शांति … बड़ी दूर की कौड़ी है…!

अफगानिस्तान में स्थिर सरकार की स्थापना, लोकतंत्र की स्थापना अथवा सभ्य शासन व्यवस्था स्थापित होना जितना अफगानिस्तान के लिए आवश्यक है, उतना ही भारत के लिए भी। लेकिन अमेरिका व तालिबान के बीच हुए हाल के समझौते से ऐसे आसार दिखाई नहीं देते।

अमेरिका और अफगानिस्तान के तालिबान के बीच, विगत 29 फरवरी को दोहा में शांति समझौता हुआ। तालिबान एक आतंकवादी संगठन है। अमेरिका ने 2001 में आतंकवाद के विरुद्ध विश्व स्तर पर युद्ध छेड़ दिया जो मुख्यतः तालिबानियों के विरुद्ध था। उन्हीं तालिबानियों से, अमेरिका को 29 फरवरी 2020 को शांति समझौता करना पड़ा। युद्ध की राजनीति ऐसी ही अजीबोगरीब होती है।

2008 में ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका पर आतंकवादी हमला किया जिसमें अमेरिका के 3,000 नागरिक मारे गए। ओसामा बिन लादेन को अफगानी तालिबानियों ने शरण दी थी। तालिबानियों ने उसे अमेरिका के हवाले करने से मना कर दिया। अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हवाई हमले किए और बाद में वहां अपनी सेना भेजी। तालिबानियों ने पाकिस्तान में शरण ली। पाकिस्तान ने उन्हें जगह-जगह पर छिपा कर रखा। पाकिस्तान तालिबानियों का खात्मा करने के लिए अमेरिका से सहयोग लेता रहा और उसका उपयोग तालिबानियों को पालने-पोसने के लिए करता रहा। यह इस्लामी भाईचारा है।

दोहा में हुआ शांति समझौता, तालिबान एवं अमेरिका के बीच हुआ है। यह ऐसा अजीबोगरीब समझौता है, जिसमें अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार शामिल नहीं हुई है। अफगानिस्तान की शांति से संबंधित होते हुए भी, उसमें अफगानिस्तान  की सरकार को कोई महत्व नहीं दिया गया। दोहा में विश्व के अन्य देशों के प्रतिनिधि भी एकत्र हुए थे जिसमें पाकिस्तान अग्रणी था। भारत ने अब तक अफगानिस्तान में अरबों रुपयों का निवेश किया है। अफगानिस्तान की सेना के अधिकारियों को भारत में प्रशिक्षण दिया जाता है। वहां की सरकार के साथ हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं किंतु तालिबान हमें महत्व देने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने जो आभार-पत्र प्रकाशित किए हैं, उनमें भारत का उल्लेख नहीं है।

इस अवसर पर पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह मुहम्मद कुरैशी दोहा में थे। उनका कहना है, अमेरिका एवं तालिबान ने शांति और सौहार्द के लिए अच्छे कदम उठाए हैं। इसके बाद अफगानिस्तान की सरकार एवं तालिबान के बीच भी चर्चा होगी। पाकिस्तान की नीति शांतिपूर्ण, सुस्थिर, अभिन्न एवं समृद्ध अफगानिस्तान का समर्थन करने की होगी। मुहम्मद कुरैशी के वक्तव्य में तालिबान का समर्थन करने वाला एक भी शब्द नहीं है। इसे कहते हैं डिप्लोमैटिक भाषण! कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं…!

मौलाना मसूद अजहर, जैश-ए- मोहम्मद नामक आतंकवादी संगठन का मुखिया है। वह भारत के एक कारागृह में था, जिसे छुड़ाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर लिया गया था। इस विमान के यात्रियों को बंधक बना कर रखा गया था। तत्कालीन सरकार ने इन यात्रियों के बदले में मसूद अजहर को रिहा कर दिया था। अजहर और उसका आतंकवादी संगठन एक भयानक आतंकवादी संगठन है।

तालिबान से उसके घनिष्ठ संबंध हैं। विमान अपहरण प्रकरण में तालिबान ने उसे सभी तरह की सहायता दी थी।

इस मौलाना मसूद का कहना है, एक दिन ऐसा भी था जब अमेरिका अफगानिस्तान में भेड़िए की तरह घूमता था। अब इसकी दुम कट गई है। दोहा में श्रद्धा और जिहाद की जीत हुई है। अब इस भेड़िए के दांत खट्टे हो गए हैं…

अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण पाकिस्तान ने हाफिज सईद को तो गिरफ्तार किया लेकिन अजहर मसूद को नहीं। उसे भूमिगत हो जाने का मौका दे दिया। इसका कारण यह है कि पाकिस्तान के लिए अजहर मसूद की भूमिका, अफगानिस्तान के तालिबानियों से एक संपर्क सूत्र की है। वह भारत का कट्टर शत्रु है।

अफगानिस्तान में जहां एक ओर अशरफ गनी का राज है वहीं दूसरी ओर अब्दुल्ला अब्दुल्ला का भी राज है। ये दोनों आपस में बंटवारा कर राज्य करते हैं। दोनों को ही अपनी सत्ता में बंटवारा नहीं चाहिए। इसलिए ये दोनों एक दूसरे का खात्मा करने के दांवपेंच आजमाते रहते हैं। अशरफ गनी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हैं। अमेरिका ने तालिबान के साथ जो समझौता किया है उसमें एक मुद्दा कैदी तालिबानियों की रिहाई का भी है। गनी का कहना है कि वे  एक भी तालिबानी को रिहा नहीं करेंगे। इस समझौते के 4 दिनों के भीतर ही तालिबानियों ने गनी-अब्दुल्ला सरकार के सैन्य समूह पर हमला कर दिया जिसमें कुछ लोग मारे गए। शांति समझौते की स्याही सूखने के पूर्व ही वह नेस्तनाबूद हो गया।

अमेरिका के लगभग 13,000 सैनिक अफगानिस्तान में हैं जो अगले 6 महीनों में अफगानिस्तान छोड़ देंगे।

अब सवाल यह उठता है कि अमेरिकी सेना के जाने के बाद गनी और अब्दुल्ला सरकार तालिबानियों से लड़ेंगे या आपस में ही लड़ मरेंगे? ऐसा अंदाजा है कि आज नहीं तो कल तालिबान काबुल पर कब्जा कर ही लेगा। एक बार फिर अफगानिस्तान इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथ में चला जाएगा। विश्व शांति पर उसका जो परिणाम होगा, सो होगा; किंतु हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि इसका भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

कश्मीर से धारा 370 हटा दी गई इसका यह अर्थ नहीं है कि कश्मीर की समस्या सुलझ गई है। कश्मीर की मुख्य समस्या इस्लामी कट्टरपंथियों की है। इसके तार अजहर मसूद और तालिबान से जुड़े हैं। अफगानिस्तान में तालिबान के सशक्त होने पर भारत की सुरक्षा संबंधी कई समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। तालिबान पाकिस्तानी सेना का चौथा अंग है। उसके सभी तरह के प्रशिक्षण और शस्त्रों की आपूर्ति का जिम्मा आईएएस संगठन उठाता है।

पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही इस्लामी देश हैं। सामान्यतः दो इस्लामी देश एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करते, वे काफिरों के खिलाफ लड़ने के लिए साथ मिल जाते हैं। पाकिस्तानी तालिबान का उपयोग भारत में अशांति निर्माण करने के लिए करेगा। यदि कल को अफगानिस्तान में तालिबान का शासन स्थापित हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

शस्त्रशक्ति के बल पर सत्ता हथियाना खास मुश्किल नहीं होता। अफगानिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला, शस्त्रशक्ति के बिना तालिबान से नहीं लड़ सकते। आतंकवादी संगठन के हाथ में देश की सत्ता जाने का अर्थ अशांति उत्पन्न करना है।

किसी समय अफगानिस्तान भारत का हिस्सा हुआ करता था। वहां के वैदिक लोग बाद में बौद्ध हो गए, वहां कनिष्क का साम्राज्य स्थापित हो गया। इस्लामी आक्रमण के सामने इनमें से कोई नहीं टिक पाया। इसके बाद भारत पर होने वाले सभी मुस्लिम आक्रमण, अफगानिस्तान के मार्ग से ही हुए हैं। इन आक्रमणकारियों ने जीते हुए प्रदेश के लोगों की हत्या कर दी, मंदिर नष्ट कर दिए, स्त्रियों को दासी बना लिया, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय जला कर राख कर दिए। इतना ही नहीं; उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं की भी हत्या कर दी। उन्हें बुद्ध की मूर्ति तोड़ने वाले यानी बुतशिकन के खिताब से नवाजा गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें यह इतिहास ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता।

किसी भी राज्य की सबलता या दुर्बलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी प्रजा अपनी सुरक्षा को लेकर कितनी जागरूक है। यदि हाल के ही उदाहरण लें तो यदि पर्याप्त जागरूकता होती तो शाहीन बाग में आंदोलन करने की किसी की हिम्मत नहीं होती।

अफगानिस्तान में स्थिर सरकार की स्थापना, लोकतंत्र की स्थापना अथवा सभ्य शासन व्यवस्था स्थापित होना जितना अफगानिस्तान के लिए आवश्यक है, उतना ही भारत के लिए भी। अफगानिस्तान के इतिहास, कबीलों में रहने वाली जीवन शैली, लोकतंत्र के लिए आवश्यक मूल्य के अभाव आदि के मद्देनजर अफगानिस्तान में भारत जैसे लोकतांत्रिक शासन की स्थापना होना असंभव है। वहां हमेशा इस्लाम का प्रभाव रहेगा। हमारी नीति ऐसी होनी चाहिए कि इस्लाम हमसे शत्रुता का भाव न रखे। हमने आर्थिक निवेश तो बहुत किया है; साथ ही, सुरक्षा की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो गतिविधियां की जानी चाहिए, उन्हें भी करते रहना चाहिए। अंग्रेजों ने भारत पर राज करते समय, भारत को सुरक्षित रखने के लिए अफगानिस्तान में जाकर तीन युद्ध किए हैं। इनमें से दो युद्धों में उनका भारी नुकसान हुआ। अंग्रेज तो पराए थे, उन्हें अपने साम्राज्य की चिंता थी। किंतु आज हम स्वतंत्र हैं, हमें अपनी चिंता स्वयं करनी होगी।

भारतीय समाज की ऐसी उदासीन मानसिकता नहीं होनी चाहिए, कि यह समस्या अफगानिस्तान की है, इससे हमें क्या लेना-देना? जहां यह सही है कि आम जनता सरकारी नीतियां तय नहीं कर सकती, वहीं यह भी सत्य है कि यदि हम जागरूक रह कर अपनी जागरूकता विभिन्न तरीकों से व्यक्त करते रहें तो उसके प्रभाव शासन की नीतियों पर पड़ेंगे ही! जो सरकार लोगों की भावनाओं की परवाह नहीं करती, चुनाव में मतदाता भी उसकी परवाह नहीं करते। इसलिए यह न भूलें कि हम जागेंगे, तभी शासन जागेगा!

 

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