मोइरांङ स्मारक

नेताजी के अनगिनत दुर्लभ छायाचित्र, उनके आदेशपत्र, आज़ाद हिंद सेना द्वारा प्रयुक्त शस्त्रास्त्र, उसका प्रतीक चिह्न, सुभाष चंद्र बोस द्वारा जारी प्रांतीय सरकार का घोषणापत्र, जापानी पत्र आदि बहुत कुछ मणिपुर के शहर मोइराङ के स्मारक में है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम से जुड़े एक अध्याय का इतिहास वहां बोलता है।

मणिपुर के मोईराङ स्मारक पर यह लिखा हुआ है मोइराङ  मणिपुर की राजधानी इम्फाल से ४५ किलो मीटर की दूर स्थित ऐतिहासिक महत्व का स्थान है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के ‘चलो दिल्ली’ आदेश का पालन करते हुए ब्रह्मदेश (म्यांमार) से होकर भारतीय भूमि पर आए आज़ाद हिंद फौज के कर्नल मलिक ने भारतीय भूमि पर पहली बार इसी स्थान पर राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराया था। इस घटना की स्मृति के रूप में मोइराङ  में मणिपुरी शैली में बना स्मृतिस्तंभ खड़ा है।

कल्याणाश्रम में से मेरी सहेली पद्मा से मैंने कहा, ‘‘और कुछ हम भले देख न सके, लेकिन मोइराङ अवश्य जाएंगे।’’ सवेरे दस बजे हम निकले। इम्फाल के कार्यालय से आटो में से हम टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचे। इमा मार्केट का बाहर से ही दर्शन कर मोइराङ जाने वाली टैक्सी में हम सवार हो गए।

टैक्सी में पिछली ओर डिकी की जगह एक मोटी सी तख्ती डाल कर लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। उसी तख्ती पर बैठ कर एक घंटा सफर किया। रास्ते के दोनों तरफ दूर-दूर तक फैली खेती थी। लगभग सवा बारह बजे हम मोइराङ पहुंचे।

हम ‘लोकताक’ नामक पूर्वांचल के सबसे बड़े मीठे पानी के जलाशय के किनारे पहुंचे। सेंद्रा हिल नामक टूरिस्ट स्पॉट पर भी गए। फिर भी मैं तो आज़ाद हिंद सेना का स्मारक देखने के लिए बड़ी उत्सुक थी।

स्मारक के अहाते में घनी पंखुडियों की गुलदाऊदी की क्यारियों ने हमारा स्वागत किया। लेकिन ध्यान आकर्षित किया, सुभाष बाबू की पूर्णाकृति प्रतिमा ने! अनायास ही मैं नतमस्तक हुई। उसी जगह विजेता आज़ाद हिंद सेना ने आज़ाद हिंद सरकार की स्थापना की थी, वहीं उन्होंने अपनी आगामी मुहिम की रचना करने छावनी बनाई थी। उसी जगह आज़ाद हिंद सेना के शहीदों का स्मारक है।

फिर भी इस स्मारक की कहानी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण है। उसका भूमिपूजन सन १९५५ में हुआ, लेकिन धनाभाव के कारण काम पिछड़ता गया और फिर से शुरू हुआ सन १९६७ में। तल मंजिल पर बने ग्रंथालय का काम सब से पहले हुआ तथा आज़ाद हिंद सेना की प्रांतय सरकार की रजत जयंती के वर्ष में याने दिनांक २१ अक्टूबर १९६८ को जनता को दर्शन हेतु खोल दिया गया। सुभाष चंद्र बोस तथा आज़ाद हिंद सेना के बारे में जो अध्येता अनुसंधान करना चाहते हैं, उनके लिए यह ग्रंथालय मानो ज्ञानकोश ही है। कितने सारे ग्रंथ, बहुत सी पांडुलिपियां वहां उपलब्ध हैं।

वहां एक अन्य भवन में नए सिरे से निर्मित आय.एन.ए.वॉर म्यूजियम, उस युध्द की स्मृति को हर हाल में सुरक्षित रखने में जुटा है। नेताजी के अनगिनत दुर्लभ छायाचित्र, उनके आदेशपत्र, आज़ाद हिंद सेना द्वारा प्रयुक्त शस्त्रास्त्र, उसका प्रतीचिह्न, सुभाष बाबू द्वारा जारी प्रांतीय सरकार का घोषणापत्र, जापानी पत्र आदि बहुत कुछ वहां है। ब्रिटिशों के खिलाफ हुए युध्द के समय रणभूमि से बटोर कर लाए गए अवशेष वहां हैं। शस्त्रास्त्र, जवानों की वर्दियां, ऑक्सिजन मास्कस् और सैनिकों जो जहर की शीशियां अवने पास रखते थे वह भी वहॉं मौजूद हैं।

‘नेताजीज ग्रेट एस्केप फ्रॉम कोलकाता टू रंगून’ इस नक्शे को देखते, उस पलायन की यात्रा को देख कोई भी विस्मित ही हो जाए! उसके पश्चात् की सभी मुहिमें सफल होकर, उनकी तथा राष्ट्र की सभी इच्छाओं की परिपूर्ति अगर होती, तो वह इतिहास कुछ और ही होता।

ग्रंथालय के सामने और एक स्मृतिस्तंभ है। वह स्तंभ आज़ाद हिंद सेना के सिंगापुर के वॉर मेमोरियल की प्रतिकृति है। सिंगापुर के उस स्मृति स्मारक का शिलान्यास स्वयं सुभाष बाबू ने किया था और वहां के स्तंभ की बगल में स्मृतिशिला स्थापित की हुई है। उस पर ‘‘आज़ाद-हुकूमत-इ-हिंद, आज़ाद हिंद के शहीदों की यादगार का ये बुनियादी पत्थर ८ जुुलाई १९४५ को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने रखा।’’ ये शब्द अंकित किए हुए हैं।

इम्फाल और कोहिमा में हुई लड़ाई के दौरान शहीद हुए आय.एन.ए.के जवानों को श्रध्दांजलि अर्पित करने के लिए निर्मित सुंदर वास्तु का नेताजी दर्शन भी कर न पाए इसलिए तब सिंगापुर पर कब्जा किए ब्रिटिशों ने उसे ध्वस्त कर डाला। उस मूल वास्तु के छायाचित्र के आधार पर वह प्रतिकृति बनाई गई और नेताजी का सपना साकार करने के प्रयास सफल हुए। उसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने दिनांक २३ सितंबर १९६८ को किया।

फुत्सेरो से चेसेझू जाते समय हम चेपुझू पहाड़ी पर आ पहुंचते हैं। यहां से कुर्हान्सी नामक ऊंचा शिखर दिखाई देता है। पहले कभी नागा आर्मी ने इस शिखर पर से भारतीय सेना का एक हेलिकॉप्टर गिराया था। उससे यात्रा कर रहा जीओसी काफी घायल हुआ था। ‘चेसेझू’ गांव के पास वाली पहाड़ी को ‘नेताजी पीक’ कहा जाता है। सन १९४४ के अप्रैल-मई महीने में नेताजी कुछ दिन यहां रहे थे। उन्हें  देखने वाले कुछ लोग आज भी उस गांव में मौजूद हैं।

नेताजी हमेशा ‘आज़ाद हिंद सेना’ की वर्दी में होते थे। वे कहा करते थे, आझाद हिंद सेना कुछ दिनों में ही दिल्ली जीत लेगी। एक बार ब्रिटिश भारत छोड़ कर चले गए कि मैं तुम्हारे लिए सड़कें, पाठशालाएं और अस्पताल बनवा दूंगा।’ इस क्षेत्र में हुई घनघोर लड़ाई के दौरान नागा युवकों ने आज़ाद हिंद सेना की बड़ी भारी सहायता की थी।

नेताजी के दिल्ली पहुंचने में असफल रहने से चेसेझू आज भी अच्छी सड़कों, पाठशालाओं और अस्पताल की प्रतीक्षा कर रहा है। मणिपुर के मोइराड़ का तो सभी स्मरण रखते हैं, लेकिन इस क्षेत्र की जानकारी तो इनेगिने लोगों को ही है। यहां हुए युद्ध और नेताजी के कुछ स्मृतिचिह्न वेखो स्वुरूरो नामक नागा युवक और उसके साथियों ने संकलित किए हैं। उन्होंने नेताजी सोसायटी की स्थापना की है। नेताजी सोसायटी ने इस देहात में एक तात्कालिक संग्रहालय खोला है। वहां एक गेस्ट हाऊस और एक अर्ध्दचंद्राकार खुला नाट्यगृह है। वहां से एक किलोमीटर की दूरी पर नेताजी की आसनस्थ अवस्था में बड़ी प्रतिमा स्थापित है। उसी स्थान पर यहां का युध्द तथा नेताजी के वहां निवास आदि के बारे में कुछ तथ्य और चीजें प्रदर्शित की गई हैं।

वेखो स्वुझरो लिखित ‘डिस्कवरी ऑफ नेताजी सुभाषचंद्र बोस, ‘‘दिल्ली चलो’’ ः द लास्ट कैम्प इन नागालैण्ड’ नामक पुस्तक में यह सारी जानकारी उपलब्ध है। इसी पुस्तक पर आधारित ‘‘नागालैण्ड सेंटर ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट एण्ड इन्फर्मेशन टेक्नॉलॉजी’ ने दिनांक १८ जनवरी २००९ को ४५ मिनटों की एक डॉक्युमेंटरी बनाई है। उमा भौमिक ने इस पुस्तक का बंगाली में अनुवाद किया है।

यह पुस्तक से प्रेरणा लेकर ऐनला और याशिमेनला लेगतुर नामक दो बहनों ने वहां जाकर, एक डॉक्युमेंटरी बनाई। उसमें इस देहात के जिन लोगों ने नेताजी को देखा था या उनके साथ बातचीत की थी, उनसे मुलाकातें कीं। वे दोनों, नेताजी का जन्म जहां हुआ उस कटक शहर में गईं। नेताजी के बड़े भाई शरच्चंद्र बोस का सुपुत्र शिशिर बोस, उसकी पत्नी कृष्णा बोस, फॉरवर्ड ब्लॉक के सेक्रेटरी अशोक घोष, नेताजी रिसर्च ब्यूरो के सदस्य, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, नेताजी के भानजे सुब्रतो घोष आदि से उन्होंने मुलाकातें कीं। नेताजी की कन्या अनिता बी पाफ से भी जर्मनी जाकर उन्होंने बातचीत की।

चेसेझू, कोहिमा से सिर्फ ५५ किलोमीटर की दूरी पर है, फिर भी वहां जा पहुंचते-पहुंचते कमर ढीली हो जाती है; क्योंकि रास्ते बहुत ही खराब हैं। पूर्व केंद्रीय शासन की नेताजी से घृणा थी, फिर राज्य शासन भी अच्छा कैसे होगा? तथाकथित नेता या प्रशासकीय अधिकारी वहां तक कभी गए ही नहीं। पिछले साठ वर्षों में इनागिना कोई पत्रकार इस देहात में आया होगा। अब शासन में परिवर्तन हुआ है। नई सरकार इस क्षेत्र को सही न्याय देगी या नहीं, यही देखने लायक होगा।

नागालैण्ड में आतंकवादी गतिविधियां जारी हों, तो भी इस देहात में पूरी तरह शांति है। यहां के लोगों का नेता एक ही है और वह है सुभाष चंद्र बोस। नेताजी का संपर्क अधिकारी पुराचो रेसु का दिनांक १३ जुलाई २०१२ को निधन हुआ। वह कहा करता था, ‘‘नेताजी के साथ मैंने हस्तांदोलन किया है। हमने साथ साथ बैठे भोजन किया है। हमने पैसे बिल्कुल न लेते उनकी मदद की है, खानेपीने का प्रबंध भी किया है, उसका एक ही कारण कि उनके विचार और उनके संघर्ष के प्रति हमारे मन में पूरी श्रध्दा थी।’’

नेताजी चेसेझू गांव के जिस कुएँ का पानी पिया करते थे, वह कुआं वहां के ग्रामवासी दिखाते हैं। गांव के केंद्र में ब्रिटिश रियासतकालीन एक बंगला है। नेताजी का निवास उसमें हुआ करता था। रॉयल एयरफोर्स ने जब बमबारी की, तब नेताजी इस बंगले में भोजन कर रहे थे। पराभूत होने पर नेताजी अपने कुछ साथियों के साथ हमेशा के लिए यहां से चले गए। तब से वे भारतीय भूमि पर पुनः कभी दिखाई न दिएनेताजी सुभाषचंद्र बोस, स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए जान की बाजी लगाकर जूझे और देशहित में अपने जीवन की आहुति देने वाले भारतीयों के असामान्य नेता थे। यह विडम्बना ही है कि जो स्वतंत्रता प्राप्त के लिए लगातार जूझता रहा, उस सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा आज ‘स्वतंत्र’ भारत में सेना के पहरे से घिरी हुई है।

मणिपुर में तीस-पैंतीस आतंकवादी संगठन कार्यरत हैं। वे संगठन भारत से अलग होने के इरादे से हिंसाचार कर रहे हैं। इसीलिए हर भारतीय नागरिक को इन सभी स्फूर्तिस्थानों पर जाकर ज्ञात-अज्ञात हुतात्माओं के हौतात्म्य से प्राप्त की हुई स्वतंत्रता का, किसी भी गैरजरूरी, अनुचित अस्मिता की बलि बन कर भंग न हो, इस दृष्टि से एकात्मता मंत्र का जाप करना चाहिए, और उसे अपने आचरण में चरितार्थ भी करना चाहिए।

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