आदि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

विश्व स्वास्थ संगठन ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भावी परिदृश्य के रूप में बढ़ते तापमान के साथ बढ़ते प्रदूषण से बीमारियों विशेषतः हार्ट अटैक, मलेरिया, डेंगू, हैजा, एलर्जी तथा त्वचा के रोगों में वृद्धि के संकेत देकर विश्व की सरकारों को अपने स्वास्थ्य बजट में कम से कम 20 प्रतिशत वृद्धि करने की सलाह दी है।

संयुक्त राष्ट्र संघ (णछ) के महासचिव बान की मून ने इसी वर्ष अपने भाषण में वैश्विक तापमान वृद्धि पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे ‘युद्ध’ से भी अधिक खतरनाक बताया है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भविष्य दर्शन के क्रम में यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्रमुख जीवी घटकों हेतु अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा हेतु वनों को तुरंत प्रभाव से काटे जाने से संपूर्ण संवैधानिक शक्ति के साथ मानवीय हित के लिए रोका जाए, ताकि बदलती जलवायु पर थोड़ा ही सही अंकुश तो लगाया जा सके।

अन्यथा सूखते जल स्रोत, नमी मुक्त सूखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियां, पिघलते ग्लेशियरों के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदाएं मानव सभ्यता को कब विलुप्त कर देंगी, पता नहीं चल पाएगा। आवश्यकता है वैश्विक स्तर पर पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रस्फुटित संतुलन का एकनिष्ठ भाव निहित हो।

 

 

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