ऐसा देश है मेरा…

हमारी पहचान के बहुत स्तर होते हैं। जब आपको अपने बाकी सारे स्तर छोड़कर एक आम किस्म का आदमी बनाने का प्रयास होता है, तब वह एकांगी किस्म का प्रयास होता है। यह बात हमारा मन कभी भी स्वीकार नहीं करता। सारा खेल हमारी मूल पहचान का है।

मेरे एक मित्र हैं, उनके दादाजी की उम्र पचासी-नब्बे के आसपास होगी। मैं जब भी उनसे मिलता हूं तो वे मेरा वतन, मेरा देश लाहौर में छूट गए, ऐसा कह कर अपनी यादों को लाहौर में दौड़ाते रहते हैं। उनसे जब भी बातें करता हूं तब उनकी बातों में लाहौर की यादें और प्यार उमड़-उमड़ कर आता है। उनकी इन बातों को मैं जब एक भारतवासी के रूप में सुनता था तो मुझे उन पर मन ही मन में गुस्सा आता था। लाहौर की जमीन से उनका प्यार देखकर मुझे उनकी बातें अचंभित करती थीं। लेकिन इसी प्रकार की बातें मैंने मेरे बचपन में पड़ोस में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला से भी सुनी थी। उसका बचपन कराची में गुजरा था। विभाजन के समय उसे मुंबई आना पड़ा। जब भी वह बचपन की बातें करती थी, तो कराची में मराठी लोग किस प्रकार से और कितनी संख्या में थे, वहां पर उनकी पाठशाला, वहां पर होने वाले सांस्कृतिक समारोह आदि-आदि संदर्भ में बड़ी गहराई से बातें करती थी। कराची से बिछड़ने का दुख उसके मन में उसकी मृत्यु तक रहा।

इस विषय पर जब मैं सोचने लगता हूं तो मेरे मन में प्रश्न आता है, राष्ट्र या देश यह शब्द कहां से आए हैं? राष्ट्र और देश यह शब्द एक ही हैं या अलग-अलग हैं?

राष्ट्र पर विचार करने से पहले सोचते हैं कि राष्ट्र होता क्या है? वह कैसे बनता है? इसकी चर्चा में जाएंगे तो 19वीं सदी में युरोप में राष्ट्र या नेशन इस संकल्पना ने आकार लिया। औद्योगिक क्रांति के बाद सामंतशाही राजा का शासन था। उसके विरोध में राष्ट्र की संकल्पना का उदय हुआ। ‘देश‘ यह शब्द पता नहीं हमसे कबसे जुड़ा है। देश को लेकर हमारे मन में कई तरह की भावनाएं हैं। देशज भाषा में अपने देहात को ही देश कहते हैं। अपना घर, अपना देहात, अपना गांव यानी देश होता है। अपनी भाषा में जब हम देश की बात करते हैं तो हम वहां की बातें करते हैं जहां पर हमारी जड़ें जुड़ी हैं। राष्ट्र और देश यह अलग भाव है। राष्ट्र को आप बदल सकते हैं। आज आप अमेरिका की नागरिकता ले सकते हैं लेकिन उससे भारतीय होना खत्म नहीं हो जाता। भारतीय नागरिक के तौर पर व्यक्ति को स्वीकार करें या ना करें लेकिन उसकी आत्मा भारत से जुड़ी होती है। देश अपने भीतर हमेशा रहता है। भारत में जब छोटे-छोटे राज्यों में राजाओं के राज्य थे, तब भी वह उस प्रांत को देश ही मानते थे। देश हमारी चेतना से कहीं गहराई से जुड़ा है। देश हम छोड़ते हैं पर देश हमें नहीं छोड़ता।

देश अपने भीतर बनता कैसे हैं? तिरंगा देखकर मेरे भीतर एक ऊर्जा पैदा होती है। ‘जन-गण-मन‘ राष्ट्रगान को जब भी मैं सुनता हूं तो राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा पैदा होती है। जब भारत किसी मैच में जीतता है तो खुशी का एहसास होता है। इसका मतलब है देश मेरी रगों में, धमनियों  में मौजूद है। यह देश से जुड़े हुए तत्व हैं। देश और राष्ट्र एक-दूसरे में समाए हुए होते हैं। राष्ट्र यह बड़ी संकल्पना है। जब आप किसी संस्थान में रहते हो तब उसे भी देश ही मानते थे। देश हमारी चेतना में, धमनियों में समाया हुआ है। हम राष्ट्र के साथ ही हमारे देश से भी प्रेम करते हैं। दोनों अलग-अलग  इकाईयां नहीं है। भारत 5000 सालों से अधिक समय से सांस्कृतिक रूप में एक देश है किंतु राष्ट्र के रूप में 75 साल का है। भारत हमेशा ही सांस्कृतिक तौर पर जुड़ा रहा।

देश हमारे मन में बचपन से आकार लेता है, राष्ट्र आधुनिक अवधारणा है। गांव जाते वक्त हम कहते हैं कि हम अपने देश जा रहे हैं। राजस्थान में ‘पधारो म्हारो देश’ के बिना बात ही नहीं बनती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान के पंजाब से भारत में जो आए हैं उनका देश उधर वाले पंजाब में भी हो सकता है। बांग्लादेश से आए हुए बंगाली का देश बांग्लादेश में भी हो सकता है। यह बातें जड़ों से जुड़ी हुई है। यह सच्चाई है कि देश नहीं छूटता है। पाकिस्तान में रहने वाले अमृतसरी को अमृतसर याद आता है। भारत में रहने वाले लाहौर वाले की भावना पाकिस्तान के लाहौर से जुड़ी हुई हैं। अपना खोया हुआ वतन या देश वह मन में दोहराता है। अपने मन में बसे देश को वह मिटा नहीं सकता।

आप किसी मुंबई वाले से बात करो तो मुंबई वाले कहेंगे मुंबई वालों को आप जानते नहीं हो… मुंबई वालों से पंगा मत लो। पटना वाला कहेगा पटना वालों को आप जानते नहीं हो… दिल्ली वाला भी यही बात कहेगा। हम सब को अपनी जमीन, अपनी माटी, अपने शहर का गुरूर होता है। यह ख्याल आता कहां से है? यह पहचान का सवाल बहुत महत्वपूर्ण होता है। मतलब हमारी पहचान हमारा घर है, परिवार है, मेरी जमीन है। मेरी गली में मेरी पहचान है, फलाने का बेटा है। गली के आगे मेरी पहचान होती है, उस मोहल्ले का है। उसके बाद नगर की पहचान होती है। और अगर राज्य के बाहर आ जाते है तो मेरे राज्य से मुझे पहचाना जाता है। हमारी पहचान बदलती जाती है। मैं विदेश जाता हूं तो मैं कहता हूं कि मैं भारत का हूं। हमारी पहचान की कई परतें होती है लेकिन सबसे गहरी पहचान वो होती है अपनी गली से, अपने सबसे पुराने दोस्तों से, अपने मोहल्ले से, मोहल्ले से जुड़े हुए पुराने किस्सों से, उसके बाद अपने हिसाब से अपने राज्य से, अपने देश से होती है। फिर अपनी इस दुनिया से होती है। यूरोप जाकर हम एशियाई हो जाते हैं। दुनिया के बाहर चांद पर मानव ने पहला कदम रखा था तब वह पृथ्वीवासी हो गया था। हमारी पहचान के बहुत स्तर होते हैं। जब अपने बाकी सारे स्तर छोड़कर एक आम किस्म का आदमी बनाने का प्रयास होता है, तब वह एकांगी किस्म का प्रयास होता है। यह बात हमारा मन कभी भी स्वीकार नहीं करता। सारा खेल हमारी मूल पहचान का है।

बावजूद इसके अपने मन में बसे देश को हम मिटा नहीं सकते। चाहे वह हमारे मन में बसा हुआ देश हो या बचपन की वह गलियां.. या नुक्कड़-नाके हों। हर एक का अपना एक देश होता है जो रह-रहकर, उमड़-उमड़ कर, बार-बार याद आता रहता है।

Leave a Reply